
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
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रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे— “सब कुछ मन की लीला है। मन से ही मनुष्य बद्ध है और मन से ही मुक्त। मन पर जैसा रंग चढ़ाओगे, उसी रंग में वह रंग जाएगा। एक ही मन विभिन्न भावों से, विभिन्न व्यक्तियों से भिन्न-भिन्न तरह का प्यार करता है। एक स्त्री को एक भाव से तथा संतान को वह दूसरे भाव से स्नेह करता है। ईश्वरप्रेम में मन के भावों का स्वरूप सर्वथा बदल जाता है।”
महर्षि रमण के अनुसार— “सुख और दुःख मन के पहलू हैं। मनुष्य मन और शरीर को ही यथार्थ समझता है तथा अपने सत्यानंदस्वरूप आत्मा को भूल गया है, जिसके कारण ही विविध प्रकार के दुःखों की उत्पत्ति होती है। दुःखों से यदि निवृत्ति पानी है, तो मन की लीलाओं को जानने तथा उससे परे जाने का प्रयत्न करना चाहिए।”
मन का स्थूलरूप मानवी मस्तिष्क है, जो बाह्य जगत से इंद्रियों तथा असंख्य संवेदनशील नाड़ियों द्वारा जुड़ा रहता है। उनके माध्यम से सूचनाएँ एकत्रित करता है। टेलीविजन यंत्र की भाँति मस्तिष्करूपी इलेक्ट्रॉनिक यंत्र में घटनाओं— दृश्यों के चित्र चित्रित होते रहते हैं। मन की स्थूलपरत ही अभिव्यक्त होती है तथा सांसारिक कार्यों में उसकी सामर्थ्य का ही प्रयोग हो पाता है, जबकि अतिसामर्थ्यवान अतिमानस प्रसुप्त पड़ा रहता है। उसको जागृत करना ही परम पुरुषार्थ है। ऋतंभरा प्रज्ञासंपन्न राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, शंकराचार्य, रामकृष्ण, महर्षि रमण प्रभृति प्रतिभाएँ उस महान जागरण की ही परिणति हैं। उनकी ये विशेषताएँ कहीं बाहर आसमान से नहीं टपकी, वरन मन की सूक्ष्मपरतों के जागरण के फलस्वरूप प्रकट हुईं।
भौतिक संसार में मानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति किसी में शौर्य के रूप में प्रकट होती है, किसी में कला के रूप में, तो किसी में प्रतिभा के रूप में। किसी-किसी में वह शक्ति पशुता के रूप में भी अपना परिचय देती है; पर कुछ ऐसे भी महामानव होते हैं, जो उस शक्ति की अंतिम अवस्था को प्राप्तकर प्रकृति के बंधनों से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
रामकृष्ण परमहंस ने उसी महाशक्ति को काली अथवा महामाया के नाम से संबोधित किया है। शक्तिपूजा भी प्रकारांतर से उस महाशक्ति की अभ्यर्थना का ही रूप है। उनका कहना था कि, “किसी ने प्रकृति को— माया को भोग-विलास की वस्तु मान लिया, तो वह मृगमरीचिका की भाँति उसके पीछे भागता फिरेगा तथा असंतुष्टि तथा अतृप्ति की आग में जलता रहेगा। रावण तथा दुर्योधन जैसे प्रतापी राजाओं को भी उस आग में जलकर राख हो जाना पड़ा।”
उस शक्ति का संबंध जब राजसत्ता, वैभव एवं शौर्य से जुड़ जाता है, तो व्यक्ति नैपोलियन, हिटलर, सिकंदर, अर्जुन तथा कर्ण जैसे महाबली बन जाते हैं। वही शक्ति जब प्रज्ञा के रूप में अभिव्यक्त होती है, तो शंकराचार्य, विवेकानंद, कुमारिल, अरस्तू और कान्ट जैसे विद्वान प्रकट होते हैं। जिसने उस प्रकृति को विज्ञान के रूप में परब्रह्म की शक्ति मान लिया, तो वह न्यूटन और आइन्स्टीन हो गया और जिसने प्रस्तर की प्रतिमा को ही काली मान लिया, वह रामकृष्ण परमहंस हो गया। जिसने उस प्रकृति को आदर्श व्यवस्था मान लिया, वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम बन गया। जिसका उस प्रकृति से संयोग हो गया, वह योगीराज कृष्ण हो गया।
ज्ञान का स्रोत वस्तुतः मनुष्य का मन है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब कुछ अंदर ही है। आविष्कार का अर्थ— मनुष्य का अपनी अनंत शक्तिस्वरूपा आत्मा पर आच्छन्न आवरण हटा लेना। संसार भर में ज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ भी विद्यमान है, वह मन से ही निकला है।
महर्षि रमण के अनुसार— “सुख और दुःख मन के पहलू हैं। मनुष्य मन और शरीर को ही यथार्थ समझता है तथा अपने सत्यानंदस्वरूप आत्मा को भूल गया है, जिसके कारण ही विविध प्रकार के दुःखों की उत्पत्ति होती है। दुःखों से यदि निवृत्ति पानी है, तो मन की लीलाओं को जानने तथा उससे परे जाने का प्रयत्न करना चाहिए।”
मन का स्थूलरूप मानवी मस्तिष्क है, जो बाह्य जगत से इंद्रियों तथा असंख्य संवेदनशील नाड़ियों द्वारा जुड़ा रहता है। उनके माध्यम से सूचनाएँ एकत्रित करता है। टेलीविजन यंत्र की भाँति मस्तिष्करूपी इलेक्ट्रॉनिक यंत्र में घटनाओं— दृश्यों के चित्र चित्रित होते रहते हैं। मन की स्थूलपरत ही अभिव्यक्त होती है तथा सांसारिक कार्यों में उसकी सामर्थ्य का ही प्रयोग हो पाता है, जबकि अतिसामर्थ्यवान अतिमानस प्रसुप्त पड़ा रहता है। उसको जागृत करना ही परम पुरुषार्थ है। ऋतंभरा प्रज्ञासंपन्न राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, शंकराचार्य, रामकृष्ण, महर्षि रमण प्रभृति प्रतिभाएँ उस महान जागरण की ही परिणति हैं। उनकी ये विशेषताएँ कहीं बाहर आसमान से नहीं टपकी, वरन मन की सूक्ष्मपरतों के जागरण के फलस्वरूप प्रकट हुईं।
भौतिक संसार में मानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति किसी में शौर्य के रूप में प्रकट होती है, किसी में कला के रूप में, तो किसी में प्रतिभा के रूप में। किसी-किसी में वह शक्ति पशुता के रूप में भी अपना परिचय देती है; पर कुछ ऐसे भी महामानव होते हैं, जो उस शक्ति की अंतिम अवस्था को प्राप्तकर प्रकृति के बंधनों से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
रामकृष्ण परमहंस ने उसी महाशक्ति को काली अथवा महामाया के नाम से संबोधित किया है। शक्तिपूजा भी प्रकारांतर से उस महाशक्ति की अभ्यर्थना का ही रूप है। उनका कहना था कि, “किसी ने प्रकृति को— माया को भोग-विलास की वस्तु मान लिया, तो वह मृगमरीचिका की भाँति उसके पीछे भागता फिरेगा तथा असंतुष्टि तथा अतृप्ति की आग में जलता रहेगा। रावण तथा दुर्योधन जैसे प्रतापी राजाओं को भी उस आग में जलकर राख हो जाना पड़ा।”
उस शक्ति का संबंध जब राजसत्ता, वैभव एवं शौर्य से जुड़ जाता है, तो व्यक्ति नैपोलियन, हिटलर, सिकंदर, अर्जुन तथा कर्ण जैसे महाबली बन जाते हैं। वही शक्ति जब प्रज्ञा के रूप में अभिव्यक्त होती है, तो शंकराचार्य, विवेकानंद, कुमारिल, अरस्तू और कान्ट जैसे विद्वान प्रकट होते हैं। जिसने उस प्रकृति को विज्ञान के रूप में परब्रह्म की शक्ति मान लिया, तो वह न्यूटन और आइन्स्टीन हो गया और जिसने प्रस्तर की प्रतिमा को ही काली मान लिया, वह रामकृष्ण परमहंस हो गया। जिसने उस प्रकृति को आदर्श व्यवस्था मान लिया, वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम बन गया। जिसका उस प्रकृति से संयोग हो गया, वह योगीराज कृष्ण हो गया।
ज्ञान का स्रोत वस्तुतः मनुष्य का मन है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब कुछ अंदर ही है। आविष्कार का अर्थ— मनुष्य का अपनी अनंत शक्तिस्वरूपा आत्मा पर आच्छन्न आवरण हटा लेना। संसार भर में ज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ भी विद्यमान है, वह मन से ही निकला है।