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Magazine - Year 1985 - Version 2

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आत्मा और शरीर का वास्तविक हित साधन

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बाहर के बहुत से पदार्थों और प्राणियों से हमारी जान पहचान है। साथ ही यह भी विदित है कि कौन अपना कौन पराया है अपनों को कितना प्यार किया जाना चाहिए और उन्हें कितना लाभ दिया जाना चाहिए। परायों के प्रति सीमित सद्व्यवहार ही पर्याप्त माना जाता है। इसी नीति को बरतते हुए जिन्दगी व्यतीत हो जाती है।

किन्तु यह नीति अपने आपे के प्रति एक प्रकार से विस्तृत ही कर दी जाती है। यहाँ तक कि जब आत्म चिन्तन का समय आता है तब यह भी भुला दिया जाता है कि अपना पराया कौन है। उनकी सही पहचान भी नहीं रहती और व्यवहार करते समय ठीक उलटा बरताव किया जाता है।

मनुष्य आत्मा है। उसका आच्छादन अथवा वाहन शरीर है। कपड़ा पुराना हो जाता है फट जाता है तब उसका मोह त्यागकर नया बदल लेते है। वाहन भी जब जराजीर्ण−काम करने में असमर्थ हो जाते हैं तो उनकी छुट्टी कर दी जाती है। कपड़ों और सवारियों की उतनी देखभाल और साज−सम्भाल की जाती है जितने के वे अधिकारी हैं। शरीर के प्रति हमारा रवैया यही होना चाहिए। उन्हें स्वच्छ और स्वस्थ बनाये रहने के लिए कर्त्तव्य पालन भर किया जाना चाहिए।

‘स्व’ आत्मा है। वही सगा और सनातन है। शरीर न रहने पर भी वह बना रहता है। सन्मार्ग पर चलने का श्रेय उसी को मिलता है और कुमार्ग पर चलने की भर्त्सना भी उसी की होती है। होनी भी उसी की चाहिए शस्त्र का गलत उपयोग करने का दण्ड उसे चलाने वाले को मिलता है। उस उपकरण को नहीं।

वाहन को चलाने में सावधानी न बरती जाय उसे छुट्टल छोड़ दिया जाय तो दुर्घटना होकर रहेगी। बिना लगाम का घोड़ा कहीं भी जा सकता है और किसी भी राह पर चल सकता है। बिना ब्रेक और हैण्डल की गाड़ी किसी भी खाई खड्ड में गिर सकती है और अपनी तथा बैठे हुए लोगों की दुर्गति बना सकती है। इन्द्रियों की लिप्साओं मन की तृष्णाओं की पूर्ति में बिना उचित अनुचित का विचार किये, कुछ भी चाहने, माँगने और करने दिया जाय तो वे अपनी खाज खुजाने की चेष्टा करेंगी। मन को ममता और आत्मा की पूर्ति चाहिए और इन्द्रियों को विलास की आकाँक्षा रहती है। यदि विवेक का अंकुश न रहे तो वे अतिवाद पर उतारू हो सकती हैं और नीति मर्यादा तथा औचित्य का बेतरह उल्लंघन कर सकती हैं। इस अति में शरीर को भी ऐश−शौक का−भर्त्सना और प्रताड़ना का भागी बनना पड़ता है। आत्मा का तो अहित होता ही है।

मनुष्य जन्म बड़े पुण्य का प्रतिफल है। वह इसलिए मिला है कि उसका सदुपयोग करके आत्मा के कल्याण का प्रयत्न किया जाय। आदर्शों का पालन, और लोक मंगल का सेवा साधन करने में ही उसका हित है। इन प्रयासों से शरीर को भी स्वस्थ और प्रसन्न रहने का अवसर मिलता है। किन्तु यदि यह भुला दिया जाय कि आत्मा का अपना भी कोई स्वरूप, स्वार्थ एवं उद्देश्य तो भी अपना आपा मात्र शरीर रह जाता है। जब आत्मा को भुला दिया गया तो शरीर के हित साधन का ध्यान भी कहाँ रहेगा। तब इन्द्रियों की लिप्सा पूरी करने में अतिवाद की सीमा तक जा पहुँचने की उच्छृंखलता अपनाई जायगी और वासना पूर्ति के लिए आत्मा की ही नहीं शरीर की भी दुर्गति बनाई जायेगी।

मन भी एक इन्द्रिय है उसकी विकृति अहंकार बनकर फूटती है। संग्रह और प्रदर्शन में रस लेती है। फलतः वह नीति और मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुए अपराध में संलग्न होने तक पर उतारू हो जाती है। भले ही उस अहंकार की पूर्ति के लिए दूसरों का उत्पीड़न ही क्यों न करना पड़े। अनावश्यक साज−सज्जा में उपहासास्पद ही क्यों न बनना पड़े।

जीवन की वास्तविक आवश्यकताएँ थोड़ी ही हैं। उन्हें नित्य के सामान्य श्रम से पूरा किया जा सकता है किन्तु तृष्णा का कोई अन्त नहीं वह सुख साधनों को इतनी अधिक मात्रा में संग्रह करना चाहती है मानो लाख−करोड़ वर्ष जीना हो और उसके लिए असीम मात्रा में एक दिन ही संग्रह करके रख लेने का निश्चय किया गया हो। बात इतने तक भी सीमित नहीं रहती कुटुम्बियों के लिए भी इतनी सम्पदा संग्रह करने का मन होता कि उन्हें स्वयं श्रम न करना पड़े और उत्तराधिकार के रूप में मिली हुई समृद्धि के बलबूते ही शौक−मौज करते रहें। यह सब बाहरी परिकर परिवार है जिसके लिए हम मरते खपते रहते हैं और अपने आपे तक को भूल जाते हैं।

आत्मा शब्द तो कई बार मुख से निकलता और कान से सुनाई पड़ता रहता है। पर व्यवहारतः यह नहीं समझ पाते कि शरीर से पृथक कोई चेतन सत्ता भी अपने भीतर विद्यमान है जो शरीर के न रहने के उपरान्त भी बनी रहती है। उसकी श्रेय साधना ही अपना वास्तविक हित साधन है।

शरीर का उपयोग ऐसे प्रयोजनों के लिए किया जाना चाहिए जिनसे आत्मा का वास्तविक हित साधन होता हो। यह बन पड़ने की सम्भावना तभी बन पड़ती है जब दोनों की पृथकता व्यवहारतः समझें और दोनों का हित साधन जिसमें सम्भव है उस क्रिया−कलाप को अपनाने के लिए सचेष्ट रहें। अहित किसी का भी न होने दें।

संयम दोनों का हित साधना करता है। इन्द्रिय संयम से स्वास्थ्य और सन्तुलन बना रहता है। मानसिक संयम से उद्धत आकाँक्षाओं पर अंकुश लगता है फलतः शान्ति और सन्तोष दोनों ही बने रहते हैं। इस नीति को अपनाने से शरीर का ही नहीं आत्मा का भी हित साधन होता है। उसे आन्तरिक प्रफुल्लता रहती है और वह उद्देश्य सधता है जिसके लिए बहुमूल्य मानव शरीर धारण करने का सुयोग मिला है।

आत्मा को स्वर्गीय प्रफुल्लता पाने और भव बन्धनों से मुक्त होने के लिए ही यह जन्म मिला है। असंयम और उद्धत आचरण करने पर दोनों का ही अहित होता है जब कि उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श चरित्र का आश्रय लेने पर आत्मा को परमात्मा का दिया हुआ उपहार हर दृष्टि से सार्थक होता है। क्षणिक रसास्वादन के लिए भविष्य को हर दृष्टि से अन्धकारमय बना लेने में कोई बुद्धिमानी नहीं है।

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