
चारों ओर बिखरा सूक्ष्म का सिराजा
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इस विश्व में जो कुछ दृश्यमान होता है, वह अदृश्य की परिणति है। यहाँ जो कुछ अदृश्य−सूक्ष्म बिखरा पड़ा है, उसका लाख−करोड़वाँ हिस्सा भी दृश्यमान नहीं होता है, पर जो कुछ अनुभव में आता है, वह अनुभव से अगम्य−इन्द्रियातीत विराट् का एक नगण्य−सा अंश मात्र ही होता है।
ब्रह्मांड की छोटी अनुकृति पिण्ड−यह शरीर है। इसमें भी वही सब कुछ विद्यमान है, जो इस सम्पूर्ण सृष्टि में है। उदाहरण के लिए अग्नितत्व को लिया जा सकता है। विराट् ब्रह्मांड में जितना प्रचुर परिमाण में वह भरा पड़ा है, हमारा सूर्य उसका राई−रत्ती जितना अंश ही है। उस सूर्य की भी दसों दिशाओं में जितनी ऊष्मा फैलती है, उसका हम लोग पृथ्वी की ओर विकीर्ण होने वाली गर्मी में से भी एक तुच्छ अंश ही अनुभव कर पाते है। शरीर में प्रत्यक्ष उष्णता के रूप में दीख पड़ने वाला बुखार वस्तुतः उस ब्रह्मांडव्यापी ऊष्मा की ही झलक झाँकी है, जिसका पसारा सम्पूर्ण सृष्टि में फैला हुआ है−शारीरिक उपद्रवों की स्थिति में हम चमड़ी पर उभरने वाली स्वल्प गर्मी मात्र का ही अनुभव कर पाते हैं और उस बड़े हिस्से से अनभिज्ञ बने रहते हैं, जिससे इसका सम्पूर्ण क्रिया−व्यापार चलता है। वह अंश विदित ही कहाँ हो पाता है, जो शरीर के भीतर है। इतनी ही नहीं, यह विशाल काया एक सूक्ष्म शुक्राणु और उसके भीतर रहने वाले ‘जीन्स’ ‘क्रोमोसोम्स’ आदि अति सूक्ष्म तत्वों की परिणति मात्र है, फिर भी वह जितना कुछ दीखती है, उससे भी कई गुनी अधिक विशेषताएँ अनुभव में न आने पर भी विद्यमान रहती हैं। इस तथ्य को विज्ञान भी अब स्वीकारता है।
शरीरशास्त्री जितना ज्ञान अब तक देह के भीतरी और बाहरी अंगों के संबंध में प्राप्त कर चुके हैं, उससे कहीं अधिक गंभीर ज्ञान हमें अपने ‘सूक्ष्म’ और ‘कारण’ शरीर के संबंध में प्राप्त करना शेष है। जो शोधें प्राचीनकाल में हो चुकी हैं, उससे आगे का सारा क्रम ही अवरुद्ध हो गया, जबकि आवश्यकता उसे निरन्तर जारी रखे जाने की थी। ज्ञान का अन्त नहीं। जो प्राचीनकाल में जाना जा चुका वह समग्र नहीं। मानवीय सामर्थ्य और विराट् की अनन्तता की तुलना करते हुए यही उचित है कि उपलब्ध ज्ञान को पूर्ण न मानते हुए अन्वेषण कार्य जारी रखा जाय।
सूक्ष्म और कारण शरीरों की स्थिति, शक्ति, संभावना और उपयोग की प्रक्रिया समझने में भूत काल के साधना विज्ञानियों की जानकारियों से लाभ उठाया जाना चाहिए और अन्तरिक्ष के सूक्ष्म प्रवाह संचार में पिछले दिनों जो परिवर्तन हुए हैं, मानवी कलेवर के स्तर में जो भिन्नता आयी है, उसे ध्यान में रखते हुए हमें शोध कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए।
स्थूल, दृश्य शरीर की गतिविधियाँ इस भूलोक तक सीमित हैं। सूक्ष्म शरीर भुवः लोक तक और कारण शरीर स्वः लोक तक अपनी सक्रियता फैलाये हुए हैं। इन भूः भुवः स्वः लोकों को ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र आदि समझने की आमतौर से भूल की जाती है। लोक और ग्रह सर्वथा भिन्न हैं। ग्रह स्थूल हैं, लोक सूक्ष्म। इस दृश्यमान अनुभवगम्य भूलोक के भीतर अदृश्य स्थिति में दो अन्य लोक समाये हुए हैं भुवः लोक और स्वः लोक। वहाँ की स्थिति भूलोक से भिन्न हैं। यहाँ पदार्थ का प्राधान्य है। जो कुछ भी सुख−दुःख हमें मिलते हैं, वे सब अणु पदार्थों के माध्यम से मिलते हैं। यहाँ हम जो कुछ चाहते या उपलब्ध करते हैं, वह पदार्थ ही होता है। स्थूल शरीर चूँकि स्वयं पदार्थों का बना है, इसलिए उसकी दौड़ या पहुँच पदार्थों तक ही सीमित हो सकती है। भुवः लोक विचार प्रधान होने से उसकी अनुभूतियां, शक्तियाँ, क्षमताएँ, संभावनाएँ सब कुछ इस बात पर निर्भर करती हैं, कि व्यक्ति का बुद्धि संस्थान, विचार स्तर क्या था।
स्वःलोक भावना लोक है। यह भावना प्रधान है। भावनाओं में रस है। प्रेम का रस प्रख्यात है। माता और बच्चे के बीच, पति और पत्नी के बीच, मित्र और मित्र के बीच कितनी प्रगाढ़ता, घनिष्ठता, आत्मीयता होती है, यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं। वे संयोग में कितना सुख और वियोग में कितना दुःख अनुभव करते हैं, इसे कोई सहृदय व्यक्ति अपनी अनुभूतियों की तथा उन स्थितियों के ज्वारभाटे से प्रभावित लोगों की अन्तःस्थिति का अनुमान लगा कर वस्तुस्थिति की गहराई जान सकता है। यह भाव−संवेदना इतनी सघन होती है कि शरीर और मन को किसी विशिष्ट दिशा में घसीटती हुई कहीं−से−कहीं ले पहुँचती है। श्रद्धा और विश्वास के उपकरणों से देवताओं को विनिर्मित करना और उन पर अपना भावारोपण करके अभीष्ट वरदान प्राप्त कर लेना−यह सब भाव संस्थान का चमत्कार है। देवता होते हैं यह नहीं उनमें वरदान देने की सामर्थ्य है यह नहीं−इस तथ्य को समझने के लिए हमें मनुष्य की भाव सामर्थ्य की प्रचण्डता को समझना पड़ेगा। उसकी श्रद्धा का बल असीम है। जिसकी जितनी श्रद्धा होगी, जिसका जितना गहरा विश्वास होगा, जिसने जितना प्रगाढ़ संकल्प कर रखा होगा, और जिसने जितनी गहरी भक्तिभावना को संवेदनात्मक बना रखा होगा, देवता उसकी मान्यता के अनुरूप वैसा ही बन कर खड़ा हो जायेगा। वह उतना ही शक्ति सम्पन्न होगा और उतने ही सच्चे वरदान देगा।
कहना न होगा कि हर चीज सूक्ष्म होने पर अधिक शक्तिशाली बनती चली जाती है। मिट्टी में वह बल नहीं, जो उसके अति सूक्ष्म अंश अणु में है। हवा में वह सामर्थ्य नहीं, जो विद्युत चुम्बकीय विकिरण में है। पानी में वह क्षमता नहीं, जो भाप में है। स्थूल शरीर के गुणधर्म से हम परिचित हैं। वह सीमित कार्य ही अन्य जीव−जन्तुओं की तरह पूरे कर सकता है। जो अतिरिक्त सामर्थ्य, अतिरिक्त प्रतिभा, अतिरिक्त प्रखरता मनुष्य के अन्दर देखी जाती है, वह उसके सूक्ष्म और कारण शरीरों की ही है बाहर से सब लोग एक−से दीखने पर भी भिन्न भीतरी स्थिति के कारण उनमें जमीन−आसमान जितना अन्तर पाया जाता है। यह रक्त−माँस का फर्क नहीं, वरन् सूक्ष्म शरीर की अन्तःचेतना में सन्निहित समर्थता और असमर्थता के कारण ही होता है। पंचभौतिक स्थूल काया को जिस प्रकार आहार, व्यायाम, चिकित्सा आदि उपायों से सामर्थ्यवान बनाया जाता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर को भी साधना और संयम के द्वारा परिपुष्ट बनाया जाता है। मनोबल और आत्मबल के कारण जो अद्भुत विशेषताएँ लोगों में देखी जाती हैं, उन्हें इन सूक्ष्म शरीरों की बलिष्ठता ही समझना चाहिए। साधना का उद्देश्य उसी बलिष्ठता को सम्पन्न करना है।
स्थूल शरीर की शोभा, तृप्ति, और उन्नति के लिए हमारे प्रयत्न निरन्तर चलते रहते हैं। यदि सूक्ष्म और कारण शरीरों को उपेक्षित और बुभुक्षित पड़े रहने देने की हानि को समझें, और उन्हें भी स्थूल शरीर की ही तरह समुन्नत करने का प्रयत्न करें, तो ऐसे असाधारण लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जिनके द्वारा जीवन कृत−कृत्य हो सके। भूलोक में पदार्थ−सम्पदाओं से प्राप्त थोड़े−से सुख का हमें ज्ञान है, अस्तु उसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं। भुवः और स्वः लोकों की विभूतियों को भी जान सकें, तो सच्चे अर्थों में सम्पन्न बन सकते हैं और यह कह सकते हैं कि ब्रह्मांड और पिण्ड की एकरूपता को हमने यथार्थ में पहचान लिया। योग−साधना का उद्देश्य मनुष्य को इसी एकरूपता, समग्रता और सम्पन्नता से अवगत कराना है।