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Magazine - Year 1992 - Version 2

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Language: HINDI
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अनादि अनन्त जीवन प्रवाह का प्रतिपादक हिंदू अध्यात्म

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First 19 21 Last
भारतीय संस्कृति-हिन्दू अध्यात्म की एक-एक स्थापनाएँ व निर्धारण अपने में महत्वपूर्ण हैं किन्तु जो व्यक्ति की आत्मतत्त्व में आस्था बढ़ाती हुई सत्कर्म में निरत करने वाली प्रधानतम मान्यता है, वह है पुनर्जन्म संबंधी जो यहाँ से कालान्तर में विश्वभर में गयी। ऋषियों का यह सुनिश्चित विश्वास है कि इस मानव जीवन का उद्देश्य परमसत्ता से साक्षात्कार व मोक्ष प्राप्ति है। परन्तु एक ही जीवन में इस ध्येय की प्राप्ति सदैव नहीं होती, इसकी पूर्ति के लिए अनेक जन्म लेने पड़ सकते हैं। देहात्मवाद-भोगवाद यह सब नहीं मानता। “यावज्जीवेत सुखंजीवेत” वाला चार्वाक का सिद्धान्त तथा पश्चिम के लुक्रेशियस का “खाओ, पीओ, मौज करो” का सिद्धान्त यों कितने मानते हैं, यह नहीं कहा जा सकता परन्तु इस नीति पर चलते बहुसंख्य व्यक्ति देखे जाते हैं। काम तथा अर्थ में लिप्त भोगपरायण व्यक्तियों की प्रच्छन्न नास्तिकों की संख्या शरीर में बढ़ती दीख पड़ती है व आज की आस्था संकट की विभीषिका का मूलक रण भी यह प्रत्यक्षवाद, भोगवाद ही है, इसमें किसी को संदेह नहीं । निश्चित ही ऐसे में पुनर्जन्म संबंधी परलोकवादी चिन्तन व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य जानने व नैतिक आचरण में प्रवृत्त करेगा, अतः इस विचारधारा के व्यापक विस्तार की आवश्यकता आज सभी मनीषी समझते हैं।

मनुष्य इस धरती पर आता है परन्तु भोगेच्छा के वशीभूत हो कर्मों की गति के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थितियों को प्राप्त होता है ऋग्वेद में एक मंत्र में यह बात अलंकारिक ढंग से बड़ी अच्छी तरह समझाई गयी है-

द्धा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वान्दत्यश्न्नन्यो अभिचाकशीति॥ (ऋ.. 1/164/20)

अर्थात् “जीवात्मा तथा परमात्मा दो साथ रहने वाले सखा एक ही संसाररूपी वृक्ष की डाली पर बैठे हैं। जीवात्मा इस वृक्ष के फल को खाता है तथा परमात्मा खाता नहीं, द्रष्ट मात्र बना बैठा है।” इस मंत्र में आत्मा के कर्मानुसार फल भोगने का स्पष्ट विधान बताया गया है। वृक्ष के फल में स्वाद लेना भोगेच्छा का द्योतक है। यही जीवात्मा की निर्बलता है। परमात्मा भोग से पृथक केवल द्रष्ट है। यह उसकी शक्ति है। पास में होने पर भी खाने की, रस लेने की आसक्ति प्रकट होते ही जीव का स्वत्व जाता रहता है, शक्तिहीन वह हो जाता है व पराधीन बनता, रोग-शोक का-पतन का भोगी बनता चला जाता है। “अवश्यमेय भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्” की उक्ति के अनुसार जीव को अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है तथा यह कर्म फल, फल न रहकर स्वयं एक कर्म बन जाता है। ऐसा कर्म जिसका फल फिर आगे मिलता है यह एक चक्र है।

हम जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही संस्कार बनते हैं और उन्हीं संस्कारों के अनुसार हमें आगामी शरीर मिलते हैं। ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं-

ये ऊर्वांचरताँ उ पराच आहुर्य पराँचस्ताँ अर्वाध आहुः। इन्द्रश्च या चक्रधुः सोन तानि धुरा न युक्ता रजसो वहन्ति॥ (1/164/19)

अर्थात् जो नीचे थे, वे ऊपर पहुँच जाते हैं और जो ऊपर थे, वे नीचे आ जाते हैं। इन्द्र अर्थात् इन्द्रियों का स्वामी जीवात्मा जिन कर्मों को करता है, वे धुरे की भाँति युक्त होकर इस लोक-लोकान्तरों में एक योनि से दूसरी योनि में ले जाते हैं।”

कितना स्पष्ट चिन्तन है। इस जीवन में जो भोगाकांक्षी रहा हो, मन में कामनाएँ भोगों को भोगने की रही हों पर वैसे अवसर न मिल पाए हों तो इच्छा शक्ति उस अगले जन्म में भीगी-विलासी बनाती है चाहे वह पूर्व जन्म में धर्म परायण साधक रहा हो। ध्रुव पूर्व जन्म में मुनि कुमार थे किन्तु राजा के बच्चों के साथ खेलते-खेलते राजसी भोग जीने की कामना ने उन्हें दूसरा जन्म राज परिवार में दिलवाया, जहाँ वे अंततः नारद ऋषि के परामर्श को पाकर अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचे। वासनाओं का ध्यान द्वारा यदि योगी शमन करता चले, उन्हें परिमार्जित करता चले तो कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।

महर्षि अरविंद ने अपनी पुस्तक “रिबर्थ एण्ड इवॉल्युशन” में लिखा है कि पूर्वकाल में यह सिद्धान्त (पुनर्जन्म का) यूरोप में “ट्रांस माइग्रेशन” के नाम से जाना जाता था। इसका दार्शनिक विकास यूनानी सभ्यता के उत्कर्ष के समय “मेटमसाइकोसिस” नाम से हुआ। अब यही नाम रिइनकार्वेशन नाम से जाना जाता है। मैं स्वयं “रिबर्थ” शब्द को सही पर्यायवाची पुनर्जन्म का मानता हूँ क्योंकि वह संस्कृत के विस्तीर्ण वर्णहीन परन्तु पर्याप्त अर्थ वाले शब्द पुनर्जन्म के अधिक समीप है। श्री अरविंद कहते थे कि प्रसिद्ध दार्शनिक-विज्ञानी पाइथागोरस महानतम वैदिककालीन मुनियों में से थे। इससे पूर्व जन्म में वे “बेरल आफ ट्राम” में एंटिनारिडनामक व्यक्ति के रूप में जन्मे थे व एमियस के कनिष्ठ पुत्र द्वारा मारे गए थे। हेक्टर का विजेता ‘एचिलिस’ ही बाद में मेसिडोनिया वासी फिलिप के पुत्र सिकन्दर (अलक्षेन्द्र) के रूप में जन्मा था, ऐसी महायोगी की मान्यता थी जो उनने अपनी दिव्य दृष्टि से बनायी ।

समय-समय पर पाश्चात्य विद्वानों ने भी पुनर्जन्म से अपनी सहमति जताई है। हक्सले कहते थे “केवल बिना सोचे समझे निर्णय लेने वाले विचारक ही पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मूर्खता की बात कहकर उसका विरोध करेंगे।” वाल्ट विहटमैन ने लिखा है “जीवन! तुम मेरे अनेक अवसानों के अवशेष हो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं इसके पूर्व दस हजार मर चुका हूँ।” वर्ड्सवर्थ “इमिटेशन आफ इम्मॉट्रेलिटी” में लिखते हैं-हमारे साथ हमारे जीवन के नक्षत्र के साथ उदीयमान आत्मा का उद्भव अन्यत्र हुआ है, यह कहीं सुदूर से आई है।”

सुकरात कहते थे-मृत्यु स्वप्न विहीन निद्रा है और पुनर्जन्म द्वारा है।” प्लाटिनिस के अनुसार “नैतिक गुणों से जीवनयापन न करने पर मनुष्य मृत्यु के उपरांत वृक्ष तक बन सकता है।” पाइथागोरस का भी यही चिंतन था-साधुता का पालन करने पर आत्मा का जन्म उच्चतर लोकों में होता है और दुष्कृत्य आत्माएँ निम्न पशु आदि योनियों में जाती हैं।” प्लेटो कामना को ही पुनर्जन्म का निमित्त कारण मानते थे। लिबनित्य की यह मान्यता थी कि “पशुओं व मनुष्यों का उनके वर्तमान जीवन से पूर्व भी कोई अस्तित्व था तथा इस जीवन के बाद भी कोई अस्तित्व रहेगा, इसे स्वीकारना ही होगा।” हेगल के अनुसार “पूर्णता की ओर बढ़ती जीवात्माएँ यदाकदा निकृष्ट कर्मानुसार प्रेत-पिशाच जैसी योनियों में चली जाती हैं।” लेसिंग के विचार उपनिषदों से मिलते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक आत्मा पूर्णता के लिए सचेष्ट है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस धरती पर उसे अनेक जन्म लेने पड़ते हैं।

श्वेताश्वेतर-उपनिषद्कार कहता है-

त्वं स्त्री त्वं पुमानासि त्वं कुमार उत वा कुमारी। त्वं जीर्णो दण्डेन वंचसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥(4/3)

अर्थात्-हे जीव! तू कभी स्त्री कभी पुरुष, कभी कुमार, कभी कुमारी होता है। कभी वृद्ध होकर लाठी के सहारे चलता है, इसलिये तू जन्म लेने वाला सर्वतोमुखी है, नहीं तो तू तो साक्षात् परमात्मा स्वरूप है।”

उपनिषदों में कठोपनिषद् बड़ा ही गूढ़ व सुविख्यात है। पंचाग्निविद्या जानने यमलोक के द्वार पर पहुँचने वाला नचिकेता कितना विलक्षण प्रतिभा व आत्मज्ञान संपन्न था कि पिता के यह कहने पर कि मृत्यु को तुझे देता हूँ व बाद में दुख करने पर वह कहता है-सस्यमिव मर्त्य पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः” (कठ. 1/1-6) अर्थात् आप दुख क्यों करते हैं? यह शरीर तो धान्य की भाँति मरता है और उसी की तरह पुनः उग आता है।” बाद में यही जिज्ञासु साधक प्रेय व श्रेय में श्रेय को चुनता हुआ आत्मतत्त्व की व्याख्या यमराज से सुनकर अमरत्व को प्राप्त होकर आता है।

आर्यों को श्रेष्ठ चिन्तन वाला प्राणी माना जाता है। वे आत्मा की अमरता-गरिमा पर विश्वास रखते थे।

गीता कहती है-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः न चैनं क्लेयत्यापो न शोषयति मारुतः॥

अच्छेद्योऽ यमदाह्योऽ यमक्लेद्यौ शोष्यएवच। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयंसनातनः॥ 2/23.24

(इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं न आग जला सकती है, जल इसे गीला नहीं कर सकता, वायु इसे सुखा नहीं सकती क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य, अक्लेद्य, व अशोष्य है। यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।) गीताकार का यह शाश्वत चिन्तन आत्मसत्ता की महत्ता व पुनर्जन्म की अनिवार्यता बताता है मानवी चिन्तन व उसके कर्म पुरुषार्थ के परिप्रेक्ष्य में। योगेश्वर कृष्ण आगे कहते हैं-जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुँव जन्म मृतस्य च ।” (27/2 अ) अर्थात् “जन्में हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है।” स्वयं वे अपने बारे में व अर्जुन के विषय में इस ध्रुव सत्य को लागू करते हुए कहते है-

वहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥ (4/5)

अर्थात्-हे परंतप अर्जुन! मेरे तेरे बहुत से जन्म हो चुके उन सबको तू नहीं जानता किन्तु मैं जानता हूँ।” शोक-क्लेश विशाद में डूबे अर्जुन को इस ज्ञान की आवश्यकता तुरन्त थी, वह भी योगेश्वर स्तर के अवतारी पुरुष द्वारा अतः वे उसे अपने आने का उद्देश्य व उसका प्रयोजन समझाते हैं, इतने सुन्दर ढंग से यह सब कह दिया गया है कि गीताकार की शैली पर पुनर्जन्म की कर्मफल की मान्यताओं पर बिना किसी पाश्चात्य चिंतक की मोहर के विश्वास हो जाता है।

आगे तेरहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं कि “प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों से प्रभावित रहता है, उनको भोगता है और इन गुणों का संग ही उसके सत्-असत् (देव, पितर, प्रेत, मनुष्य, पशु) आदि योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है” (अध्याय 13, श्लोक 21)

अंत में भगवान कृष्ण कहते हैं देवताओं को पूजने वाले देवताओं को, पितरों को पूजने वाले पितरों को, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझ को ही प्राप्त होते हैं। अर्थात्-वे किसी अन्य लोक में नहीं जाते और न उनका मर्त्यलोक में पुनर्जन्म ही होता है) अध्याय 9/24

इसका कारण बताते हुए श्री कृष्ण कहते हैं-क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य है” (गामुपेत्व तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते) अध्याय 8/16। इसके लिए वे कृष्ण अर्थात् परमसत्ता का वरधा में जाने का मार्ग बताते हुए अपनी ही शरण में जाने को कहते हैं, अपने कर्तव्यों को परमसत्ता के प्रति समर्पित होने की बात कहते हैं (“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी माँ नमस्कुरु” तथा “सर्वधर्मान्परित्वज्य मामेकं शरणं व्रज)”। 18/65/66

अन्याय संप्रदायों में मरणोत्तर जीवन संबंधी मान्यताएँ भिन्न-भिन्न हैं। सोमेटिक लोग (ईसाई, मुस्लिम, यहूदी) मृत शरीर को अधिक से अधिक समय तक मकबरे में सुरक्षित रखते हैं व उनका मत हैं कि आत्मा ताबूत में सोयी रहती है किन्तु निर्णय के दिन उठ बैठती है। मिस्र के देहात्मवादी तो शरीर को ही आत्मा मानते थे व ममी बनाने की प्रक्रिया द्वारा शरीर को अधिकाधिक सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते थे। किन्तु अब क्रमशः चिन्तन सभी ओर भारतीय दर्शन प्रधान हो रहा है। थियोसॉफीस्ट्स का कहना है कि मनुष्य मरकर मनुष्य जन्म ही पाएगा, और किसी योनि में नहीं जाएगा। भारतीय संस्कृति कहती है कि जीवन का कोई स्त्री पुरुष लिंग नहीं मनुष्य पशु-पक्षी आदि कोई जाति नहीं। वह तो अपने कर्मानुसार शरीर प्राप्त करता है और निश्चित कर्मों का उपभोग करके शरीर छोड़ देता है, फिर दूसरा शरीर प्राप्त करता है, जब तक कि वह बंधनों से मुक्त नहीं हो जाता।

“यो यच्छ्राद्ध स एवसः” । इस सूत्र के द्वारा जीव की गति होती है, ऐसा गीताकार ने कहा है। जिसकी जैसी श्रद्धा है, वह वहाँ जाएगा उसी का स्वरूप प्राप्त करेगा। कर्म में श्रद्धा वाले कर्म विधान की गति पाएँगे, योगी योग गति को प्राप्त करेगा, ज्ञानी ज्ञान स्वरूप से एकाकार होगा तथा भक्त भगवान को प्राप्त करेगा। जीव की गति कर्मों से बँधी बतायी गयी है। कर्मों की गति बड़ी गहन बतायी गयी है। वैयक्तिक रूप में कर्मों के संस्कार चित्त पर स्मृति रूप में या वासना रूप में पड़ते हैं, स्मृति दूसरे जन्म में बनी भी रह सकती है, नहीं भी होती किन्तु वासनात्मक संस्कारों में प्रबल प्रेरणा शक्ति होती है तथा यही विभिन्न योनियों के कारण बनते हैं। रागद्वेष-युक्त होकर, तृष्णा-वासनावश संचित संस्कार साथ जाते हैं चाहे वे शरीर से कर्म रूप में हुए हों या मन से। इच्छा कोई नष्ट नहीं होती, वह कभी न कभी पूरी अवश्य ही होती है इसीलिए दुख पैदा करने वाली भोगेच्छा से व्यक्ति को विरत रहने की शास्त्रज्ञ है। जो माँस खाना चाहता है वह कालान्तर में कुत्ते, गीध, व्याघ्र, कृमि किसी भी योनि में जन्म ले सकता हैं। यह एक उदाहरण मात्र है।

सामूहिक कर्मों के प्रतिफल भी बड़े व्यापक होते हैं। हिंसक उन्माद अनैतिकता, अत्याचार आदि कर्मों के फल सामूहिक रूप में भोगने पड़ते हैं। संकट की प्रतिक्रिया युद्धोन्माद, भूकम्प, बाढ़ के सामूहिक दण्ड महामारी के रूप में निकल सकती है। विचारों की दिशा का प्रवाह जिस दिशा में होता है, वैसी ही प्रतिक्रिया अदृश्य जगत से होती बतायी गयी है। न्यूटन का तीसरा नियम (धर्मोडायनेमिक्स) हर क्रिया की समान व विपरीत प्रतिक्रिया सुनिश्चित होती है। एक अटल सिद्धान्त के रूप में परलोकवाद, मरणोत्तर जीवन, कर्मफल के प्रतिपादनों से जुड़ा हुआ है । प्रायश्चित कर्म का सिद्धान्त हिन्दू संस्कृति का प्राण है जिसके माध्यम से पापकर्मों के कुपरिणाम नष्ट हो सकते है। हमारी संकल्प आदि की व्यवस्था इसीलिए हिन्दू धर्म में रही है।

एक सिद्धान्त अब पश्चिम जगत में भी जब पकड़ता जा रहा है कि आप पाए जाने वाले अधिकांश रोगों के मूल में व्यक्ति के अशुभ चिंतन में पापपूर्ण कृत्य हैं, स्ट्रेस नामक व्याधि को पाप, अनीति जन्य माना जाने लगा है तथा संक्षोभ-विक्षोभ गन्ध शरीर रोगों में संत्रासों को व्यक्ति को मिलने वाले ग्रन्थ के रूप में जाना जाता है। कन्फेशन का प्रावधान पश्चिम में भी है तथा अब ट्रांजेक्शनल एनालिसिस व साइकोइवेल्युएशन काउन्सिलिंग द्वारा मनुष्य को जरूरी है व पूर्व के विभिन्न कर्मों की जानकारी-अनुभूति कराते हुए उसे सही चिंतन-जीवनक्रम की सलाह दी जाने की बात बड़े जोरों से की जा रही है। हिप्नोथेरेपी अब खूब प्रचलित है। पुनर्जन्म व पितर विद्या के क्षेत्र में अनेक पाश्चात्य विशारद उतरे हैं व आत्माओं का आह्वान प्लेनचिट पद्धति से करने का प्रचलन 1885 से चला आ रहा है। सर आलीवरलॉज, सरकुम्स तथा विलियम जेम्स ने इस संबंध में काफी शोध कार्य किया है। वी-वी श्रेनेक ने अपनी पुस्तक “फिनामिना आफ मेटेरियलाइजिंग “ तथा स्वामी अभेदानन्द ने “लाइफ बियॉण्ड डेथ” में मृतात्माओं के चित्र देकर प्रमाण तक प्रस्तुत किये हैं।

पुनर्जन्म की अनेकानेक घटनाएँ परलोक विधा के मरणोत्तर जीवन के प्रतिपादनों के प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत की जाती रही हैं परम पूज्य गुरुदेव ने इस विषय पर विस्तार से विवेचन किया है। यहाँ उनकी ही एक पुस्तक से एक घटना दी जा रही है, जो इसकी साक्षी देती है। कर्नल डिरोचाज जो एक फ्रेंच गुह्यविज्ञानी थे, मैस्मेरिज्म व हिप्नोटिज्म में निष्णात् थे। वे पुनर्जन्म के संबंध में भारतीय चिन्तन को मानते थे। एक फ्रेंच इंजीनियर की पुत्री मेरी मेव को सम्मोहन द्वारा अचेत कर उनने पहले उसे उसकी आत्मा को दर्शन कराया व क्रमशः धीरे-धीरे वर्तमान आयु से कम आयु की ओर चलने छोटी होने की न केवल अनुभूति करने सबको बताने को कहा। वह क्रमशः रंगीन प्रकाश की दिव्यज्योति के रूप में आत्मा को तथा फिर अपनी हर आयु के घटनाक्रमों को बताने लगी। क्रमशः उन्होंने उसे पूर्व जन्म के शरीर में पहुँचा दिया। उस बालिका ने बताया कि पूर्व जन्म में वह ब्रिटेन के पूर्वी तट पर रहने वाली मछुआरे की लड़की लीना थी व विवाहोपरांत समुद्री तूफान में डूबकर वह मर गयी थी। इससे पूर्व के जन्म में जाने का निर्देश मिलने पर जैसे कि किसी वीडियो कैसेट को रिवाइंड किया जाता है वह बताने लगी कि “बड़ा सघन अंधकार है। मुझे बड़ी तकलीफ हो रही है। मैं हूँ फ्राँस में ही, पर यह समय लुई 18 वें का है। पर मैं तो पुरुष हूँ । मेरा नाम मावील है। मैंने क्रान्ति में भाग लिया कई व्यक्तियों को मारा। सारा दृश्य मुझे दिखाई दे रहा है। मेरे दुष्कर्मों का दण्ड मुझे भयंकर पीड़ादायक बीमारी के रूप में मिला। इससे तो अच्छा है कि मैं लड़की होती और फिर वही मृत्यु-घना अंधकार।” इतना कहकर वह गहरी बेहोशी में चली गयी। इससे पूर्व के जन्मों में जा पाना संभव नहीं था। इस घटना द्वारा कर्नल डिरोचाज ने यह प्रमाणित किया कि आत्म चेतना का प्रवाह अनन्त है एवं वह लिंग से परे-देशकाल से परे वासनाओं से बंधा कहीं भी जन्म ले सकता है। यह मान्यता व यह घटनाक्रम योगवशिष्ठ (3/54/67) के माध्यम से बड़े स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है-

न जायते म्रियते चेतनः पुरुष क्वचित। स्वप्न संभ्रमवद्भान्तते तत्पश्यति केवलम्॥

पुरुषश्चेतनामात्रं सकदा ग्वेव नश्यति। चेतन व्यक्तिरिक्तत्वे वदान्यत्किं पुमान्भवेत

को ऽद्य यावन्मृतं ब्रहि चेतनं कस्य किं कथम्। प्रियन्ते देहलक्षाणि चेतनं स्थित भक्षयम्॥

अर्थात्-हे राम। मनुष्य के भीतर जो चेतना है (आत्मा) वह न जन्म लेता है, न मरता है, भ्रमवश संसार की परिस्थितियों का स्वप्न की भाँति अनुभव मात्र करता है। मनुष्य में चेतना के अतिरिक्त है ही क्या? वह नष्ट कहाँ होता है? यह शरीर तो मरते जीते रहते हैं, आत्मा तो अक्षयस्थित होता है।

यह एक ही चिन्तन एक ही तत्त्वदर्शन आत्मा की शाश्वतता, चिरन्तनता, अखण्डता का आप व्यक्ति का दिग्दर्शन करने में सक्षम है। जीवन का प्रवाह अनादि से अनन्त तक प्रतिपादित करने वाला देव संस्कृति का यह मार्ग दर्शन इतना अनुपम-अद्भुत ह कि अर्नाल्ड टायनवी जैसे विद्वान ने दायसाकू इकेड़ा (सुप्रसिद्ध जापानी चिंतक मनीषी) से चर्चा के दौरान कहा है कि यह विश्वास व्यक्ति को आशावादी व कर्मपरायण

श्राद्ध-तर्पण

श्राद्ध शब्द परलोकवाद-मरणोत्तर जीवन के विवेचन से जुड़ा हुआ है। यह शब्द ‘श्रद्धा’ से बना है। सत्कर्मों के लिए, सत्पुरुषों के लिए आदर की, कृतज्ञता की भावना रखना श्राद्ध कहलाता है। पितरलोक एक ऐसा प्रतीक्षा लोक है, जहाँ संभव है हमारे औरों के राष्ट्र-धर्म-संस्कृति के नाम पर बलि चढ़ने वाले महामानवों की आत्माएँ विश्रामरत हों इन सबके प्रति कृतज्ञता भाव से हम तर्पण पिण्डदान आदि करके अपने ऋण से मुक्त होते हैं। उनने जो भी हम पर व इस राष्ट्र पर संस्कृति पर उपकार किया उसका प्रत्युत्तर हम उन्हीं के पद चिन्हों पर चलकर दे सकते है। इसके लिए हम व्रत लेते हैं व कुछ सत्प्रवृत्तियों का शुभारंभ करते है। मृतकभोज आदि मान्यताएँ मध्यकाल में विकृतियों वश पण्डों-पुजारियों ने जोड़ी। स्वर्गीय पितरों को हम सूक्ष्म श्रद्धा भावना से ही अपनी कृतज्ञता की आहुति व तर्पण के जल द्वारा पवित्रता का भाव प्रेषित करते है। यह पूरा कर्मकाण्ड पूर्णतः विज्ञान सम्मत है। इसका विस्तृत विवेचन संस्कारों संबंधी विवेचन वाले आगामी अंक में दिया गया है।

तो बनाता ही है, साथ ही नैतिकता के मूल्यों की रक्षा भी करता है। वे कहते हैं कि ट्रांसमारग्रेशन के रूप में बौद्ध व हिन्दू जिस विश्वास को मानते हैं, उसे अब पश्चिम के धर्म भी आत्मा के अमरत्व के रूप में स्वीकारने लगे हैं। मैं यह मानता हूँ कि मनुष्य की शाश्वत आध्यात्मिक सत्ता उसके कर्मों से निश्चित ही प्रभावित होती है व हमें सभी को शुभकर्मों की प्रेरणा देनी चाहिए। (चूज लाइफः ए डाएलॉग-आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 1987 से उद्धृत)।

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