Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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विशेषताओं में हम से कहीं आगे हैं अन्यान्य प्राणी
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विकास क्रम में मनुष्य सबसे आगे माना जाता है। माता के गर्भ में प्रवेश करते समय उसका भार एवं विस्तार जितना होता है उसी को अस्तित्व का प्रथम परिचय कह सकते हैं। इस समय उसकी जो स्थिति होती है उसकी तुलना में प्रौढ़ावस्था तक पहुँचते-पहुँचते वह प्रायः अपनी वृद्धि एक अरब गुनी बढ़ा लेता है। इस विकासक्रम को देखकर उसकी प्रगतिशील क्षमता पर आश्चर्य होता है पर यह नहीं मानना चाहिए कि अन्य प्राणी सर्वथा पिछड़ी स्थिति में ही पड़े रहते हैं और अपनी प्रगति नहीं करते है। अपने आरंभ काल में प्राणियों की जो स्थिति थी उसकी तुलना में सभी ने आशाजनक उन्नति की है और इस समय वे इतने आगे बढ़ गये हैं कि उसे देखकर आश्चर्य चकित होना पड़ता है। इसमें ईश्वर की निष्पक्ष न्यायकारिता का ही पग-पग पर दर्शन होता है।
विकास एवं रचनाक्रम में वरिष्ठ कहा जाने वाला मनुष्य अपनी विशिष्टता प्रतिभा, बुद्धि वैभव पर इतराता भले ही हो पर सृष्टि के अन्यान्य प्राणियों की तुलना में कई अर्थों में वह पीछे रह जाता है। अकशेरुकीय प्राणियों में काकरोच को ही लें तो प्रकृति ने उसकी शारीरिक संरचना को इतना मजबूत बनाया है कि आदमी की तुलना में-वह सौगुना अधिक विकिरण सहन कर सकता है। मानवी काया पर गुरुत्वाकर्षण के 18 जी के बराबर दबाव पड़ने से हड्डियाँ टूटने-चरमराने लगती हैं, किन्तु तिलचट्टा है कि जिस पर 126 जी. का दबाव चार घंटे तक निरन्तर पड़ते रहने पर भी वह जीवित रहता और अपना सामान्य किया कलाप करता रहता है।
वैज्ञानिकों ने अनुसंधानों के आधार पर यह पता लगाया है कि भीमकाय शरीर वाले सरीसृप- डाइनासौर, जो करोड़ों वर्ष पूर्व कभी इस धरती पर छाये हुए थे किन्तु किन्हीं परिस्थितियों वश अब विलुप्त हो चुके हैं, काकरोच भी उन्हीं का समकालीन प्राणी है। डाइनासौर जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को नहीं झेल सके और अपना अस्तित्व गँवा बैठे उसी वातावरण में काकरोच जीवित बने रहे। ईश्वर प्रदत्त मजबूत सुरक्षा कवच से ढका शरीर एवं परिस्थितियों से तालमेल बिठा सकने की अद्भुत कुशलता ने ही इसे सुरक्षित रखा है।
विभिन्न-प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर वैज्ञानिकों ने पाया है कि काकरोच पाँच महीने तक बिना पानी के मात्र सूखे भोजन पर रह सकता है। दो महीने केवल जल पर तथा एक माह तक बिना जल और भोजन के रखे जाने पर उनके शरीर पर कोई दुष्प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके अंडे ने निकले हुए नवजात बच्चे भी आठ दिन तक बिना भोजन के रह सकते हैं। इन्हीं क्षमताओं से सम्पन्न होने के कारण आज स्पेस रिसर्च में इस जीव को विशिष्ट प्रकार के कैप्सूलनुमा उपकरणों में पर्याप्त हवा मात्र भर कर ‘स्पेस’ में भेजा जाता है। उसके स्नायुविक एवं पेशीय प्रतिक्रियाओं की जानकारी प्राप्त करने के लिए इलेक्ट्रोड लगा दिये जाते हैं।
प्राणिशास्त्रियों का कहना है कि चमगादड़ तब क्रियाशील होते हैं जब उनका रक्त गरम होता है। प्रसुप्त अवस्था में यह ठंडा हो जाता है। सक्रिय अवस्था में उसके हृदय की धड़कन 180 प्रति मिनट और श्वास-प्रश्वास की गति 8 प्रति सेकेंड होती है। सो जाने पर हृदय की धड़कन 3 प्रतिमिनट और साँस की गति 8 प्रति मिनट अर्थात् 60 गुना कम हो जाती है। यही कारण है कि प्रयोगशाला में प्रयोग परीक्षण के लिए चमगादड़ों को रेफ्रिजरेटर में रखा जाता है जिससे वे तुरंत जड़ समाधि में पहुँच जाते हैं। इससे न उन्हें खुराक देने की आवश्यकता होती है और न देखभाल ही करनी पड़ती है। जीवित रहने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता होती है, शरीर के अन्दर एकत्रित चरबी से उसकी पूर्ति होती रहती है। कई महीने तक वे इस स्थिति में बने रह सकते हैं। सामान्य मनुष्य के लिए यह संभव नहीं। समाधि की अवस्था तक कोई विरले ही पहुँच पाते हैं।
सामान्यतः जीवधारियों में उनके कद के अनुसार उनकी आयु हुआ करती है। उदाहरणार्थ चूहे की आयु एक वर्ष, कुत्ते की 12 वर्ष और घोड़े की 17 वर्ष होती है। चमगादड़ का कद चूहे जितना ही होता है जिसके हिसाब से उसकी आयु एक वर्ष होनी चाहिए, परन्तु वह 20 वर्ष या उससे अधिक समय तक जीवित रहता है। विख्यात प्राणिविद् जेम्स पोलिंग के अनुसार यह कहा जा सकता है कि नियम के अनुसार वे असामान्य आयु वाले होते हैं। मनुष्य के भारी भरकम डील डौल वाली काया से इसकी तुलना करें तो वह इसके सामने नगण्य ठहरेगा।
इसी तरह हम जो भोजन ग्रहण करते हैं उनमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा जैसे पोषक तत्वों की बहुलता रहती है। सन्तुलित आहार न मिलने पर जीवनी शक्ति क्षीण होती है। परन्तु चमगादड़ जीवन पर्यन्त विशेषकर एक ही तत्व चरबी वाले कीड़ों को खाता रहता है फिर भी न तो उसकी जीवनीशक्ति कमजोर पड़ती है और न स्वास्थ्य लड़-खड़ाता है।
पिट्सवर्ग यूनिवर्सिटी के प्रख्यात जीव विज्ञानी डा. फिलिप क्रुट्ज्स ने चमगादड़ों का गहन अध्ययन करने के पश्चात् पाया है कि यही एक ऐस प्राणी है जिसकी रक्तवाही धमनियों पर आयु वृद्धि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता चाहे वह एक वर्ष का हो अथवा 20 वर्ष का। डा. क्रुद्ज्स के अनुसार मनुष्यों में सामान्यतया आयु-वृद्धि के साथ-साथ रक्त नलिकाओं की दीवाल मोटी होती जाती है तथा उनके आकुंचन प्रकुंचन की क्षमता कम हो जाती है, पर चमगादड़ों में ऐसा नहीं होता। यह किन विशिष्टताओं के कारण होता है, वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान का विषय बना हुआ है।
वैज्ञानिकों ने चमगादड़ को ‘अनुपम प्राणी’ की संज्ञा दी है। वस्तुतः यह नाम उन्हें उनकी विशेषताओं के कारण ही मिला है। हाईस्पीड फोटोग्राफ द्वारा यह देखा गया है कि जब उसे खाने के लिए बहुत अधिक मात्रा में कीड़े-मकोड़े मिल जाते हैं तो वह अपने पंखों को थैलीनुमा आकार दे देता है और उसी में उन्हें एकत्र कर लेता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उड़ते समय भी खाता रहता है। ध्रुव प्रदेशों को छोड़ कर सर्वत्र पाया जाने वाला यह विलक्षण जीव खदानों, गुफाओं खण्डहरों, वृक्षों आदि में निवास करता है किन्तु अभी तक यह एक रहस्य ही बना हुआ है कि जाड़े की ऋतु में करोड़ों की संख्या में ये कहाँ गायब हो जाते हैं।
सृष्टि के आरंभ में जीवन अमीबा जैसे छोटे प्राणियों के रूप में प्रकट हुआ था। उसमें जन्मजात रूप से विद्यमान प्रकृति की महत्वाकाँक्षा ने आगे बढ़ने और साधन उपलब्ध करने का पुरुषार्थ उत्पन्न किया। जो चाहता है सो करता है-जो करता है सो पाता है, का सिद्धान्त अपनाकर विभिन्न समुदायों के प्राणी वर्तमान स्तर तक पहुँचे हैं। भविष्य में उनकी महत्वाकाँक्षा ही उपयुक्त दिशाधारा का निर्धारण करेगी और उसी प्रेरणा के अनुपात से वे क्रमशः आगे बढ़ते चलेंगे। परन्तु मनुष्य की स्थिति कुछ दूसरी ही है। वह पूर्वजों की तुलना में आगे बढ़ने की अपेक्षा अवनति की ओर अग्रसर होता जा रहा है। वह इन प्राणियों से ही कुछ शिक्षा ले तो आगे बढ़ने का मार्ग दर्शन लेता रह सकता है।