Magazine - Year 1989 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
नवयुग विवेक पर अवलम्बित होगा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इतिहास के पृष्ठ उलटने पर लगता है कि विगत कुछ सहस्राब्दियों में ही इतना कुछ हेर-फेर हो गया है, जिसे आश्चर्यजनक और अप्रत्याशित ही कहा जा सकता है।
अब से दो हजार वर्ष पहले संसार भर की मनुष्य आबादी 30 करोड़ के लगभग थी। चारों और सघन वन फैले हुए थे। कृषि थोड़ी ही भूमि पर होती थी। गृहउद्योगों से ही जरूरत की चीजें बन जाती थी। कल-कारखानों की बात भी नहीं सूझी थी। युद्ध या तो होते ही नहीं थे या फिर तीर-कमान, गुदा-मुगदर के सहारे कुछ लोग ही हार-जीत का फैसला कर लेते थे। निर्वाह भर के साधनों में संतोष रहता था। महत्वाकाँक्षाएँ न उभरती थी और न उनके लिए किसी को धरती आसमान के कुलावे लगाने पड़ते थे। जागरूक प्रहरियों की तरह साधु-ब्राह्मण सर्वत्र परिभ्रमण करते रहते थे। जहाँ भी तनिक टूट-फूट देखी, वहीं मरम्मत कर देते थे। ऐसा था सौजन्य और सहयोग का जमाना-कुछ ही सहस्राब्दियों पहले। सतयुग उसी को कहा जाता था। शासन और समाज की व्यवस्था स्थानीय पंचायतें ही कर लेती।
आफत तब से आई जब से सैनिकों के गिरोह जमा करके लूट-पाट पर उतारू राजा सामंतों के गढ़ बनने लगे। एक और आतंक उत्पन्न करने वाले साधनों के अम्बार जुट गये और दूसरी ओर प्रतिरोध कर सकने के साधन भी अस्तव्यस्त कर दिये। मध्ययुग का सामन्तवादी अन्धकार युग यही है। सामर्थ्य, अहंकार और स्वेच्छाचार का संयोग जहाँ भी जुटने लगेगा, वहाँ अनर्थ के अतिरिक्त और कुछ हो भी क्या सकता है?
ढलता हुआ सूरज नीचे ही उतरता आता है। मनुष्य की आकुल-व्याकुल स्वेच्छाचारिता इस कदर बढ़ी कि उसने उफनती बाढ़ की तरह सुरक्षा के साधनों को बहा कर कहीं से-कहीं पहुँचा दिया। आज की तुलना पुरातन काल से करते हैं, तो लगता है मानो सब कुछ उलट गया। परिस्थितियाँ कहीं-से कहीं पहुँच गई। ऐसी दशा में वैयक्तिक आचरण और सामाजिक ढाँचे में अर्थ प्रचलन का ढाँचा आमूल-चूल परिवर्तित होना चाहिए था, पर वह संभव न हो सका। यातायात के साधन सीमित रहने से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना भी कठिन हो गया, इसलिए क्षेत्रीय हेर-फेर ही संभव भी थे। विश्व-व्यवस्था बनाये रखने के लिए कभी-कभी अश्वमेध, राजसूर्य, और बाजपेय यज्ञ ही मुद्दतों बाद होते थे, पर उनका प्रभाव भी क्षेत्रीय बन कर रह जाता था और स्वल्पकालीन भी। ऐसी दशा में मध्यकालीन प्रगति मात्र समर्थ लोगों की ही सहचरी बनी और सर्वसाधारण को पतन-प्रतिगामिता की परिस्थितियों से ही पाला पड़ता रहा। पटरी से उतरी गाड़ी अभी तक इसी प्रकार खिंचती-घिसटती चली आ रही है।
पिछली दो शताब्दियों में परिस्थितियों ने और भी लम्बी कुलाचें भरीं। भौतिक विज्ञान और मान्यताओं से जुड़े हुए दर्शन ने लम्बी छलाँगें लगायीं। उसका परिणाम आज सामने हैं। कारखानों और वाहनों ने वायुमण्डल और अन्तरिक्ष को प्रदूषण से भर दिया है। युद्ध आयुधों ने मनुष्य को मौत के गले का चबेना बना कर रख दिया है। अर्थतंत्र ने ऐसी बाजीगरी दिखाई कि समय और श्रम के बदले धन मिलने का पुरातन सिद्धान्त एक प्रकार से विस्मृति के गर्त में गिर गया। आदमी आदमी का सहयोगी नहीं रहा वरन् एक दूसरे को लूट खाने का कुचक्र ही चलता दीख पड़ता है।
सुविधा साधनों की कमी नहीं। चिन्तन भी विकसित हो रहा है, पर सौजन्य के अभाव में हर किसी को चिन्ता, आशंका, अविश्वास एवं असंतोष का मानस लेकर निरन्तर उद्विग्न रहना पड़ रहा है। सुरक्षा और संभावना के संबंध में हर किसी को अनिश्चितता की स्थिति में रहना पड़ रहा है। मनोविकारों की अभिवृद्धि ने जनसाधारण को दुर्बल, रुग्ण, सनकी एवं अर्धविक्षिप्त स्तर का बना कर रख दिया है। अपराधों की संख्या और विचित्रताओं की इतनी अभिवृद्धि हो रही है, मानो बढ़ी हुई चतुरता ने इसी विपन्नता के साथ गठ-बन्धन कर लिया हो। आश्चर्य ही कहना चाहिए कि विकास की डींगें हाँकते हुए भी हम निरन्तर पतन के गर्त में गिरते चले जा रहे हैं।
गिरना सहज है, उठना कठिन। पिछली कुछ शताब्दियों और सहस्राब्दियों में मानवी नियति को उलट कर रख दिया है। अब उसे फिर से उलट कर सीधा करना पड़ रहा है, पर इतनी बड़ी कठिनाई सामने होते हुए भी विश्वास इसी बात का है कि विभीषिकाओं की अति होने पर नियन्ता की प्रबल प्रेरणा उठ खड़ी होती है और विनाश की अन्तिम संभावना सामने आने से पूर्व ही बदलने की प्रक्रिया पूरी कर देती है। इस आड़े समय में भी बड़ा प्रयोजन पूरा होने जा रहा है। इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य की संभावना निराधार नहीं है। उसके पीछे इतने तथ्य विद्यमान हैं कि चरितार्थ न होने पर महाप्रलय ही एकमात्र विकल्प रह जाता है, जो न तो होना ही चाहिए और न होगा ही।
सहस्राब्दियों-शताब्दियों की गलतियाँ अगली एक शताब्दी में परिवर्तित करनी है। इसके लिए इतने बड़े परिवर्तन प्रस्तुत होंगे, जिन्हें कायाकल्प के समतुल्य ही समझा जा सकता है। सड़े-गले लोहे को भट्ठी में तप कर गलना और फिर नये साँचे में ढलना पड़ता है। निकटवर्ती परिवर्तन का भी यही आधार होगा।
सही-गलत की कसौटी का ऐसे समय से प्रामाणिक होना आवश्यक है। कम्पास सही नहीं तो रात के अन्धेरे में जलयान को सही दिशा में ले चलना कठिन है। युग परिवर्तन की वेला में
लगभग नये सिरे से नई प्रक्रियाएँ अपनानी पड़ेगी। उस कसौटी का नाम होगा-”विवेक” जिसमें आत्मीयता न्यायनिष्ठा, और दूरदर्शिता का समग्र समन्वय होगा। ऐसा विवेक ही नये युग की नई रूपरेखा विनिर्मित करने में अवलम्बन बन सकेगा।
परम्पराओं का मोह छोड़ने के लिए विकट संघर्ष भी करना पड़ेगा। विवेक की आधारशिला इसी नींव के खण्डहरों पर रखी जा सकेगी। व्यक्तिगत दृष्टिकोण परिवर्तित करने से लेकर समाजगत प्रचलनों का अभिनव निर्माण करने के लिए यह दुराग्रह छोड़ना पड़ेगा कि अब तक हम क्या सोचते और मानते-करते चले जा रहे हैं।
यही दुराग्रह यदि सभी लोग अपनाये रहें, तो विग्रह के असंख्यों कारण आये दिन सामने आते रहेंगे। तर्क उन सभी बातों का समर्थन करता है, जिनकी कि मनुष्य इच्छा करता है। रुझान को उचित सिद्ध करने के लिए ही अब तक मनुष्य की बुद्धि का उपयोग होता रहा है। अगले दिनों वह रुक जायेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। पूर्वाग्रहों पर निर्भर रह कर हम समता और एकता का लक्ष्य कभी भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे।
ऐसी दशा में नवनिर्माण की बात सोचने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह मान्यता बनानी होगी कि विश्व व्यवस्था को न्याय-निष्ठ और विवेक सम्मत बनाने के लिए हमें ऐसे सिद्धान्त अपनाने होंगे, जो समय की आवश्यकता और विवेकशीलता के समन्वय से निर्धारित होते हों जिनके पीछे किसी भी पूर्व मान्यता का दबाव अनिवार्य स्तर का न हो। निश्चय ही अगला युग विवेकयुग होगा। कोई चाहे तो इसे प्रज्ञायुग भी कह सकता है।