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Magazine - Year 1984 - Version 2

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समस्याओं का समाधान दृष्टिकोण के परिष्कार पर निर्भर

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कोई आदमी अच्छा है या बुरा? यह उसकी आदतों का स्तर देखकर पता चलता है। ये आदतें कहीं बाहर से आकर नहीं चिपटतीं। मनुष्य की विचारणा और क्रिया ही दीर्घकालीन अभ्यास से स्वभाव का अंग बन जाती है।

विख्यात मनोविज्ञानवेत्ता ‘विलियम जेम्स’ ने आदतों का विश्लेषण करते हुए एक स्थल पर लिखा है कि, “किसी प्रक्रिया की बार-बार आवृत्ति से हमारे मस्तिष्क में एक मनोवैज्ञानिक खाँचा बन जाता है। उस कार्य अथवा विचार की आवृत्ति उस खाँचे को और गहरी करती रहती है। यह खाँचा जितना गहरा होता जाता है, मन को उससे विरत करना उतना ही कठिन लगने लगता है।

आदतों की उत्कृष्टता-निकृष्टता ही जीवन में उत्थान-पतन की परिस्थितियाँ रचा करती हैं। अच्छी आदतें अंतरंग सहयोग की तरह हर जगह अनुकूलता प्रदान करती हैं। इसके विपरीत बुरी आदतें हमेशा अपने पालक के अनगढ़पन की चुगली करती फिरती हैं। बने-बनाए कामों तथा मधुर संबंधों में खटाई डाल देना इस दुष्प्रवृत्ति का प्रिय व्यसन है।

कुछ बुरी आदतें स्वभाव में जड़ जमाकर इतनी पक्की हो जाती हैं कि उनके दुष्परिणाम भुगतने वाला भी उससे अनभिज्ञ बना रहता है। उदाहरण के लिए, जो दाँतों से नाखून काटता रहता है, चाहे किसी रूप में, आमतौर पर ‘नर्वस’ समझा जाता है। जो सदा देर से कहीं पहुँचता हो, वह लोगों की नजर में स्वार्थी और दूसरों का ख्याल न करने वाला होता है। टालमटोल करने वाला व्यक्ति अविश्वस्त माना जाता है, उसे कोई दायित्व वाला काम नहीं सौंपा जाता। यदि प्रयास किया जाए, तो इन प्रवृत्तियों से मुक्ति भी पाई जा सकती है। अपने चिंतन एवं व्यवहार में दैनंदिन स्वयमेव समीक्षा करते रहने से यह दुष्कर लगने वाला कार्य भी संभव हो सकता है।

मनुष्य उज्ज्वल भविष्य की मनोरम कल्पनाएँ किया करता है। सुखमय जीवन का स्वप्न देखता है। उन्नति की योजनाएँ बनाता है। सफलता के सूत्र ढूँढता है। लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होने के लिए हर तरह की कोशिशें करता है; पर जब वह पीछे मुड़कर उपलब्धियों का मूल्यांकन करना चाहता है, तो पता चलता है कि उसकी मनचाही योजनाएँ या तो मन में धरी रही गईं अथवा उनका क्रियान्वयन आधा-अधूरा हो पाया। इससे इसे अपने पुरुषार्थ पर खीज भी आती है व आक्रोश भी। कारण ढूँढ पाने में वह सफल नहीं हो पाता।

असफलताजन्य खीज की प्रतिक्रियाएँ प्रायः दो अतिवादी स्वरूपों में अभिव्यक्त होती हैं। एक व्यक्ति अपने को नितांत अयोग्य मानकर घोर निराशा में निमग्न हो जाता है एवं सारा दोष भाग्य, भगवान अथवा परिस्थितियों के मत्थे मढ़कर निश्चिंत हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्तियों के जीवन में सफलता की संभावनाएँ क्रमशः धूमिल होती जाती हैं।

दूसरा वर्ग सफल व्यक्तियों का है। असफलता के कारणों की छान-बीन करते समय इनका दृष्टिकोण संतुलित रहता है। अपनी गतिविधियों का पर्यवेक्षण निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह करने पर पता चलता है कि स्वयं के भीतर पल रही अवांछनीय और अनुपयुक्त विचार ही असफलताओं का मूल कारण है।

आदतें क्रियात्मक नहीं, मूलतः विचारात्मक होती हैं। अतः सुधार की प्रक्रिया बहिरंग के साथ अंतरंग में भी चलनी चाहिए। चिंतन और व्यवहार का अन्योन्याश्रय संबंध है, इसलिए सुधार-परिवर्तन के लिए दोनों मोर्चों पर समान रूप से तैनाती की आवश्यकता रहती है। इस उभयपक्षीय प्रयोजन की पूर्ति का सरल उपाय यह है कि विचारों को विचारों से ही काटा जाए। लब्धप्रतिष्ठ मनोचिकित्सक ‘सर नार्मन विंसेंट पील’ के प्रयोग इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं—

अपने एक मरीज का हवाला देते हुए सर पील ने लिखा है कि, “उस व्यक्ति का बचपन भयंकर गरीबी में बीता था। किसी सहायक की छत्रच्छाया नहीं थी। उन दिनों हुए कटु अनुभवों के कारण वह अधिक-से-अधिक पैसा कमाने और मालदार बनने की ओर प्रेरित हुआ। समय बीता और उसकी गणना धनकुबेरों की श्रेणी में होने लगी; परंतु इसी अवधि में एक ऐसी लत लग गई, जो लाख कोशिश करने पर भी उसका पिंड नहीं छोड़ रही थी। होता यह था कि बातचीत के सिलसिले में दो-चार ऐसी कटु बातें उसके मुँह से बरबस निकल पड़ती थीं, जिन्हें सुनकर सामने वाला व्यक्ति भीतर-ही-भीतर तिलमिलाकर रह जाता। बाद में उसे अपने इस कृत्य पर काफी पछतावा होता। यह लाचारी उसके लिए कई बार अच्छी-खासी परेशानी खड़ी कर देती थी। वह जानता था कि यह आदत उस समय की दुःखद स्मृतियों का परिणाम है, जब निर्धनता के कारण उसे दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी थी। यह पता होने के बावजूद उसका बस नहीं चलता था कि इस आदत से कैसे छुटकारा पाए।

नार्मम पील ने सारा इतिहास गौर से सुनने के बाद पूछा— “यदि मैं कुछ परामर्श दूँ, तो अमल में लाना पसंद करेंगे।” उसका स्वीकारात्मक उत्तर पाकर श्री पील ने सलाह दी कि वह तीन महीने तक अपनी आय का एक निश्चित अंश जरूरतमंदों की सहायता पर खरच किया करे। रोग का निदान बताने के बाद की प्रतिक्रियाओं का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है— “यह सुनते ही उसकी कृपणवृत्ति सजग हो उठी और वह पूछ बैठा कि, “निश्चित अंश की क्या सीमा है।” मैंने कहा— “दस प्रतिशत।” उसने दुबारा प्रश्न किया— “टैक्स देने के बाद या पहले?” मैं जानता था कि पैसे के प्रति इसका लगाव कंजूसी की हद तक है। ऐसी हालत में उसके लिए न्यूनतम निर्धारण से प्रारंभ करना उचित है। यह तथ्य है कि एक बार दान देने की प्रवृत्ति जहाँ उसमें जगी, वह रुकेगा नहीं, क्योंकि दान की प्रवृत्ति के साथ आय बढ़ाने की प्रवृत्ति भी जुड़ी है। यह सब विचार करके मैंने उसकी समूची आय का दस प्रतिशत निकालते रहने के लिए कहा। इतनी छोटी रकम खरच करना उसके लिए हँसी-खेल जैसा काम था। अपनी समस्या का ऐसा सरल समाधान सुनकर उसकी बाँछें खिल उठीं और सहर्ष यह नियम अपनाने का संकल्प उसने ले लिया। वह छोटी-सी शुरुआत उसके जीवन का अविच्छिन्न अंग बन गई। उसने दान देना शुरू किया, उसके फलस्वरूप दूसरों का दिल दुखाने वाली बातें कहते रहने की उसकी आदत बहुत कुछ जाती रही।”

प्रयत्न-पुरुषार्थ की आवश्यकता ऊर्ध्वमुखी प्रयासों के लिए होती है। ढलान की दिशा में सहज प्रवाह होने की बात सबको विदित है। यही कारण है कि जिन कुटेवों को नगण्य समझकर नजर अंदाज किया जाता है, दीर्घकाल तक अभ्यास में सम्मिलित रहने पर वे स्वभाव में मजबूती से जड़ें जमा लेती हैं। ऐसी स्थिति में उनको संघर्ष करके हटा पाना संभव नहीं। लड़ाई का दृष्टिकोण निषेधात्मक है। लड़ना ही हो, तो बुरे विचारों से लड़ना चाहिए। विकृत दृष्टिकोण से उत्पन्न होने वाला अंतर्द्वंद्व और भी जटिल समस्याएँ खड़ी करता है। सत्प्रवृत्तियों और सद्विचारों को दैनंदिन अभ्यास में शामिल करना, इसके लिए अचूक उपाय सिद्ध हुआ है। जैसे-जैसे अच्छी आदतों की मात्रा बढ़ेगी, बेतुकी आदतों की तरफ रुझान स्वयमेव कम होने लगेगा। आदतों पर विजय पाने का यह तरीका सर्वोत्तम है।

सफलता संसार में सबकी इष्ट है; परंतु दुनिया जिनको असाधारण कर्तृत्व के लिए याद करती है, वे इस तरह का कोई अलौकिक वरदान लेकर अवतरित नहीं हुए होते हैं। ‘हेनरी एडवर्ड्स’ ने अपनी किताब में ऐसे कुंठाहीन लोगों की सफलता का रहस्य बताते हुए कहा है— “ये सच्चे हृदय से अपनी हानियाँ तलाश करते हैं। अपनी कमियों— कमजोरियों को ईमानदारी से स्वीकार कर लेना बहादुरों का काम है। जिस तरह चतुर किसान अपनी फसल की निराई करता है तथा खरपतवारों को निर्ममतापूर्वक उखाड़ फेंकता है, उसी तरह ये अपने व्यक्तित्व में सद्गुणों की खेती करते हैं। असफलता से निराश नहीं होते। धैर्यपूर्वक प्रयत्नशील रहते हैं। रहस्य की बात तो यह है कि उनका परिष्कृत गुण-कर्म-स्वभाव सिफारिशी चिट्ठी की तरह हर जगह उनके लिए कामयाबी की पृष्ठभूमि तैयार कर देता है।”

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