
आत्मिकी की एक सर्वांगपूर्ण शाखा — ज्योतिर्विज्ञान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सृष्टि का गतिचक्र एक सुनियोजित विधि-व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ब्रह्मांड अवस्थित विभिन्न निहारिकाएँ, ग्रह, नक्षत्र आदि परस्पर सहकार-संतुलन के सहारे निरंतर परिभ्रमण-विचरण करते रहते हैं। जिस ब्रह्मांड में मनुष्य रहता है, उसकी अपनी परिधि एक लाख प्रकाश वर्ष है और ऐसे-ऐसे हजारों अविज्ञात ब्रह्मांड विद्यमान हैं।
आधुनिकतम अंतरिक्ष यानों की अधिकतम गति (17 हजार मील प्रति घंटे की चाल) से भी यदि ब्रह्मांड को पार करने का सोचा जाए, तो भी मनुष्य को इस पुरुषार्थ में करोड़ों वर्ष लग जाएँगे। ऐसी स्थिति में अन्यान्य ग्रहों की स्थिति उनके परस्पर एकदूसरे पर प्रभाव तथा सुदूर स्थित ग्रहों के पर्यावरण एवं जीव-जगत पर प्रभावों की कल्पना वैज्ञानिक दृष्टि से तो कठिन ही नहीं, असंभव जान पड़ती है। यही वह बिंदु है, जहाँ एस्ट्रानॉमी (खगोल भौतिकी) एवं एस्ट्रालॉजी (खगोल शास्त्र) का परस्पर टकराव— मतभेद होता देखा जाता है। विज्ञानसम्मत प्रतिपादन फलित ज्योतिष की संभावनाओं को काटते नजर आते हैं, तो ज्योतिष विज्ञान के ज्ञाता भौतिकी के नियमों को अपनी परिधि में न मानकर ग्रह-गणित आदि के आधार पर फलादेश की घोषणा करते दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें कौन सही है? कौन गलत? क्या कोई समन्वयात्मक स्वरूप बन सकना संभव है, जिसमें ग्रह-नक्षत्रों की जानकारी से, उनके प्रभावों से बचना, लाभान्वित हो सकना, अपने क्रिया-कलापों को तदनुसार बदलते रह सकना शक्य हो सके? इसका उत्तर पाने के लिए हमें खगोल भौतिकी की कुछ प्रारंभिक जानकारी प्राप्त करनी होगी।
अपना भूलोक सौरमंडल के बृहत परिवार का एक सदस्य है। सारे परिजन एक सूत्र में आबद्ध हैं। वे अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते तथा सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य स्वयं अपने परिवार के ग्रह-उपग्रहों के साथ महासूर्य की परिक्रमा करता है। यह क्रम आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मांड के नाभिक— महाध्रुव तक जा पहुँचता है। इतना सब कुछ जटिल क्रम होते हुए भी सारे ग्रह-नक्षत्र एकदूसरे के साथ न केवल बँधे हुए हैं, वरन परस्पर अतिमहत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान भी करते हैं। इन सबके संयुक्त प्रयास का ही परिणाम है कि ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति अक्षुण्ण बनी रहती है। यदि ऐसा न होता, तो कहीं भी अव्यवस्था फैल सकने के अवसर उत्पन्न हो जाते। ग्रहों का पारस्परिक सहयोग एवं आदान-प्रदान इतना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि इसे ब्रह्मांडीय प्राणसंचार कहा जा सकता है।
इतनी पृष्ठभूमि को समझने के बाद उस विधा की चर्चा की जा सकती है, जिसे ज्योतिर्विज्ञान कहा गया है। विज्ञान के क्षेत्र में इसे उच्चस्तरीय स्थान प्राप्त है। ऋतु परिवर्तन, वर्षा, तूफान, चक्रवात, हिमपात, भूकंप, महामारी जैसी प्रकृतिगत अनुकूलता-प्रतिकूलताओं की बहुत कुछ जानकारियाँ वैज्ञानिक लोग अंतर्ग्रही स्थिति के आधार पर प्राप्त करते हैं। खगोल भौतिकविदों का ऐसा अनुमान है कि मौसमों की स्थिति पृथ्वी पर अंतरिक्ष से आने वाले ऊर्जा-प्रवाह के संतुलन-असंतुलन पर निर्भर होती है। सामान्यतया पृथ्वी के ध्रुवों पर ही अंतरिक्षीय ऊर्जा का संग्रहण होता है। उत्तरी ध्रुव होकर ही ब्रह्मांडव्यापी अगणित सूक्ष्मशक्तियाँ- सम्पदाएँ पृथ्वी को प्राप्त होती हैं। जो उपयुक्त हैं, उन्हें तो पृथ्वी अवशोषित कर लेती है एवं अनुपयुक्त को दक्षिण ध्रुव द्वार से अनंत आकाश में खदेड़ देती है। जिस प्रकार वर्षा का प्रभाव प्राणी-जगत एवं वनस्पति-समुदाय पर पड़ता है, उसी प्रकार अंतर्ग्रही सूक्ष्मप्रवाहों का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है, उससे उसकी क्षेत्रीय एवं सामयिक स्थिति में भारी उलट-पुलट होती है। यहाँ तक कि इस प्रभाव से प्राणी-जगत भी अछूता नहीं रहता। मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति भी इस प्रक्रिया से बहुत कुछ प्रभावित होती है। ज्योतिर्विद्या के जानकार बताते हैं कि वर्तमान की स्थिति और भविष्य की संभावना के संबंध में इस विज्ञान के आधार पर पूर्व जानकारी से समय रहते अनिष्ट से बच निकलने और श्रेष्ठ से अधिक लाभ उठाने की विद्या को यदि विकसित किया जा सके, तो मानव का यह श्रेष्ठतम पुरुषार्थ होगा। ऋषिगणों ने इसके लिए समुचित मार्ग भी सुझाया है। आवश्यकता पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस विज्ञानसम्मत प्रणाली के सभी पक्षों को समझने की है।
प्राचीनकाल में ज्योतिर्विज्ञान ज्ञान की एक सर्वांगपूर्ण शाखा थी, जिसमें खगोल विज्ञान, ग्रह-गणित, परोक्ष विज्ञान जैसे कितने ही विषयों का समावेश था। उस ज्ञान के आधार पर कितनी ही घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लिया जाता था। आज भी उस महान विधा से संबंधित ग्रंथ तथा ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे उस काल की— ज्योतिर्विज्ञान की विस्तृत जानकारी मिलती है। ऐसे अगणित ग्रंथों एवं ज्योतिर्विदों का परिचय इतिहास के पन्नों में मिलता है।
आर्ष साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हैं। अनुमान है कि वेदों की रचना ईसा पूर्व 4000 से 2500 ईसा पूर्व वर्ष के बीच हुई है। अनेकों प्रसंग वेदों में हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन ऋषि-मनीषियों को ज्योतिर्विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था। उदाहरणार्थ— यजुर्वेद में नक्षत्र-दर्श तथा ऋग्वेद में ग्रह-राशि का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद के अनुसार ‘गार्ग्य ऋषि’ ने सर्वप्रथम अंतरिक्ष को विभिन्न राशियों में विभाजित करने का प्रयत्न किया था। इसके अतिरिक्त अट्ठाइस नक्षत्र, सप्तर्षि मंडल, वृहत्लुब्धक, आकाशगंगा आदि की भी पर्याप्त जानकारी वेदों से मिलती है। छः ऋतुओं तथा बारह महीनों का नामकरण सर्वप्रथम भारतीय खगोलशास्त्रियों ने किया था। भौतिकविदों को बहुत समय बाद यह जानकारी मिली कि सूर्य की किरणों में सात वर्ण हैं; पर तैतिरीय संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथ में बहुत समय पूर्व ही सूर्य को सप्त-रश्मि कहा गया है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि भौतिकविदों को सूर्य-रश्मियों की जानकारी का आधार वह प्राचीन ग्रंथ ही है।
वैदिक युग के बाद रामायण और महाभारतकाल आता है, जो लगभग ईसा पूर्व 2500 से लेकर ईसा पूर्व 2000 तक माना जाता है। कहा जाता है कि रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि न केवल तत्त्ववेत्ता थे, वरन महान ज्योतिर्विद् भी थे। उन्होंने रामायण में भी तारों एवं ग्रहों की गति एवं उनकी स्थिति का वर्णन करते हुए उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख किया है। रामायण का खलनायक रावण स्वयं महान ज्योतिर्विद् था। ऐसा कहा जाता है कि उस काल में रावण जैसा प्रकांड पंडित तथा ज्योतिर्विद् कोई दूसरा न था। रावण संहिता उसकी विलक्षण ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी का प्रमाण है, जो ज्योतिष शास्त्र का असाधारण ग्रंथ माना जाता है।
गुरु वशिष्ठ, विश्वामित्र, मनु, याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि अपने समय के धुरंधर ज्योतिर्विज्ञानी भी थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में तारों और तारा-रश्मियों का विशद् वर्णन है, जो उस समय की खगोल विद्या एवं ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी देता है। महाभारत में भी ऋतुओं एवं ग्रह-नक्षत्रों का वर्णन है। एक स्थान पर उल्लेख है कि कौरव और पांडवों के बीच युद्ध छिड़ने के पूर्व चंद्रग्रहण लगा था। राहु एवं केतु के प्रभावों का भी वर्णन मिलता है।
ईसा पूर्व के अन्य ज्योतिर्विदों में व्यास, अत्रि, पाराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मारीचि, अग्र, लोमश, पौलत्स्य, च्यवन, यवन, भृगु, शौनक भी उल्लेखनीय हैं। विविध विषयों के विशेषज्ञ होने के साथ-साथ वे ज्योतिर्विद् भी थे।
ईसा पूर्व 500 से लेकर 500 ई. तक की अवधि में विदेशी आक्रमणकारी अत्यधिक सक्रिय रहे। सिकंदर ने इसी बीच आक्रमण किया था। पुरातत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि आततायियों ने न केवल भारत में लूट-पाट मचाई, वरन यहाँ की सांस्कृतिक धरोहरों विशेषकर ज्योतिर्विज्ञान की महत्त्वपूर्ण पांडुलिपियों तथा वेधशालाओं को भी बुरी तरह नष्ट किया। ऐसा भी अनुमान है कि कितने ही बहुमूल्य अभिलेख वे अपने साथ बाँधकर साथ ले गए, जिनका जर्मन, रोम, फ्रेंच आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ व वहाँ के म्यूजियमों में वे अभी भी उपलब्ध हैं।
ज्योतिर्विज्ञान को पुनर्जीवित करने का कार्य आगे चलकर पाटलिपुत्र में ‘आर्यभट्ट प्रथम’ ने किया। सन् 47 में उनका जन्म हुआ। पाटलिपुत्र की विश्वविख्यात विद्यापीठ में उन्होंने ज्योतिर्विद्या का विशद् अध्ययन किया। उन्होंने आर्यभट्टीयम्, तंत्र तथा दशगीतिका नामक तीन प्रख्यात ग्रंथ लिखे। वे सर्वप्रथम खगोलविद् थे, जिन्होंने यह सिद्धांत खोज किया कि पृथ्वी अपनी धुरी व कक्षा पर दैनिक गति करती है। इसी गति के कारण दिन और रात होते हैं।
आर्यभट्ट के बाद ज्योतिर्विद्या पर सबसे अधिक काम आचार्य ‘वाराहमिहिर’ ने किया। उनका जन्म उज्जैन के ‘काल्पी’ नामक स्थान पर हुआ। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग उज्जैन में ही अध्ययन-अध्यापन में बिताया। उनके शोध का नवनीत ‘बृहद्जातक’, ‘बृहत्संहिता’ जैसे महान ग्रंथों में भरा है। बृहत्संहिता में प्राकृतिक विज्ञान का इतना विस्तृत वर्णन है कि कोई भी क्षेत्र ज्योतिर्विज्ञान का बचा नहीं है। ग्रहण, उल्कापात, भूकंप, दिग्दाह, वृष्टि, प्रकृति, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, गति का प्रभाव आदि विषयों पर विशद् वर्णन है। कुछ विशेषज्ञों का अभिमत है कि विज्ञान की नई शाखा— ‘एस्ट्रोफिजिक्स’ (खगोल भौतिकी), जिसमें ग्रह-नक्षत्रों के चुंबकीय, विद्युतीय, ऊष्मा आदि प्रभावों का अध्ययन किया जाता है, उसकी उत्पत्ति वाराहमिहिर के ग्रंथों की प्रेरणा से हुई है। उनकी ‘पंचसिद्धांतिका’ कृति भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। उसमें वर्णित सूर्य सिद्धांत अद्वितीय है। विषुव-अयन की क्रिया का वर्णन भी वाराहमिहिर ने ही किया है। उन्होंने अपने विशद् अध्ययन से उसका मान 54 विकल्प (सेकेंड) प्रतिवर्ष प्राप्त किया। जिसका आधुनिक मान खगोलविदों ने 54.2728 सेकेंड खोजा है। दोनों खोजों में कितना साम्य है, यह देखकर अचरज होता है। साथ ही इस बात का भी आश्चर्य होता है कि बिना आधुनिक यंत्रों के उस काम में इतनी सूक्ष्म तथा शुद्ध गणना करना, किस प्रकार संभव हो सका?
न्यूटन ने बहुत समय बाद यह खोज की कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। उसके सैकड़ों वर्ष पूर्व ही महान भारतीय वैज्ञानिक, ज्योतिर्विद् ‘भास्कराचार्य’ ने उपरोक्त तथ्य की खोज कर ली थी। उनकी प्रख्यात कृति ‘सिद्धांत शिरोमणि’ में इस बात का प्रमाण भी मिलता है। उसमें वर्णन है:—
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत्स्वस्थं गुरुं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे॥16॥
— (सिद्धांत. भुवन.)
अर्थात पृथ्वी में आकर्षणशक्ति है, इससे वह अपने आस-पास की वस्तुओं को आकर्षित कर लेती है। पृथ्वी के निकट आकर्षणशक्ति अधिक होती है। जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह घटती जाती है। यदि किसी स्थान से भारी-हलकी वस्तु छोड़ी जाए, तो दोनों एक ही समय पृथ्वी पर गिरेंगी, ऐसा न होगा कि भारी वस्तु पहले गिरे तथा हलकी बाद में। ग्रह और पृथ्वी आकर्षणशक्ति के प्रभाव से ही परिभ्रमण करते हैं।”
आज विज्ञान के पास अद्भुत जानकारियाँ हैं, बेजोड़ राडार, टेलिस्कोप आदि यंत्र हैं, जिनके सहयोग से ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में मूल्यवान खोजें की जा सकती हैं। आवश्यकता मात्र इतनी भर है कि जड़ संसार की खोज में उलझा विज्ञान अदृश्य जगत की ओर भी अपने कदम बढ़ाए। प्राचीन ज्योतिर्विज्ञान के अगणित सूत्र-संकेत उसे मार्गदर्शन करने में समर्थ हैं। इस महान विधा का पुनरुद्धार किया जा सके, तो अदृश्य जगत से संपर्क साधने, सहयोग पाने तथा परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। यह एक ऐसी उपलब्धि होगी, जिस पर वैज्ञानिक गर्व कर सकते हैं। मारक आयुधों के निर्माण में संलग्न प्रतिभाओं को अब मनीषी की भूमिका निभाते हुए पुरातनकाल के ऋषिगणों की तरह ही ज्योतिर्विज्ञान की इस फलदायी शोध में निरत होकर अपनी बौद्धिक प्रखरता का— सार्थकता का प्रमाण देना चाहिए।
आधुनिकतम अंतरिक्ष यानों की अधिकतम गति (17 हजार मील प्रति घंटे की चाल) से भी यदि ब्रह्मांड को पार करने का सोचा जाए, तो भी मनुष्य को इस पुरुषार्थ में करोड़ों वर्ष लग जाएँगे। ऐसी स्थिति में अन्यान्य ग्रहों की स्थिति उनके परस्पर एकदूसरे पर प्रभाव तथा सुदूर स्थित ग्रहों के पर्यावरण एवं जीव-जगत पर प्रभावों की कल्पना वैज्ञानिक दृष्टि से तो कठिन ही नहीं, असंभव जान पड़ती है। यही वह बिंदु है, जहाँ एस्ट्रानॉमी (खगोल भौतिकी) एवं एस्ट्रालॉजी (खगोल शास्त्र) का परस्पर टकराव— मतभेद होता देखा जाता है। विज्ञानसम्मत प्रतिपादन फलित ज्योतिष की संभावनाओं को काटते नजर आते हैं, तो ज्योतिष विज्ञान के ज्ञाता भौतिकी के नियमों को अपनी परिधि में न मानकर ग्रह-गणित आदि के आधार पर फलादेश की घोषणा करते दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें कौन सही है? कौन गलत? क्या कोई समन्वयात्मक स्वरूप बन सकना संभव है, जिसमें ग्रह-नक्षत्रों की जानकारी से, उनके प्रभावों से बचना, लाभान्वित हो सकना, अपने क्रिया-कलापों को तदनुसार बदलते रह सकना शक्य हो सके? इसका उत्तर पाने के लिए हमें खगोल भौतिकी की कुछ प्रारंभिक जानकारी प्राप्त करनी होगी।
अपना भूलोक सौरमंडल के बृहत परिवार का एक सदस्य है। सारे परिजन एक सूत्र में आबद्ध हैं। वे अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते तथा सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य स्वयं अपने परिवार के ग्रह-उपग्रहों के साथ महासूर्य की परिक्रमा करता है। यह क्रम आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मांड के नाभिक— महाध्रुव तक जा पहुँचता है। इतना सब कुछ जटिल क्रम होते हुए भी सारे ग्रह-नक्षत्र एकदूसरे के साथ न केवल बँधे हुए हैं, वरन परस्पर अतिमहत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान भी करते हैं। इन सबके संयुक्त प्रयास का ही परिणाम है कि ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति अक्षुण्ण बनी रहती है। यदि ऐसा न होता, तो कहीं भी अव्यवस्था फैल सकने के अवसर उत्पन्न हो जाते। ग्रहों का पारस्परिक सहयोग एवं आदान-प्रदान इतना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि इसे ब्रह्मांडीय प्राणसंचार कहा जा सकता है।
इतनी पृष्ठभूमि को समझने के बाद उस विधा की चर्चा की जा सकती है, जिसे ज्योतिर्विज्ञान कहा गया है। विज्ञान के क्षेत्र में इसे उच्चस्तरीय स्थान प्राप्त है। ऋतु परिवर्तन, वर्षा, तूफान, चक्रवात, हिमपात, भूकंप, महामारी जैसी प्रकृतिगत अनुकूलता-प्रतिकूलताओं की बहुत कुछ जानकारियाँ वैज्ञानिक लोग अंतर्ग्रही स्थिति के आधार पर प्राप्त करते हैं। खगोल भौतिकविदों का ऐसा अनुमान है कि मौसमों की स्थिति पृथ्वी पर अंतरिक्ष से आने वाले ऊर्जा-प्रवाह के संतुलन-असंतुलन पर निर्भर होती है। सामान्यतया पृथ्वी के ध्रुवों पर ही अंतरिक्षीय ऊर्जा का संग्रहण होता है। उत्तरी ध्रुव होकर ही ब्रह्मांडव्यापी अगणित सूक्ष्मशक्तियाँ- सम्पदाएँ पृथ्वी को प्राप्त होती हैं। जो उपयुक्त हैं, उन्हें तो पृथ्वी अवशोषित कर लेती है एवं अनुपयुक्त को दक्षिण ध्रुव द्वार से अनंत आकाश में खदेड़ देती है। जिस प्रकार वर्षा का प्रभाव प्राणी-जगत एवं वनस्पति-समुदाय पर पड़ता है, उसी प्रकार अंतर्ग्रही सूक्ष्मप्रवाहों का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है, उससे उसकी क्षेत्रीय एवं सामयिक स्थिति में भारी उलट-पुलट होती है। यहाँ तक कि इस प्रभाव से प्राणी-जगत भी अछूता नहीं रहता। मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति भी इस प्रक्रिया से बहुत कुछ प्रभावित होती है। ज्योतिर्विद्या के जानकार बताते हैं कि वर्तमान की स्थिति और भविष्य की संभावना के संबंध में इस विज्ञान के आधार पर पूर्व जानकारी से समय रहते अनिष्ट से बच निकलने और श्रेष्ठ से अधिक लाभ उठाने की विद्या को यदि विकसित किया जा सके, तो मानव का यह श्रेष्ठतम पुरुषार्थ होगा। ऋषिगणों ने इसके लिए समुचित मार्ग भी सुझाया है। आवश्यकता पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस विज्ञानसम्मत प्रणाली के सभी पक्षों को समझने की है।
प्राचीनकाल में ज्योतिर्विज्ञान ज्ञान की एक सर्वांगपूर्ण शाखा थी, जिसमें खगोल विज्ञान, ग्रह-गणित, परोक्ष विज्ञान जैसे कितने ही विषयों का समावेश था। उस ज्ञान के आधार पर कितनी ही घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लिया जाता था। आज भी उस महान विधा से संबंधित ग्रंथ तथा ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे उस काल की— ज्योतिर्विज्ञान की विस्तृत जानकारी मिलती है। ऐसे अगणित ग्रंथों एवं ज्योतिर्विदों का परिचय इतिहास के पन्नों में मिलता है।
आर्ष साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हैं। अनुमान है कि वेदों की रचना ईसा पूर्व 4000 से 2500 ईसा पूर्व वर्ष के बीच हुई है। अनेकों प्रसंग वेदों में हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन ऋषि-मनीषियों को ज्योतिर्विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था। उदाहरणार्थ— यजुर्वेद में नक्षत्र-दर्श तथा ऋग्वेद में ग्रह-राशि का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद के अनुसार ‘गार्ग्य ऋषि’ ने सर्वप्रथम अंतरिक्ष को विभिन्न राशियों में विभाजित करने का प्रयत्न किया था। इसके अतिरिक्त अट्ठाइस नक्षत्र, सप्तर्षि मंडल, वृहत्लुब्धक, आकाशगंगा आदि की भी पर्याप्त जानकारी वेदों से मिलती है। छः ऋतुओं तथा बारह महीनों का नामकरण सर्वप्रथम भारतीय खगोलशास्त्रियों ने किया था। भौतिकविदों को बहुत समय बाद यह जानकारी मिली कि सूर्य की किरणों में सात वर्ण हैं; पर तैतिरीय संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथ में बहुत समय पूर्व ही सूर्य को सप्त-रश्मि कहा गया है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि भौतिकविदों को सूर्य-रश्मियों की जानकारी का आधार वह प्राचीन ग्रंथ ही है।
वैदिक युग के बाद रामायण और महाभारतकाल आता है, जो लगभग ईसा पूर्व 2500 से लेकर ईसा पूर्व 2000 तक माना जाता है। कहा जाता है कि रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि न केवल तत्त्ववेत्ता थे, वरन महान ज्योतिर्विद् भी थे। उन्होंने रामायण में भी तारों एवं ग्रहों की गति एवं उनकी स्थिति का वर्णन करते हुए उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख किया है। रामायण का खलनायक रावण स्वयं महान ज्योतिर्विद् था। ऐसा कहा जाता है कि उस काल में रावण जैसा प्रकांड पंडित तथा ज्योतिर्विद् कोई दूसरा न था। रावण संहिता उसकी विलक्षण ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी का प्रमाण है, जो ज्योतिष शास्त्र का असाधारण ग्रंथ माना जाता है।
गुरु वशिष्ठ, विश्वामित्र, मनु, याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि अपने समय के धुरंधर ज्योतिर्विज्ञानी भी थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में तारों और तारा-रश्मियों का विशद् वर्णन है, जो उस समय की खगोल विद्या एवं ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी देता है। महाभारत में भी ऋतुओं एवं ग्रह-नक्षत्रों का वर्णन है। एक स्थान पर उल्लेख है कि कौरव और पांडवों के बीच युद्ध छिड़ने के पूर्व चंद्रग्रहण लगा था। राहु एवं केतु के प्रभावों का भी वर्णन मिलता है।
ईसा पूर्व के अन्य ज्योतिर्विदों में व्यास, अत्रि, पाराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मारीचि, अग्र, लोमश, पौलत्स्य, च्यवन, यवन, भृगु, शौनक भी उल्लेखनीय हैं। विविध विषयों के विशेषज्ञ होने के साथ-साथ वे ज्योतिर्विद् भी थे।
ईसा पूर्व 500 से लेकर 500 ई. तक की अवधि में विदेशी आक्रमणकारी अत्यधिक सक्रिय रहे। सिकंदर ने इसी बीच आक्रमण किया था। पुरातत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि आततायियों ने न केवल भारत में लूट-पाट मचाई, वरन यहाँ की सांस्कृतिक धरोहरों विशेषकर ज्योतिर्विज्ञान की महत्त्वपूर्ण पांडुलिपियों तथा वेधशालाओं को भी बुरी तरह नष्ट किया। ऐसा भी अनुमान है कि कितने ही बहुमूल्य अभिलेख वे अपने साथ बाँधकर साथ ले गए, जिनका जर्मन, रोम, फ्रेंच आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ व वहाँ के म्यूजियमों में वे अभी भी उपलब्ध हैं।
ज्योतिर्विज्ञान को पुनर्जीवित करने का कार्य आगे चलकर पाटलिपुत्र में ‘आर्यभट्ट प्रथम’ ने किया। सन् 47 में उनका जन्म हुआ। पाटलिपुत्र की विश्वविख्यात विद्यापीठ में उन्होंने ज्योतिर्विद्या का विशद् अध्ययन किया। उन्होंने आर्यभट्टीयम्, तंत्र तथा दशगीतिका नामक तीन प्रख्यात ग्रंथ लिखे। वे सर्वप्रथम खगोलविद् थे, जिन्होंने यह सिद्धांत खोज किया कि पृथ्वी अपनी धुरी व कक्षा पर दैनिक गति करती है। इसी गति के कारण दिन और रात होते हैं।
आर्यभट्ट के बाद ज्योतिर्विद्या पर सबसे अधिक काम आचार्य ‘वाराहमिहिर’ ने किया। उनका जन्म उज्जैन के ‘काल्पी’ नामक स्थान पर हुआ। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग उज्जैन में ही अध्ययन-अध्यापन में बिताया। उनके शोध का नवनीत ‘बृहद्जातक’, ‘बृहत्संहिता’ जैसे महान ग्रंथों में भरा है। बृहत्संहिता में प्राकृतिक विज्ञान का इतना विस्तृत वर्णन है कि कोई भी क्षेत्र ज्योतिर्विज्ञान का बचा नहीं है। ग्रहण, उल्कापात, भूकंप, दिग्दाह, वृष्टि, प्रकृति, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, गति का प्रभाव आदि विषयों पर विशद् वर्णन है। कुछ विशेषज्ञों का अभिमत है कि विज्ञान की नई शाखा— ‘एस्ट्रोफिजिक्स’ (खगोल भौतिकी), जिसमें ग्रह-नक्षत्रों के चुंबकीय, विद्युतीय, ऊष्मा आदि प्रभावों का अध्ययन किया जाता है, उसकी उत्पत्ति वाराहमिहिर के ग्रंथों की प्रेरणा से हुई है। उनकी ‘पंचसिद्धांतिका’ कृति भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। उसमें वर्णित सूर्य सिद्धांत अद्वितीय है। विषुव-अयन की क्रिया का वर्णन भी वाराहमिहिर ने ही किया है। उन्होंने अपने विशद् अध्ययन से उसका मान 54 विकल्प (सेकेंड) प्रतिवर्ष प्राप्त किया। जिसका आधुनिक मान खगोलविदों ने 54.2728 सेकेंड खोजा है। दोनों खोजों में कितना साम्य है, यह देखकर अचरज होता है। साथ ही इस बात का भी आश्चर्य होता है कि बिना आधुनिक यंत्रों के उस काम में इतनी सूक्ष्म तथा शुद्ध गणना करना, किस प्रकार संभव हो सका?
न्यूटन ने बहुत समय बाद यह खोज की कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। उसके सैकड़ों वर्ष पूर्व ही महान भारतीय वैज्ञानिक, ज्योतिर्विद् ‘भास्कराचार्य’ ने उपरोक्त तथ्य की खोज कर ली थी। उनकी प्रख्यात कृति ‘सिद्धांत शिरोमणि’ में इस बात का प्रमाण भी मिलता है। उसमें वर्णन है:—
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत्स्वस्थं गुरुं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे॥16॥
— (सिद्धांत. भुवन.)
अर्थात पृथ्वी में आकर्षणशक्ति है, इससे वह अपने आस-पास की वस्तुओं को आकर्षित कर लेती है। पृथ्वी के निकट आकर्षणशक्ति अधिक होती है। जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह घटती जाती है। यदि किसी स्थान से भारी-हलकी वस्तु छोड़ी जाए, तो दोनों एक ही समय पृथ्वी पर गिरेंगी, ऐसा न होगा कि भारी वस्तु पहले गिरे तथा हलकी बाद में। ग्रह और पृथ्वी आकर्षणशक्ति के प्रभाव से ही परिभ्रमण करते हैं।”
आज विज्ञान के पास अद्भुत जानकारियाँ हैं, बेजोड़ राडार, टेलिस्कोप आदि यंत्र हैं, जिनके सहयोग से ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में मूल्यवान खोजें की जा सकती हैं। आवश्यकता मात्र इतनी भर है कि जड़ संसार की खोज में उलझा विज्ञान अदृश्य जगत की ओर भी अपने कदम बढ़ाए। प्राचीन ज्योतिर्विज्ञान के अगणित सूत्र-संकेत उसे मार्गदर्शन करने में समर्थ हैं। इस महान विधा का पुनरुद्धार किया जा सके, तो अदृश्य जगत से संपर्क साधने, सहयोग पाने तथा परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। यह एक ऐसी उपलब्धि होगी, जिस पर वैज्ञानिक गर्व कर सकते हैं। मारक आयुधों के निर्माण में संलग्न प्रतिभाओं को अब मनीषी की भूमिका निभाते हुए पुरातनकाल के ऋषिगणों की तरह ही ज्योतिर्विज्ञान की इस फलदायी शोध में निरत होकर अपनी बौद्धिक प्रखरता का— सार्थकता का प्रमाण देना चाहिए।