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Magazine - Year 1992 - Version 2

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Language: HINDI
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अपनों से बात अपनी बात- - उज्ज्वल भविष्य लाने को तत्पर, संस्कृति पुरुष की कालजयी सत्ता

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“भगवान तीनों पर नाराज होते हैं-अन्याय करने वाले, अन्याय सहने वाले तथा उस पर भी, जो सब समझते हुए भी दूर से देखता रहता है, प्रतिरोध का प्रयास नहीं करता। बिगड़ते को बिगड़ने देना-यह मूकदर्शकों का गैर जिम्मेदारों का काम है। भगवान ऐसा नहीं है । लोग भले ही बिगाड़ करते हों पर भगवान अन्ततः सबको सँभाल लेते हैं । बूढ़ा होने पर शरीर मर जाता है । घर वाले कुटुम्बी उसे जला देते हैं पर भगवान उसे नया जन्म देता है और फिर हँसने-खेलने की स्थिति में पहुँचा देता है । पिछले दिनों बिगाड़ बहुत हुआ । प्रताड़ना का समय बीत चुका । जो शेष रहा है, वह सन् 90 से लेकर 2000 के बीच दस वर्षों में बीत जाएगा । उन दस वर्षों में महाकाल की दुहरी भूमिका संपन्न होगी । प्रसव जैसी स्थित होगी । प्रसवकाल में एक ओर जहाँ प्रसूता को असह्य कष्ट सहना पड़ता है, वहाँ दूसरी ओर संतान प्राप्ति की सुन्दर संभावना भी मन ही मन पुलकन उत्पन्न करती रहती है ।”(पृष्ठ 11)

प्रस्तुत पंक्तियाँ परम पूज्य गुरुदेव के अन्तिम दो वर्षों में रचित क्रान्तिधर्मी साहित्य, “नवसृजन निमित्त महाकाल की तैयारी” से ली गयी हैं । संस्कृति पुरुष का लिखा एक-एक वाक्य संभावित महाक्रान्ति का भविष्य कथन करता दिखाई पड़ता है । द्रष्ट महामानव भविष्य के गर्भ में झाँकने की क्षमता रखते हैं व उस नाते वह सब , जो उनकी सूक्ष्म जगत में भूमिका संपन्न करने वाली है, पहले ही से देख लेते हैं, संबंधित देवमानवों को इन परिस्थितियों के संबंध में सचेत कर जाते हैं ।

महर्षि अरविंद ने इसी तथ्य का विज्ञापन करते हुए “ह्यूमन साइकिल” में लिखा है- “संसार का वर्तमान युग है महान रूपान्तरणों की अवस्था का युग । मानवता के मन में एक नहीं, बहुत से मूलभूत भाव क्रियाशील हैं और उसके जीवन में उग्र चपेट और चेष्टा के साथ परिवर्तन ले आने को छटपटा रहे हैं । यद्यपि इस आंदोलन का प्रगतिशील केन्द्र अभी यूरोप है, फिर भी विचारों के समुद्र मंथन में पुराने भावों और संस्थाओं के इस तोड़-मरोड़ क्रम में पूरब भी अधिकाधिक खिंचता चला आ रहा है ।”.......-”सबसे अधिक मानवजाति का भविष्य उस उत्तर पर निर्भर करता है जो पूर्व रहस्यरमणी (स्फिंक्स) की आधुनिक पहेली को देगा, विशेषतः भारत जो एशियाई भाव का, इसके गंभीर आध्यात्मिक रहस्यों का पूज्य संरक्षक है ।” (पृष्ठ 369) वस्तुतः सन्धिकाल की महत्ता, विशिष्टता का हर महामानव ने सबके समक्ष स्पष्ट कर इक्कीसवीं सदी में सतयुगी समाज के अवतरण की, वह भी भारतवर्ष-देव संस्कृति के उद्गम स्थल से पूर्वार्त्य अध्यात्म के माध्यम से उभर कर आने की खुली भविष्यवाणी की हैं ।

परम पूज्य गुरुदेव ने ऊपर उद्धृत पुस्तक “नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी “ में लिखा है “युगसन्धि के यह दस वर्ष दुहरी भूमिकाओं से भरे हुए हैं । पिछले दो हजार वर्षों में जो अनीति चलती रही है, उसकी प्रताड़ना स्वरूप अनेकों कठिनाईयाँ भी इन्हीं दिनों व्यक्ति के जीवन में समाज की व्यवस्था में तथा प्रकृति के अवांछनीय माहौल में दृष्टिगोचर होंगी । .....साथ ही यह भी स्मरण रखने योग्य है कि माता एक आँख जहाँ सुधार के लिए टेढ़ी रखती है, वहाँ उसकी दूसरी आँख में दुलार भी भरा होता है । उसकी प्रताड़ना में भी यही हित कामना रहती है कि सुधरा हुआ बालक अगले दिनों गलतियाँ न करे और सीधे रास्ते को अपनाता हुआ सुख-सुविधा भरा जीवन जिये । वर्तमान युग सन्धिकाल इसी दुहरी प्रक्रिया का सम्मिश्रण है ।” (पृष्ठ 12)

महाप्रयाण से छह-आठ माह पूर्व की बात है । शिशिर ऋतु में पूज्य गुरुदेव अपने कक्ष से बाहर धूप में बैठते थे । लेखशोध से संबंधित कार्यकर्ताओं को वहीं बुलाकर चर्चा करते थे । वहीं निर्देश देते-देते एकाएक एक दिन वे गंभीर हो उठे बोले लड़कों! कहीं तुम्हें अविश्वास नहीं होता मेरे कथन पर कि सतयुग वास्तव में आने वाला है । मैंने जो कुछ भी पिछले दिनों लिखा है महाकाल के आदेश से लिखा है । मेरी नब्बे प्रतिशत से अधिक चेतना अब सूक्ष्मजगत में सक्रिय है व ऋषिसत्ताओं के साथ नये युग का सरंजाम जुटा रही है । तुम देखना कि मेरे कहे गए ये वाक्य लिखी हुई एक-एक पंक्ति बम का धमाका करेगी व देखते-देखते विचारक्रान्ति का स्वरूप तुम्हें दस-पन्द्रह वर्ष में ही दिखाई देने लगेगा । विश्व का सारा ढाँचा बदल जाएगा । मेरी बात पर विश्वास रखना कि भारतीय संस्कृति का ही अलख अब चारों दिशाओं में गूँजने जा रहा है ।” जो भी कुछ पूज्यवर ने अपनी मंद वाणी में स्फुट वचन कहे थे, उन्हें हमने डायरी से निकाल कर ज्यों का त्यों पाठकों के समझ रख दिया है , यह बताने के लिए कि संस्कृति पुरुष प्रयोजन विशेषों के लिए हम सबके बीच आया एवं हमें सौभाग्यशाली भी बना गया ।

वास्तव में इसकी भूमिका आज से 66 वर्ष पूर्व ही बन गयी थी जब पंद्रह वर्षीय किशोर श्रीराम के पास उनकी गुरु सत्ता आकर उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप का बोध करा गयी थी । पूज्यवर अपनी आत्मकथा “हमारी वसीयत और विरासत” में लिखते हैं “प्रकाश के मध्य से एक योगी का सूक्ष्म शरीर उभरा- उस छवि ने बोलना आरंभ किया “हम तुम्हारे साथ कई जन्मों जुड़े हैं, मार्ग दर्शन करते रहे हैं......यह विषम समय है । इसमें मनुष्य का अहित होने की अधिक संभावनाएँ हैं । उन्हीं का समाधान करने के निमित्त तुम्हें माध्यम बनाना है.... यह तुम्हारा दिव्य जन्म है । तुम्हारे इस जन्म में हम सहायक रहेंगे और इस शरीर से वह कराएँगे, जो समय की दृष्टि से आवश्यक है । प्रथम मिलन के दिन समर्पण संपन्न हुआ । वसंतपर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया ।” (पृष्ठ 14-22) आगे चलकर उनकी गुरुसत्ता उन्हें हिमालय बुलाती रही व समय-समय पर मार्गदर्शन देती रही । अखण्ड दीपक का प्रज्ज्वलन, 24 वर्षों तक 24 लक्ष के गायत्री के महापुरश्चरण, अखण्ड-ज्योति पत्रिका के माध्यम से विचार क्रान्ति का, मानव में देवत्व, धरती पर स्वर्ग की प्रक्रिया का बीजारोपण, गायत्री महाविद्या का जन-जन तक विस्तार , यज्ञीय परम्परा का दिक्-दिगन्त में प्रचलन, आर्षसाहित्य का पुनर्जीवन, जीवन जीने की कला संबंधी साहित्य लेखन, धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया का मार्ग दर्शन, परिव्रज्या परम्परा का पुनर्जीवन, पूर्ण समयदानी लोकसेवियों का उत्पादन हेतु एक टकसाल की स्थापना, सिद्ध तीर्थ-गायत्री तीर्थ का शिलान्यास, विज्ञान व अध्यात्म के समन्वय की शोध हेतु ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया का शुभारंभ प्रज्ञा संस्थानों के रूप में संस्कार केन्द्रों की चार हजार से अधिक संख्या में भारत भर में स्थापना, विश्वभर में हिन्दू संस्कृति का तत्त्वज्ञान पहुँचाने की प्रक्रिया का शुभारंभ यह सब निर्धारण परोक्ष महाकाल की सत्ता द्वारा किये गए जो समय-समय पर परम पूज्य गुरुदेव को निर्देश रूप में दिये जाते रहे , तदनुसार ही उनके जीवनक्रम का एक-एक मील का पत्थर स्थापित होता चला गया । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्धारण जो धरती के स्वर्ग-ऋषियों की कार्यस्थली दुर्गम हिमालय में गुरु-शिष्य द्वारा किया गया , वह था ऋषि परम्परा का पुनरुद्धार-पुनर्जीवन ।

इसका मार्मिक विवेचन पूज्यवर ने अपनी स्मृति पटल से ऋषियों द्वारा दिये गए निर्देश को पाठकों के समझ “हमारी वसीयत और विरासत” में रखते हुए किया हैं । “जब अपना सूक्ष्म शरीर सही हो गया तो उन ऋषियों का सतयुग वाला शरीर भी यथावत् दीखने लगा । ऋषियों के शरीर की जैसी संसारी लोग कल्पना किया करते हैं , वे लगभग वैसे ही थे ।... बात काम की चली । हर एक ने परावाणी में कहा कि हम स्थूल शरीर से जो गतिविधियाँ चलाते थे, वे अब पूरी तरह समाप्त हो गयीं । फूटे हुए खण्डहरों के अवशेष भर शेष हैं ।..... सभी की आँखें डबडबाई सी दीखी । लगा कि सभी व्यथित हैं ..... उन सब का भारी मन देखकर अपना चित्त भी द्रवित हो उठा , स्तब्ध अपने ऊपर भी छा गई व आँखें प्रवाहित होने लगी “। अपनी परोक्षसत्ता का आदेश मिलने पर परम पूज्य गुरुदेव ने ऋषि सत्ताओं को आश्वासन दिया कि ऋषि परम्परा जो सतयुग का आधार थी, का बीजारोपण दे सप्तसरोवर हरिद्वार में गंगातट तर रह कर करेंगे ,

पूज्यवर लिखते हैं कि ‘निराशा गई, आशा बँधी व आगे का कार्यक्रम बना कि जो हम सब करते रहे है, उसका बीज एक खेत में बोया जाय और पौधशाला में एक पौध तैयार की जाय । उसके पौधे सर्वत्र लगेंगे और उद्यान लहलहाने लगेगा । यह शान्तिकुञ्ज बनाने की योजना थी ।”

शान्तिकुञ्ज व यहाँ से आरंभ हुआ विश्वव्यापी युगान्तरीय चेतना का आन्दोलन, उसी निर्धारण का एक व्यापक रूप है जिसका समापन अगले दिनों विश्वमानवता के लिए उज्ज्वल भविष्य की वापसी के रूप में होना है । पूज्य गुरुदेव अक्सर अंतरंग चर्चा में कहा करते थे “ऋषि चाणक्य देव संस्कृति के दिक्-दिगन्त तक विस्तार का काम करने आए थे, यह काम पूरा नहीं हो पाया, उसी शृंखला में बाद में विवेकानन्द व अरविंद आए । हम उसी काम को अब पूरा रूप देने के लिए महाकाल द्वारा भेजे गए है ।” इसी बात को महर्षि अरविन्द ने “ह्यूमन साइकिल” में इस तरह लिखा है-दक्षिणेश्वर में जो काम शुरू हुआ था , वह पूरा होने में अभी कोसों दूर है । वह समझा तक नहीं गया है । विवेकानन्द ने जो कुछ प्राप्त किया और जिसे अभिवर्धित करने का प्रयत्न किया, वह अभी तक मूर्त नहीं हुआ है .... अब अधिक उन्मुक्त ईश्वरीय प्रकाश की तैयारी हो रही है, अधिक ठोस शक्ति प्रकट होने को है, परन्तु यह सब कहाँ होगा, कब होगा यह कोई नहीं जानता ।” वस्तुतः दक्षिणेश्वर की माटी से जो तूफान एक वेग से उठा था, उसे सही समय पर सही प्रक्रिया से सही व्यक्तियों द्वारा नियंत्रित कर उससे नयी सदी के लिए ऊर्जा की उत्पत्ति होनी थी । संभवतः वह समय, वह वेला अब आ गयी है । स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में-

“भारत का पुनरुत्थान होगा, जड़ की शक्ति से नहीं, चेतना की शक्ति से । विनाश की विजयध्वजा लेकर नहीं, बल्कि शान्ति और प्रकाश के ध्वज फैलाकर-संन्यासियों के गेरुआ वस्त्र का सहारा लेकर अर्थशक्ति से नहीं, बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से सम्पादित होगा..... मैं मानों अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ । हमारी मातृभक्ति जाग उठी है-नव जीवन लाभ करके पहले से भी अधिक गौरवमय मूर्त्तिधारण कर अपने सिंहासन पर आरूढ़ । इस बार का केन्द्र भारतवर्ष ही है । “ इसके लिए वे “भारत का भविष्य “ नामक अपने उद्बोधन में कहते हैं- “महाभारत के अनुसार सत्ययुग के आरंभ में एक ही जाति थी-ब्राह्मण और फिर पेशे के भेद से वह भिन्न-भिन्न जातियों में बँटती चली गयी । बस यह एक मात्र व्याख्या सच और युक्तिपूर्ण है । भविष्य में जो सत्ययुग आ रहा है, उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ फिर ब्राह्मण रूप में परिणत होंगी । “ ब्राह्मण से यहाँ अर्थ है ब्रह्मयज्ञ , ब्रह्मनिष्ठ , आदर्श चरित्र वाले पुरुष । विवेकानन्द का एक एक शब्द पूज्यवर के लिखे वाक्यों में गुँजित होता देखा जा सकता है । आखिर थे तो ये सभी महाकाल की सत्ता के प्रतिनिधि ही । सभी यह कह गए हैं कि परिवर्तन की वेला आ पहुँची । महाकाल इस प्रक्रिया को परोक्ष जगत से अंजाम दे रहा है । सतयुग की वापसी की ही पृष्ठ भूमि इन दिनों बन रही है । मानवी प्रयास इसमें अनिवार्य अवश्य हैं, पर पर्याप्त नहीं । देवी शक्ति की ही सबसे बड़ी भूमिका होगी ।

महायोगी अरविन्द की भविष्यवाणियों के आधार पर अरविन्द आश्रम पाण्डिचेरी से एकवार्त्ता प्रकाशित हुई है-इनटू द् ट्वेण्टीफर्स्ट सेंचुरी (इक्कीसवीं सदी की ओर) । इसमें आज की परिस्थितियों का आकलन भी है व आने वाले समय के अप्रत्याशित परिवर्तनों का दिग्दर्शन भी । इस वार्ता में जो 14 अगस्त 1991 को आश्रम के प्राँगण में संपन्न हुई, यह बताया गया कि योगीराज अरविन्द के अनुसार कलियुग का समापन हो चुका है व सतयुग की स्थापना का समय आ गया है । दो युगों के बीच 180 वर्ष की अवधि ट्रांजिशनल पीरियड ( संक्रान्ति काल या दो युगों की मिलन वेला ) की सामान्यतया होती है । महर्षि ने अपनी काल गणना के अनुसार इस अवधि के आरंभ होने का समय 1840 बताया है । यह समय वही है जब राम कृष्ण परमहंस जन्म ले चुके थे (1836 में) व हमारा राष्ट्र अलसाई स्थिति से उठने की कोशिश कर रहा था । योगीराज कहते हैं कि तब से परिवर्तन प्रक्रिया इतनी तीव्रगति से बढ़ी है, उच्चस्तरीय योगी स्तर की आत्माएँ इतनी अधिक जन्मी हैं कि वह समय सन् 2020 तक सुनिश्चित रूप से आने जा रहा है जब सारे विश्व का नेतृत्व भारत के हाथों में होगा तथा भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति बन चुकी होगी । इसे वे भारत की आध्यात्मिक भवितव्यता (स्प्रिचुअल डेस्टीनी) नाम देते हैं । उनका कहना है कि “परमात्मसत्ता अपने लिए हमेशा एक ऐसा राष्ट्र-संस्कृति चुनकर रखती है, जहाँ उच्चतम देवी ज्ञान कुछ व्यक्तियों-ग्रन्थों के माध्यम से सुरक्षित बना रहता है । वहीं से फिर नये युग का आविर्भाव होता रहता है । वहीं से फिर नये युग का आविर्भाव होता है । इस चतुर्युग में कम से कम यह तो सुनिश्चित है कि वह देश भारतवर्ष है व वह ज्ञान हिन्दू आध्यात्म भारतीय संस्कृति के रूप में है । “ कलियुग के प्रभाव के समापन का समय श्री अरविन्द 1908 बताते हैं व कहते हैं कि “तब से विश्व की नियति महाकाल के हाथ में है-विश्वयुद्धों की शृंखला, शीतयुद्ध, बड़े स्तर की औद्योगिक आर्थिक राजनीतिक क्रांतियाँ उसी प्रक्रिया का एक अंग हैं ।

अब से आगे के बारे में महर्षि का मत है कि 1993 के मध्य तक एक आर्थिक क्रान्ति भारत से आरंभ होगी व यह विश्वव्यापी बन जाएगी । इसके पीछे-पीछे सोऽहम् व शैक्षणिक स्तर की क्रान्तियाँ चलेंगी , जिनका नेतृत्व भारत करेगा । ग्लोबल स्तर पर आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारतवर्ष 1995 तक तेजी से उभर कर आयेगा तथा सन् 2000 में भारत पुनः 1947 से पूर्व के बृहत्तर भारतवर्ष के रूप में विश्व के समक्ष होगा । कृत्रिम विभाजन जो भारत व पाकिस्तान बंगलादेश के रूप में हुआ , उसका प्रायश्चित्त पुनः एक विशाल राष्ट्र बनाकर किया जाएगा । यह कार्य सन् 2000 तक पूरा हो चुकेगा । अधिक और अधिक बुद्धिजीवी-प्रतिभाशाली विश्व स्तर की समस्याओं के समाधान के लिए भारत से अपेक्षा रखोगे व ऋषि संस्कृति का यह तत्त्वज्ञान विश्व के प्रत्येक मानव द्वारा स्वीकार किया जाएगा । अधिकाधिक व्यक्ति साधक बनने का प्रयास करेंगे व भारतीय अध्यात्म को जीवन में उतारेंगे । भारत की विशाल जनसंख्या अभी उसके लिए बोझ है, किन्तु यही बोझ एक सम्पदा के (उसेट के ) रूप में बदल जाएगा । अभी किसी मार्ग दर्शन व सुनियोजन के अभाव में उस कारण हम आर्थिक कर्जे में दबे हुए है । क्रमशः यह जनशक्ति विश्व की सबसे बड़ी प्रशिक्षित-कुशल लेबर फोर्स की बैंक के रूप में उभर कर आएगी । फिर भारत की विश्व विजय को कोई भी रोक नहीं पाएगा ।”

पाठकों को यह यूटोपिया लग सकता है, दिवा स्वप्न भी किन्तु यह भवितव्यता है, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए । पश्चिम का भोगवाद जिस अग्नि में-तेजाबी तालाब में जलता कजपता, निष्ठुर स्वार्थपरता की कीचड़ में डूबा विकल, संत्रस्त दृष्टिगोचर हो रहा है, उसे भारतीय अध्यात्म ही भाव संवेदना की गंगोत्री में स्नान कराके मुक्ति दिलाएगा । परम पूज्य गुरुदेव ने “सतयुग की वापसी “ पुस्तक में लिखा है कि “इक्कीसवीं सदी भाव संवेदनाओं के उभरने-उभारने की अवधि है । हमें इस उपेक्षित क्षेत्र को ही हरा-भरा बनाने में निष्ठावान् माली की भूमिका निभानी चाहिए ।” (पृष्ठ 28)

कैसे होगा इतना शीघ्र यह सब ? किसी के भी मन में वर्तमान स्थिति को देखकर असमंजस हो सकता है । क्या इसमें किसी एक व्यक्ति की महत्ता होगी ? कौन यह करेगा ? स्वामी विवेकानन्द इसका उत्तर देते हुए कहते हैं- “उपयुक्त समय पर एक आश्चर्यजनक व्यक्ति आएगा और तब सभी चूहे साहसी बन जाएँगे ।” (विवेकानन्द साहित्य प्रथम खण्ड-पृष्ठ 296) । चूहों के साहसी होने व बिल्ली के गले में घंटी बाँधने की उक्ति द्वारा स्वामी जी बताते हैं कि सामान्य नर समुदाय में से ही असाधारण शक्ति जागेगी व देखते-देखते उनका ब्रह्मवर्चस् उनसे ऐसे काम करा लेगा जिनसे युग परिवर्तन जैसा असंभव नहीं है । आश्चर्यजनक व्यक्ति से स्वामी जी का तात्पर्य है चेतना का अवतार । एक ऐसी सत्ता जो महाकाल का प्रतिनिधि बनकर आएगी व जिसके बताए पद चिन्हों पर सारी मानव जाति चलेगी । हम परम पूज्य गुरुदेव को संस्कृति पुरुष के रूप में चेतना का अवतार मानते हैं, उनके मौलिक चिन्तन ने ही राष्ट्र की सोई कुण्डलिनी जगाई है व वह काम परोक्षसत्ता के निर्देशों द्वारा किया जिसे करने महर्षि चाणक्य, आद्यशंकराचार्य , राम कृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, स्वामी विवेकानन्द व योगीराज अरविन्द इस धरती पर आए थे । कोई आश्चर्य नहीं कि उनके ये छोटे-छोटे चूहे-प्रज्ञा परिजन अगले दिनों इतने शक्तिशाली रूप में सामने आएँ कि जन-जन के मनों को मथकर रख दे । स्वयं पूज्यवर अपने क्रान्तिधर्मी साहित्य में लिखते हैं- “नरपशु , नर कीटक, नर पिशाच स्तर के जीवनयापन करने वालों में से ही बड़ी संख्या में ऐसे इन्हीं दिनों निकल पड़ेंगे , जिन्हें नररत्न कहा जा सके । इन्हीं को दूसरा नाम दिव्य प्रतिभा सम्पन्न भी दिया जा सकता है । इनका चिन्तन, चरित्र और व्यवहार ऐसा होगा, जिसका प्रभाव असंख्यों को प्रभावित करेगा । इसका शुभारंभ शान्तिकुञ्ज से हुआ है । “ (पृष्ठ 26 “नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी “ से ) । स्पष्ट है कि दुर्गम हिमालय वासी ऋषि सत्ताओं ने अपनी कार्य स्थली अब शान्तिकुञ्ज को बनाया है व यहाँ से उद्भूत चेतना देव संस्कृति का आलोक अब दिक्-दिगन्त तक विस्तार की प्रतीक्षा कर रहा है शपथ समारोह में एक लाख व्यक्तियों द्वारा इसी निमित्त ली जा रही प्रतिज्ञा इस घोषणा को सही कर रही है कि चूहे साहसी होने जा रहे है

योगीराज अरविन्द अपनी कृति “मानवचक्र” में महाकाल का स्वरूप बड़ा स्पष्ट ढंग से समझाते हुए हमारी दृष्टि खोलते हैं, वे लिखते हैं कि “सभी आंदोलनों में मानव समाज के बृहत् कार्य में काल की आत्मा ही, जिसे यूरोप ट्साइटगाइस्ट और भारत ‘महाकाल’ के नाम से पुकारता है , अपने आपको प्रकट करती है । .....महाकाल वह अंतःस्थित आत्मा है, जिसकी शक्ति महाकाली में सर्वत्र संचारित है और विश्व की प्रगति तथा राष्ट्रों की नियति का निर्माण करती है । ..... चाहे मनुष्य सहायता दे, चाहे प्रतिरोध करे, किन्तु ‘काल’ अपना काम करता है, निर्माण करता है, दबाव डालता है , निर्माण को दृढ़ कर देता है ।”

क्या आपको नहीं लगता कि इस सदी के , विशेषकर पिछले एक दशक के सभी अप्रत्याशित परिवर्तन व्यक्ति के द्वारा नहीं, परोक्ष महाकाल की सत्ता द्वारा संपन्न हुए हैं । वैयक्तिक पुरुषार्थ जो नहीं कर सकता था, वह सब उलट पुलट सूक्ष्म स्तर पर समष्टि सत्ता कर रही है । श्री कृष्ण का गीता वाला स्वर जोरों से उद्घोष करते हुए कह रहा है “कालोऽस्मि लोकक्षयकृ त प्रवृद्धो , लोकान् समाहर्तुमिव प्रवृत्तः । (मैं काल हूँ , लोकों को उजाड़ता और नष्ट करता हूँ । मैं अपनी पूरी शक्ति के साथ उठ खड़ा हुआ हूँ) अतएव हम सब उठें व केवल श्रेय अर्जित करने वाले निमित्त मात्र बन जाएँ (तस्मात्त्वमुतिष्ठ यशोलभस्व.... निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन) 33/11 वाँ अध्याय ।

संस्कृति पुरुष ने व्यापक स्तर पर सामूहिक मनों पर प्रयोग करके उनके भीतर का देवत्व जगाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है व सामान्य को असामान्य, क्षुद्र हृदय वाले दुर्बल को महा साहसी तथा रोग , शोक , लोभ-मोह अहंता में डूबे नरकीटकों को भी देवमानव बनाने हेतु वे संकल्पित हैं । देव संस्कृति का तत्त्वज्ञान ही यह सब संपन्न कराएगा । निश्चित ही समय बदल रहा है । रात्रि का पलायन व प्रभात का उदय हो रहा है । सतयुग अब निकट से निकटतम आता जा रहा है ।

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Type: TEXT
Language: HINDI
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  • सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा
  • माटी की शपथ
  • सृष्टि का प्रथम मानव आर्यावर्त में जन्मा
  • देव संस्कृति की प्रगति यात्रा व उससे अपेक्षाएँ
  • अनगढ़ को सुगढ़ बनाना ही संस्कृति
  • जीवन को चरम लक्ष्य तक ले जाने वाले चार पुरुषार्थ
  • व्यक्ति की संवेदना को परिष्कृत करने वाली विधा है “धर्म”
  • ‘धर्म’ व ‘मोक्ष’ की सिद्धि का उपाय ‘अर्थ’ व ‘काम’
  • मोक्ष अर्थात् बन्धनों से मुक्ति एवं “त्याग की प्रतिष्ठ”
  • गाय माता क्यों, कामधेनु क्यों?
  • सृष्टि की गौरवमयी अभिव्यक्ति-मनुष्य
  • हमारी संस्कृति की केन्द्रीय-धुरी रही है-नारी शक्ति
  • वैरागी मुक्त पुरुष
  • बहुदेववाद में समस्या एकेश्वरवाद
  • को वेदान पुनरध्दसि?
  • ईश्वर का अवतार, क्या, क्यों व कैसे?
  • ज्ञान और विज्ञान का महासागर है-आर्ष-वांग्मय
  • देव संस्कृति की अनुपम स्थापना, कर्मयोग-कर्मसाधना
  • अनादि अनन्त जीवन प्रवाह का प्रतिपादक हिंदू अध्यात्म
  • आधुनिक विज्ञान ऋणी है देव संस्कृति का
  • सभी विचारधाराओं के मूल में हैं, विश्व संस्कृति के चिन्तन-स्वर
  • सोऽहम् क्रान्ति, जो कि भवितव्यता है।
  • अपनों से बात अपनी बात- - उज्ज्वल भविष्य लाने को तत्पर, संस्कृति पुरुष की कालजयी सत्ता
  • अपनों से अपनी बात- - तीर्थ चेतना के उन्नायक संस्कृति पुरुष-गुरुदेव
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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