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Magazine - Year 1992 - Version 2

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मोक्ष अर्थात् बन्धनों से मुक्ति एवं “त्याग की प्रतिष्ठ”

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First 9 11 Last
प्राच्यविद्या विशारद प्रो. मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक इण्डिया-व्हाट कैन इट टीच अस?” (भारत हमें क्या सिखा सकता है?) में लिखा है-यदि मुझ से पूछा जाय कि अंतरिक्ष के नीचे कौन सा वह स्थल है जहाँ मानव के मानस ने अपने अन्तराल में निहित ईश्वर प्रदत्त अन्यतम सद्भावों को पूर्ण रूप से विकसित किया है, गहराई में उतरकर जीवन की कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है उनमें से अनेकों को इस प्रकार सुलझाया है-जिनको जानकर प्लेटो तथा काण्ट का अध्ययन करने वाले मनीषी भी आश्चर्यचकित होकर रह जायँ तो मेरी उँगली भारत की ओर उठेगी।” वस्तुतः यह अभिव्यक्ति देव संस्कृति क उन महत्वपूर्ण निर्धारणों के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव से एक पाश्चात्य मनीषी द्वारा व्यक्त की गयी है, जिनके कारण भारतीय आध्यात्म जीवन की हर समस्याओं का समाधान बताते हुए सार्वकालिक, सार्वभौम व व्यावहारिक कहलाया। वैदिक युग के ऋषियों की सबसे बड़ी देन है व्यक्ति को पुरुषार्थ-परायण बनाते हुए, उसे कर्म क्षेत्र से जोड़े रहते हुए उसके चिन्तन में ‘मोक्ष’ की भावना की प्रतिष्ठापना करना। जो मोह का क्षय करे, वह मोक्ष है। भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि यह मोक्ष, मुक्ति, जीवनमुक्ति जरूरी नहीं कि मरने के बाद मिले, यह संदेह जीवन में कभी भी हर कोई प्राप्त कर सकता है। इसके लिए यहाँ के ऋषियों ने मोक्ष की लक्ष्य प्राप्ति के लिए समुचित मार्गदर्शन मानव मात्र को दिया है।

मोक्ष को धर्म के भी पार बताते हुए चेतना की उच्चतम स्थिति संबोधित करते हुए इसे ऋषि परिपूर्ण जागरण की स्थिति बताते हैं। मोक्ष का अर्थ है जीवन में त्याग की प्रतिष्ठ। वैदिक ऋषियों की मान्यता है कि यदि त्याग जीवित रहा तो मानवजाति व समग्र समाज प्रतिष्ठित रहेगा विकसित होता रहेगा। एक बड़ा सुन्दर संवाद बृहदारण्यकोपनिषद् में आता है जिसमें वानप्रस्थ लेकर वन को प्रस्थान करने से पूर्व याज्ञवल्क्य अपनी दोनों पत्नियों को धन सम्पत्ति का समान बँटवारा करते हुए सुख से जीवनोपभोग करने को कहते हैं। गार्गी और मैत्रेयी दोनों में से मैत्रेयी उनसे पूछती है-हे स्वामी! जो सांसारिक सम्पदा मुझे आप दे रहे है इनसे क्या मुझे अमरत्व की प्राप्ति हो जाएगी? तो याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं कि धन से मोक्ष की आशा नहीं की जा सकती। तुम्हारा जीवन तो इन सब साधनों से अन्यान्य व्यक्तियों की तरह ही व्यतीत होगा। तब मैत्रेयी अंतराल को स्पर्श करने वाला, हम सबके चक्षु खोल देने वाला प्रश्न पूछती है-येनाहं नामृता दयाम् किमहं तेन कुर्याम्?” (वृहदा. 2/4/3) “हे नाथ! जिस धन से मैं अमर नहीं हो सकती उस धन का मैं क्या करूँगी? अतः आप मुझे अमरत्व-मोक्ष प्राप्ति के साधन बताइए।” तत्पश्चात् याज्ञवल्क्य उसे चारों पुरुषार्थों की व्याख्या करते हुए मोक्ष के रूप में त्याग की प्रतिष्ठ, तृष्णा-वासना-अहंता से मुक्ति का उपदेश देते हुए उसे आत्मबल की ओर उन्मुख होकर मोक्ष प्राप्ति को स्वरूप व महत्व समझाते हैं।

मोक्ष के संबंध में उपर्युक्त आख्यायिका का वर्णन इसलिए किया गया कि इस संबंध में अनेकानेक भ्रामक मान्यताएँ हैं। ऋषि याज्ञवल्क्य समझाते हैं कि सुखप्राप्ति के लिए व्यक्ति पुरुषार्थ तो करे परन्तु चिन्तन “तेन त्यक्तेन भुंजीथाः का (भोग भी त्याग के साथ) रहे तो ही जीवन यात्रा सफल है, नहीं तो यह जन्म-मरण का चक्र चलता ही रहेगा व बार-बार मनुष्य को इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। इस तरह भारतीय मनीषीगण कहते हैं कि अर्थ (आर्थिक मूल्य) तथा धर्म (नैतिक मूल्य) तो साधन हैं किन्तु काम (मानसिक मूल्य-जिनसे सांसारिक सुखों का उपभोग किया जाता है, तथा मोक्ष (आध्यात्मिक मूल्य-जो बंधनमुक्ति का द्वार खोलता है-कल्याण का पक्ष दिखाता है, साध्य है। काम तथा मोक्ष को ही कठोपनिषद् रचयिता प्रेय तथा श्रेय मार्ग कहता है व बताता है कि अर्थ व काम के उपभोग से व्यक्ति असंतुष्ट ही रहता है बेचैनियाँ, तनाव ही उसके पल्ले पड़ती हैं धर्म व्यक्ति की संवेदना-मूलक उस इकाई का नाम है जो चेतना को अलसाई अवस्था में डाले रहती है, किन्तु मोक्ष परिपूर्ण जागरण की अवस्था है। इसीलिए नचिकेता, यमराज द्वारा दिये जा रहे इहलौकिक, पारलौकिक सुखों के प्रलोभन में नहीं पड़ता तथा मैत्रेयी धन संपदा से परे अमरत्व की मोक्ष की प्राप्ति हेतु अपनी जिज्ञासा याज्ञवल्क्य के समक्ष प्रस्तुत करती है।

भारतीय दर्शन की सर्वश्रेष्ठ स्थापना यदि हम कहें तो वह मोक्ष संबंधी उसकी धारणा है, जिसके अनुसार मानवमात्र की जीवन के परम शुभ (सम्मत बोनस-मोक्ष की प्राप्ति की सतत् प्रेरणा दी जाती है। जहाँ पाश्चात्य दर्शन “ज्ञान के प्रति अनुराग“ के रूप में एक मानसिक व्यायाम है, वहाँ भारतीय दर्शन मानवमात्र के दुःखों के निवारण का उपाय बताने वाली विचार प्रणाली है। यह विचार प्रणाली कहीं पारलौकिक जगत में नहीं दैनन्दिन जीवन-व्यवहार में उसे सही चिंतन करना है। जीवन जीने की कला का शिक्षण करने का कार्य संपन्न करती है। इसे ऋषियों ने जीवन दर्शन कहा है, जिसे अपना कर व्यक्ति रोज के जीवन के संत्रासों से मुक्ति पाता हुआ मानव जन्म के सौभाग्यों को सार्थक करने वाला जीवन जी सकता है। यही मोक्ष है। मोक्ष-दायक ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन के विभिन्न संप्रदायों में भिन्न-भिन्न हो सकता है किन्तु लक्ष्य सभी का एक है-जीव को बंधनों से मुक्त करना।

प्रसिद्ध मनोविज्ञानी कार्लजुँग कहते हैं “पूर्वार्त्य अध्यात्म जो वैदिक युग की देन है, में सबसे विलक्षण अवधारणा मोक्ष की है। व्यक्ति की निज की चेतना के अनुभूतिपरक ज्ञान पर आधारित यह विधा पाश्चात्य चिन्तन से बिल्कुल उल्टी है। वे कहते हैं कि “मोक्ष” के माध्यम से एक हिंदू साधक बहिर्मुखी वृत्तियों से स्वयं को सिकोड़ता है व अपनी अंतःचेतना को परिष्कृत कर ऊर्ध्वमुखी कर लेता है। यह प्रक्रिया इतनी अद्भुत है कि वह एक हिंदू की जीवन पद्धति को ही बदल कर जीवन संबंधी उसकी दृष्टि को त्यागमय बना देती है। संभवतः यही पश्चिम के लिए भारत की सबसे बड़ी देन तथा आज के युग की पीड़ाओं का समाधान भी है। “(साइकोलॉजिकल टाइप्स-सी-जी-जुँग से उद्धृत) एल्डुअस हक्सले अपनी पुस्तक “पेरेनियल फिलॉसफी में कहते हैं कि “मोक्ष का अर्थ भारतीय तत्व दर्शन के अनुसार है अज्ञान, दुष्कर्म व दुःखों से मुक्ति दिलाकर आनन्द, सत्कर्म व ज्ञान प्रदान करने वाला तत्व। इसके लिए वैदिक ऋषि भौतिक साधनों का सहारा लेते, काम को उल्लास में बदलकर मोक्ष सिद्धि का साधन इस जगत द्वारा ही बताते हैं।

भ्रामक मान्यतायें मोक्ष के संबंध में कालान्तर में यह फैला दी गयीं कि “मरने के बाद ही मोक्ष मिलता है। देह धारण करना ही जीव का महान बंधन है। देहवान होते हुए जन्म-मरण की परतंत्रता से छुटकारा कोई भी नहीं पा सकता” इत्यादि। जब कि ऋषि-मनीषी मानव जन्म मिला ही इस कारण मानते हैं ताकि व्यक्ति इस परम पुरुषार्थ, जिसे निर्वाण, मुक्ति, अपवर्ग या निःश्रेयस नाम भी दिया है, इसके लिए कर्म करे व परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु इस सुयोग को सार्थक बनाये। मोक्ष को कालान्तर में विकसित मान्यताओं ने परलोक के सुख के प्रलोभनों से जोड़ दिया जबकि वैदिक संस्कृति के प्रणेता के सभी क्षेत्रों में कर्तव्य पालन को धर्म बताते हुए उसी को जीवनमुक्ति-बंधनमुक्ति का मार्ग बताते हैं। उपनिषद्कार कहते हैं कि आत्मतत्त्व सर्वश्रेष्ठ प्राप्त की जा सकने वाली वस्तु है। वे कहते हैं-नाल्पे सुखम्ऽस्ति। यो वैभूमा तत्सुखम्।” सुख तो महानता की प्राप्ति में है जीव के ब्रह्म से साक्षात्कार करने में है वैसा बनने में है-साधनों में लिप्त होने में नहीं। अतः व्यक्ति को इस जीवन में ही आत्मतत्त्व के विकास हेतु प्रयासरत होना चाहिए।

'फिलॉसफी आफ उपनिषद्' पुस्तक में पाल डायसन लिखते हैं कि “जब उपनिषद्कार आत्मज्ञान मोक्ष की बात कहता है तो उसका आशय है उस सत्य की प्राप्ति जिसकी सत्ता अनादिकाल से है। मुक्त तो हम सभी हैं परन्तु सुषुप्ति की अवस्था में सतत् प्रवेश करते रहने के कारण हम बंधनों से मुक्त नहीं हो पाते।” उपनिषद्कार ब्रह्मज्ञान और शरीर यात्रा में कोई विरोध नहीं मानता। दोनों साथ चल सकते हैं। ब्रह्मविदः ब्रह्मैव भवति” कहते हुए ऋषि बताते हैं कि दूसरे लोग तो दुःख को प्राप्त होते है किन्तु जो ब्रह्म को जान लेता है वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है।”

तृष्णाओं से मुक्ति ही बंधनमुक्ति अथवा मोक्ष है। मुक्त आत्मा सभी प्रकार के भयों से मुक्त होकर अभय हो जाती है। भय, सन्देह, घृणा, ईर्ष्या आदि के मूल में “अन्य” की भावना अनिवार्यतः विद्यमान रहती है। जब मुक्ति की दिशा में अग्रसर साधक इस “अन्य” की भावना से मुक्त हो जाता है ऊपर उठ जाता है तो भय, सन्देह, घृणा आदि विकार जो दुःखों के कारण हैं दूर हो जाते हैं। उपनिषद्कार कर्म करते हुए ही हमसे सौ वर्ष तक जीने की बात कहता है व यह भी कहता है कि उसमें लिप्त न हों (कुर्वन्नेवेहकर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः) एवं त्वयिनान्य थे तोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। ईशोप-2)।

श्रीमद्भागवतगीता में योगेश्वर कृष्ण जीवन जीने की कला का जो सुन्दर शिक्षण धनंजय को देते हैं वैसा मोक्ष संबंधी चिंतन भारतीय वांग्मय में कहीं देखने को नहीं मिलता, इसीलिए इस ग्रन्थ को उपनिषदों, रूपी गायों से दुहा गया दुग्धामृत कहा गया है। मोक्ष, गीताकार के अनुसार योग के रूप में जीवन का एक सकारात्मक पक्ष है। ससीम के बंधनों से मुक्त होकर जीवात्मा जब असीम सत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है तो उसे योग या मोक्ष कहा जाता है। इसके लिए ज्ञानयोग कर्मयोग व भक्तियोग के तीन मार्ग बताए गए हैं ताकि मनुष्य इस देह के रहते ही अन्यान्य कर्मों में लिप्त होते हुए भी चरम लक्ष्य को प्राप्त करें। विचित्र बात यह है कि श्रीकृष्ण कहते हैं कि संसार में मनुष्य रचना ही कर्म करने के लिए हुई हैं। कर्म के लिए वह बाध्य है। फिर वे कहते हैं कि कर्म ही बंधन व मुक्ति के कारण भी हैं। तो फिर कर्म करते हुए मुक्ति के कारण भी हैं। तो फिर कर्म करते हुए मुक्ति कैसे मिले? उसके प्रत्युत्तर में वे कहते हैं “तू कर्मों के फल की वासना वाला मत बन तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न हो” (भगवद् गीता 2/47)। मात्र कर्म में अधिकार रख फल की कामना न करने की बात कहकर वे बंधनमुक्ति का पथ दिखाते हैं। कर्म का अपेक्षित फल हमारे लिए कर्म करने की प्रेरणा न बने। हम अनासक्त भाव से कर्म करें। कर्मयोग की बात कहते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन क्षेत्र से भागों मत संन्यास की बात मत सोचो। कर्मों का नहीं काम्य कर्मों का त्याग करो, यह सारा जगत मोक्षमय बन जाए, ऐसे कर्म करते हुए व उन्हें मन से परमसत्ता में अर्पण करते हुए (मीये सन्यस्य मत्परः) यदि कोई पुरुषार्थ करे तो वह मोक्ष इस जीवन में ही पा लेता है।

महाभारतकार कहता है-कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते।” अर्थात् जीव कर्मों से ही बँधता है और विद्या से मुक्त हो जाता है, कर्म कौन से? सकाम कर्म, जिनका स्रोत अज्ञान में है या निष्काम कर्म स्वयं ज्ञान या विद्या की अभिव्यक्ति है। श्रुति कहती है-ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः” (आत्मज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता)। इस तरह सभी ऋषि-मनीषी एक ही सत्य का उद्घाटन करते आए हैं कि मोक्ष के रूप में यदि इसी जीवन में त्याग की प्रतिष्ठापना व्यक्ति के जीवन में हो जाए, काम्य कर्मों व कर्मों के फल-त्याग की विधा वह जीवन में उतार ले तो इस जीवनकाल में ही वह बंधनों से मुक्त हो सकता है।

अब यह प्रश्न उठ सकता है कि ये बंधन क्या हैं व मुक्ति का मार्ग क्या है? परम पूज्य गुरुदेव ने इस संबंध में बड़ा स्पष्ट व व्यावहारिक चिन्तन प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि “बंधन तीन ही हैं-लोभ मोह और अहंकार। इन्हीं को तृष्णा, वासना और अहंता कहते हैं। यही वास्तविक बंधन हैं। इन लिप्सा-लालसाओं से जो अपने को मुक्त कर लेता है, समाज का एक विनम्र घटक बनकर स्वयं को सेवा साधना में नियोजित कर देता है उसी के बारे में यह मानना चाहिए कि वह जीवनमुक्त है। बंधन सदा दुष्प्रवृत्तियों के होते हैं।”

मुक्ति के संबंध में परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि “यह किसी लोक विशेष में जा बसने जैसी उपलब्धि नहीं है। इसका सीधा सा अर्थ है-भवबंधनों से छुटकारा। संकीर्ण स्वार्थपरता के चक्रव्यूह से निकलकर समष्टि विराट के साथ एकात्मभाव स्थापित करना ही मोक्ष है। दूरदर्शी विवेकशीलता का जागरण ही आत्मज्ञान, आत्म बोध-ईश्वर दर्शन है तथा जिसे यह अनुदान मिल जाता है, वह जीवनमुक्त बनकर देवमानव बनता आत्मभाव का विस्तार करता नजर आता है।” इसी के लिए उपासना, साधना, आराधना की भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग की साधना, आराधना की भक्तियोग, ज्ञानयोग कर्मयोग की साधना की चर्चा परम पूज्य गुरुदेव ने की है जो गीता में बताए योगशास्त्र का व्यावहारिक प्रतिपादन है। अपनी क्रान्तिकारी लेखनी द्वारा वे हमें बताते हैं कि “तस्मात् योगी भावार्जुन” के द्वारा श्रीकृष्ण ने आसन, प्राणायाम, नेति, धौति वाला योगी बनने को नहीं कहा वरन् अर्जुन को जीवन में उतरने वाला व्यावहारिक योग समझाया है। जीवन आदर्शों के साथ जुड़ जाय यही योग है। योगी वे होते हैं जो स्वयं तो बंधनों से मुक्त होते ही हैं, औरों को भी वह पथ दिखाते हैं।”

भारतीय संस्कृति नर-मानव को देवमानव बनाने वाली प्रक्रिया का प्रशिक्षण अध्यात्म तत्त्वज्ञान के माध्यम से देती चली आयी है। पुरुषार्थों में परम पुरुषार्थ यही है आत्मसत्ता का विकास। लोग यही समझते आए हैं कि मोक्ष मरने के बाद मिलता है, किसी अन्य लोक में रहना पड़ता है। सालोक्य, सामीप्य सायुज्य, सारूप्य लाभों के नाम से चार मुक्तियों की चर्चा की जाती है, यह मनःस्थिति के विभिन्न आयामों का नाम है। वास्तविक मुक्ति तो उन बंधनों से है जिनका सामना दैनन्दिन जीवन में हम कहते हैं व मानवी गरिमा को भूलते हुए अदूरदर्शी जीवन व्यवहार करते देखे जाते हैं। सारा जीवन साधनों के संचय, वासना-उपभोग व अहंता की सिरफुटौवल में नियोजित कर देते हैं। जब इन सबसे अपना आपा ऊपर उठ जाता है तो यह बंधनमुक्ति या मोक्ष कहलाता है, ऐसी पूज्यवर की मान्यता है जो नितान्त व्यावहारिक है। जीवनमुक्त को फिर संसार में किसी भी वस्तु से कोई आसक्ति नहीं रहती। शरीर उसके लिए वैसा ही होता है, जैसे सर्प के लिए केंचुली। आचार्य शंकर ने तर्क, श्रुति और अनुभूति के आधार पर इसी प्रकार की मोक्ष की संभावना को निरूपित किया है। परम पूज्य गुरुदेव का मोक्ष के संबंध में चिन्तन हम आचार्य शंकर व योगीराज अरविन्द के बीच समन्वयात्मकता स्थापित करने वाला पाते हैं जिसमें जहाँ संपूर्ण धरित्री के मोक्ष की बात श्री अरविन्द अतिचेतन के माध्यम से करते हैं व अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादन द्वारा आचार्य शंकर जीवनमुक्ति की आत्मा के उर्ध्वगमन की चर्चा करते हैं वहाँ संस्कृति पुरुष गुरुदेव मानव में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की व्याख्या द्वारा पूरी समष्टि की बंधनमुक्ति का पथ हम दिखाते हैं, जो हर मुमुक्षु का परम लक्ष्य है।

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