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Magazine - Year 1985 - Version 2

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न आत्म−विश्वास खोयें न भयाक्रान्त रहें

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First 49 51 Last
अपने ऊपर से विश्वास खो बैठने की मनःस्थिति को ‘आत्महीनता’ “इन्फीरियॉरिटी काँम्पलेक्स” कहते हैं। इसमें कोई मस्तिष्कीय विकृति नहीं होती। इसे कोई रोग भी नहीं कहा जा सकता। यह किसी कारण से आरम्भ होते-होते आत्म-विश्वास गँवा बैठने की आदत भर है।

इस आदत का प्रमुख लक्षण अपने आप को तुच्छ−हीन−असमर्थ−उपेक्षित−पराजित माना है। ऐसी दशा में व्यक्ति दूसरों से शर्माता है और उनसे पीछा छुड़ाने को मन होता है और कहीं ऐसी जगह छुपने का मन करता है जहाँ दूसरे लोग देखें नहीं। देखें तो वार्त्तालाप न करें। उसे एक प्रकार का डर-सा लगता है। यह डर किस बात का? कोई मारेगा या त्रास देगा ऐसा भय तो नहीं होता। पर इतना जरूर होता है कि अपने ऊपर से भरोसा उठ जाता है और लगता है कि दूसरों से संपर्क साधने पर या तो निन्दा होगी या कुछ ऐसा बन पड़ेगा जिसका अर्थ होता है पराजित या अपमानित होना।

वस्तुतः ऐसी कोई बात नहीं होती कि दूसरे लोग बुरा इरादा रखते हों। द्वेष मानते हों या गिराने डराने के लिए मिले हों पर दूसरों के साथ मिलने−जुलने आत्मीयता विकसित करने की सामर्थ्य भीतर से टूट जाती है तो मन की बात किसी के सामने प्रकट करने की हिम्मत नहीं रहती। हौसला पस्त हो जाता है और मिलने पर यही डर बना रहता है कि न जाने कोई क्या पूछ बैठ? उसका उत्तर अपने से बने या नहीं? कुछ उत्तर दिया जाय तो उपहास या विरोध तो न होने लगे?

यों अकारण कोई किसी से लड़ता नहीं, और न तिरस्कार की दृष्टि से मिलता-जुलता ही है। सभी को विचारों का आदान−प्रदान करने की−अपनी कहने दूसरे की सुनने की इच्छा होती है क्योंकि यह मनोरंजन का सुगम और इच्छा तरीका है। पर साथ ही यह भी आवश्यक है कि सामने वाले भी मिलनसारी हों। डडडडड अकारण दोषी की तरह झेंपता झिझकता न हो। अन्यथा उपेक्षा दिखाने पर−दबे−दबे−धीमे−धीमे शब्दों में कुछ उत्तर देने में, अपनी ओर से कुछ वार्तालाप न करने से दूसरा आदमी भी खीजता नहीं तो कम से कम इतना तो करता ही है कि लोकाचार की सामान्य वार्ता करने के उपरान्त अपना मुख मोड़ ले और दूसरे किसी से बात करने लगे। यह स्वाभाविक भी है। पर वह झेंपू व्यक्ति इसे भी अपनी उपेक्षा या पराजय मानता है और मिलन पर कोई प्रसन्नता व्यक्त नहीं करता।

देहाती परम्परा के अनुसार नव वधुओं को कुछ दिन तक घूँघट निकाल कर चुपचाप किसी कोने में पीठ फेर कर बैठा रहना पड़ता है। कुछ कहना हो तो इतने धीमे शब्दों में अति संक्षेप में या इशारे से अपनी बात कहती हैं। पुरातन पंथी वृद्धाएँ इस संकोचशीलता को सराहती भी हैं और ऊँचे कुल खानदान की बात कर उसे सराहती भी है। कई पुरुष भी ऐसी ही मनःस्थिति के होते हैं संकोचशील या डरपोक। इससे सर्वत्र अजनबी वातावरण ही दिखाते और परिचित भी अपरिचित जैसे लगते हैं और खुलकर वार्त्तालाप करते हुए उन्हें संकोच सताता है। अपनी व्यथा एवं समस्या तक मुँह खोलकर कह नहीं पाते फिर दूसरों का परामर्श या समाधान प्राप्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

आमतौर से अशिक्षित महिलाओं में यह दोष उन क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है जहाँ घूँघट पर्दे का रिवाज अधिक होता है। वे घुटती रहती हैं पर अपनी कठिनाइयों को कह नहीं पातीं। लगाये गये दोषारोपणों को भी निर्दोष होते हुए सुनती रहती हैं। उत्पीड़न शोषण भी सहती हैं पर आँसू बहाने के और चुप रहने के अतिरिक्त और कुछ कह नहीं पाती। चुप रहना भी अर्ध स्वीकृति मानी जाती है जहाँ दोषारोपण पर सर्वथा चुप रहना−शालीनता का चिन्ह माना जाता है। वहाँ उससे यह भी प्रकट होता है कि आक्षेप सही है अन्यथा सफाई क्यों नहीं दी गई। ऐसी महिलाओं पर गुण्डे बदमाश भी घात लगाते और छेड़खानी करने में नहीं चूकते क्योंकि उन्हें यह भय नहीं रहना कि विरोध का सामना करना पड़ेगा। असहाय भेड़ बकरियों की तरह हर कोई उन्हें सताने को बैठा रहता है।

ठीक यही बात पुरुषों के सम्बन्ध में भी है। कोई चापलूस उन्हें आध्यात्मिक, दार्शनिक सज्जन, गंभीर आदि भी कह सकते हैं। पर असल में उन्हें मूर्ख, प्रतिभाहीन और अयोग्य ही समझा जाता है। निरर्थक वाचालता अपनाने वाले भी अपने मूल्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों की आँखों में गिरा लेते हैं पर यह भी स्पष्ट है, डरपोक और अनावश्यक संकोचशील अपनी योग्यता में कमी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं और जहाँ जाते हैं वहीं घाटा उठाते हैं। असामाजिक−गैर मिलनसार व्यक्तियों से कोई प्रसन्न नहीं रहता। उन पर दुराव का दोष लगाता है और चाहते हुए भी कुछ परामर्श या सहयोग दे सकने की स्थिति तक नहीं पहुँच पाता। इस प्रकार यह आदत मनुष्य को पग−पग पर नीचा दिखाने वाली ही सिद्ध होती है। ऐसे लोग जीवन में कभी महत्वपूर्ण सफलता अर्जित नहीं कर सकते। भले ही वे भाग्य को, समय को या सम्बन्धियों को इसके लिए दोषी ठहराते रहें। अस्तु जिन्हें भी इस व्यथा ने घेर लिया हो उन्हें इसके दुष्परिणाम समझने चाहिए और धीरे−धीरे मिलनसारी की−वार्त्तालाप की हँसने−हँसाने की आदत डालनी चाहिए। अपनी कहने और दूसरे की सुनने वाले सहज ही अपने मित्र बढ़ा लेते हैं और शत्रुता की लकीरों को धोकर सहज ही साफ कर देते हैं।

उससे अगला चरण है− भयाक्रान्त रहने का। इसकी मानसिक रोगों में भी गणना होती है और उपचार के लिए चिकित्सकों, मनोविज्ञानियों तथा भूत झाड़ने वाले ओझाओं का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। इस भयाक्रान्त मनःस्थिति को चिकित्सकों की भाषा में ‘फोबिया’ कहते हैं। सनक की तुलना अधिक कष्टप्रद मानते हैं। सनकी व्यक्ति कल्पना करता है और बिना प्रमाण की−खोजबीन की आवश्यकता समझे अशुभ मान्यताएँ गढ़ लेता है और उसी दुराग्रह के कारण अपना और दूसरों का अनर्थ करता है। उन पर किसी के समझाने का भी असर नहीं पड़ता। ऐसे लोगों की अर्ध विक्षिप्तों में गणना होती है। सनकी लोग उन्मादियों की तरह बिना आगा−पीछा सोचे कुछ भी भला−बुरा कर सकते हैं। वे किसी की बात पर ऐसा भरोसा भी कर सकते हैं जैसा कि अन्ध−विश्वासी करते हैं। आवेश उतरने पर उन्हें पछताते−शिर धुनते देखा गया है।

“फोबिया” भयाक्रान्त मनःस्थिति के रोगी हर समय डरते रहते हैं और कारण न होने पर भी कल्पना के सहारे गढ़, लेते हैं। ऐसे लोग वयस्क होते हुए भी अन्धेरे में उठकर पेशाब तक नहीं जा सकते। चूहों की खट−पट उन्हें चोरों की सेंध लगाने जैसी प्रतीत होती है। झुरमुट या पेड़ की हिलती हुई डालियाँ भूत चुड़ैलों जैसी लगती हैं। ऐसे लोग ज्योतिषियों के चंगुल में आसानी से फँस जाते हैं। डर का लाभ उठाकर ग्रह शान्ति करने वाले या भूत भगाने वाले उनकी उलटे उस्तरे से हजामत बनाते रहते हैं।

भयाक्रांत के मन में निरन्तर आक्रमण, प्रतिशोध और विश्वासघात छाया रहता है वे अकारण अपना जीवन भार बना लेते हैं और मित्रों पर भी शत्रुओं जैसे आरोप लगाते हैं। भविष्य उन्हें कठिनाइयों और विपत्तियों से भरा हुआ दिखता है।

इस मनःस्थिति को अपने भीतर विवेकशीलता, यथार्थवादिता, साहसिकता अपनाकर दूर किया जा सकता है। यह कार्य भले ही स्वयं का लिया जाय या किसी विचारशील का आश्वासन प्रोत्साहन उपलब्ध कर लिया जाय।

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