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Magazine - Year 1985 - Version2

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शक्तियों के दो ध्रुव केन्द्र

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मस्तिष्क का कार्य मात्र इन्द्रियों पर अनुशासन बनाये रखना नहीं है। मस्तिष्कीय सामर्थ्य की जब भी परामनोविज्ञान क्षेत्र में चर्चा होती है, तब जीव-ब्रह्म संपर्क सूत्रों की विवेचना इसी में विद्यमान घटकों के माध्यम से की जाती है। सहस्रार ही शरीर क्षेत्र में अवस्थित ईश्वरीय सत्ता का निवास स्थान है जिसे मस्तिष्क में मध्य भाग में ब्रह्मरंध्र के समीपस्थ माना जा सकता है।

जिस प्रकार अणु-परमाणु से भरी पदार्थ सत्ता का उद्गम केन्द्र है- इलेक्ट्रान एवं उसके भी सूक्ष्म कण प्रति कण। उसी प्रकार शरीर संसार की समस्त गतिविधियों का मूल स्त्रोत- शक्ति केन्द्र है- सहस्रार। ब्रह्म सत्ता का अवतरण इसी स्थान पर होता है। इस शक्ति स्त्रोत को जिसके माध्यम से व्यष्टि चेतना समष्टि चेतना से मिलती है, कहीं ढूँढ़ना है तो उसकी झलक स्थूल रूप में मस्तिष्क मध्य में विद्यमान विद्युत्स्फुल्लिंग के फव्वारे “रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम” के रूप में देखी जा सकती है। वैज्ञानिक बताते हैं कि मस्तिष्क के मध्य भाग से सहस्रों विद्युत स्पन्दन सतत् प्रस्फुटित होते दिखाई देते हैं। सुषुम्ना तथा मस्तिष्क के सन्धि स्थल से कुछ ऊपर मस्तिष्क मध्य (मिड ब्रेन) नामक स्थान से विद्युत उन्मेषों को घनीभूत होते तथा ऊपर की ओर उठकर सहस्रों स्नायु केन्द्रों तथा अरबों स्नायु कोशों को उत्तेजित प्रभावित करते देखा गया है। इन्हें ‘एसेन्डिंग रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम’, ‘स्पेसिफिक’ एवं ‘डीफ्यूज’ ‘थेलेमिक प्रोजेक्शन’ नाम दिया गया है। ये सारे शरीर को चेतन बनाये रखने तथा निद्रा-जागृति के विभिन्न चक्रों के लिये उत्तरदायी माने जाते हैं। इन स्पन्दनों को यदि इच्छानुकूल नियन्त्रित किया जा सके तो उनके प्रभाव से समग्र मस्तिष्क के किसी भी स्नायु केन्द्र को इच्छानुसार सक्रिय तथा शिथिल बनाये जा सकने जैसी असंभव उपलब्धियों को सम्भव कर दिखाया जा सकता है।

योग एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। इसमें शक्ति केन्द्र जागरण का अर्थ केवल केन्द्रों की तीक्ष्णता तथा सक्रियता को बढ़ा देना ही नहीं, उन्हें सुव्यवस्थित, सुनियोजित करना भी है। विद्युत्धाराओं के स्पन्दन विभिन्न विकृत स्थानों को उत्तेजित कर मिर्गी, हाथ-पैरों की असामान्य हलचलों को जिस प्रकार जन्म देते हैं व उसकी आँशिक विद्युत कंपन प्रक्रिया को जिस प्रकार “इलैक्ट्रो एनसेफेलोग्राफी” यन्त्र द्वारा पकड़ा जा सका है उससे स्पष्ट होता है कि ये विद्युत स्पंदन सामान्य अवस्था में अति तीव्र एवं गतिमान होते हैं। इनसे भले ही निषेधात्मक पक्ष सिद्ध होता है, यह तो प्रमाणित हो ही जाता है कि इन विधुत्धाराओं को सुनियोजित कर सहस्रार जागरण की- न्यूटन क्रिस्टल रूपी केन्द्रों को जगाकर उनसे समष्टि चेतना से संपर्क की क्रिया-प्रतिक्रिया उत्पन्न करना सम्भव है। इसके लिए बाह्य इलेक्ट्रोडों की आवश्यकता नहीं। अन्दर का विद्युत्संस्थान ही इतना समर्थ सक्षम है कि उसको सुव्यवस्थित कर किसी भी प्रसुप्त केन्द्र को जगाया जा सकना पूर्ण रूपेण सम्भव है।

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पृथ्वी पर विराजमान जीवधारी मनुष्य एक विलक्षण विद्युत्दबाव से प्रतिक्षण प्रभावित होता रहता है। पृथ्वी की सतह और वायु मण्डल के आयनोस्फियर्स के मध्य लगभग तीन लाख बोल्ट की शक्ति का धन विद्युत विभव होता है। मानवी काया एक अच्छी विद्युत्चालक है। यह काया जिस विशाल विद्युत संधारक के मध्य बैठी है उसे वैज्ञानिक ‘ग्लोबल केपेसिटट’ कहते हैं। यह किसी भी स्थिति में हलचल रहित नहीं है। इसमें सतत् विद्युत स्खलन होता रहता है। ‘शूमैन रेजोनेन्स’ के नाम से 7 से 8 तरंगें प्रति सेकेंड की आवृत्ति में विद्यमान यह विद्युत प्रवाह जिस प्रकार मानवी काया को उत्तेजित प्रभावित करता रहता है उसका मूल कारण यह है कि इन तरंगों का गुण हमारे मस्तिष्क की विद्युत तरंगों से अत्यधिक साम्य रखता है। केवल 20 बाट विद्युत शक्ति से संचालित-अरबों सक्रिय न्यूरान्स व उन्हें जोड़ने वाले तन्तु संस्थान के ढांचे से बना यह मस्तिष्क ब्रह्मांडीय विद्युत की आवृत्ति पर ही चलता है। यही प्रमुख कारण है कि मनुष्य के दैनन्दिन क्रियाकलाप विद्युतीय क्षेत्रों-विद्युत चुंबकीय तरंगों तथा रेडिएशन की लहरों से सत्त प्रभावित होते रहते हैं।

वैज्ञानिक अध्ययन-निष्कर्ष इस कथन की पुष्टि करते हैं कि मानवी सामर्थ्य असीम है। केंद्रिय जगत का एक प्राणी-मानव अपनी उपलब्ध शक्ति सामर्थ्यों का सीमित उपयोग ही कर पाता है। यदि किसी प्रकार अपने संस्थान को जगाया-उत्तेजित किया जा सके तो उस महत् चेतना संस्थान शक्ति भण्डार से संपर्क स्थापित कर सकना भी सम्भव है। ईथर के ब्रह्मांडव्यापी महासागर में दृश्य एवं अदृश्य-पदार्थ परक तथा चेतना प्रधान शक्ति छिपी पड़ी है। यह महाप्राण का महासागर है। इस सागर की ही लघु संरचना मानवी काया है, ब्रह्मरंध्र एवं सहस्रार एवं जिसके संपर्क माध्यम हैं। हर जीवधारी अपनी-अपनी पात्रता के अनुसार इस भण्डार से वैभव अनुदान प्राप्त करता है। साधना उपचार-ध्यान धारणा आदि के विभिन्न प्रयोगों द्वारा इस सामर्थ्य को बढ़ या-विकसित किया जा सकता है।

एरियल या एन्टीना ट्रान्समीटर द्वारा भेजी शब्द किरणों को पकड़ते हैं। उनको इतना शक्तिशाली बनाया जाता है कि सुदूर क्षेत्रों से आने वाली तरंगों को पकड़कर भी उन्हें ध्वनि में परिवर्तित किया जा सके। ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क के न्यूरान्स एक प्रकार के रेडियो क्रिस्टल, एंटीना या एरियल हैं। वे ब्रह्मांड में संव्याप्त तरंगों को पकड़ते हैं तथा वाँछित प्रवाह को, व्यक्ति को सामर्थ्यशाली बनाने वाली ऊर्जा में बदल देते हैं।

सहस्रार की जैव संरचना को रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम के रूप में देखते हुए उसकी एक भव्य राडार या एण्टीना के रूप में कल्पना की जा सकती है जो तरंगों को पकड़कर अरबों स्नायु कोशों तक भेजता है, उनमें विद्युत सक्रियता बढ़ाता है। अलंकारिक रूप में सहस्रार की सहस्र दल कमल-सहस्र फन सर्प के रूप में कल्पना की गयी है। ब्रह्मलोक की व्याख्या में बृहत् क्षीर सागर-सहस्र फन वाले शेषनाग की शैया एवं पर विष्णु भगवान के शयन का वर्णन है। वस्तुतः क्षीर सागर मस्तिष्क में विद्यमान ग्रेमैटर है। सहस्रार कमल ही रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम है जो सारे ग्रेमैटर में मध्य मस्तिष्क से ऊपर तक फैला हुआ है। इस संस्थान में अवस्थित चेतना ही ब्रह्म सत्ता के प्रतीक-भगवान विष्णु हैं। साधारण स्थिति में यह क्षेत्र प्रसुप्त-निष्क्रिय ही पड़ा रहता है इसी कारण इसमें भगवान सोते हुए दिखाए जाते हैं। यही शिवलोक है जहाँ मानसरोवर व कैलाश है। इन अलंकारिक विवरणों के पीछे एक ही उद्देश्य है-समष्टि चेतना को अपने अन्दर अवस्थित देखना-उसकी गरिमा को पहचानना तथा उससे अनुदान प्राप्त करना। आत्मा-परमात्मा के मिलन-अद्वैत की स्थिति की अनुभूति यहीं की जाती है। योगी इसी केन्द्र में प्राण को विकेन्द्रित कर ब्रह्मांड का विचरण और नियन्त्रण जैसी सफलता प्राप्त करते हैं।

सहस्रार को महत् चेतना का द्वार माना गया है। मूलाधार में प्रसुप्त पड़ी सर्पिणी कुण्डलिनी यहीं पर मुखबंध कली के खिलने के रूप में विकसित होती है तथा शतदल कमल के सहस्रार के रूप में उसका विकास होता है। सहस्रार को स्वर्गलोक का कल्पवृक्ष कहा गया है। प्रलयकाल में भी शेष रहने वाला अक्षय वट, गीता का ऊर्ध्वमूल-अश्वस्थ-बोधि वृक्ष आदि उपमाएं इस ब्रह्म बीज को इसी कारण दी गयी है कि अपनी जागृत स्थिति में यह साधक को दिव्य सत्ता संपन्न बनाता है- पिंड में संव्याप्त चेतन सत्ता के तारों को समष्टि सत्ता के चेतना पुँज से जोड़ता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं धन्य बनता है व अपने संपर्क क्षेत्र के अनेकानेक व्यक्तियों को दिव्य आलोक से भरा-पूरा बनाता है।

सहस्रार की आध्यात्मिक संरचना को दृष्टिगत रख शरीर में उसके स्थूल प्रतिनिधि की कल्पना की जाय तो सहस्त्राधिक स्फुल्लिंगों में विभाजित मध्य मस्तिष्क से प्रवाहित ‘रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम’ से उसकी संगति ठीक-ठीक बैठ जाती है। मस्तिष्क के एक-एक केन्द्रक-नाभिक, ग्रेमैटर के गुच्छों के रूप में बिखरे पड़े न्यूरॉनल सेण्टर्स को ये प्रवाह उत्तेजित करते हैं तथा उन्हें प्रसुप्त से जागृति की स्थिति में लाते हैं। इस स्थान से न केवल काया की अचेतन गतिविधियों का नियमन ‘इच्छानुसार ‘मानिटरिंग’ भी। जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह जो इस स्थान पर केन्द्रीभूत होता है, समग्र काया के स्नायु तन्तुओं का सम्मिश्रित स्वरूप है। इस स्थान पर विद्युत की सघनता सारी काया में सर्वाधिक पायी गयी है। यहाँ से जो प्रवाह चलते हैं वे रेटिकुलर (जालीनुमा) प्रोजेक्शन के माध्यम से एक-एक स्नायु कोष को प्रभावित करते हैं- उनकी आवृत्ति को ब्रह्मांडीय तरंगों की आवृत्ति से जोड़ देते हैं। आदान-प्रदान की क्षमता-वाँछित को ग्रहण करने की सामर्थ्य इसी संस्थान के माध्यम से अर्जित हो पाती है।

इस आदान-प्रदान का, समष्टि चेतना से संपर्क का सबसे महत्वपूर्ण एवं सशक्त पक्ष यह है कि भावना सम्बन्धी मस्तिष्कीय स्नायु रस स्रावों का नियन्त्रण भी इसी स्थान से होता है। भावनाओं का रसायन शास्त्र भी अपने आप में विचित्र है। आज का वैज्ञानिक अब उन रहस्यों को जान सकने में समर्थ हो गया है जिन्हें अपनी शैशवावस्था में अविज्ञात कहकर छोड़ दिया जाता था। भाव-सम्वेदनाओं जैसी विशिष्टताओं का सम्बन्ध अब न्यूरोकेमीकल ट्रांसमीटर्स से जोड़ा जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि अब स्वेच्छा से अति भावुकता पर नियन्त्रण व सामान्य स्थिति में पायी जाने वाली भावपरक मान्यताओं का नियमन-विस्तरण सम्भव है। मस्तिष्क के मध्य भाग से ऊपर दोनों हेमीस्फीयर्स के बीच एक संस्थान पाया जाता है- ‘लिम्बिक सिस्टम’ इसी में आनन्द, दुःख, भाव-सम्वेदना, यौन भावना सम्बन्धी महत्वपूर्ण केन्द्र है। हारमोन ग्रन्थियों के माध्यम से क्रियाशील यह संस्थान पूरी तरह से अपने स्नायु उत्तेजन हेतु ‘रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम’ के द्वारा भेजे गये सन्देशों पर निर्भर है। ‘ऐनकेफेलीन’ नामक रस स्रावों स्नायु सन्धि स्थलों से प्रवाहित कर ये आनन्द की अनुभूति कराते हैं, भावनाओं को उत्कृष्ट बनाते हैं तथा उनके सुनियोजन के लिये चिन्तन प्रदान करते हैं। कैलीफोर्निया युनिवर्सिटी के वैज्ञानिक द्वय जॉन ह्यूजेज एवं श्री लीक्स तथा जॉन हापकिन्स मेडीकल स्कूल के ‘सोलोमन स्नीडर’ द्वारा आविष्कृत इन हारमोन्स से चिकित्सकों को तो मनोरोगों एवं भावनात्मक विक्षोभों का समाधान करने में सहायता मिली है परन्तु अध्यात्म विधा के अध्येता इस अमृत कलश के सदुपयोग का, सहस्रार के जागरण से भाव योग, श्रद्धा-समर्पण से अद्वैत की स्थिति की प्राप्ति का प्रतिपादन करते हैं। यही वस्तुतः सहस्रार का शाश्वत स्वरूप भी है।

दक्षिणी धरातल समुद्र तल से 19000 फुट उभरा हुआ है। इसे विश्व शरीर की जननेन्द्रिय का उभार कह सकते हैं। पुराणों में इसे शिवलिंग कहा गया है। नारी की जननेन्द्रिय में भी यह उभार छोटा रूप में भी पाया जाता है।

मस्तिष्क ब्रह्मरंध्र एक गड्ढा है। आँख, कान, नाक, मुख आदि भी इसी क्षेत्र के गड्ढे हैं। इन्हें उत्तर ध्रुव कह सकते हैं। उन्हीं क्षेत्रों से विविध प्रकार की प्रेरणाएँ उत्पन्न होती हैं। इन उत्कट आकाँक्षाओं को ज्ञान या काम भी कह सकते हैं। यही कुण्डलिनी भी है।

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