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Magazine - Year 1992 - Version 2

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साधना से सिद्धि किन शर्तों पर?

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First 19 21 Last
उपासना शरीर है−साधना प्राण। उपासना चिनगारी है−साधना ईंधन। उपासना संकल्प है−साधना साहस। उपासना ज्ञान है−साधना−कर्म। उपासना उपकरण है−साधना कौशल। उपासना बाण है−साधना धनुष। एक के बिना दूसरे को प्रखर और फलित होने का अवसर नहीं मिलता।

उपासना थोड़े श्रम और समय में सम्पन्न हो जाती है, किन्तु साधना के लिये चिन्तन और चरित्र के क्षेत्र में घुसी हुई दुष्प्रवृत्तियों से जूझने और हटाने का एक काम ही नहीं करना पड़ता, उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों को जगाने का उससे भी अधिक कष्ट साध्य कार्य भी करना पड़ता है। इस उन्मूलन और आरोपण के दुहरे प्रयोजन को पूरा करना प्रायः वैसा ही है, जैसा भगवान परशुराम के फरसा और फावड़ा चलाने के दुहरे पराक्रम का परिचय देना। उन्होंने झंखाड़ काटे और उद्यान लगाये थे। इसी पराक्रम का परिचय हर साधक को अपने जीवन क्षेत्र में देना पड़ता है। इससे कम में काम चलता नहीं। लाखों पूजा−परायण इस तथ्य के साक्षी हैं कि साधना से विरत रहने के कारण उन्हें निराशा ही हाथ लगी है।

सिद्धियाँ सुनिश्चित हैं। वे साधकों के लिये सुरक्षित हैं। अनादिकाल से लेकर अब तक के सभी सच्चे साधकों द्वारा सिद्धियाँ पाने की सचाई का पर्यवेक्षण करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा हैं कि उपासनाओं का विधान और प्रकार भिन्न−भिन्न रहने पर भी सभी साधकों को अपने चिंतन को उदात्त और चरित्र को उदार बनाना पड़ा है। व्यक्तित्व के परिष्कार और उदार लोकमंगल को अपनी प्रधान आकाँक्षा मानकर चलने वाले और इसके लिये प्रबल पुरुषार्थ करने वाले ही अपनी पात्रता उस स्तर तक पहुँचा सके हैं, जिस पर अंतरिक्ष से अनायास ही दिव्य अनुदान बरसते हैं।

ऊँचे पर्वत−शिखरों पर बर्फ जमती है, खाई−खड्डों में नहीं। वर्षा का जल नदी−सरोवरों में भरता है, टीलों पर जमा होने का उपक्रम बनता ही नहीं। मंत्र सिद्धि के लिये योगी जैसी मनोभूमि और तपस्वी जैसी कार्यपद्धति अपनानी होती है। दुष्ट चिन्तन और भ्रष्ट चरित्र का भारी लदान लाद कर आत्मिक प्रगति की लम्बी छलाँग लगा सकना कठिन है। कौतूहल करना और जादू दिखाना ही अभीष्ट हो तो मूर्खों को बहकाने वाले धूर्तों की सर्वत्र भरमार पाई जा सकती है। छिट−पुट पूजा विधानों में लम्बे चौड़े चमत्कार बताने वालों की कमी नहीं। सस्ती लूट के लालची वहाँ भीड़ लगाये भी रहते हैं। जब तक संसार में सस्ते मोल में बहुत पाने की लिप्सा जीवित रहेगी, तब तक यह गोरखधन्धा भी चलता रहेगा, जो इन दिनों अध्यात्म क्षेत्र पर कुहासे की भाँति बेतरह छाया हुआ है। इस स्थिति में केवल विडम्बना ही पलती−पनपती रह सकेगी। कोई ठोस उपलब्धि किसी के हाथ लगेगी नहीं। फलतः अध्यात्म का क्षेत्र अप्रामाणिक और उपहासास्पद बनता चला जायगा।

इस दुःखद दलदल में से आस्तिकता को उबारने की आवश्यकता है। यह तथ्य उजागर किया जाना चाहिए कि तत्वज्ञान और साधना विधान का समन्वय ही उन सत्परिणामों को प्रस्तुत कर सकने में समर्थ हो सकता है, जिसमें अंतरंग को स्वर्ग मुक्ति का आनन्द और बहिरंग को ऋद्धि−सिद्धि का वैभव उपलब्ध होता है। बहुमूल्य उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए उसका उचित मूल्य समझने और जुटाने का प्रयत्न करना ही होगा।

सस्ते शार्टकट का कोई तरीका न इस लोक में है न परलोक में। सस्तेपन की तलाश अनैतिक है। उचित से कम मूल्य में प्राप्त की गई वस्तुयें चोरी की समझी जाती हैं और पता चलने पर पुलिस खरीददार की खींच−कढ़ेर कर सकती है। जुआ इसलिये अपराध माना गया है कि उसमें कम देकर अधिक पाने की दुरभि−सन्धि को प्रश्रय मिलता है। अध्यात्म तत्वज्ञान का सुनियोजित विज्ञान किन्हें समुचित उपहार प्रदान करता है? इसे सिद्ध पुरुषों के द्वारा अपनाये ऋषि जीवन को देखकर भली प्रकार जाना जा सकता है। संत−भक्तों को जो दैवी अनुदान प्राप्त होते रहे हैं, उसमें उनकी औपचारिक भावुकता को स्वल्प परिणाम में ही श्रेय दिया जा सकता है। सफलता का मूल आधार तो उनका प्रखर व्यक्तित्व और परमार्थ परायण क्रिया−कलाप ही रहा है।

आत्मशक्ति का उपार्जन व्यक्ति के लिये भी श्रेयस्कर है और समाज के लिये भी मंगलमय है। सच्ची सम्पदा, आत्म शक्ति ही है। शरीर−शक्ति बुद्धि−शक्ति, धन−शक्ति, के प्रतिफल सीमित हैं, साथ ही क्षणिक भी। चिरस्थाई व्यापक और प्रचण्ड परिणाम आत्मशक्ति के ही हैं। इसलिये उसका उपार्जन चरम पुरुषार्थ कहा जाता है। छोटे व्यक्ति छोटी वस्तु ढूँढ़ते बड़े बड़ी छोटों की दृष्टि तात्कालिक लाभ पर केन्द्रित रहती है। बड़े दूर की सोचते हैं। आत्म विकास का यही लक्षण है कि उद्देश्य ऊँचा रखा जाय−इस दृष्टि से आत्मशक्ति का उपार्जन और उसका परमार्थ प्रयोजनों में उपयोग करना ही सर्वोत्तम बुद्धिमत्ता कही जा सकती है। विभूतियों का उपार्जन ही सच्चा वैभव है।

इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिये उपासना के क्षेत्र में गायत्री की महत्ता अनुपम−अद्भुत और अद्वितीय है।

उसके महात्म्य से शास्त्रों का पन्ना−पन्ना भरा पड़ा है। ऋषियों ने अपने अनुभव से उसकी महिमा को ऐसा बताया है जिसकी तुलना में अन्य सभी उपार्जन हल्के बैठते हैं। जिन ने इस कल्पवृक्ष के नीचे आश्रय लिया है−जिनने इस कामधेनु का दूध पिया है, उस सभी ने अपना अनुभव यह बतलाया है कि इस अवलम्बन को पकड़ने से बढ़कर श्रेय−सौभाग्य का और कोई आधार नहीं हो सकता।

इतने पर भी एक दर्पण की तरह स्पष्ट है कि उपासना का साधना के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध है। साधना के बिना उपासना का कोई चमत्कार दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। इसलिये अनुष्ठान उपचार का महत्व स्वीकार करते हुए भी इस आवश्यकता को भी समझा जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के लिये उपासनात्मक उपचारों से भी अधिक महत्व साधक के चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश होने का है। साधना इसी को कहते हैं। जो साधक है, उसकी उपासना फलवती हुए बिना रह नहीं सकती। इसके विपरीत जिनके जीवनक्रम में निकृष्टता और दृष्टता भरी पड़ी है जिन्हें छल−छद्म ही रुचते हैं, जिन्हें लोभ−मोह से आगे की कोई बात सूझती ही नहीं, जिनके लिये वासना और तृष्णा ही सब कुछ है−इन्हीं प्रयोजनों के लिए अपना श्रम, समय और मनोयोग लगाये रहते हैं, इन्हीं के लिए पूजा−पाठ का ढोंग रचते हैं−ऐसे व्यक्ति निष्प्राण उपासना का प्रतिफल भी निराशा के रूप में ही पाते हैं। साधना से सिद्धि का सिद्धान्त समझने वाले जानते हैं कि आस्तिकता की सफलता के साथ आध्यात्मिकता और धार्मिकता का समावेश होने की शर्त भी जुड़ी हुई है।

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