
स्थितप्रज्ञता
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आज अनहोनी हो गई। एक वर्ष लगातार साधना और तपश्चर्या करने के कारण निषाद कुल में जन्में बटुक काँदीवर को महर्षि अंगिरस ने क्षत्रियत्व प्रदान कर राज्य की सेना में प्रवेश का अधिकार दे दिया जबकि राजकुमार युयुत्स को उन्होंने असंयमी ठहराकर एक वर्ष के लिए क्षत्रियत्व का अधिकार छीन लिया। उन्होंने बताया -”राजकुमार ने अनेक महिलाओं का शीलभंग का उन्हें व्यभिचारिणी बनाया है। उन्हें एक वर्ष तक नंगे पाँव, उघारे बदन, राज्य की गौयें चरानी चाहिए और दुग्ध कल्प करके स्वयं को शुद्ध करना चाहिए। जब तक वे यह प्रायश्चित नहीं सम्पन्न करने कर लेते, उन्हें राजकुमार के सम्मानित सम्बोधन से भी वंचित रखा जायेगा। राज्य के सभी नागरिक उन्हें सिर्फ युयुत्स का सम्बोधन देंगे।” महर्षि की इस घोषणा से सभा में सन्नाटा छा गया। कोई कुछ भी सोच पाने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहा था। राजदरबार में सम्पन्न हो रहे आज श्रावणी पर्व के हेमाद्रि संकल्प के सामंतों, सभासदों व स्वयं सम्राट सहित स्वयं राजकुमार भी उपस्थित था। महर्षि का यह नियम था कि पिछले वर्ष किसी ने पाप या बुराइयाँ की होतीं, जब तक वह उसका उचित प्रायश्चित नहीं करा लेते थे, नया यज्ञोपवीत किसी को भी प्रदान नहीं किया जाता था। नियम की कठोरता सम्राट से सामान्य प्रजाजन तक सभी के लिए एक-सी थी। काँदीवर को क्षत्रियत्व और अपने आपको पदच्युत होते देखकर युयुत्स का दंभ उग्र हो गया। उसने याचना की-”गुरुवर! वासना मनुष्य का स्वभाव है। स्वाभाविक बातें अपराध नहीं गिनी जानी चाहिए। इस पर मनुष्य का अपना वश नहीं, इसलिए काम-वासना व्यक्ति के लिए क्षम्य है। “ अंगिरस तत्वदर्शी थे और दूरदर्शी भी। उन्होंने कहा-”युयुत्स! समाज और जातिगत स्वाभिमान से गिराने वाला कोई भी कर्म पाप ही गिना जाता है। फिर चाहे वह किसी की सहमति से ही क्यों न हो। जिन कुमारियों को तुमने भ्रष्ट किया है वे एक दिन सुहागिनें बनेंगी। क्या उनके पतियों के साथ यह अपराध न होगा? तुम्हारी यह स्वाभाविकता क्या समाज के असंयम और भ्रष्टता का कारण नहीं बनी। “ महर्षि अन्त तक दृढ़ रहे। युयुत्स पराजित होकर लौटे। उनके कंधे पर पड़ा यज्ञोपवीत व्याभिचार के अपराध में छीन लिया गया। चोट खाया सर्प जिस तरह फुँकार मारकर आक्रमण करता है, युयुत्स का हृदय भी ऐसे ही प्रतिशोध से जलने लगा। वह महर्षि को नीचा दिखाने के उपक्रम सोचने लगा। राजधानी में साँस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। उसका संचालन किसकी इच्छा से हो रहा है, यह किसी ने नहीं जाना। अच्छे-अच्छे संभ्राँत व्यक्ति आमंत्रित किये गये। महर्षि अंगिरस भी प्रधान अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। मरकत-मणियों से जगमगाते राजमहल की आभा उस समय और भी शतगुणित हो गई, जब सामंतों-सभासदों के बीच नृत्याँगना काँचीबाला ने प्रवेश किया। उसके हाव-भाव, साज-श्रृंगार किसी के शाँत मन में विक्षोभ उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त थे। नृत्य प्रारंभ हुआ, पाँव थिरकने लगे। साज गति देने लगा। ताल के साथ नृत्य करती हुई काँचीबाला आभूषणों के साथ वस्त्रों को भी एक-एक कर फेंकती जा रही थी। अकस्मात साज बंद हो गया। दर्शक न जाने कहाँ गायब हो गए। अकेले अंगिरस और काँचीबाला। महर्षि पर एक कुत्सित दृष्टि निरपेक्ष करते हुए काँचीबाला ने प्रश्न किया-”मेरे नृत्य को देखकर आपको कैसा लगा?” “भोली बालिके!” महर्षि ठठाकर हँस पड़े-’समूची सृष्टि में व्याप्त रहे विविध घटना-क्रम भी तो भगवती आद्यशक्ति का सुमधुर नर्तन ही तो है। तुम्हारा नृत्य उसी की एक हल्की झलक मात्र है। पर......’ ऋषि को रुकते देख-उसने आशा भरे स्वर में पूछा-”क्या? नृत्य में भावों का समावेश नहीं हो पाया? “ ऋषि बोले-”क्या ही अच्छा होता, यदि तुम नृत्य के माध्यम से सृष्टि की आदि संचालिका की हलचलों को अभिव्यक्ति करतीं।” काँचीबाला हतप्रभ हो गयी। आयी थी भ्रष्ट करने, बन गई महर्षि की शिष्या। स्थितप्रज्ञ ऋषि की आँखों में करुणा-भरा ममत्व था। यह सब युयुत्स का प्रबंध था, पर तपोमूर्ति महर्षि का क्या बिगड़ना था। अन्ततः युयुत्स को प्रायश्चित के लिए जाना पड़ा।