
योग विज्ञान एवं तंत्रशास्त्र एक ही वृक्ष की दो शाखाएँ
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यदि किसी जिज्ञासु को हृदय, रक्तवाही संस्थान की क्रियापद्धति एवं उससे संबंधित रोगों के कारण संबंधी जानकारी प्राप्त करनी है— इस विद्या में निष्णात होना है, तो उसे यह विकल्प नहीं सौंपा जा सकता कि वह मात्र उस संस्थान संबंधी एनाटॉमी पढ़कर- क्रिया-प्रणाली के सिद्धांत समझकर उसका विशेषज्ञ बनने का प्रयास करें। शरीर का हर अंग-अवयव एकदूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। हरेक की कार्यपद्धति का परस्पर एकदूसरे से तालमेल है, तभी तो शरीर-व्यापार चल पाता है। किसी भी विधा की शाखा में रुचि रखने वाले को उस समूचे विज्ञान के हर पहलू को भली-भाँति समझना होगा। तंत्रशास्त्र पर भी यही बात लागू होती है। भ्रांतिवश सामान्यजन इसे आत्मिकी से इतर एक अलग विधा मान लेते हैं और जानकारी प्राप्ति के लिए तरह-तरह के उपाय अपनाते हैं। इस भटकाव भरी यात्रा में पल्ले कुछ पड़ता नहीं, उलटे अपना अहित और कर बैठते हैं।
तत्त्वज्ञानी ब्रह्मवेत्ताओं का अभिमत है कि सारी सृष्टि जड़ व चेतन का युग्म है। दोनों के सम्मिश्रण से ही इसकी संरचना हुई है। पदार्थ विज्ञान जड़ वस्तुओं की रचना, आकृति-प्रकृति एवं प्रयोग के विधि-विधानों से संबंधित एक विधा है। चेतन जगत अपने आप में पूरा एक अलग ही संसार है, जिसमें गति है, जिसकी अपनी सत्ता है एवं जिसमें असीम संभावनाएँ निहित हैं। इसे हम अध्यात्म विज्ञान नाम से जानते हैं। ये दोनों ही शाखाएँ अपनी भूमिका अलग-अलग रूपों में निभाती रहती हैं; पर हैं परस्पर गुँथी हुईं।
पदार्थ विज्ञान के प्रयोग-अनुसंधान ही अनेकों रूपों में आज प्रयोगशालाओं में क्रियाशील नजर आते हैं। एप्लाइड फिजिक्स, केमिस्ट्री, न्यूक्लियर साइंस जैसी अनेकानेक शाखाओं में बँटी भौतिकी यंत्र-उपकरणों की मदद से इस सदी के प्रारंभ से अब तक मानव समुदाय को अनेकों उपलब्धियों से लाभान्वित कर चुकी। इसके लिए उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। अध्यात्म विज्ञान के प्रयोग-अनुसंधान एक ही यंत्र के माध्यम से संपन्न होते हैं। यह यंत्र है— जड़-चेतन के सम्मिश्रण से बनी मानवी काया। स्थूलशरीर जो दिखाई पड़ता है, वही सब कुछ नहीं है। गहराई से देखने पर इस काया की दो अदृश्य परतें और दृष्टिगोचर होती हैं, जिन्हें ‘सूक्ष्मशरीर’ एवं ‘कारणशरीर’ नाम से पुकारा जाता है। दृश्यमान काया का तो मात्र उदरपूर्ति, मल विसर्जन, प्रजनन आकांक्षा एवं दैनिक जीवन-व्यापार भर से नाता रहता है; लेकिन अन्य दो परतों का संबंध उस अदृश्य लोक से है, जिससे स्थापित कर चेतनसत्ता समष्टि का एक अंग बन जाती है एवं वे कार्य संपादित करने लगती है, जिन्हें अद्भुत-अलौकिक माना जाता है, जबकि होते वे भी सुगम एवं प्रकृति अनुशासन की मर्यादा में ही हैं।
यह अदृश्य जगत कैसा है? कहाँ है? इसकी खोज-बीन भौतिकी के चश्मे से नहीं की जा सकती। इसके लिए योग एवं तंत्र विज्ञान की धाराओं को— उनके रहस्यों को मनीषी स्तर के चिंतन के माध्यम से समझना होगा। मानवी काया, जिसे इस अदृश्यलोक का यंत्र-उपकरण बताया गया है, का सूक्ष्म कलेवर इस दृष्टि से दो भागों में विभक्त माना जा सकता है। एक मस्तिष्क के ऊर्ध्व भाग में स्थित ब्रह्मरंध्र, सहस्राररूपी विद्युत-स्फुल्लिंगों के निर्झर एवं आज्ञाचक्र का समुच्चय। दूसरा निचले छोर पर स्थित प्राणाग्नि का सघन पुंज, जिसे मूलाधार, कुंडलिनी एवं प्राण-संस्थान कहा गया है।
काया के निचले छोर पर स्थित मूलाधार केंद्र की आलंकारिक दृष्टि से तुलना अधःलोक— पाताल लोक से की गई है। पृथ्वी को शेषनाग पर विराजमान माना गया है। वह कल्पना आत्मिकी की भाषा में काया पर मूलाधार या कुंडलिनी के रूप में अवस्थित सर्पिणी के माध्यम से समझाई जाती है। यह काय-कलेवर में प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाला केंद्र है। जड़-प्रकृति के सारे क्रियाकलाप गति एवं शक्ति पर आधारित हैं। काया का दक्षिणी ध्रुव इन्हीं दोनों प्रयोजनों को पूरा करता है।
इन दोनों केंद्रों— चेतनसत्ता एवं जड़ प्रकृति को परस्पर मिलाने— दोनों के मध्य आदान-प्रदान का प्रयोजन जिस उपकरण से पूरा होता है, उसे मेरुदंडरूपी देवयान मार्ग के रूप में समझा जा सकता है। अधोलोक के माध्यम से निर्वाह प्रयोजन— उदरपूर्ण एवं प्रजनन जैसी गतिविधियाँ सधती हैं। काया की निरोगता, दीर्घायुष्य, जीवनीशक्ति इसी पर निर्भर है। अध्यात्मविज्ञानियों ने इन स्थूल पक्षों को जनसमुदाय के लिए स्पष्टकर चेतना विज्ञान के उन अदृश्य-क्षेत्रों पर और अधिक प्रकाश डालने का प्रयास किया है, जो इन केंद्रों व इन्हें जोड़ने वाली सुषुम्ना नाड़ी-प्रवाह से संबंधित है।
अनंत सामर्थ्यसंपन्न विश्व-ब्रह्मांड की दैवी चेतना से संपर्क जोड़ने के लिए जहाँ ब्रह्मरंध्र एवं सहस्रार का योग विज्ञान के माध्यम से प्रयोग होता है, वहाँ प्रकृति-वैभवरूपी दैत्य शक्तियों के प्रचंड प्रवाह से लाभ उठाने के लिए तंत्र विज्ञान का आश्रय लेना होता है। ऊर्ध्वलोक का नेतृत्व जहाँ परब्रह्म— सदाशिव करते हैं, वहाँ अधोलोक की अधिष्ठात्री हैं— महाकाली कुंडलिनी। मध्यव्यापी देवयान मार्ग दोनों के बीच सघन संपर्क बनाए रखने की महती भूमिका निभाता है।
स्वर्गलोक— ऊर्ध्वलोक— मस्तिष्क में अवस्थित सहस्रार को जगाने हेतु योग-साधना के विभिन्न उपक्रम हैं, जब कि पाताललोक— अधोलोक— मूलाधार में अवस्थित कुंडलिनी में स्पंदन पैदा करने के लिए तंत्र-साधना के अनेकों उपक्रम शास्त्रों में वर्णित हैं। ये दोनों मिलकर आत्मिकी की विधा को पूर्ण बनाते हैं। एक शिव है एवं दूसरी शक्ति। दोनों मिलकर संपूर्ण बनते हैं।
योगी ब्रह्मपारायण होते हैं; दिव्यलोक में विचरण करते हैं; भाव-साधना के माध्यम से दैवी संपर्क स्थापित करते हैं, जबकि तांत्रिक शक्ति के उपासक होते हैं। वे प्रकृति में विद्यमान अपरिमित शक्ति-स्रोतों से अपना संपर्क स्थापितकर कुंडलिनी केंद्र को जगाने व प्रकृति से आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार शरीर की ये दोनों ही सूक्ष्मपरतें अदृश्य रूप में ब्रह्म एवं प्रकृति से घनिष्ठता स्थापित कर वांछित अनुदान अपने लिए प्राप्त करते, अंतः को बलिष्ठ बनाकर अन्यान्यों को लाभान्वित करते देखे जा सकते हैं। योग एवं तंत्र के समूचे विज्ञान को इस रूप में भली-भाँति समझकर ही साधना उपक्रमों को आरंभ किया जाना चाहिए।
तंत्रविज्ञानी प्रकृति के परिकर में छिपी अनेकों ज्ञात-अविज्ञात शक्तियों का अपने लिए उपभोग कर सकते हैं। माध्यम उपकरण काय-कलेवररूपी यंत्र ही है। ईश्वर द्वारा अनुदान रूप में मिली काया की इस प्रयोगशाला का लाभ बिना किसी लागत के उठाया जा सकता है, बशर्ते कि तप-तितीक्षा के अध्यात्म अनुशासनों को पूरी तरह निभाया गया हो एवं बदले में प्राप्त ऋद्धि-सिद्धिरूपी अनुदानों के दुरुपयोग न होने देने का समुचित आश्वासन उस दैवी सत्ता को दे दिया गया हो। आत्मशोधन की संयम-साधना के बिना, कषाय-कल्मषों को हटाए बिना ये चमत्कारी विभूतियाँ हस्तगत होती नहीं। ये कुछ प्रारंभिक शर्तें हैं। जिन्हें पूरी किए बिना न योग-साधना सध पाती है, न तंत्र-साधना ही संभव हो पाती है। योगी अपने प्रचंड आत्मबल के सहारे इस दीवाल को गिराकर देव अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी बन पाते हैं। इसी प्रकार तांत्रिक भी अपनी कठोर तितीक्षा द्वारा उस श्रेय को प्राप्त करते हैं, जो उन्हें अभीष्ट होता है।
दोनों ही क्षेत्रों की अपनी-अपनी मर्यादा है, लेकिन दोनों परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े भी हैं। योगी, शिव का— आदर्शवाद की समर्थक शक्तियों का उपासक होता है एवं तांत्रिक शक्ति का— भौतिक क्षेत्र की सामर्थ्यों का आराधक, जिनके माध्यम से प्रकृति-संपदा के वैभव का लाभ वह सारे परिकर को दे सकने में समर्थ बनता है। दोनों ही समान महत्त्व के, लेकिन तभी, जब दोनों का मानव-कल्याण हेतु उपयोग हो।
तत्त्वज्ञानी ब्रह्मवेत्ताओं का अभिमत है कि सारी सृष्टि जड़ व चेतन का युग्म है। दोनों के सम्मिश्रण से ही इसकी संरचना हुई है। पदार्थ विज्ञान जड़ वस्तुओं की रचना, आकृति-प्रकृति एवं प्रयोग के विधि-विधानों से संबंधित एक विधा है। चेतन जगत अपने आप में पूरा एक अलग ही संसार है, जिसमें गति है, जिसकी अपनी सत्ता है एवं जिसमें असीम संभावनाएँ निहित हैं। इसे हम अध्यात्म विज्ञान नाम से जानते हैं। ये दोनों ही शाखाएँ अपनी भूमिका अलग-अलग रूपों में निभाती रहती हैं; पर हैं परस्पर गुँथी हुईं।
पदार्थ विज्ञान के प्रयोग-अनुसंधान ही अनेकों रूपों में आज प्रयोगशालाओं में क्रियाशील नजर आते हैं। एप्लाइड फिजिक्स, केमिस्ट्री, न्यूक्लियर साइंस जैसी अनेकानेक शाखाओं में बँटी भौतिकी यंत्र-उपकरणों की मदद से इस सदी के प्रारंभ से अब तक मानव समुदाय को अनेकों उपलब्धियों से लाभान्वित कर चुकी। इसके लिए उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। अध्यात्म विज्ञान के प्रयोग-अनुसंधान एक ही यंत्र के माध्यम से संपन्न होते हैं। यह यंत्र है— जड़-चेतन के सम्मिश्रण से बनी मानवी काया। स्थूलशरीर जो दिखाई पड़ता है, वही सब कुछ नहीं है। गहराई से देखने पर इस काया की दो अदृश्य परतें और दृष्टिगोचर होती हैं, जिन्हें ‘सूक्ष्मशरीर’ एवं ‘कारणशरीर’ नाम से पुकारा जाता है। दृश्यमान काया का तो मात्र उदरपूर्ति, मल विसर्जन, प्रजनन आकांक्षा एवं दैनिक जीवन-व्यापार भर से नाता रहता है; लेकिन अन्य दो परतों का संबंध उस अदृश्य लोक से है, जिससे स्थापित कर चेतनसत्ता समष्टि का एक अंग बन जाती है एवं वे कार्य संपादित करने लगती है, जिन्हें अद्भुत-अलौकिक माना जाता है, जबकि होते वे भी सुगम एवं प्रकृति अनुशासन की मर्यादा में ही हैं।
यह अदृश्य जगत कैसा है? कहाँ है? इसकी खोज-बीन भौतिकी के चश्मे से नहीं की जा सकती। इसके लिए योग एवं तंत्र विज्ञान की धाराओं को— उनके रहस्यों को मनीषी स्तर के चिंतन के माध्यम से समझना होगा। मानवी काया, जिसे इस अदृश्यलोक का यंत्र-उपकरण बताया गया है, का सूक्ष्म कलेवर इस दृष्टि से दो भागों में विभक्त माना जा सकता है। एक मस्तिष्क के ऊर्ध्व भाग में स्थित ब्रह्मरंध्र, सहस्राररूपी विद्युत-स्फुल्लिंगों के निर्झर एवं आज्ञाचक्र का समुच्चय। दूसरा निचले छोर पर स्थित प्राणाग्नि का सघन पुंज, जिसे मूलाधार, कुंडलिनी एवं प्राण-संस्थान कहा गया है।
काया के निचले छोर पर स्थित मूलाधार केंद्र की आलंकारिक दृष्टि से तुलना अधःलोक— पाताल लोक से की गई है। पृथ्वी को शेषनाग पर विराजमान माना गया है। वह कल्पना आत्मिकी की भाषा में काया पर मूलाधार या कुंडलिनी के रूप में अवस्थित सर्पिणी के माध्यम से समझाई जाती है। यह काय-कलेवर में प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाला केंद्र है। जड़-प्रकृति के सारे क्रियाकलाप गति एवं शक्ति पर आधारित हैं। काया का दक्षिणी ध्रुव इन्हीं दोनों प्रयोजनों को पूरा करता है।
इन दोनों केंद्रों— चेतनसत्ता एवं जड़ प्रकृति को परस्पर मिलाने— दोनों के मध्य आदान-प्रदान का प्रयोजन जिस उपकरण से पूरा होता है, उसे मेरुदंडरूपी देवयान मार्ग के रूप में समझा जा सकता है। अधोलोक के माध्यम से निर्वाह प्रयोजन— उदरपूर्ण एवं प्रजनन जैसी गतिविधियाँ सधती हैं। काया की निरोगता, दीर्घायुष्य, जीवनीशक्ति इसी पर निर्भर है। अध्यात्मविज्ञानियों ने इन स्थूल पक्षों को जनसमुदाय के लिए स्पष्टकर चेतना विज्ञान के उन अदृश्य-क्षेत्रों पर और अधिक प्रकाश डालने का प्रयास किया है, जो इन केंद्रों व इन्हें जोड़ने वाली सुषुम्ना नाड़ी-प्रवाह से संबंधित है।
अनंत सामर्थ्यसंपन्न विश्व-ब्रह्मांड की दैवी चेतना से संपर्क जोड़ने के लिए जहाँ ब्रह्मरंध्र एवं सहस्रार का योग विज्ञान के माध्यम से प्रयोग होता है, वहाँ प्रकृति-वैभवरूपी दैत्य शक्तियों के प्रचंड प्रवाह से लाभ उठाने के लिए तंत्र विज्ञान का आश्रय लेना होता है। ऊर्ध्वलोक का नेतृत्व जहाँ परब्रह्म— सदाशिव करते हैं, वहाँ अधोलोक की अधिष्ठात्री हैं— महाकाली कुंडलिनी। मध्यव्यापी देवयान मार्ग दोनों के बीच सघन संपर्क बनाए रखने की महती भूमिका निभाता है।
स्वर्गलोक— ऊर्ध्वलोक— मस्तिष्क में अवस्थित सहस्रार को जगाने हेतु योग-साधना के विभिन्न उपक्रम हैं, जब कि पाताललोक— अधोलोक— मूलाधार में अवस्थित कुंडलिनी में स्पंदन पैदा करने के लिए तंत्र-साधना के अनेकों उपक्रम शास्त्रों में वर्णित हैं। ये दोनों मिलकर आत्मिकी की विधा को पूर्ण बनाते हैं। एक शिव है एवं दूसरी शक्ति। दोनों मिलकर संपूर्ण बनते हैं।
योगी ब्रह्मपारायण होते हैं; दिव्यलोक में विचरण करते हैं; भाव-साधना के माध्यम से दैवी संपर्क स्थापित करते हैं, जबकि तांत्रिक शक्ति के उपासक होते हैं। वे प्रकृति में विद्यमान अपरिमित शक्ति-स्रोतों से अपना संपर्क स्थापितकर कुंडलिनी केंद्र को जगाने व प्रकृति से आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार शरीर की ये दोनों ही सूक्ष्मपरतें अदृश्य रूप में ब्रह्म एवं प्रकृति से घनिष्ठता स्थापित कर वांछित अनुदान अपने लिए प्राप्त करते, अंतः को बलिष्ठ बनाकर अन्यान्यों को लाभान्वित करते देखे जा सकते हैं। योग एवं तंत्र के समूचे विज्ञान को इस रूप में भली-भाँति समझकर ही साधना उपक्रमों को आरंभ किया जाना चाहिए।
तंत्रविज्ञानी प्रकृति के परिकर में छिपी अनेकों ज्ञात-अविज्ञात शक्तियों का अपने लिए उपभोग कर सकते हैं। माध्यम उपकरण काय-कलेवररूपी यंत्र ही है। ईश्वर द्वारा अनुदान रूप में मिली काया की इस प्रयोगशाला का लाभ बिना किसी लागत के उठाया जा सकता है, बशर्ते कि तप-तितीक्षा के अध्यात्म अनुशासनों को पूरी तरह निभाया गया हो एवं बदले में प्राप्त ऋद्धि-सिद्धिरूपी अनुदानों के दुरुपयोग न होने देने का समुचित आश्वासन उस दैवी सत्ता को दे दिया गया हो। आत्मशोधन की संयम-साधना के बिना, कषाय-कल्मषों को हटाए बिना ये चमत्कारी विभूतियाँ हस्तगत होती नहीं। ये कुछ प्रारंभिक शर्तें हैं। जिन्हें पूरी किए बिना न योग-साधना सध पाती है, न तंत्र-साधना ही संभव हो पाती है। योगी अपने प्रचंड आत्मबल के सहारे इस दीवाल को गिराकर देव अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी बन पाते हैं। इसी प्रकार तांत्रिक भी अपनी कठोर तितीक्षा द्वारा उस श्रेय को प्राप्त करते हैं, जो उन्हें अभीष्ट होता है।
दोनों ही क्षेत्रों की अपनी-अपनी मर्यादा है, लेकिन दोनों परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े भी हैं। योगी, शिव का— आदर्शवाद की समर्थक शक्तियों का उपासक होता है एवं तांत्रिक शक्ति का— भौतिक क्षेत्र की सामर्थ्यों का आराधक, जिनके माध्यम से प्रकृति-संपदा के वैभव का लाभ वह सारे परिकर को दे सकने में समर्थ बनता है। दोनों ही समान महत्त्व के, लेकिन तभी, जब दोनों का मानव-कल्याण हेतु उपयोग हो।