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Magazine - Year 1989 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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विरोध नहीं समभाव के विषय में सोचें!

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श्रुति का वचन है कि “सर्व वै खिल्विदं ब्रह्म” अर्थात् यह सब विराट ब्रह्माण्ड ब्रह्म ही है। विराट ब्रह्म की परिकल्पना में इस विश्व को ही ईश्वर का दृश्य स्वरूप माना गया है। अर्जुन, कौशल्या, काकभुशुण्डि आदि ने ईश्वर दर्शन का आग्रह किया तो उन्हें विराट विश्व की झाँकी करके ही सन्तोष करना पड़ा। निराकार का अपना निजी स्वरूप कोई हो ही नहीं सकता। कलेवर समेत ही उसकी झाँकी होने की अपेक्षा की जाती है। यह कलेवर और कुछ नहीं प्रकृतिपरक ही हो सकता है, भले ही वह प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष दृश्य हो या अदृश्य। वह वस्तु रूप भी हो सकता है और कल्पना शक्ति के आधार पर स्व-विनिर्मित भी।

ईश्वर सान्निध्य की चर्चा का जहाँ प्रसंग आता है उसे अन्तराल में, हृदय देश में, अन्तःगुहा में अवस्थित ही बताया जाता है। चेतना का अणु पक्ष आत्मसत्ता में है और विभु पक्ष ब्रह्माण्डीय चेतना में। दोनों एक ही तत्व के बने हैं। चिनगारी और आग, बूँद और जलाशय, घटाकाश और महाकाश में मात्र आकार भिन्नता है। सत्ता एक ही है। ब्रह्म सान्निध्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आत्म परिष्कार ही एक मात्र उपाय माना गया है। इसी के निमित्त उपासना, साधना और आराधना का त्रिविध प्रयास करना पड़ता है। योग और तप का बहुमुखी आधार इसी निमित्त जाना और किया जाता है। मैले दर्पण में अपनी छवि दिखाई नहीं पड़ती। मैले पानी में सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं चमकता। इसी प्रकार दुश्चिन्तन और कुकर्मों से सड़े गले जीवन से अन्तःकरण ऐसा दूषित हो जाता है कि उसमें ईश्वर सत्ता विद्यमान होते हुए भी आभास मिल नहीं पाता। इस अवरोध को दूर करने के आत्म शोधन के ही प्रयास करे पड़ते हैं। अपूर्णता से उबर कर पूर्णता प्राप्त करने का यही एक मात्र मार्ग है। अध्यात्म तत्व दर्शन में इसी का प्रतिपादन है। साधनापरक समस्त कर्मकाण्ड इसी की पूर्ति के लिए विनिर्मित किये गये हैं। जो जिस अनुपात से आत्मशोधन करता जाता है उसके भव बन्धन उसी मात्रा में कटते हैं। ब्रह्म सान्निध्य का रसास्वादन करने का अवसर उसे उसी अनुपात में मिलता चला जाता है। जीव का प्रयास ब्रह्म सान्निध्य के लालच के मृग की नाभि में कस्तूरी भरी होने पर भी उसे अन्यत्र ढूँढ़ते फिरने की तरह शास्त्रों में बताया गया है।

तात्विक प्रतिपादन और अनुभवों का निर्धारण जीव और ब्रह्म की एकता का समर्थन है। इसे जड़ चेतन का समन्वय भी कह सकते हैं।

इतना होते हुए भी यह देखा जाता है कि दोनों सत्ताओं में पृथकता ही नहीं प्रतिकूलता भी है। ईश्वर के गुण जीव में नहीं पाये जाते और जीव स्तर की गतिविधियाँ अपनाने के लिए ईश्वर की विवशता भी समझी जा सकती है। जो व्यापक है वह एक केन्द्र पर सिकुड़ कर केन्द्रित कैसे हो सके? यदि होने का प्रयास भी करे तो सृष्टि में वह अन्यत्र कैसे उपस्थित हो सकेगा? शून्य को पूरा कौन करेगा?

पुरातन प्रतिपादनों और निर्धारणों को समझ सकने के उपरान्त वस्तुस्थिति सहज समझी जा सकती है। फिर भी इन दिनों दोनों के पृथक् होने की कठिनाई का जो वर्णन किया जाता है। पृथकता के कारण होने वाली हानियों का जो वर्णन किया जाता है एवं अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय पर जो जोर दिया जाता है, उन प्रतिपादन कर्ताओं के मन्तव्यों को समझना चाहिए। शब्दों के भ्रम जंजाल में कई बार वह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि जो कुछ कहा जा रहा था, चाहा जा रहा था उसके पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या था और किस कठिनाई का क्या समाधान खोजा जा रहा था? इन दिनों चल रही चर्चा के सम्बन्ध में ऐसा ही शब्द जंजाल बाधक हो रहा है। उस उलझन की वास्तविकता गहराई में उतर कर समझना होगा ताकि जो तथ्य विचारशीलों को उद्विग्न करते हैं, उन्हें समझा और उनका समाधान खोजा जा सके।

विज्ञान पक्ष की मान्यता है कि जो प्रत्यक्ष है, उतना ही सत्य है। इसमें जो तुरन्त लाभ दिख सके, अपनी सत्ता का परिचय दे सके, वही मान्य है। चूँकि ईश्वर, धर्म और तत्वदर्शन के प्रतिपादन प्रत्यक्ष नहीं हैं इसलिए उन्हें मान्यता क्यों दी जाय?

अध्यात्म का कथन है शास्त्रों, आप्तवचनों में ही पूर्ण सत्य समाहित है। उन्हें, झुठलाना ऋषियों और शास्त्रों का अपमान है। विज्ञान की खोजें नित नई सामने आती हैं। पिछले कथनों को झुठलाती चलती हैं ऐसे अपरिपक्व प्रतिपादनों की बात क्यों सुनी जाय?

विरोध के मुख्य तथ्य यही हैं। विरोध चल पड़ने पर कटु प्रहार एवं दोषारोपण के अनेकों प्रसंग आते हैं और परस्पर गाली गलौज की भाषा का प्रयोग होने लगता है। मन्तव्यों को मिथ्या ही नहीं निहित स्वार्थों से प्रेरित तक कहा जाने लगता है। आस्तिक-नास्तिक स्तर का यही मल्लयुद्ध खून खराबे तक पहुँचता रहा है।

विज्ञान के सम्बन्ध में अध्यात्म पक्ष द्वारा कहा जाता है कि उसके द्वारा प्रकृति का असाधारण दोहन किये जाने पर भविष्य के लिए कुछ न बचेगा। प्रदूषण फैलने की विषाक्तता प्राणघातक होगी। लोग काहिल बनेंगे। इसके कारण समस्त सत्ता सम्पदा सिमट कर कुछ ही हाथों में सीमित हो जायगी। नीति मर्यादाओं का कोई मूल्य न रहेगा आदि।

इसी प्रकार विज्ञान ने अध्यात्म को अन्ध विज्ञान बताया है। धर्म को अफीम की गोली कहा है। आधार रहित कल्पनाओं की उड़ानें बताया है। ईश्वर यदि नियामक है तो वही कर्म अपनी विशेषताओं के कारण प्रकृति क्यों नहीं कर सकती? अध्यात्म परावलम्बन है। पराक्रम साहस को काटता और व्यक्ति को दीन दुर्बल बनाता है।

दोनों पक्ष अपने अपने समर्थन से बहुत कुछ कहते रहे हैं। दूसरों पर लाँछन लगाने में काई कसर नहीं रहने देते रहे हैं। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि दूसरे पक्ष के प्रतिपादनों और आक्षेपों में क्या कुछ सचाई भी है? भ्रान्तियों के निराकरण और उपयोगी प्रतिपादनों को ग्रहण करने की यदि मनोभूमि रही होती तो जो खाई लगातार बढ़ती चली आई है वह घटती। एक दूसरे के परिश्रम को सराहता और जो ग्रहणयोग्य होता अपनाता। जहाँ सहमति नहीं बन पड़ रही हो उसे सुलझाने के लिए कभी उचित अवसर आने की प्रतीक्षा करता, तो ऐसी स्थिति न बन पड़ती जैसी आज है।

वस्तुतः दोनों ही पक्ष असाधारण शक्ति सम्पन्न हैं। उनके प्रतिपादनों में इतनी सचाई एवं उपयोगिता भी है जिसे जन-साधारण को बताते हुए औचित्य अपनाने की पृष्ठभूमि तैयार की जा सके। विग्रह से शत्रुता उपजती है। आग्रह प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है और अहंकार इस प्रकार आड़े आता है कि तथ्यों के निरीक्षण-परीक्षण की गुंजाइश तक नहीं रहती वरन् विरोध में मजा आता है। दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ती है।

इस तनावपूर्ण स्थिति में एक तीसरा पक्ष उभरा है जिसे विवाद से उत्पन्न दिग्भ्रम ही कहा जा सकता है। सेनायें परस्पर विरोधी युद्ध की साज सज्जा इसी मनःस्थिति में बनाती हैं। सभी जानते हैं कि उपयोगी पक्षों का विग्रह सर्व साधारण के लिए, संसार के लिए हानिकारक की सिद्ध होता है। देवासुर संग्राम लम्बे समय तक चलता रहा, पर उससे किसको क्या मिला? दोनों ने ही हानि उठाई। इस स्थिति में किसी को भी शान्ति से रहने एवं प्रगति करने का अवसर न मिला।

अन्ततः दूरदर्शी बुद्धिमत्ता उभरी। सहयोग की बात सोची गई। समुद्र मंथन की योजना बनी। लड़ झगड़ में खर्च होने वाली शक्ति सृजन प्रयोजन में लगी। इस माहौल में निराश बैठ हुए कच्छप भगवान, वासुकी महासर्प, मन्दराचल पर्वत पर उस प्रयास में सहयोग के लिए कटिबद्ध हो गये। मंथन में चौदह रत्न निकले। उनके माध्यम से उन दोनों पक्षों को नहीं सर्वसाधारण को भी अनेक प्रकार से लाभान्वित होने का अवसर मिला।

उसी घटना क्रम का स्मरण करते हुए विचारशील वर्ग द्वारा सोचा जा रहा है कि संसार की इन दोनों सर्वोपरि कही जा सकने योग्य शक्तियों को सामंजस्य और सहयोग का तालमेल बिठाने की स्थिति में लाया जाय। अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय किया जाय। यह आवाज हर दिशा में उठ रही है। विश्व के मूर्धन्य विचारकों का यही अभिमत है कि इनके मध्य जो खाई खुद गई है उसे पाटने के लिए प्रबल प्रयत्न किया जाय।

वास्तविकता यह है कि दोनों के बीच सामंजस्य की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। वे एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं। एक के सर्वथा पृथक् रह कर दूसरा अपना अस्तित्व तक बनाये नहीं रह सकता। पदार्थ के बिना चेतना पंगु है और चेतना की प्रखरता के बिना पदार्थ अंधे के समतुल्य। अंधे पंगे परस्पर मिल कर नदी पार करने की योजना बना सकते हैं और पार जाने में सफल हो सकते हैं। यही स्थिति उपरोक्त विचार के सम्बन्ध में भी है। पृथक् रह कर तो वे अभीष्ट लाभ उठाने से वंचित ही रहेंगे और असहयोग एवं विग्रह जन्य घाटा ही उठाते रहेंगे। अब समय आ गया है कि विरोध को मैत्री में परिणत किया जाय।

अध्यात्म और विज्ञान दोनों का एक ही लक्ष्य है-सत्य की खोज। यह तभी बन पड़ता है जब मस्तिष्क खुला रखा जाय। पिछली मान्यताओं में यदि नये तथ्य सामने आने पर परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़े तो उसके लिए तैयार रहा जाय। शोध प्रक्रिया इसी प्रकार सम्पन्न होती है।

अब तक दोनों पक्षों ने बहुत कुछ जाना है। पर जो जानने के लिए शेष है वह उससे भी कहीं अधिक है, जो अब तक हस्तगत हो चुका। विज्ञान अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह समझता और अपनाता है। तभी तो पुराने शोध निष्कर्षों से संतुष्ट न रहकर आगे की बात जानने, अधिक गहराई में उतरने और यदि पिछले में सुधार संशोधन करना पड़े तो उसके लिए तैयार रहता है। उपलब्धियों को पूर्ण मानने की उसकी प्रवृत्ति है ही नहीं। इसी का परिणाम है कि नित नये आविष्कार प्रकट होते चलते हैं और उनके द्वारा अधिक क्षमतायें प्राप्त करते चलने के अवसर मिलते रहते हैं। यदि पूर्णता का आग्रह किया गया होता तो उसका परिणाम निश्चित रूप से यही होता कि अग्रगमन की संभावनायें समाप्त हो जातीं। अधिक नया जानने और अधिक महत्वपूर्ण प्राप्त करने का चलता हुआ उपक्रम अवरुद्ध होकर रह जाता।

विज्ञान ने सिद्धान्तों की सचाई के सम्बंध में आस्था उत्पन्न की है और उसका समुचित लाभ भी उठाया है। धर्म को भी प्रामाणिकता के लिए एकता का एकात्मकता का सिद्धान्त अपनाना होगा तभी विग्रह और भ्रम फैलाने के लाँछन से मुक्ति मिल सकेगी। सभी एक न हो सकते हों कम से कम सहिष्णुता, समन्वय, समभाव तो अपनाना ही चाहिए। भले ही निजी अभिरुचि के अनुरूप कोई किसी भी प्रकार का प्रयोग-उपयोग अपनाता रहे। विज्ञान सार्वभौम, सर्वजनीन और सर्वोपयोगी है। अध्यात्म को भी इसी स्तर का बनकर अपनी महत्ता प्रतिपादित करनी चाहिए।

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