
माँसाहार मानवता विरुद्ध है
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मनुष्य समाज को गिराने वाली अनेकों दुष्प्रवृत्तियां हैं, पर माँसाहार उनमें से सबसे अधिक घृणित है। इससे मनुष्य में निष्ठुरता, क्रूरता, निर्दयता, स्वार्थ-साधन आदि समाज विरोधी प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती है। करुणा, दया, क्षमा, संवेदना, सहानुभूति तथा सौहार्द्र जैसे आध्यात्मिक गुण नष्ट हो जाते हैं और ऐसे व्यक्ति अपने स्वाद, स्वास्थ्य एवं स्वार्थ के लिए बड़े से बड़ा अपराध करने में भी संकोच नहीं करते। जिस समाज में ऐसे अनात्मवादी व्यक्ति विद्यमान हों, उसमें मानवता के गुणों की अभिवृद्धि की आशा कैसे की जा सकती है?
समाज मनोविज्ञानियों का कहना है कि माँस-भोजन मानवता की स्थापना एवं स्थिरता के लिए बहुत बड़ी बाधा है। यह सब जानते है कि एक सूखी समाज के लिए स्वस्थ गुणों के नागरिकों का होना कितना आवश्यक है। व्यक्ति का सद्गुणी होना उसके आन्तरिक सदाचार पर निर्भर है अर्थात् सभ्य समाज की रचना तभी हो सकती है जब लोगों के मन स्वच्छ हों। यद्यपि पाश्चात्य मनोविज्ञानी इस तथ्य को आँशिक रूप से ही जान पाये है, पर भारतीय तत्त्वदर्शी-ऋषि-मुनियों ने इस बात को बहुत पहले ही अच्छी तरह जान लिया था कि मन और कुछ नहीं अन्न या आहार का सूक्ष्म संस्कार मात्र है। इसलिए उन्होंने आहार की सात्त्विकता पर बहुत जोर दिया है। उसके अनुसार मनुष्य के आहार का जो गुण होगा, उसके मन में भी वैसे ही गुणों का, विचारों का जन्म होगा और जैसे लोगों के विचार होंगे, आचरण भी वैसे ही होंगे। इस वैज्ञानिक तथ्य की समग्र जानकारी के बाद ही स्वच्छ सात्त्विक आहार ग्रहण करने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया था और भोजन व्यवस्था को अनेक कड़े नियमों से प्रतिबन्धित कर दिया गया था।
भोजन की स्वच्छता, सादगी, सफाई और उसे भावनापूर्वक ग्रहण करने की भारतीय प्रणाली केवल मनोवैज्ञानिक ही नहीं थी, वरन् यह विचार-विज्ञान की गहन कसौटी पर कसी हुई थी। यदि मानव के निर्माण में उसकी प्रवृत्तियों के बनने में भोजन का कोई प्रभाव न होता, तो मनीषीजन उसकी खोज गुण-अवगुण की उपयोगिता एवं अनुपयोगिता पर इतना गहन अन्वेषण न करते। पिप्पलाद ऋषि, कणाद ऋषि जैसे महामनीषियों को प्राकृतिक अन्न-कणों से अपनी क्षुधा को शान्त करने की विवशता न रही होती।
आहार का मानवी मनोवृत्तियों पर पड़ने वाले प्रभाव पर अनुसंधान चिकित्सा-विज्ञानियों ने निष्कर्ष निकाला है कि माँसाहार से मनुष्य की मनोवृत्तियों क्रूर, दुस्साहसी, निर्दय और निष्ठुर बन जाती है। इन दुर्गुणों की अभिवृद्धि से समाज भी निश्चित रूप से प्रभावित होता है। जो व्यक्ति माँस के टुकड़ों के लिए जीवों पर दया नहीं कर सकता, वह अपने पत्नी-बच्चों के प्रति कितना दयालु होगा, कहा नहीं जा सकता। ऐसी भी परिस्थितियाँ आ सकती हैं अब अन्न न मिले और माँसभक्षी व्यक्ति सजातियों को ही अपना ग्रास बनाने लगे, तो आश्चर्य किस बात का?
स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से भी माँस मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं है। माँस भक्षण से सामयिक उत्तेजना और शक्ति का अनुभव हो सकता है, पर स्वास्थ्य को स्थायी रूप से सुदृढ़ और कार्यक्षम बनाने के लिए उसे कभी अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता। इस सम्बन्ध में केवल भारतीय मनीषी या शास्त्र ही पर्याप्त प्रकाश नहीं डालते, वरन् वर्तमान समय में योरोप और अमेरिका के मूर्धन्य वैज्ञानिकों, शरीर-शास्त्र-वेत्ताओं तथा प्रसिद्ध डॉक्टरों ने भी जो खोज, परीक्षण एवं अनुभव किये हैं। और जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनसे भी यही सिद्ध होता है कि माँसाहार स्थायी स्वास्थ्य की समस्या का हल नहीं कर सकता। उससे अनेकों प्रकार की शारीरिक-मानसिक बीमारियाँ ही उपजती हैं।
इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. हेनरी परडो ने अपने जीवन काल में शाकाहारी एवं माँस खाने वाले हजारों व्यक्तियों का परीक्षण किया। उनका कहना है कि ऐसे अनेक व्यक्ति थे जो माँसाहार त्याग कर शाकाहारी बन जाने से पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ हो गये और कब्ज, एसिडिटी, गठिया, अल्सर,मिर्गी आदि रोगों से छुटकारा पा गये। अपनी शोध निष्कर्ष में उनने बताया है कि जो व्यक्ति पूर्णतया शाकाहार पर रहते हैं, वे माँसाहारियों की अपेक्षा रोगों के शिकार बहुत कम होते हैं।
इसी तरह का निष्कर्ष डॉ. रसेल तथा डॉ. पर्क्स जैसे विख्यात आहार विशेषज्ञों का भी है। डॉ. रसेल ने अपनी कृति “सार्वभौम भोजन” में लिखा है कि-’जहाँ माँसाहार जितना कम होगा वहाँ कैंसर जैसी प्राणघातक बीमारियाँ भी उतनी ही कम होगी। डॉ. पक्स अपने व्यक्तिगत अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि-”माँसाहार के कारण ही वे बहुत दिनों तक सिरदर्द, मानसिक थकावट तथा गठिया से ग्रसित रहे।’
डॉ. हेग ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक-”डाइट एण्ड फूड” में लिखा है-शाकाहार से शक्ति उत्पन्न होती है अवसर पर माँसाहारी से उत्तेजना बढ़ती है। परिश्रम के अवसर पर माँसाहारी थक जाता है। जिसे इसकी आदत पड़ जाती है, वह शराब आदि उत्तेजक पदार्थों की आवश्यकता अनुभव करता है, नशीली दवाओं का प्रयोग करता है। यदि वे न मिलें तो सिरदर्द, उदासी, स्नायु दुर्बलता आदि का शिकार हो जाता है। ऐसे लोग निराशाग्रस्त होकर आत्म-हत्या तक कर बैठते हैं। ब्रिटेन, अमेरिका जैसे पाश्चात्य देशों में जहाँ माँस और नशाखोरी का प्रचार बहुत अधिक है, वहाँ आत्महत्यायें भी बहुत अधिक होती है, इसी प्रकार मेरी एस. ब्राउन, डॉ. शिरमेट, डॉ. क्लाडसन, जार्ज बर्नार्डशा, डॉ. लम्सशैप आदि प्रख्यात वैज्ञानिक मनीषियों ने भी माँसाहार से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है।
माँसाहार से इस प्रकार की हानियाँ होने का मुख्य कारण उसमें पाया जाने वाला तत्व-’यूरिक एसिड’ है जो शरीर के भीतरी अंगों में विषैला प्रभाव डालता है। यह अम्ल जब अधिक मात्रा में रक्त में मिल जाता है तो मस्तिष्क में दर्द, निद्रा-ह्रास, श्वास विकृति, अजीर्ण और यकृत-विकार आदि अनेक रोग हो जाते हैं और व्यक्ति दुर्बलताग्रस्त हो मरण की ओर घिसटता जाता है।
पाया गया है कि शाकाहारी व्यक्ति माँस खाने वालों से अधिक सशक्त, सुदृढ़ एवं दीर्घजीवी होते है। माँसपेशी तंत्र तनावग्रस्त हो व्यक्ति को पंगुता की स्थिति में ले जा कर पटकता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले प्रतियोगी पर किये गये एक अध्ययन में विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकाला है कि फल-हरी सब्जी, दूध-घी मेवा आदि शुद्ध भोजन करने वाले व्यक्ति देखने में दुबले–पतले भले ही लगते रहें, पर जीवनी शक्ति एवं स्फूर्ति में वे माँसाहारियों से कई गुना बेहतर स्थिति में रहते हैं।
पिछले दिनों जर्मनी में माँसाहारियों एवं शाकाहारियों में सत्तर मील पैदल चलने की एक प्रतियोगिता आयोजित की गयी। प्रतियोगिता में बीस माँसाहारी व्यक्ति थे और छह शाकाहारी। शाकाहारी, माँसाहारी से बहुत पहले गन्तव्य स्थान पर पहुँच गये। सबसे कम समय 14 घण्टे में 70 मील की दूरी तय करने वाला शाकाहारी ही था। 20 माँसाहारियों में से केवल एक व्यक्ति इस दूरी को तय कर सका और वह भी अन्तिम शाकाहारी के एक घण्टे बाद। उस एक को छोड़ का शेष केवल 45 मील तक चल सके, इसके बाद उन्हें वहाँ से मोटरों पर लाना पड़ा।
धार्मिक, नैतिक, शारीरिक अथवा सामाजिक-किसी भी दृष्टि से देखा जाय, शाकाहार ही मनुष्य का प्राकृतिक भोजन है। जहाँ माँसाहार के काम, क्रोध, आलस्य, प्रमाद, जड़ता आदि दुर्गुणों की वृद्धि होती है, वहाँ शुद्ध शाकाहार से स्फूर्ति, पवित्रता, प्रसन्नता, शक्ति तथा दीर्घ आयुष्य प्राप्त होती है। माँसाहार सामाजिक जीवन को भी कम क्षति नहीं पहुँचता। यह सामाजिक जीवन को अधः पतित बना कर लोगों के लिए अनेक उपद्रव खड़ा कर देता है, जबकि शाकाहार से परिवार व समाज में सुख समृद्धि का वातावरण बनता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य अपने सहज स्वाभाविक आहार को ग्रहण कर स्वयं को सशक्त, पवित्र एवं दीर्घजीवी बनावे और ऋषियों की इस पवित्र भूमि से माँसाहार को सदा के लिए तिलाँजलि दे।