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Magazine - Year 1985 - Version2

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Language: HINDI
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मानवी सत्ता हर दृष्टि से अनुपम, अद्भुत एवं आश्चर्यजनक

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बाजीगर कभी-कभी ऐसे अनोखे खेल दिखाते हैं कि बच्चे तो क्या, बड़े-बड़े भी चकित रह जाते हैं और उन रहस्यों एवं करामातों के सम्बन्ध में हतप्रभ होकर रह जाते हैं? कि यह सब किस आधार पर, क्यों कर प्रदर्शित किया गया।

भगवान की कलाकृतियाँ सदा आँखों से आगे गुजरती रहती हैं इसलिए वे एक प्रकार से अभ्यास में सम्मिलित हो जाती हैं और साधारण एवं स्वाभाविक लगती हैं। पर गंभीरतापूर्वक उन्हें देखा जाय तो प्रतीत होगा कि यहां सब कुछ आश्चर्य ही आश्चर्य है। आसमान, सूरज, चांद, सितारे, बादलों के घटाटोप, उनका बरसना और कड़कड़ाना लगता है कि यह किसी बड़े शक्तिशाली एवं असाधारण बुद्धि वाले का कौशल है। धरती पर ऊँचे पर्वत और नीचे समुद्र अपनी अनोखी छटा दिखाते हैं। बीच-बीच में जलाशय, घने जंगल, लम्बे रेगिस्तान और नदियों का प्रवाह देखकर चकित रह जाना पड़ता है कि आखिर यह सब कैसे सम्भव हो सका इस भिन्नता भरी संरचना का निर्माण किन हाथों से किन उपकरणों के सहारे बना पड़ा।

प्राणियों की आकृति और प्रकृति और भी हैरत भरी है। मिट्टी में रहकर वनस्पति उत्पादन में सहायता करने वाले अदृश्य सूक्ष्म जीवी, पानी में रहने वाले अदृश्य कीटाणु, झींगुर, टिड्डी से लेकर गरुड़ जैसे पक्षी और हाथी, ह्वेल जैसे प्राणियों का चित्र विचित्र निर्माण ही नहीं उनके आहार-विहार के साधन भी इस प्रकार बनाये गये हैं कि वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति और कठिनाइयों का निराकरण आसनी से कर सकें।

इसके उपरान्त आता है सर्वोच्च श्रेणी का प्राणी मनुष्य उसकी शारीरिक संरचना इतनी सूक्ष्म, इतनी विचित्र और इतनी अद्भुत है कि देखकर दंग रह जाना पड़ता है कि समझ में नहीं आता कि सागर को गागर में किस तरह भरा गया। ब्रह्माण्ड के सुविस्तृत घटकों की इस छोटी-सी काया में किस प्रकार समाविष्ट किया गया। किस प्रकार विशाल ब्रह्मांड की छोटी किन्तु समग्र इकाई के रूप में इस काय-कलेवर के कण-कण में अनोखापन भरा गया यह देखते ही बनता है।

इतना ही नहीं कि सृष्टा ने अपनी निज की सत्ता और विलक्षणता भी मनुष्य को उत्तराधिकारी युवराज के रूप में प्रदान की है। परन्तु इतनी सतर्कता भी रखी है कि कहीं इसका अत्यधिक दुरुपयोग न होने लगे। इसलिए विभूतियों को इतनी कुशलता के साथ छिपाया है कि साधारणों को उनका आभास तक न मिले किन्तु अन्तर्मुखी हो गई। पनडुब्बों की तरह गहरे उतर सकें तो बहुमूल्य मणि मुक्तक टोकरे भर-भरकर समेट सकें।

मनुष्य प्रत्यक्षतः गया-गुजरा प्राणी है। वह न जल में डूबा रह सकता है, न आसमान में पक्षियों की तरह उड़ सकता है। बन्दर की तरह वह पेड़ पर भी नहीं चढ़ सकता है। प्रतिद्वन्द्विता में छोटे से रोग कीटाणु-वायरस-ही उसका कचूमर निकाल सकते हैं। हिरन की तरह, छलाँग मारना और घोड़े की तरह दौड़ना तो उसके बस की बात है ही नहीं। टक्कर में असंख्य जीव जन्तु ऐसे हैं जो उसे देखते-देखते धराशायी कर सकते हैं। इतने पर भी वह सृष्टि का मुकुट मणि है। अपने पराक्रम के बलबूते नहीं, मिले हुए दिव्य अनुदानों के आधार पर। शरीर की संरचना ही देखिए। हाथों का इतनी जगह से इस प्रकार मुड़ना और इतनी उँगलियों का होना ऐसी विलक्षणता है जैसी अन्य किसी प्राणी में नहीं मिल सकती। शरीर को सीधा होकर चलने में मेरुदंड की, आर्चेज ऑफ फुट की जो समर्थता है उसकी तुलना में कोई प्राणी नहीं ठहरता। सामान्य संरचना की तुलना में कितने ऊँचे स्तर के कौशल वह दिखा सकता है इसका प्रत्यक्ष दर्शन ओलम्पिक खेलों और सधे हुए सरकस खिलाड़ियों के करतब देखकर जाना जा सकता है कि इस काया को कितना साधा और कितना समुन्नत बनाया जा सकता है।

एक कदम और आगे बढ़े तो उसका कौशल वैज्ञानिकों के प्रकृति के गहरे परतों में खोलकर एक से एक बढ़कर आविष्कार करने की कृतियों में देखा जा सकता है। सृष्टि के अन्य प्राणि जहाँ जलती आग को देखकर मुसीबत मानते हैं और देखते ही भाग खड़े होते हैं वहाँ मनुष्य है जो मृत्यु की सहेली बिजली की घरेलू सेविका की तरह काम करते रहने और दिन रात में कभी छुट्टी न माँगने के लिए विवश करता है। देश-देशान्तरों के मध्यवर्ती दूरी को समाप्त करके रख देने वाले टेलीफोन, टेलेक्स, रेडियो, टेलीविजन, प्रक्षेपास्त्र, वायुयान आदि साधनों के माध्यम से मीलों की लम्बाई वाली दूरी का कोई अस्तित्व नहीं रहा। वर्षों में हो सकने वाला कार्य मिनटों और सेकेंडों में पूरा किया जा सकता है।

शल्य क्रिया ने यह सम्भव कर दिया है कि गोलियों से बिधे हुये व्यक्ति भी बचाये जा सकते हैं। अंगों का प्रत्यारोपण हो सकता है। अपंगों को कार्य कर सकते योग्य बनाने के लिए अनेकों उपकरण बन चुके हैं। यह चिकित्सा क्षेत्र की करामात है। महादैत्यों और विश्वकर्माओं को चुनौती देने वाले विशालकाय कल-कारखाने मनुष्य की प्रतिभा से ही खड़े किये गये हैं। पूर्वकाल में देवलोक में इन्द्र के पास एक वज्र था। अब अणु बमों और हाइड्रोजन बमों के रूप में ऐसे हजारों वज्र बनाकर अपनी तिजोरियों में बन्द कर रखें हैं। कभी तान्त्रिक सम्मोहक स्त्री का प्रयोग करके जीवितों को मृतकवत बना देते थे आज उस कार्य को क्लोरो फार्म, पैथीडीन आदि अनेकों रसायन बाजार में उपलब्ध हैं। सोमरस पीकर कभी देवता अलौकिक अनुभूतियों का रसास्वादन करते थे। अब हीरोइन हशीश, चरस की इतनी किस्में चल पड़ी हैं जो सेवन कर्ता को किसी विचित्र लोक में पहुँचा देती हैं।

लेखन और भाषण उसकी विलक्षण उपलब्धि है। तत्वज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करके उससे धर्म, अध्यात्म, मनोविज्ञान ही नहीं गढ़ा है वरन् ईश्वर को भी अपनी मनमानी आकृति एवं प्रकृति का गढ़ा है। यह ठीक है कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है पर उससे भी अधिक सत्य है कि ईश्वर को मनुष्य ने ही गढ़ा है। सृष्टि के असंख्य प्राणियों को उसकी सत्ता के संबंध में ज्ञान तक नहीं है।

अन्तरिक्ष को उसने धरती के समान अपना कार्यक्षेत्र बना लिया है। देवता समझे जाने वाले चन्द्रमा का कोना-कोना छान डालने वाले और उसे सिर्फ एक घूमता हुआ मृतिका पिण्ड सिद्ध करने वाला मनुष्य ही है। सौर मण्डल की जामा तलाशी उसने ले ली है और इसके आगे ब्रह्मांड की टोह लेने का उसका हौसला देखने ही योग्य है। प्रकृति के बहुत कम रहस्य उसकी जानकारी से बाहर रह पाये हैं। लैसर किरणों जैसी शक्तियाँ उसने हस्तगत कर ली हैं। और वह दिन दूर नहीं जब वह प्राणियों का मुकुट मणि ही नहीं प्रकृति का अधिष्ठाता भी बन सकेगा।

कभी दैत्य, देवताओं और अवतारों को दिव्य सत्ताओं द्वारा शक्तियाँ हस्तगत करनी पड़ती हैं और इसके लिए प्रचण्ड तप का आश्रय लेना पड़ता था। आज अस्त्रों और कुटिलताओं, उद्दण्डताओं के सहारे मनुष्य ने भूतकालीन दैत्यों की तुलना में अपने को वरिष्ठ ही सिद्ध करके दिखा दिया है। इतिहास के विगत दिनों में ही ऐसे दैत्य उत्पन्न हुए हैं जिन्होंने अपनी सनकें पूरी करने के लिए लाखों करोड़ों को अपने दाँतों से पीस डाला उनके आतंक और कृत्यों को देखकर रावण कुम्भकरण जैसे भी पराभूत होकर एक कोने में बैठ सकते हैं।

प्रश्न देवताओं और अवतारों का है। लगता है मनुष्य को वह भूमिका निभाने में देर लगेगी किन्तु बुद्धों, गांधियों की परम्परा निकट भविष्य में कार्यान्वित होने जा रही है तब मनुष्य ही दृश्यमान देवताओं की तरह सर्व साधारण के परिचय क्षेत्र में होगा। उन्हीं में से कुछ विश्व को कायाकल्प कर सकने में समर्थ अवतार भी हो सकते हैं।

आदिमकाल के अनगढ़ और आज के सुविकसित मनुष्य में जमीन आसमान जितना अंतर है। कभी देवता चूहे और हंस की सवारी करते थे अब मोटर और वायुयान अपेक्षाकृत अधिक सशक्त वाहन हैं। सरस्वती ने आदमी की आधीनता स्वीकार कर ली है। प्रेस और प्रकाशन होते ही ज्ञान की देवी सरस्वती को पेन्शन देकर मनुष्य ने उस पद को अपने आधिपत्य में ले लिया है। विचारों के विस्तार के स्वामी गणेश अब घुड़-दौड़ में रेडियो टेलीविजन में पीछे रह गये हैं।

यह सब क्या है? यह मनुष्य के रहस्यमय मस्तिष्क के प्रायः सोलहवें भाग की करामात है। परामनोविज्ञान ने पता लगाया है कि अतीन्द्रिय क्षमताओं के भण्डारों में खोपड़ी में कैद लिवलिवा पदार्थ भरा पड़ा है। अतीन्द्रिय क्षमताएँ मात्र ऋषियों को ही उपलब्ध हों ऐसी बात नहीं। अनेकों उस सम्पदा को लेकर जन्म के आरम्भ से ही आते हैं और भविष्य कथन से लेकर अदृश्य दर्शन के ऐसे विवरण बताते हैं जिन्हें देखते हुए वह अविश्वास उठ गया जो मनुष्य की सीमित शक्ति से प्रतिबद्ध मानता था।

यह प्रतिपादन ऋषियों और शास्त्रकारों का ही नहीं कि मनुष्य की काया एक सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला है। उस अभिमत से भौतिक विज्ञानी और तत्वज्ञानी भी सहमत हो गये हैं। संसार में अनेकों प्रयोगशालाएँ हैं जो आविष्कारों और चमत्कारों का सृजन करती हैं। पर उन सबका एक स्थान पर समन्वय कहीं देखता हो तो उसे मानवी कार्य की अदृश्य परतों को उखाड़ कर देखा जा सकता है कि मनुष्य कितना समुन्नत है। तत्वज्ञान के क्षेत्र में वह उतना ही सुसंस्कृत भी है जितनी कि ऋषियों और देवताओं के सम्बन्ध में मान्यता है। सामर्थ्यों की कमी नहीं पर भूल एक ही होती चली आ रही है कि हृदय को विशाल एवं उदार न बनाया जा सका। उपलब्धियों की संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए प्रयुक्त किया गया और यह भुला दिया कि क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है और दुष्कृत्यों का दुष्परिणाम भी होता है। कदाचित् आस्तिकता का प्रकाश उसे उपलब्ध हो सका होता तो इतना सामर्थ्यवान होने पर उपलब्ध क्षमताओं का सदुपयोग कर सकने पर स्वयं धन्य बनता और इस धरातल के वातावरण को स्वर्गोपम बना देता।

एक समय ऐसा भी रहा है कि कुछ अधिनायकों और आतंकवादियों को छोड़कर साधारण मनुष्य यह सोचता रहा है कि तुच्छ, नगण्य एवं भाग्य श्रृंखला में बँधा हुआ है। पर अब विज्ञान ने उन मान्यताओं को बदल दिया और महर्षि व्यास के युधिष्ठिर के कान में कहे हुए इस वाक्य की कि ‘‘मैं एक रहस्य बताता हूँ मनुष्य से श्रेष्ठ और कहीं कुछ नहीं है।’’ इन्हीं शब्दों को अब विज्ञान ने ढिंढोरा पीटते हुए सर्वसाधारण के सामने तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कर दिया है। मनुष्य की अद्यावधि प्रगति आश्चर्यजनक हुई है किन्तु उसकी संरचना को देखते हुए सम्भावनाएँ अत्यधिक ही नहीं असीम भी हैं।

आकाश में जब तब बिजली कौंध जाने से यह अनुमान लगता है कि अनन्त आकाश में असीम विद्युत भण्डार भरा पड़ा है। इसी प्रकार मनुष्यों में से कितने ही जब अपने कला-कौशल और प्रभावी व्यक्तित्व का परिचय देते हैं तो पता चलता है कि जो भूतकाल में हो सका वह भविष्य में भी हो सकता है। जो एक कर सका उसे दूसरा भी कर सकता है। कारण स्पष्ट है कि जिस प्रकार प्रकृति की परत खुलने पर उसके अन्तराल में असीम शक्ति का भण्डार भरा दिखता है उसी प्रकार मनुष्य की शारीरिक और मानसिक संरचना को देखते हुए यह सहज विश्व है कि जो प्रसुप्त है उसे जगाया जा सके तो हर मनुष्य महामानव बन सकता है और दैत्य या देव में से किसी की भी भूमिका निभा सकता है। वह सीमित दिखते हुए भी असंख्यों सम्भावनाओं और क्षमताओं से भूरा पूरा है।

आत्मिकी के प्रतिपादन आरंभ से ही यह रहे हैं। समस्त दैवी शक्तियों और भौतिक संपदाएं मनुष्य के अंतराल में विद्यमान हैं। पर उनका प्रत्यक्षीकरण या उपयोग करने के लिए आत्म परिष्कार का प्रयत्न करने आवश्यकता है। योग और तप द्वारा, आत्मशोधन द्वारा इसी की पूर्ति ऋषि युग में होती रही है और वे अपने को ऋद्धि सिद्धियों का भंडार सिद्ध करते रहे हैं। देवताओं की भूमिका स्वयं निभा सकने के प्रमाण प्रस्तुत करते रहे हैं। अब विज्ञान ने भी उसी स्वर से स्वर मिलाया है और व्यक्ति के शारीरिक सूक्ष्म संरचना और मस्तिष्क की विलक्षणता को देखते हुए यह कहा है कि वह अद्भुत है, अनुपम है, आश्चर्य है। कदाचित् हम अपनी इस वस्तुस्थिति को पहचानें और सक्षम बनने में समर्थ हो सकें तो उतना आगे बढ़ा जा सकता है जिसकी कि आज की परिस्थितियों में तो कल्पना कर सकना भी कठिन है।

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