
धरती के मानव को देवात्मा हिमालय का संदेश
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
घटना आज की नहीं, पर है इसी शताब्दी की। उस वर्ष हिमालय में हिमपात अधिक हुआ था। श्री बद्रीनाथ जी के मंदिर के पट वैसे सामान्य स्थिति में अक्षय तृतीया को खुल जाया करते हैं। किंतु वे जब जोशीमठ पहुँचे तो यात्री वहीं रुके थे। वह अक्षय तृतीया वाराणसी में ही मनाकर चले थे। मार्ग में तीन-चार दिन तो ऋषिकेश तक में ही रुकते-रुकते लग गये और तब मोटर-बसें केवल देव-प्रयाग तक जाती थीं। आगे का मार्ग उन्होंने पैदल पार किया।
भाग्य-देवता कुछ अनुकूल लग रहे थे। जोशीमठ पहुँचने पर पता लगा कि आज ही शाम को पट खुलने वाला है। बद्रीनाथ पहुँचने पर देखा-मार्गों पर तीन-चार फुट बरफ पड़ी थी और दुकानदार फावड़ों से बरफ हटा कर अपनी दुकानों के द्वार खोलने की कोशिश में लगे हैं। याद नहीं, दूसरे या तीसरे दिन बद्रीनाथ से आगे व्यासगुफा, सहस्रधारा तक चले गए। साथ में एक युवक पर्वतीय ब्राह्मण थे-मार्ग दर्शन के लिए। दो-तीन स्थानों पर अलकनंदा की धारा बरफ के प्रकृति निर्मित पुल से पार की। लेकिन जब वे दोनों वसोधारा के ऊपर की गुफा पर चढ़ने लगे, तब मार्गदर्शक ने मना किया। लेकिन जैसे उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसी बीच पता नहीं कब उन्हें भाग्य भरोसे छोड़कर- मार्गदर्शक और मित्र वापस लौट गए। ऊपर किसी तरह वे पहुँचे भी और लौटे भी। लौटते समय या तो उनको मार्ग भूल गया अथवा जिस हिमनिर्मित पुल से उनने अलकनंदा पार की थी, वह इतनी देर में टूट गया था। हुआ कुछ भी हो, उनको माना गाँव के पास होकर घूमकर आने के लिए विवश होना पड़ा। माना गाँव सुनसान पड़ा था। घरों के दरवाजों पर ताले सीलबंद पड़े थे। वहाँ के निवासी जो सर्दियों में नीचे चले गये थे, अभी तक नहीं लौटे थे। जीवन में पहली बार एक जनहीन गाँव देखा-अद्भुत लगा वह सुनसान। वह कुछ और आगे बढ़ गये। सन्ध्या समीप थी। अस्ताचल से बार दिनपति ने जगती को देखा और उनके की छाया सम्पूर्ण धरातल पर फैल गयी। सम्पूर्ण हिमाच्छादित गिरि शिखर गैरिकवर्णी वीतराग संन्यासी के वेश में परिवर्तित हो गये। तरु-वीरुध और लताओं ने भी उसी वर्ण को अपना लिया। प्रत्येक शिला भी रंग गई उस रंग में। पक्षियों ने दिशाओं में मंत्रपाठ प्रारम्भ किया। अचानक बादल घिर आए, वर्षा किसी भी क्षण सम्भव थी। उनके पास न छाता था न बरसाती कोट। अतः स्थान पर पहुँचने की शीघ्रता स्वाभाविक थी।
सहसा उनके पैरों ने चलना अस्वीकार कर दिया। उनकी क्या अवस्था हुई कहना कठिन है। स्वयं सोच लें-आस-पास कोई नहीं था। उज्ज्वल हिमाच्छन्न पर्वत और उसके पीछे एक जनहित गाँव। मार्गदर्शक और मित्र तो कभी के चुपचाप खिसक चुके थे, जानने का कोई साधन था नहीं। सहसा सामने केवल दस गज दूर एक महाकाय आकृति आ खड़ी हुई। एक गम्भीर स्वर उभरा। कुछ क्षण लगे उन्हें अपने को आश्वस्त करने में। उनके सम्मुख वे जो कोई भी थे-कुछ आश्वासन दे रहे थे कि भय करने की जरूरत नहीं है। हाँ वे पुरुष थे-मानव पुरुष। किंतु उनका विशाल शरीर-जिसके सामने खड़े वह उनके घुटनों से कुछ ही ऊँचे लग रहे थे। नाभि से नीचे तक लटकती हिम धवल दाढ़ी-सुस्पष्ट दीर्घ भुजाएँ और लेकिन-उनके तेजोमय मुख को भली प्रकार देख पाना सम्भव कहाँ था। वह-वहाँ खड़े थे-यही कहाँ कम था। “कौन हो तुम?” उन्होंने शुद्ध देववाणी में पूछा था। ये भी संस्कृत के आचार्य थे। “गोपीनाथ”-अपना नाम बताकर संक्षिप्त परिचय दिया। इतनी देर में वे अपने को कुछ अधिक आश्वस्त अनुभव कर रहे थे। उन्हें पृथ्वी पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। “गोत्र” प्रश्न हुआ। “सर्वाणि”-उत्तर सुनकर वे इतने हँसे कि पर्वतमालाएँ काँपती हुई प्रतीत हुई। “कोई विशेष बात नहीं” वे सौम्य स्वर में बोले-”तुम्हारे कुल पुरुष भगवान विवस्वान के आत्मज सावर्णि हैं-आगामी मन्वंतर के मनु। तुम्हारा यह क्षीणकाय-उन मार्तण्य तनय के सम्मुख, मैं भी इतना ही हस्वदेह, अल्पप्राण प्रतीत होने लगता हूँ। कहीं तुम अपने उन कुल पुरुष का साक्षात कर सको तो?...। लेकिन वे इस बार हँसे नहीं। “भगवन् आप?” जिज्ञासा उभरी। ‘मेरा जन्म त्रेता के अंत में हुआ था।’ उन्होंने सहज भाव से कहा। तब तक मानव देह ह्रास को प्राप्त हो चुका था और तुम्हें तो देखकर लगता है.....। पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
इतने में गोपीनाथ जी को ध्यान आया कि पुराण वर्णित कलाप ग्राम कहीं यहाँ से पास होना चाहिए। अवश्य सामने जो दिव्य पुरुष उपस्थित हैं, वे वहीं के निवासी होंगे। उनके मन में उस भूमि के दर्शन की इच्छा प्रबल होने लगी। वत्स! तुम ठीक सोचते हो-हिमालय का गौरव और वैभव अनंत है। कलाप ग्राम ही क्यों-देवात्मा के इस ध्रुव केन्द्र में ऐसे अनगिनत स्थल हैं-जहाँ युग-युगान्तर साधनाएँ, तपश्चर्यायें, विशिष्ट- प्रयोग सम्पन्न होते रहे हैं-सम्पन्न हो रहे हैं। जहाँ तक भूमि का प्रश्न है, इन स्थानों पर तुम और तुम्हारे अनेक साथी आते-जाते रहते हैं, किंतु उसके निवासी जब तक स्वयं न चाहे, उन्हें तुम देख नहीं सकते।”
अद्भुत आश्चर्यजनक लगा-उस लोकोत्तर मानव का कथन। भला इन अति विशिष्ट मानवों के लिए प्रयोगों की क्या जरूरत? अंतराल में उभरे प्रश्न को उनकी सुविकसित संवेदना ने अनुभव कर लिया। “ऐसा मत सोचो-इनके प्रयोगों का उद्देश्य -स्वार्थ का जखीरा इकट्ठा करना अथवा अहं का सिक्का चलाना नहीं है। ये सभी देवपुरुष-ब्रह्मांड के हित में समर्पित हैं। तुम्हारे वैज्ञानिक और ज्योतिषी अनेक भविष्यवाणियाँ कर मानव के मन में हलचल पैदा कर देते है। सभी सुख चैन की नींद को त्याग चिंतातुर हो उस वक्त की प्रतीक्षा करते हैं और जब वक्त आता है-तब कुछ नहीं होता। भविष्य वक्ताओं के कथन अपने स्थान पर सही होते हैं। पर ये ही महापुरुष अपने प्रयोगों से स्थिति को टाल देते हैं। आज नहीं आगे भी देखोगे, युद्ध छिड़ेंगे, पर महाविनाश के पूर्व समझौते हो जायेंगे। लगेगा सभ्यता समाप्त हुई, पर कोई शाँतिदूत स्थिति संभाल लेगा। “
“प्रयोग तो आश्चर्यजनक है-पर मानव भी विनाश के कगार पर है। हाँ-आमंत्रित तो यही कर रहा है। आज वह और उसका समाज अस्वस्थ है।” समाज भी अस्वस्थ-बात समझ में नहीं आ रही थी। “मनुष्य सदा दुर्बल रहा है।” वे कह रहे थे-उससे त्रुटि नहीं होगी, उसके पद वासना-विचलित नहीं होंगे, यह कभी संभव नहीं हुआ। पर पहले वह सुसंस्कृत बनने, स्वस्थ रहने के विज्ञान और विधान को स्वीकार कर देवत्व की ओर छलाँग लगाता था। आज इन्हें अस्वीकार कर कीट-पतंगों की तरह बिलबिला रहा है।
यह सब सुनकर उन्हें अनेक पौराणिक कथाएँ याद हो आयीं। मानस चक्षुओं के सामने उभरने लगे-विशिष्ठ, अगत्स्य, याज्ञवल्क्य के वे प्रयास जिन्होंने समूचे मानव जीवन को संस्कार महोत्सव बना डाला था। यदि ऐसी स्थिति आज बनायी जा सके। विचार तरंगों से स्पन्दित हो वे कह उठे-”स्थिति बनेगी वत्स! धरती के मानव को हिमालय का संदेश देना-वह संस्कार के मंगल विधान को पुनः अपनाए। देवत्व की ओर बढ़ते प्रत्येक कदम को यहाँ की ऋषि सत्ताएँ सम्बल देंगी। देवात्मा हिमालय के संरक्षण में चल रहे प्रयोग भारत को केन्द्र बनाकर समूचे विश्व का कायाकल्प कर डालेंगे। उन दिव्य पुरुषों का यह प्रयोग अगले पचास वर्षों में पूरा होकर रहेगा। हाँ इस बीच धरती और धरती पुत्रों को बहुत कुछ सहना पड़ेगा। “ कुछ क्षण, पता नहीं कितने क्षण वे मस्तक झुकाये अपने चिंतन में लीन रहे-अगली शताब्दी की दुनिया का स्वर्णिम चित्र उनके अस्तित्व में पुलकन भर रहा था। पता नहीं कितना समय इसमें बीत गया और जब उन्होंने नेत्र उठाये, सम्मुख कोई नहीं था। वहीं हिमाच्छादित पर्वतमालाएँ, वही तीव्र-वेगा अलकनंदा और वहीं पीछे सुनसान माणा गाँव और हिमालय का शाश्वत संदेश-जिनके अनुरूप स्वयं को ढालकर गोपीनाथ प्राच्य विद्या के महान साधक महामहोपाध्याय डॉ. गोपीनाथ कविराज बन गये। संदेश के स्वर शाश्वत हैं-बस ग्रहणशीलता के लिए हमारी प्रतीक्षा है।