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Magazine - Year 1992 - Version 2

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देव संस्कृति की प्रगति यात्रा व उससे अपेक्षाएँ

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भारतीय संस्कृति कितनी विशाल है व इस महासागर में कालक्रम से किस प्रकार भिन्न-भिन्न सभ्यताएँ व संस्कृतियाँ, मत-मतान्तर आते और समाते चले गए, इस संबंध में सभी इतिहासकार एकमत हो इसकी सहिष्णुता सामाजिकता, उदारता की भूरि भूरि प्रशंसा करते रहे हैं। कवीन्द्र रवीन्द्र ने आज से प्रायः 85 वर्ष पूर्व एक काव्य द्वारा इस भाव को अभिव्यक्त करते हुए लिखा था-

ए मोर चित्त पुण्यतीर्थ जागो रे धीरे, एई भारतेर महामानवेर सागर तीरे।

केह नहि जाने, कार आव्हाने, कत मानुषरे धारा, दुर्वार स्रोते एलो कोथाहते, समुद्रे हलो धारा।

हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य हेथाय द्राविड़ चीन, शक हूण दल, पाठान मोगल एक देहेहलो लीन,

रणधारा वाहि जयगान गाहि, उन्माद कलरवे, भेद मरुपथ, गिरिपर्वत यारा ऐसे छिलो सबे।

तारा मोर माझे सवाई विराजे केहो नहे नहे दूर, आमार शोणिते रयेछे ध्वनित तारि विचित्र सूर।

इस बंगला कविता का भावानुवाद कविश्रेष्ठ साहित्यकार श्री रामधारी सिंह दिनकर ने हिन्दी में करते हुए अपनी पुस्तक “भारतीय संस्कृति के चार अध्याय” में लिखा है-भारत देश महा मानवता का पारावार है। ओ मेरे हृदय! इस पवित्र तीर्थ में श्रद्धा से अपनी आँखें खोलो, किसी को भी ज्ञात नहीं कि किसके आह्वान पर मनुष्यता की कितनी धाराएँ दुर्वारवेग से बहती हुई कहाँ-कहाँ से आई और इस महा समुद्र में मिलकर खो गयीं। यहाँ आर्य हैं, अनार्य हैं, यहाँ द्राविड़ और चीनी वंश के लोग हैं। शक, हूण, पठान और मुगल न जाने कितनी जाति के लोग इस देश में आये और सबके एक ही शरीर में समाकर एक हो गए। समय-समय पर जो लोग रक्त की धारा बहाते हुए एवं उन्माद-उत्साह में विजय के गीत गाते हुए रेगिस्तान को पार कर एवं पर्वतों को लाँघकर इस देश में आए थे, उनमें से किसी का भी अब अलग कोई अस्तित्व नहीं है। वे सब मेरे इस विराट शरीर में विद्यमान हैं। मुझ से कोई भी दूर नहीं है। मेरे रक्त में सबका स्वर ध्वनित-गुँजायमान हो रहा है।”

प्रस्तुत काव्य उस स्मृति व अनुभूति को ताजा बनाता आया है जो राष्ट्रीय एकात्मता के रूप में अनेकताओं में एकता वाली इस विलक्षण संस्कृति को अनेक संस्कृतियों के योग से बना हुआ मधु माना जाता है व चूँकि इसकी उत्पत्ति “आर्य” से हुई है, यह आर्य या वैदिक संस्कृति मानी जाती है। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ, यह कोई नस्ल या जाति विशेष का नाम नहीं है, जैसा कि पूर्व के दो अध्यायों में स्पष्ट किया जा चुका है। भारत वर्ष में यह भाव कभी पनपा ही नहीं कि रेस-थ्योरी या नृवंश-सिद्धान्त के अनुसार कौन हमारी जाति का है, कौन नहीं। जो इस पुण्यतोया भागीरथी के प्रवाह में जुड़ा वह गंदा नाला हो या पवित्र यमुना नदी, सभी इसमें आत्मसात् हो आर्य पुरुष कहलाये। जिसने भी भारतीय संस्कृति को अपनी संस्कृति तथा भारत को अपना देश मान लिया वह विदेशी होता हुआ भी भारतवासियों द्वारा अपने ही वंश के भटके पूर्वजों की संतति मानते हुए आत्मसात् कर लिया गया। इसीलिए भारत एक जाति का नाम नहीं है, वरन् एक विराट संस्कृति का नाम है। संस्कृति अर्थात् अनपढ़ को परिष्कृत कर उसे सुगढ़ बना देने वाली एक पद्धति।

विराट महासागर में मिलने वाले हर प्रकार का आत्मसात् हो उसी सागर की एक बूँद बन जाना, इस संस्कृति का ऐसा वैशिष्ट्यपूर्ण गुण है जो आज की विखण्डन भरी, विभिन्नताओं से भरी विश्वमानवता की विभिन्न समस्याओं का समाधान भी है, भारत में आकर जो लोग एक साथ कभी रहे उनके मत एक नहीं थे, धर्म एक नहीं थे, मान्यताएँ एक नहीं थीं भाषाएँ भी एक नहीं थीं, किन्तु कुछ बात ही ऐसी निराली है इस संस्कृति में कि विभिन्न विचारों मतों, धर्मों व संस्कृतियों में कि विभिन्न विचारों मतों, धर्मों व संस्कृतियों में पूरा सामंजस्य बैठता चला गया व विभिन्नताओं का सम्मिश्रित रूप विश्व एकता के वसुधैव कुटुम्बकम् के एक नमूने के रूप में हम सबके समक्ष है।

किसी भी संस्कृति सभ्यता, धर्म या समाज के ह्रास या पतन का एक ही कारण होता है उसमें विकृतियों का प्रवेश तथा इस कारण उसकी जीवनी शक्ति गिर जाना। जैसे किसी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में आहार-विहार व्यवहार के व्यतिक्रम के कारण विजातीय द्रव्य प्रविष्ट हो जायँ तो रुग्णावस्था आरंभ हो जाती है। इसी प्रकार कष्ट-पीड़ा अजीर्ण आहार ग्रहण की अक्षमता व क्रमशः स्वास्थ्य का गिरता चले जाना उसकी परिणतियाँ हैं, ठीक उसी प्रकार संस्कृति पर भी यह नियम लागू होता है। भारतीय संस्कृति के कालक्रम में क्रमशः पतन आने और विकृतियों का उसमें समावेश होने के कारण बताते हुए पाश्चात्य विद्वान व इतिहासकार यही लिखते हैं कि हिंदू समाज अच्छाइयाँ छोड़ता रहा व वर्ण-जाति भेद से लेकर अछूत समस्या नारी समस्या, शुद्धि समस्या जैसी कई समस्याओं को पैदा करके अपने लिए इसने पतन की राह चुन ली। औरों को स्वीकार करने की परम्परा जो देव संस्कृति में थी वह कालान्तर में नष्ट हो गयी तथा जाति बहिष्कार जैसी परम्परा से भी उसने काफी नुकसान उठाया ऐसा पाश्चात्यविदों का मत है। वे लिखते हैं कि यही कारण है कि आक्रान्ताओं ने प्राकृतिक विशेषताओं से भरे पूरे, धन-धान्य से भरे आदि सभ्यता व ज्ञान के केन्द्र इस राष्ट्र को भली-भाँति रौंदा। विगत दो हजार वर्षों की गुलामी का अंधकार भरा इतिहास वे साक्षी के रूप में सामने रखते हैं जिसमें भारतवर्ष राजनैतिक दृष्टि से ही नहीं, सोऽहम् दृष्टि से भी गुलाम होता चला गया व इसके आध्यात्मिक तत्त्वदर्शन में ऐसी विकृतियाँ समाहित होती चली गयीं जिनने जनमानस को दिग्भ्रमित ही किया। भाग्यवाद, ईश्वरेच्छा ही सर्वोपरि, पुरुषार्थहीनता, अकर्मण्यवाद पलायनवाद, मायावाद कर्म-संन्यास जैसे तत्वों ने जनमानस को मूर्च्छित और कायर बना दिया। कालान्तर में अंग्रेजी शिक्षा के साथ पाश्चात्य सभ्यता भी यहाँ आई व यहाँ के लोग अपने गौरवपूर्ण अतीत को भूलकर उस भोगपरायण दर्शन को अपनाने लगे जिससे आज सारा पश्चिम दुखी है। आलोचक तो यहाँ तक भी कहते हैं कि भारतीय संस्कृति की कमजोरियों ने ही भारत को दुर्बल बना दिया व इसी कारण विदेशी आक्रान्ता इस राष्ट्र पर आधिपत्य कर सके।

उत्थान-पतन-उत्थान क्रम के इस इतिहास में सभी मतों-आलोचनाओं का अध्ययन करने के उपरान्त हम निष्पक्ष चिन्तन करें तो कुछ निष्कर्ष सामने आते हैं। प्रागैतिहासिक काल से अब तक विचार करें तो हम पाते हैं कि आर्य संस्कृति से लेकर अब तक अनेकानेक उन्नत संस्कृतियाँ, सभ्यताएँ विकसित हुई, रोम, मिश्र, यूनान की संस्कृतियाँ कभी उन्नति के चरम शिखर तक जा पहुँची थीं किन्तु क्या कारण है कि उनका आज नाम भी शेष नहीं है और सबसे प्राचीन होते हुए भी भारतीय संस्कृति अब तक अपना अस्तित्व बनाए हुए है? विधर्मी विदेशी संस्कृतियों के संघर्ष में वह क्षीण-दुर्बल अवश्य हुई किन्तु उसकी भित्तियाँ, नींव दृढ़ बने रहे। क्या कारण है कि विदेशी संस्कृतियाँ एक ही थपेड़े में अस्त-व्यस्त हो गयीं तथा दूसरी ओर हिंदू संस्कृति अपनों को अपनी मूलसत्ता से पृथक कर पूरे विश्व भर में उनके अनुदान वितरित करती रही अनेकानेक आचारों-संस्कृतियों को जन्म देती रहीं किन्तु समूल नष्ट नहीं हुई जन बल घटता चला गया, फिर भी देव संस्कृति कोटि-कोटि वर्षों के संघर्षों के बाद भी जीवित है। इस विषमता के मूल में कौन सा नियम काम कर रहा है?

एक विशेषता जो सबसे बड़ी हम पाते हैं, वह है अपने शब्द के भाव के अनुरूप संस्कृति के साथ परिष्कृति की भावना। ‘कल्चर’ शब्द सही मायने में मात्र भारतीय संस्कृति पर लागू होता है क्योंकि इसका अर्थ होता है निरन्तर परिष्कार-अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलने का प्रयास। शेष सभी कालान्तर में जन्मी तथाकथित संस्कृतियाँ तो सभ्यताएँ (सिविलाइजेशन) ही कही जानी चाहिए क्योंकि उनमें यह गुण नहीं था। इसी गुण के अभाव के कारण परिस्थितियों के संघर्ष में पाश्चात्य सभ्यताएँ रुग्ण-विकृत होकर नष्ट होती रहीं। स्वार्थों के संघर्ष में वे समाप्त हो गयीं। अपनी जीवनी शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भारतीय संस्कृति ने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने की अपेक्षा, भीड़ बढ़ाने की अपेक्षा, परिष्कार पर अधिक ध्यान दिया। यही कारण है कि उसका अस्तित्व सुरक्षित रहा। विकृत तत्व बहिष्कृत होते रहे, संस्कारच्यूत होने के कारण बाहर जाते रहे किन्तु मूल चिंतन जो अध्यात्मवादी था, व्यक्ति की बहिर्मुखी नहीं अंतर्मुखी वृत्ति के विकास एवं आत्मसत्ता की सर्वांगपूर्ण प्रगति पर निर्भर था हिन्दू संस्कृति देवसंस्कृति का प्राण बना रहा। जब से यह चिन्तन बदला व यह माना जाने लगा कि भोगवाद ही प्रधान है, आध्यात्मिक नहीं। आधिभौतिक प्रगति ही सब कुछ है, तब से ही भारत की अंधकार-युग आरंभ हुआ मानना चाहिए। जो भारत अर्ध संस्कृत-हिंसक-आक्रान्ताओं द्वारा पराजित हुआ, वह विलासी भारत था। इतिहास के पृष्ठो का विवेचन यही बताता है।

आत्म समीक्षा तो करना चाहिए व यह भी देखना चाहिए कि कालक्रम में जो कमियाँ आयीं उनसे कैसे जूझा जाना चाहिए था? नहीं यह किया गया तो विकासक्रम कैसे अवरुद्ध हुआ? यहाँ तक तो ठीक है परन्तु संस्कृति के शाश्वत चिरन्तन सत्य की उपेक्षा कर यदि एक ही पक्ष पर दोष निरन्तर लगाया जाता रहे तो वह पक्षपातपूर्ण चिंतन होगा। कहा जाता है कि जाति से बहिष्कृत, समाज से बहिष्कृत, संस्कृति से बहिष्कृत, करने की आदिकालीन परम्परा ने आज हिन्दू संस्कृति का ह्रास किया है। यदि यह सच होता तो इतने मत-मतान्तर इतने संप्रदाय, परस्पर विरोधी दर्शन, धार्मिक मान्यताएँ, रीतिरिवाज, भाषाएँ यहाँ एक साथ नहीं पनपी होतीं, बहिष्कार किया गया था हीनवृति का, विकृत तत्वों का, न कि जाति का या व्यक्तियों का। जब तक संस्कृति धर्मपरायण रही आध्यात्मिक रही, वह हर विचारधारा को अपने अंदर समाहित करती रही, देव संस्कृति में युगधर्म, वर्णधर्म, आश्रमधर्म के साथ आपधर्म का भी विधान है। अवश्य ही इन निश्चित धर्मों का ठीक पालन न करने से भी संस्कृति में विकार आया है। वर्णाश्रम धर्म की व्याख्या भी वह नहीं है जो चिर-प्रचलित है वरन् बड़ी क्राँतिकारी व प्रगतिशील है। इसकी चर्चा उपयुक्त स्थान पर की जा रही है। यहाँ तो विवेचन संस्कृति की मात्रा का हो रहा है।

तो अब समस्या का समाधान क्या हो? एक ही समाधान है, वह है देवसंस्कृति के निर्धारणों से भारतभूमि में रहने वाले, इसके प्रभाव क्षेत्र में बसने वाले, तथा इस भूल से बाहर गए लोगों को भली-भाँति अवगत कराना तथा उनमें सोऽहम् गौरव-अभियान की भावना का संचार करना। कोई किसी भी धर्म को माने, मान्यता को माने, संप्रदाय के बताए पथ पर चले परन्तु सोऽहम् चिंतन सबका सार्वभौम सनातन एक ही होना चाहिए। आज संस्कृति के नाम पर समाज व शासन द्वारा मात्र नृत्य, संगीत अभिनय, उछलकूद, चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य व काव्यकला को ही उसका पर्याय मानकर उनकी चिन्ह पूजा होती रही है। जबकि संस्कृति का यह एक प्रतिशत से भी कम पक्ष है। संस्कृति इससे भी बड़ी विराट स्तर की वस्तु है, जिसे दैनन्दिन जीवन में, क्रियाकलापों में, हमारी आस्थाओं में स्थान मिलना चाहिए, विज्ञान व अध्यात्म हमारी संस्कृति के झण्डे तले एक साथ कदम से कदम मिलाकर चलते हैं। इससे बड़ी स्थापना देव संस्कृति की क्या हो सकती है कि वह प्रगतिशील विज्ञान सम्मत धर्म को विश्वधर्म बनाकर आज साम्प्रदायिकता व धार्मिक उन्मादभरी परिस्थितियों का हल सुझाने में पूर्णतः सक्षम है।

प्रागैतिहासिक या वैदिककाल से लेकर बुद्ध के समय तक, बुद्ध से लेकर आद्यशंकराचार्य तक, तथा आचार्य शंकर से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति के तीन अध्याय भली भाँति तीन विकासक्रमों-सोपानों के रूप में देखे जा सकते हैं, प्रत्येक में देवसंस्कृति ने कुछ खोया व पाया है किन्तु मूलतत्त्व अक्षुण्ण बना हुआ है व वही उसके अस्तित्व का, सनातनता का मूल कारण है। परिव्राजक परम्परा का पुनर्जीवन कर, ब्राह्मणत्व के विस्तार द्वारा ब्रह्मनिष्ठ-समाज को समर्पित, लोकसेवी, आत्माओं का उत्पादन करने की प्रक्रिया एक संगठन ने इस शताब्दी में आरंभ की व उसके संस्थापक संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव का ही पुरुषार्थ है कि आज देव संस्कृति का संदेश भारतभूमि के कोने-कोने तथा विश्व मनीषा तक पहुँच रहा है। महात्मा बुद्ध से लेकर आद्यशंकर तथा परशुरामजी से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक पुष्पित पल्लवित होती चली आ रही धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की-समाज-राष्ट्र के पुनर्जीवन की तथा आस्था संकट की विभीषिका से मोर्चा लेने की यह पुण्य प्रक्रिया युग निर्माण योजना-प्रज्ञा अभियान शान्तिकुञ्ज की युगान्तरीय चेतना के माध्यम से अब विराट रूप ले रही है तथा सतयुग की वापसी का उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन दे रही है तो इसके मूल में देव संस्कृति की शाश्वतता-सनातनता ही है। योगीराज अरविन्द ने जिस अतिमानस के अवतरण की व स्वर्ग के भूमि पर उतरने की बात कही है, वह समय यही है जब चारों ओर प्रतीक लताओं से अनास्था की विडम्बना से संघर्ष छिड़ा हुआ है व व्यक्ति उत्कृष्टता की ओर उन्मुख दिखाई दे रहा है। नवयुग आएगा तो उसकी आधार शिला देवसंस्कृति, श्रेष्ठ निर्धारणों पर ही रखी जाएगी यह सुनिश्चित है।

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