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Magazine - Year 1992 - Version 2

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Language: HINDI
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साकारोपासना के पक्ष में कुछ दलीलें

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First 14 16 Last
ईश्वर उपासना दो रूपों में प्रचलित है साकार तथा निराकार। निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्ति पूजा का विरोध करते है पर वे यह भूल जाते है कि ऋषि मनीषियों ने दोनोँ उपासना पद्धतियों का निर्माण मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप किया है। जिस व्यक्ति का बौद्धिक स्तर जितना ऊंचा है उसे उसी ढंग की उपासना पद्धति का निर्देश गुरुजन देते है। जिस व्यक्ति का बौद्धिक विकास मध्य श्रेणी का है शास्त्रों के स्वाध्याय से भी वह वंचित है उसे यदि निराकार उपासना की दीक्षा दी जाय तो उसे उस उपासना से कोई लाभ न होगा, क्योंकि उसकी अन्तः चेतना का इतना विकास नहीं हुआ है कि ईश्वर के वास्तविक निराकार तत्व को समझ सके। यदि एक निर्बल बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति से यह कहा जाय कि ईश्वर सर्वव्यापक है परन्तु वह इन स्थूल नेत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता उसका कोई रंगरूप नहीं है तो निश्चित रूप से उसकी बुद्धि ईश्वर के अस्तित्व को ही मानने से इनकार कर देंगी।

चूँकि सामान्य बौद्धिक स्तर वाले व्यक्तियों के लिये अध्यात्म के सूक्ष्म तथ्यों पर ध्यानावस्थित होना कठिन होता है इसलिये मानव मनोविज्ञान के ज्ञाता ऋषियों ने प्रतीक

पूजा की मूर्ति पूजा की प्रथा चलाई ताकि उस मूर्ति को माध्यम बनाकर वह उस अनन्त को साकार रूप में अपने सामने देख सके। निराकार ब्रह्म का मानसचित्र बनाना सबके लिये संभव नहीं। यदि प्रतीकवाद या मूर्ति पूजा का आरंभ न होता। तो आज विश्व की अधिकांश जनसंख्या नास्तिक होती क्यों कि अशिक्षित और पिछड़े स्तर के जनमानस में ईश्वर के निराकार तत्व पर विश्वास ही न होता। केवल उपासना थोड़े से उच्चकोटि के विचारकों तत्ववेत्ताओं और योगियों तक ही सीमित रह जाती ओर मानव जाति का आत्मिक विकास रुक जाता धार्मिक सम्प्रदायों का निर्माण न होता और धर्म के व्यापक विस्तार के बिना समाज में घोर अनास्था और अव्यवस्था फैली होती।

देव प्रतिमा से प्रतीक से साधक को यह विश्वास हो जाता है कि जिन गुणों से सम्पन्न ईश्वर को वह पाना चाहता है, अथवा जिन गुणों को अपने में विकसित करना चाहता है वह मूर्ति उसके समक्ष उपस्थित है। ध्यान धारणा के माध्यम से वह उसे अपनी अन्तःचेतना में बिठाकर एकाकार हो जाता है। ध्यान की परिपक्वता में पहुँचने पर उसे सब ओर उसी की छाया दिखायी देती है वह अणु अणु में समाया हुआ मिलता है उसे अपने इष्ट के अतिरिक्त और कुछ दिखायी नहीं देता। यह वह अवस्था है जब प्रतीक पूजा के माध्यम से साधक का आत्मिक स्तर विकसित होने लगता है और वह सब प्राणियों में अपने प्रभु का ही दर्शन करता है और अपने में सबका उद्देश्य होता है। यहाँ आकर उसकी प्रारंभिक मूर्ति उपासना छूट जाती है और वह समस्त चलती फिरती प्रतिमाओं को अपने ईश्वर का ही रूप मानने लगता हैं। जब उपासना का स्तर स्थूल से सूक्ष्म हो जाता है तब वह निराकार तत्व की उपासना के योग्य होता है क्योंकि स्तर की अनुकूलता में ही शक्ति के विकास का रहस्य निहित है। स्तर की प्रतिकूलता में अच्छे परिणामों की आशा करना असंभव है। यह भी ठीक है कि प्रतिमा पूजा से अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचना संभव नहीं क्योंकि ईश्वर सूक्ष्म है और सूक्ष्म को प्राप्त करने के लिये उससे एकाकार होने के लिये अपनी अन्तःचेतना का उतना ही सूक्ष्म बनाना होगा जितना कि वह है अन्यथा अपने लक्ष्य में निराशा ही होगी।

वस्तुतः मूर्ति पूजा ईश्वर उपासना का आरंभिक शिक्षा सत्र है। यह चित्त शुद्धि का मानसिक परिष्कार का सरल साधन है। इसमें अपने इष्टदेव का ध्यान सुविधाजनक होता है निराकार उपासना कष्टसाध्य है जैसा कि कृष्ण भगवान ने गीता 15-5-6 में निर्देश दिया है कि जो सबके मूल अचल अव्यक्त सर्वव्यापी अचिन्त्य ओर नित्य अक्षर ब्रह्म की उपासना सब इन्द्रियों को रोककर सर्वत्र सम बुद्धि रखते हुये करते है वे भी मुझे ही पाते है। परन्तु उनके चित्त अव्यक्त में आसक्त रहने के कारण उनको क्लेश अधिक होते है क्योंकि अव्यक्त उपासना का मार्ग कष्ट से सिद्ध होता है। इसका अभिप्राय यह है कि साधक सब इन्द्रियों को जीतकर और सभी प्राणियों के प्रति सम बुद्धि व्यावहारिक भावना बनाकर ही उस निराकार उपासना का अधिकारी बनता है। यदि आरंभिक साधक के लिए सूक्ष्म और असीम की उपासना निर्धारित कर दी जाय तो वह अंधकार में ही टटोलता रहेगा और भटक जायेगा। क्योंकि केनोपनिषद 1/3 के अनुसार वहाँ न तो चक्षु पहुँचता है, व वाणी पहुँचती है और न मन ही पहुँच सकता है। वह ज्ञात पदार्थों से भिन्न है और अज्ञात से भी परे है। ऐसी स्थिति में तत्ववेत्ता ऋषियों ने निश्चय किया कि सीमित बुद्धि वाले साधक सीधे असीम की उपासना करने से ही असीम तक पहुँच पायेंगे। ईश्वर या देवप्रतिमायें आस्था की, श्रद्धाभावना की उन्नायक मानी गयी हैं और वे साधक की पवित्र भावनाओं को तददेव तक पहुँचाती भी है। श्रद्धासिक्त भावना के उन्नयन से आत्मा का सम्बन्ध उस चैतन्य सत्ता से हो जाता है तो अणु-अणु में व्याप्त है।

इस तथ्य की पुष्टि पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी की है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “दि रिलीजंस एटीच्यूड” में मूर्धन्य मनीशी वुडवर्न ने लिखा है, कि मूर्ति का यथार्थ महत्व प्रतीकात्मक होता है और इसका प्रभाव विषेशतः ऐसे व्यक्तियों की चेतना पर पड़ता है जिन्होंने मानसिक प्रतिमाओं का प्रयोग करना नहीं सीखा है। अर्थात् जिसका मानसिक स्तर पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हुआ है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक नाइट ने भी अपनी कृति “सिम्बाँलिकल लैंग्वेज ऑफ एनषियेण्ट आर्ट एण्ड माइथाँलाँजी” में कहा है कि मूर्ति पूजकों का यह विश्वास था कि दैवी-सत्य, प्रतीक में छिपा रहता है, पहेली और कल्पित आख्यायिकाओं में प्रच्छन्न रहता है। यह निर्बल मानवीयता को समयानुकूल रखता है बशर्ते कि यह ज्ञान और मूल दर्शन में प्रदर्शित हो।’ इससे स्पष्ट है कि आधुनिक मनोविज्ञान भी इस मूलभूत सिद्धान्त को स्वीकार करता है कि सामान्य मानसिक स्तर वाले व्यक्तियों के लिए प्रार्थना व पूजा के लिए कोई दृश्य चित्र या प्रतिमा की आवश्यकता अनिवार्य है।

मनोवेत्ताओं का कहना है कि जड़पूजा तो मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है। जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा को वेदों में देवता कहा है, क्योंकि वह निरन्तर अपनी शक्तियों से हमें लाभान्वित करते रहते हैं। उनके बिना हमारा जीवन असंभव है, इसलिए जड़ होते हुए भी हम उनकी पूजा, उपासना करते हैं। इन जड़ पदार्थों में स्वयमेव कोई शक्ति नहीं है। उस आद्यशक्ति के कारण ही इनमें प्राणप्रद गुणों का समावेश हो पाया है। ईश्वर निराकार है। वह स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं देता। उसके अनेकों दिव्य गुण हैं। वह गुणों का समुच्चय है और तदनुरूप ही उसकी अनन्त शक्तियां हैं। उन शक्तियों के अनुसार आचार्यों ने उसे साकार रूप में ढाल लिया है। मूर्ति पर फूल चढ़ाते हुए यह कोई नहीं सोचता कि वह पत्थर की पूजा कर रहा है, वरन् यह भाव रहता है कि इसमें व्याप्त जो चैतन्य शक्ति है, वह ही हमारी श्रद्धा की पात्र है। प्रतिमा की उपासना करने वाला जानता है कि वह उस सर्वव्यापी ईश्वर की ही उपासना कर रहा है।

श्रद्धाशक्ति इस पवित्र भावना से उसकी आत्मा का संबंध सर्वव्यापी चैतन्य सत्ता से हो जाता है। मूर्ति साधक के विश्वास को बढ़ाती है कि यही ईश्वर है। विश्वास की पूर्णता ही उसे आदि विद्युत धारा से मिला देती है। इस मिलन से साधक को जो अपार आनन्द की अनुभूति होती है, वही ईश्वर प्राप्ति की ओर बढ़ने का चिन्ह माना जाता है। सूक्ष्म तक स्थूल की सीधी पहुँच नहीं है। स्थूल को स्थूल का ही अवलम्बन लेना पड़ता है। अतः मूर्तिपूजा स्वाभाविक व प्राकृतिक है।

वेद स्वयं स्थूल उपासना का प्रतिपादन करते हैं। अग्नि उपासना से सम्बन्धित उनमें सैकड़ों मंत्र उपलब्ध हैं। ऋग्वेद के श्लोक 1/14/4 एवं 4/45/1 में उल्लेख है कि “अग्नि से परमात्मा प्रसन्न होते हैं। अग्नि उपासना के बिना मुक्ति की प्राप्ति असंभव है।” इसी तरह अथर्ववेद 6/65 में कहा गया है-”अग्नि उपासक के हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है। अन्य शास्त्रों में अग्नि को ब्रह्मरूप कहा गया है, परन्तु अग्नि तो जड़ है। उसके माध्यम से चैतन्य की प्रसन्नता प्राप्त करने में साधक कैसे सफल हो सकता है। अग्नि स्थूल पदार्थों को सूक्ष्म बनाकर देवताओं को अर्पण करती है। मूर्तिपूजा भी साधक की पवित्र भावनाओं को उदात्त बनाकर इष्टदेव तक पहुँचाती है। इन दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं हैं। यदि अग्नि उपासना वैदिक है तो मूर्तिपूजा भी वैदिक माननी पड़ेगी। वेद स्वयं मूर्तिपूजा का प्रतीक दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान माना जाता है। अनेक वेद-मंत्र इसकी साक्षी देते है। अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख है-

“संवत्सरस्य प्रतिमाँ याँ त्वा रात्र्युपास्महे। सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥”

अर्थात् “है रात्रे! संवत्सर की प्रतिमा! हम तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से हमको सम्पन्न करो।” अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है “है भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइये। आपका यह शरीर पत्थर की बनी मूर्ति हो जाये।”

प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है, प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें ब्राह्मण में उल्लेख है-

“देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति। रुदान्त नृत्यान्त स्फुटान्त स्विद्यन्त्युन्मालान्त निमीलन्ति॥

अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती, रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित हो जाती है, वह पचीजती है, अपनी आँखों को खोलती और बन्द भी करती है।

“कपिल तंत्र” में इस भाव की पुष्टि करते हुए कहा गया है-”जिस तरह गाय के सारे शरीर में उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के द्वारा ही बाहर निकलता है, इसी तरह परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति में होता है। इस तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर रहा है, वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है। बाह्य दृष्टि से दिखाई देता है कि वह प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर रहा होता है।

आधुनिक विज्ञान भी इसका समर्थन करता है। साधक के भक्ति, विश्वास और पूजा की शक्ति को यदि विषम-शक्ति मानें और ईश्वर की शक्ति को सम तो निश्चय रूप से साधक की विषमशक्ति परमात्मा की समशक्ति को मूर्ति के माध्यम से आकर्षित कर लेती है। विषय और सम शक्तियों के मिलन से ही विद्युतधारा का प्रवाह दृष्टिगोचर होता है और प्रकाश की उत्पत्ति होती है। इसी तरह से साधक की अन्तःचेतना भी जगमगा उठती है।

मूर्तिपूजा-प्रतीक उपासना के पीछे एक सुदृढ़ मनोविज्ञान काम करता है। मनोविज्ञानी भी मूर्ति की आवश्यकता को अनुभव करते हैं और मानते हैं कि असीम ही सीमित होकर प्रदर्शित होता है। सुविख्यात मनोविज्ञानी कार्लाइल के अनुसार वास्तविक प्रतीक में जिसे ऐसा सम्बोधन किया जाता है, सदैव स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप से असीम का रहस्योद्घाटन होता है। इसमें निराकार का संयोजन साकार में होता है जिससे वह दृष्टिगत हो सके और प्राप्त हो सके। विद्वान अर्बन ने भी अपनी कृति-”लैग्वेज ऐण्ड रियलिटी” में प्रतिमा उपासना के लाभों का विवेचन करते हुए लिखा है कि धार्मिक प्रतीक या प्रतिमायें सीमित और अन्तरदृश्ट्यात्मक सम्बन्धों से उद्भूत की गयी है। इनसे ऐसे तथ्यों की अभिव्यक्ति होती है जो अधिक सार्वभौम और आदर्श सम्बन्धों के लिए है, जिनकी अभिव्यक्ति विस्तार अधिक होने से और आदर्शवादिता के कारण सीधे नहीं की जा सकती। अन्यान्य मनोवैज्ञानिकों ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है-भारतीय मन्दिरों में शिव, विष्णु, बुद्ध, महावीर आदि की मूर्तियाँ आदर्श को स्थूल रूप देने के उद्देश्य से स्थापित की गयी है। सूक्ष्म रूप में बिना दृश्य वस्तु के, जो इनका प्रतिरूप है, कल्पना करने पर आदर्श अस्पष्ट रह जाता है। उदाहरण के लिए जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों का पूजन मूर्ति रूप में इस कारण प्रचलित नहीं है कि यह मूर्तियाँ ईश्वर के रूप में है, क्योंकि जैनधर्म में ईश्वर का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया है। वस्तुतः वे आदर्श की प्रतीक हैं, जहाँ पहुँचना व्यक्ति का लक्ष्य होता है। स्थूल प्रतीक की यही महत्ता होती है।

मनोवैज्ञानिकों का दृढ़ मत है कि मूर्ति पूजन की प्रथा इसलिए चली कि इनसे प्रेरणा मिलती है और उस प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास मिलती है और उस प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास छिपा रहता है। जिस किसी अवतार, देवता या महापुरुष की साधक पूजा करता है, उसके साथ उसके जीवन की महानताएँ या तत्सम्बन्धी कथायें अवश्य जुड़ी रहती हैं। प्रतिमा के सामने आते ही वह सभी दृश्य नेत्रों के सामने तैरने लगते हैं और साधक उस महान विभूति से अपने का संबंधित करके उसकी महानताओं और विशेषताओं से अपने मन मन्दिर को जगमगाता अनुभव करता है। तादात्म्य हो जाने पर अपनी अन्तरात्मा को वह परमात्म चेतना से एकाकार कर देता है। साधक का तद्रूप बनना उसकी भावना पर निर्भर करता है। मूर्तिपूजा से जीवन निर्माण की सूक्ष्म प्रक्रिया आरंभ होती है, जो साधक को उच्च कक्षा में ले जाती है। इस तरह प्रतीक पूजा लाभप्रद ही नहीं, बुद्धि सुलभ भी हैं।

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