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Magazine - Year 1992 - Version 2

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जीवन को चरम लक्ष्य तक ले जाने वाले चार पुरुषार्थ

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मानव सृष्टि की गौरवमयी अभिव्यक्ति है तथा उसे ईश्वरीय सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में देवसंस्कृति में वर्णित किया गया है। जीवधारी तो अनेक हैं, अनेकानेक प्रकार के हैं किन्तु उनमें भी मनुष्य का स्थान सर्वोपरि है। क्योंकि वही एक ऐसा प्राणी है जो विवेक बुद्धि से समन्वित है तथा ज्ञान-गरिमा का अधिकारी पात्र है। महाभारत के शांतिपर्व में ऋषि कहते हैं-

“गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, न मानुषात्श्रेष्ठतरं हि किंचित।” अर्थात् “ब्रह्म का रहस्य यही है कि सृष्टि में मानव ही सर्वश्रेष्ठ है।” (महा.शाँ. प. 180/12)

यह देव संस्कृति की एक महत्वपूर्ण स्थापना है, जो हमें अन्यान्य किसी मत-संस्कृति-धर्म संप्रदाय में देखने को नहीं मिलती। अन्य सभी मतावलम्बियों का यह मानना है कि मनुष्य का विकास एक सीमा तक ही संभव है, वह पैगम्बर देवदूत तो बन सकता है, पर भगवान नहीं बन सकता। किन्तु हमारी संस्कृति कहती है जीवों ब्रह्मैव नापरः” जीव की मनुष्य की सामर्थ्य अंतर्निहित शक्ति उसे ब्रह्म की परम सत्ता के समकक्ष बना देती है। कितना अद्भुत व विलक्षण यह चिन्तन है जो मनुष्य को सतत् पुरुषार्थ परायण बनाते हुए उसे लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सदा प्रेरित करता रहता है।

श्रीमद्भागवत में एक आख्यायिका आती है जिसमें व्याख्या की गयी है कि जगतरचयिता परब्रह्म ने पुरुष शरीर को सर्वाधिक प्रिय मानते हुए अपने लिए बनाया है। कहा जाता है कि प्रजापति ब्रह्मा जब अपने को कृतकृत्य जैसा समझ कर बड़े ही प्रसन्न थे, तब सारी सृष्टि के निर्माण के अंत में, अपने श्रेष्ठतम युवराज के रूप में उन्होंने अपने मन की सत्ता से अर्थात् मनःशक्ति से विश्व की अभिवृद्धि करने वाले मनुओं को रचकर उन्हें अपना वह पुरुषाकार शरीर दे दिया (स्वीयं पुरं पुरुषं) । उनसे पहले उत्पन्न देव, गंधर्व आदि सभी ने मिलकर हर्षपूर्वक ब्रह्मदेव को नमन कर धन्यवाद दिया व कहा कि-देव आपकी यह रचना सर्वश्रेष्ठ है। इससे उत्कृष्ट रचना कोई और नहीं हो सकती। इस नर देह में प्राणियों के अभ्युदय (अभितः उदभ्-सब तरह से आगे बढ़ना) तथा निःश्रेयस (निश्चितं श्रेयं निः श्रेयसम अर्थात् जिससे बढ़ कर कोई उत्तम फल न हो) के समस्त साधन विद्यमान हैं। अतः इसकी सहायता से हम सब देवता भी अपनी सूक्ष्म हवि ग्रहण कर संतुष्ट होते रहेंगे।” इस कथा का भाव यह है कि देवों, गंधर्वों तक को मानव शरीर हुए उसके माध्यम से सिद्धि हस्तगत करते हैं। अतः “सुरदुर्लभ मानुस तन पावा” की उक्ति नितान्त सत्य है व हर मनुष्य के लिए मानव जन्म एक गौरव का विषय है।

“मनोः अपत्यं मानवः” इस व्युत्पत्ति के अनुसार हम सभी पुरुष मनुओं से जन्मे मानव या पुरुष कहलाते हैं, इसी मानव के संबंध में पास्कल का मत है कि मनुष्य ही इस संसार का सर्वश्रेष्ठ बौद्धिकजीव है। तो ऐतरेय उपनिषद् का रचयिता कहता है-यह पुरुष परमात्मा का प्रकाश स्थान है, इसमें परमात्मा प्रकाशित होता है। मानव शरीर में आत्मा का आविर्भाव इतर सभी प्राणियों से अधिक है। उसमें ज्ञान भी है और प्रज्ञान भी-पुरुषे चा विस्तरात्मा। सहि प्रज्ञानेन संपन्नतमः, विज्ञातं वदति विज्ञातं पश्यति।” वस्तुतः मनुष्य में ज्ञान के विकास की विलक्षणता व असीम संभावनाओं को देखकर ही परमात्मसत्ता पुरुष देह को सबसे अधिक प्रिय मानती है। इस तथ्य को भगवान कृष्ण ने इस तरह का है-

“बह्वः सन्ति पुरः स्रष्टस्तासाँ में पौरुषी प्रिया।” मैंने अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया किन्तु मुझे सबसे अधिक प्रिय यह मनुष्य शरीर है”। (श्रीमद्भाग.11−7−22) शतपथ ब्राह्मण एक और स्थान पर कहता है “पुरुषौ वै प्रजापतेन्नैदिष्ठम्” (2/5/1/1) अर्थात् “नर ही नारायण के सर्वाधिक समीप है।” बाइबिल में जेनेसिस अध्याय में स्थान-स्थान पर कहा गया है कि इस संसार में मनुष्य ही परमसत्ता का साकार रूप है (1/2,6/27, 5/1, 5/6) तथा कुरान की आयतें (सूरा 2 व 35/35 कहती हैं कि मनुष्य पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधि है तथा उसे अल्लाह ने श्रेष्ठ आकार का बनाया है।

मनुष्य जन्म भारतीय संस्कृति के चिन्तन के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मिलता है। वह भी प्राकृतिक विधान से व सौभाग्यवश। आचार्य शंकर कहते हैं कि तीन अतिदुर्लभ पदार्थों, मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व रूस महापुरुसंश्रय में सर्वप्रथम मनुष्यत्व ही प्रधान है (सौंदर्य लहरी)।

मनुष्य जन्म मिला व प्रमाद में, भोग में गँवा दिया तो इससे बड़ी अदूरदर्शिता क्या कही जा सकती है? इसीलिए तीर्थंकर महावीर कहते हैं-गाढ़ा या विवाग कम्मुणो संयम गोयम मा पमाय ए” अर्थात् “कर्मों के फल बड़े प्रगाढ़ तीव्र होते हैं। इसलिए हे जीव, क्षणभर के लिए भी तू प्रमाद न कर” (उत्तराध्यन सूत्र 10-4)। इसी कारण देवी भागवत में ऋषि कहते हैं-

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनाँ क्षण भंगुरः। तस्मिन प्राप्ते तु कर्तत्वयं सर्वथै वा ऽऽत्मसाधनम्॥

अर्थात्-

इस अस्थिर एवं अनित्य मानव देह को पा करके इसके द्वारा नित्य, शाश्वत सत्य तत्व को जानने का प्रयास कर आत्मकल्याण की प्राप्ति करना चाहिए। यह मनुष्य जन्म का प्रमुख कर्तव्य है।”

इस समग्र शास्त्र चर्चा का आशय यही है कि मनुष्य जन्म किन्हीं उद्देश्य विशेषों के लिए पुरुषार्थ करने के निमित्त मिला है तो मनुष्य को उनमें स्वयं को नियोजित कर अपनी जीवन यात्रा सफल बनानी चाहिए। श्रुति कहती है कि यदि यही मनुष्य अपना आपा मात्र देह ही मानता है, देह के अनुकूल ही उसकी खानपान में रुचि होती है, उसे ही पुरुषार्थ मानता है तो वह लौकिक जीवन जीकर बिना लक्ष्य सिद्धि के चला जाता है। दूसरी ओर जो आत्मसत्ता को देहादि से परे, नित्य सत्ता तथा परलोक में आने जाने वाली मानता है तो पारलौकिक पुरुषार्थ में उसकी रुचि बढ़ती है, वह तदनुसार जीवन बंधनों से मुक्ति पाता हुआ चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है। अपने-अपने अभिमान चिंतन-लक्ष्य निर्धारण के अनुरूप ही मनुष्य अपना पुरुषार्थ चुनता है। मनुष्य का यह पुरुषार्थ पक्ष व तत्संबंधी मार्गदर्शन ही भारतीय संस्कृति का आधार स्तंभ है। पाश्चात्य भोगवाद देह को प्रमुख मानता है अतः वहाँ वह पुरुषार्थ प्रधान है व पूर्वार्त्य रहस्यवादी अध्यात्म पारलौकिक जीवन व उसके लिए की गयी प्रगति को वरीयता देता है, अतः उसके अनुवर्तियों का प्रधान पुरुषार्थ यह है। देखा जाय तो पूरी जगती पर बहुसंख्य व्यक्तियों का जीवन भर का पुरुषार्थ देहादि बंधनों से परे नहीं जा पाता। जो मुक्त होने का प्रयास करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता हुआ पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि करता है। क्या हैं ये पुरुषार्थ चतुष्टय? देव संस्कृति के ये चार प्रमुख आधार हैं, जिन पर सारा अध्यात्मदर्शन टिका हुआ है।

ये चार आधार स्तम्भ हैं धर्म, अर्थ, काम एवं

मोक्ष। ये चारों ही मानव की जीवन यात्रा की परमावश्यक अनिवार्यताएँ हैं। इनके बिना जीवन का प्रगति-रथ अपनी यात्रा पूरी नहीं कर पाता। पुरुषार्थ में ईश्वरीय सत्ता के प्रतिनिधि मनुष्य की प्रवृत्ति सुख के लिए होती है। जीवमात्र सुख की ही कामना करता है, वही उसे अभीष्ट है अतः यह सही भी है। सुख दो प्रकार के हैं-विषय-सुख ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों से संपर्क होने पर जो दुखमिश्रित अस्थायी सुख प्राप्त हो वह विषय सुख तथा इनसे थककर स्वयं को शरीर न मानकर सांसारिक विषय वासनाओं से रहित होकर आत्मिक उल्लास की स्थिति कहलाती है-ब्रह्मानन्द आत्मसुख। इस प्रकार व्यक्ति के द्वारा वाँछित चाहे गए दो ही मूल प्रयोजन या लक्ष्य हैं-(1) काम और (2) मोक्ष। इन दोनों ही पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए दो ही साधन हैं (1) अर्थ और (2) धर्म। दो साध्य व दो साधन रूपी जोड़ों को मिला देने से बनता है पुरुषार्थ चतुष्टय-हर व्यक्ति की जीवन यात्रा के वे महत्वपूर्ण अंग जिनसे वह लक्ष्य सिद्धि की ओर बढ़ता है। ये चारों ही मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य हैं। कोई मनुष्य ‘अर्थ’ अर्थात् धन प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करते हैं तो कोई काम को अर्थात् सुख को चाहते हैं और कोई इन दोनों के मूल अर्थात् धर्म को चाहते हैं। ‘धर्म’ की प्राप्ति के पश्चात् अर्थ व काम तो स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। इन तीनों ही वर्गों का विधिवत् उपार्जन होने पर पुरुष अंतिम पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ बंधनमुक्ति को अनायास ही प्राप्त कर लेता है। मानव जीवन की सफलता इस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति ही है।

मानव जीवन का मर्म, मनुष्यत्व की परिभाषा व मानवी पुरुषार्थ के इन चार वर्गों के विस्तार में जाने से पूर्व थोड़ा चिंतन यह करें कि धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की युगानुकूल व्याख्या क्या हो सकती है? मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य प्राप्त हो इसके लिए आज के समय के अनुकूल सही अर्थों में इन्हें कैसे समझा जाय तथा परम पूज्य गुरुदेव ने इन सभी के विषय में क्या-क्या परिभाषाएँ दी, कैसे स्वयं अपने जीवन व्यवहार में उन्हें लागू करते हुए लक्ष्य सिद्धि को प्राप्त हुए, यह चर्चा अधिक लोकोपयोगी व व्यावहारिक अध्यात्म की परिधि में होगी।

परम पूज्य गुरुदेव ने कहा कि इक्कीसवीं सदी का सतयुगी मानव सुसंस्कृत व सभ्य होगा। बिना धर्म के नीतिमत्ता व संवेदना को विकसित किए वह अर्थोपार्जन व उसका सुनियोजन नहीं कर सकता, न ही परिष्कृत काम, सुख की सिद्धि ही कर सकता है। अतः ‘अभ्युदय’ रूपी इस सिद्धि के तीन साधन हुए-काम अर्थ व धर्म। अभ्युदय अर्थात् मनुष्य की सर्वांगीण-आमूलचूल प्रगति-उन्नति इनमें भी काम पर उनने कम जोर देकर उसे परिष्कृत कर उल्लास में बदलने की बात कही है तथा उसके बाद अर्थ की बात कही है। अर्थ से भी बढ़कर है-धर्म इस अभ्युदय की प्राप्ति के बाद ‘धर्म’ की परिभाषा जो प्रारंभ में की गयी, के अनुसार अगली सिद्धि रह जाती है वह है “निःश्रेयस्” जिससे बढ़कर और कोई भी श्रेष्ठतम फल न हो, उसकी प्राप्ति को निःश्रेयस अथवा मोक्ष कहते हैं। मोक्ष चरम पुरुषार्थ है व हर मानव का अंतिम लक्ष्य भी। धर्म, अर्थ और काम का नाम त्रिवर्ग है। इस त्रिवर्ग के साथ चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष को मिला देने से चतुर्वर्ग हो जाता है। अमरकोष के अनुसार-

त्रिवर्गोधर्म कामार्थः चतुर्वर्गः समोक्षकः॥

धर्म, अर्थ व काम तीनों ही हर मनुष्य के लिए अनिवार्य भी हैं, साधन सिद्धि में सहायक भी तथा निर्मल निर्दोष भी। इन तीनों का सही परिमार्जित सामंजस्यपूर्ण दैनन्दिन जीवन में व्यापार जीवन साधना की सफलता का हेतु बनता है किन्तु यदि इनमें दोष उत्पन्न हो जाएँ इनके अर्थ को न समझते हुए उनके विकृत रूप का जीवन में समावेश हो तो यह मनुष्य के लिए विपत्ति का कारण बन सकता है। कैसे?

महाभारतकार ने शांतिपर्व में (123-10) इसकी बड़ी सुंदर व्याख्या की है-

अपध्यानमलो धर्मों मलोऽ र्थस्य निगूहनम्। सम्प्रमोहमलः कामो भयस्तद्गुणवर्िितः॥

अर्थात्-धर्म में फल की अभिलाषा अर्थात् उसका सकाम हो जाना, अर्थ में निगूहन अर्थात् उसे छिपाना, न उसका दान में सुनियोजन करना, न उपभोग ही करना (परिग्रह) तथा काम में सम्प्रमोह, अधिकाधिक मोह-वासनाओं के जाल में फँसते चले जाना ये तीन मल अर्थात् दोष होते पाए जाते हैं।” इन्हीं को अहंता, तृष्णा व वासना क्रमशः कहा गया है। इन तीन भव-बन्धनों से मुक्ति को जीवनमुक्ति या मोक्ष बताया गया है।

हमारे ऋषि वैज्ञानिक थे व चेतना जगत के विलक्षण अनुसंधानकर्ता थे। उनने मानवमात्र को मार्गदर्शन प्रदान करते हुए कहा कि सकाम भाव से नहीं, निष्कामभाव से धर्म का अनुष्ठान करो। अर्थ का उपार्जन उपभोग हेतु नहीं त्याग के लिए करो। (त्यागाय संभृतार्थनाम्) तथा काम का सेवन “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्” के अनुसार शरीर के रक्षण मात्र के लिए करो। कितना सशक्त विज्ञान सम्मत व सर्वकालीन चिन्तन है। जिस भी समाज में मनुष्य जाति इन तीनों पुरुषार्थों का सम्पादन कर रही होगी, सही रीति-नीति से जीवन को जी रही होगी, वह कभी दुःखी, विक्षुब्ध हो ही नहीं सकती।

वस्तुतः मानवमात्र को इस सृष्टि पर अवतरण के बाद दो प्रकार के कर्म-मार्गों का सामना करना पड़ता है-एक है ‘प्रेय’ मार्ग दूसरा ‘श्रेय’ मार्ग। हर मानव का इन दोनों से पाला पड़ता हैं। सांसारिकता, भोगविलास-कामानुरक्त्ता वाला मार्ग प्रेय मार्ग है तथा ईश्वरीय सत्ता के प्रति अनुराग, मानवमात्र के अभ्युदय के प्रति अटूट निष्ठ, सब में समभाव देखते हुए सबका हित सोचने वाला मार्ग श्रेय मार्ग है। जहाँ प्रेय में व्यष्टिगत सुख कामना प्रधान होती है, वहाँ श्रेय में समष्टिगत सुख का भाव होता है। प्रेय मार्ग पर चलने वाला दो ही पुरुषार्थ प्रधान मानता है-अर्थ व काम तथा श्रेय मार्ग पर चलने वाला धर्म पर आरूढ़ होकर चलता है। धर्म से ही अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं एवं उसका वास्तविक फल मोक्ष है।

पाश्चात्य उपभोग प्रधान सभ्यता आज जहाँ अर्थ पर जोर देती है वहाँ ‘काम’ रूपी धुरी पर ही उनका समग्र चिन्तन चलता है। धर्म अर्थात् नीतिमत्ता, संवेदना, वर्जनाएँ, मर्यादाएँ जीवन को दिशा देने वाला तत्त्वज्ञान वहाँ न होने से भवबंधनों में जकड़ा मानव भोगों जन्य कष्टों को पाता दुःख नजर आता है। मात्र पश्चिम नहीं, यह हर सभ्यता-हर समाज व हर युग पर तथ्य लागू होता है कि जब तक मानवी पुरुषार्थ धर्म पर आश्रित नहीं होता, वह संतापों-दुःखों व विग्रहों-विद्वेषों का ही निमित्त कारण बनता है। ‘धर्म’ पर आमूलचूल जोर देते हुए सारे पुरुषार्थ की त्याग में प्रतिष्ठ कर हमारे ऋषियों ने मानवी जीवन के उदात्तीकरण का आदर्श प्रस्तुत किया है। वे इतने व्यावहारिक भी हैं कि धन संचय के लिए मना नहीं करते किन्तु उसका मुख्य फल धर्म हेतु (नश्वर विषय-सुख हेतु नहीं) करने को, संपदा के समुचित उपार्जन व वितरण की प्रक्रिया पर जोर देने को कहते हैं। आज का संकट ‘अपरिग्रह’ की परम्परा के लुप्त हो जाने से ही पैदा हुआ है। वे कामसेवन का मुख्य लाभ जीवन पुरुषार्थ हेतु दिये जाने की बात कहते हैं। भोग न करके धर्म हेतु ही उसका सुनियोजन उल्लास को जीवन में समाविष्ट करता है। जीवन निर्वाह ठीक से हो सके, इसके लिए देह का स्वस्थ होना जरूरी है अतः काम की इतनी भर आवश्यकता है। उसमें लिप्त होने की नहीं ।

श्रीमद्भागवत् में शुकदेव जी कहते हैं-

अधोन्द्रियार्थाभिध्यानं सर्वार्थापहवो नृणाम्। भ्रंशितो ज्ञान विज्ञानाद् येनाविशति मुख्यताम्॥ (4−22−33)

अर्थात् “धर्म और मोक्ष के लिए प्रयत्नशील न हो कर केवल अर्थ और काम की ही चिन्ता करना संपूर्ण पुरुषार्थों से ही हाथ धो बैठना है, क्योंकि इससे मनुष्य ज्ञान और विज्ञान दोनों से च्युत होकर स्थावर योनि को प्राप्त हो जाता है।”

इसीलिए ऋषि कहते हैं कि जिस धर्म के अनुष्ठान से अर्थ और काम का विरोध हो इन दोनों में बाधा पड़े, जिस अर्थ के अनुष्ठान से धर्म और काम का ह्रास हो जाय तथा जिस काम के सम्पादन करने से धर्म और अर्थ में बाधा पड़ न धर्माचरण हो, न अर्थोपार्जन-ऐसे परस्पर विरोधी द्विवर्गों का उपार्जन किसी को नहीं करना चाहिए। गृहस्थ जीवन जीते हुए मानव मात्र किस तरह इन पुरुषार्थों का संपादन करे, इस पर देव संस्कृति के निर्धारण अनुपम हैं।

यही नहीं भारतीय संस्कृति की वर्ण व्यवस्था का मूल आधार भी पुरुषार्थ चतुष्टय है। इसे समझें। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय एवं शूद्र यह वर्ण विभाजन जिस कर्म पुरुषार्थ के आधार पर किया गया है, वह नितान्त वैज्ञानिक है। कालक्रम में वह जातिगत आधार बन गया, यह विडम्बना है। ब्राह्मण कौन? जो धर्माचरण करे वह ब्राह्मण। जिसके अर्थ व काम का सुनियोजन मोक्ष हेतु हो। जो विद्या रूपी तप द्वारा ब्राह्मणत्व की सिद्धि प्राप्त कर ज्ञान सम्पदा का वितरण करे। वर्जनाओं का महत्व सबको अपने जीवन द्वारा समझाए। वैश्य वह, जो अर्थ का सुनियोजन धर्म के आधार पर करे-शतहस्तं समाकर-सहस्र हस्तं संकिर” का तत्त्वदर्शन समझे एवं दान परम्परा द्वारा अर्थ का सुव्यवस्थित वितरण करे। क्षत्रिय वह जो ‘काम’ को उल्लास-स्फूर्ति के रूप में परिमार्जित कर प्रशासन की व्यवस्था का भार सँभाले। उपयोग में ऊर्जा का अपव्यय न कर समाज की सुरक्षा का दायित्व निभाना ही उसका एक मात्र धर्म है। स्वस्थ मनोरंजन की प्रक्रिया को जन्म देकर काम बीज परिष्कार जो कर सके, ऐसे धर्म पर आधारित काम ही उसका मूल पुरुषार्थ है। अब ‘शूद्र’ की परिभाषा समझ लेना यहाँ ठीक होगा। शूद्र वह जो धर्म पर नहीं चले तथा अर्थ व काम के वास्तविक रूप को विकृत कर दे। जो भोगवादी जीवन जीते हुए प्रजनन तक सीमित रहे, निरन्तर स्वयं को बंधनों में बाँधता चला जाए वह शूद्र है। जन्म से हम सब इसी स्थिति में होते हैं। क्रमशः जीवनयात्रा के लक्ष्य को पार करते हुए काम, अर्थ व धर्म की सिद्धि द्वारा अंततः मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जो जीवन लक्ष्य है।

मनुष्य को अपौरुषेयवाणी के माध्यम से वेदों में अमृत-पुत्र (श्रण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः) कहकर सम्मानित किया गया है। देवताओं ने उसके शरीर व मन में प्रवेश कर उसे जीता जागता देवालय बनाने का प्रयास किया है। (देवा देवेभ्यः पुरा) तथा इस मानवी काया को नौ द्वारों वाली देवों की नगरी अयोध्या “अष्टचक्रा नव द्वारा देवानाँ पूरयोध्या” अथर्व-/-/ कहा गया है, तो फिर यह देवमानव पुरुषार्थ क्षेत्र में भटक क्यों जाता है? बंधनों से मुक्त क्यों नहीं हो पाता? भारतीय संस्कृति उसका मार्गदर्शन करते हुए कहती है-

सूरिरसि बर्धोया अस तनूपानोऽसि। आप्नुहि श्रेयाँसमति समं क्राम॥

छाक्रोऽसि भ्राजोऽसि, स्वरसि ज्योतिरसि। आप्नुहि श्रेयाँसमति समं क्राम॥ अथर्व-/-/

अर्थात् “हे नर। तू तो विद्वान है, शरीर रक्षक है। अपने को पहचान। श्रेष्ठों तक पहुँच बराबर वालों से आगे बढ़। हे नर! तू तो शुक्र है, तेजस्वी है, आनन्दमय है, ज्योतिष्मान है। अपने को पहचान, श्रेष्ठों तक पहुँच बराबर वालों से आगे बढ़।”

मानव को पुरुषार्थपरायण बनाने वाला यह जीवन दर्शन ही देवसंस्कृति का प्राण है व मानव मात्र के लिए प्रेरणा का अनन्त स्रोत भी।

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