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Magazine - Year 1994 - October 1994

Media: TEXT
Language: HINDI
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जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे

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First 21 23 Last
इन दिनों प्रायः लोग कहते सुने जाते हैं कि ईश्वर यदि समदर्शी होता, तो संसार में इतनी विषमता दृष्टिगोचर नहीं होती, जितनी संप्रति दिखाई पड़ रही है। कहीं तो कुबेर जितनी संपदा और कहीं इतनी विपन्नता कि मुश्किल से पेट भरे। कहीं स्वर्ग-सुख का आनंद, तो कहीं नरक जन्य दारुण व्यथा। इन विपरीतताओं को देखते हुए क्या ईश्वर पर यह आरोप नहीं लगता कि वह पक्षपाती है और संसारी लोगों की ही तरह कमीशन लेकर सुख-दुःख बाँटता है? भली बुरी-बुरी परिस्थितियाँ विनिर्मित करता है?

इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में यदि कर्म-फल-व्यवस्था का गहराई से अध्ययन करें, तो हम पायेंगे कि भगवान का इनसे कोई लेना-देना नहीं है। न तो वह किसी की प्रशंसा से बाग-बाग होकर किसी को धनपति बनाता है, न किसी की आलोचना से कुपित होकर उस पर कहर बरपाता है। यदि ऐसी बात रही होती, तो साम्यवादी देशों के नास्तिकों को, जो उस पर विश्वास नहीं करते और गालियाँ देते हैं, बरबाद कर देता, पर देखा जाता है कि समाजवाद के जन्म से लेकर अब तक वे फलते, फूलते और विकास करते आ रहे हैं। केवल उस सत्ता को न मानने से ही उनकी प्रगति रुकी हो और कोई ऐसी हानि हुई हो, जो आस्तिकवादी देशों के लोगों को न होती हो-ऐसा अब तक देखा नहीं गया है। जब प्रत्यक्ष निंदा-भर्त्सना का उस पर कोई असर नहीं पड़ता, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि निजी जीवन में जाने-अनजाने होने वाली गलतियों के फल का जिम्मेदार वह है। किसी ने किसी की हत्या की, तो वह उसे रौरव में झोंक दे और जिसने समाज-सेवा का पुण्य किया, उसे आनंददायक परिस्थितियाँ प्रदान करे। यह काम परमसत्ता का नहीं। भला दुनिया के 600 करोड़ मनुष्यों में से प्रत्येक के पल-पल के कर्मों का सूक्ष्म लेखा-जोखा रखने की झंझट में वह क्यों कर पड़ेगा और क्यों मनुष्यों की नजरों में बुरा बनने का कलंक सिर पर उठायेगा? उसके लिए करने को और भी उच्चस्तरीय काम हैं, फिर अनावश्यक मुसीबत क्यों मोल लेगा?

सच तो यह है कि इस जीवन-उद्यान में कर्म के रूप में हम जो कुछ बोते हैं, वही काटते रहते हैं। यह नगद धर्म की तरह है-क्रिया की प्रतिक्रिया जैसा है। न तो इसमें परमात्मा की कोई भागीदारी है, न इससे कोई सरोकार है। यहाँ अच्छा-बुरा जो कुछ हम भोगते हैं, सब कुछ कर्मों की प्रकृति और फल की स्वसंचालित प्रक्रिया के हिसाब से हमें मिलता रहता है। कुछ हाथों-हाथ तत्काल, तो कुछ फसल बोने और काटने जितने मध्याँतर के बाद। कुछ की प्रतिक्रिया शीघ्र परिणाम प्रस्तुत कर देती है, जबकि कुछ में लंबा समय लग जाता है। किसी ने बेईमानी की, चोरी, डकैती, हत्या, अपहरण जैसे कुकृत्य किये, तो उसकी सजा उसे तत्काल मिल जाती है। समाज दंड के रूप में इसको भोगना और घृणा, निंदा, अवमानना के रूप में सहना पड़ता है। किसी ने किसी का अपमान किया, तो उसे इस कर्मफल व्यवस्था के अंतर्गत सम्मान नहीं मिल सकता। उसका अपना ही दुष्कर्म उसको अपने घेरे में लेगा और समयाँतर में वही अपमान, अपयश बनकर बरस पड़ेगा-यह-क्रिया-प्रतिक्रिया का अकाट्य सिद्धाँत है। इसमें तनिक भी हेर-फेर की गुंजाइश नहीं।

जो गहरे जल में उतरेगा, उसका डूबना संभावित है। सड़क पर असावधानी बरतने पर दुर्घटना घट ही जाती है। ऐसे में कोई ईश्वर को दोष दे, तो इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। वास्तव में कर्मों के शुभाशुभ परिणाम क्रिया के ही भीतर निहित हैं। जिस प्रकार बीज के अंदर वृक्ष प्रच्छन्न होते हैं, वैसे ही अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा फल कर्मों की प्रकृति के अनुरूप मिलता रहता है। बीज यदि अच्छे हों, तो फसल अच्छी होकर रहेगी, जबकि खराब बीज से अच्छे साधन भी अच्छी फसल नहीं ले सकते। परिस्थितियाँ वातावरण, खाद, पानी जैसे बाह्य कारक तो न्यून अंशों में ही फसल को प्रभावित कर पाते हैं। मुख्य कारक तो बीज के अंदर मौजूद हैं। वह यदि अच्छा हुआ, तो परिस्थितियों की प्रतिकूलता में भी वह अपने स्तर का प्रमाण-परिचय दिये बिना न रहेगा, जबकि घटिया बीज अनुकूल परिस्थिति में भी यथावत् बने रहते हैं। कारण एक ही है-बीज की गुणवत्ता, जो भले-बुरे परिणाम को अपने में सँजोये रहती है।

इस सिद्धाँत के आधार पर उन कर्मों की व्याख्या आसानी से हो जाती है, जिसमें व्यभिचार, पापाचार जैसे अनैतिक कृत्य करने पर भी फल नहीं मिल पाये हों। यहाँ समय की देरी को परिणाम की निष्फलता नहीं मान लिया जाना चाहिए और न यह भ्रम पालना चाहिए कि किया गया कुकर्म समाज और संसार से छिपा हुआ होने के कारण उसके फल से व्यक्ति बच जायेगा। हाँ, यह संभव है कि राजदंड के न्याय विधान से वह बच जाय, पर ध्वनि की प्रतिध्वनि तो होकर रहेगी। काया की छाया सदा साथ चलती है। इसको मिटा पाना असंभव है। देह जैसी होगी, उसी के अनुरूप उसका प्रतिबिंब भी लंबा, पतला, मोटा, छोटा होगा। इसके स्वरूप को बदल पाना संभव नहीं। फिर कर्मफल तो मनुष्य की पहुँच से निताँत परे है। भला उसे वह कैसे बदल सकता है? उससे बच पाना भी शक्य नहीं। उत्थान-पतन, रोग-नीरोग जैसी परिस्थितियाँ भी उन कर्म-बीजों के ही नतीजे हैं, जो कभी पूर्व में बोये गये थे।

इस प्रकार यहाँ जो कुछ बोया जाता है, वही काटने का विधान है। बुवाई और कटाई में यदा-कदा देरी हो सकती है। इतने पर भी सच यह है कि काटा वही जायेगा, जो बोया गया था, इससे न्यूनाधिक कुछ भी नहीं। चूँकि इसमें कर्मफल की स्वसंचालित प्रक्रिया के अनुसार कर्ता को दंड-पुरस्कार मिलता है, अतः ईश्वर को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार दीवार पर गेंद मारने से वह मारने वाले की ओर उलटी लौट आती है। इसमें न गेंद का दोष है, न दीवार का। स्वसंचालित न्याय-विधान को तब मनुष्य और सरलता से समझ पाता, यदि हर एक को अपने पिछले जन्म देख लेने जितनी दिव्य दृष्टि मिली होती। फिर व्यक्ति आसानी से जान पाता कि आज वह जो कुछ भुगत रहा है, वह उसके कल के कर्मों की परिणति है। किंतु कर्म फल विधान प्रक्रिया के अनुसार यह सब मुहर बंद है।

कर्मफल की उक्त व्याख्या वैज्ञानिकों, कम्युनिस्टों एवं नास्तिकों जैसे अनीश्वरवादियों के लिए भी उतना ही मान्य है, जितना आस्तिकों के लिए। अंतः उन्हें इस भ्राँति में नहीं पड़ना चाहिए कि उनके समाज और समुदाय में ईश्वरीय सत्ता की अवधारणा नहीं होने मात्र से ही वे कर्मों के फल से बचे रह जायेंगे। कर्मफल का वास्तविक कारण स्वयं कर्ता के कर्म हैं। इसे भली-भाँति समझ लेने पर वह सुस्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता आप है।

First 21 23 Last


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October 1994
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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