
परम वंदनीया माताजी का अपने स्वजनों के लिए अंतिम संदेश
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भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितंबर 1994
जिन चरणों में अपने आप को समर्पित किया, उनके बिना जीवन का एक-एक क्षण पीड़ा के पहाड़ की तरह बीत रहा है। जिस दिन उनके पास आई, उस दिन का पहला पाठ था-पीड़ित मानवता की सेवा और देवसंस्कृति का पुनरोदय, सो अपने आप को उसी में घुला दिया। यद्यपि यह एक असह्य वेदना थी तथापि महाप्रयाण से पूर्व परमपूज्य गुरुदेव की आज्ञा थी कि अपने उन बालकों की अँगुली पकड़कर उन्हें मिशन की सेवा के मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ा दूँ। जिन्हें अगले दिनों उत्तरदायित्व सँभालने हैं। पिछले चार वर्षों में मिशन जिस तरह आगे बढ़ा, वह सबके सम्मुख है, जो मैं देख रही हूँ। आगे का भविष्य तो इतना उज्ज्वल है-जिसे कल्पनातीत और चमत्कार कहा जा सकता है। उसके लिए जिस पुरुषार्थ की आवश्यकता है, हमारे बालक अब उसमें पूर्णतया प्रशिक्षित हो गए हैं।
शरीर यात्रा अब कठिन हो रही है। उनके जाने के पश्चात् से आज तक पीड़ा अब आँसू रोक नहीं पा रही, सो मुझे उन विराट् तक पहुँचना अनिवार्य हो गया है। यह न समझें हम स्वजनों से दूर हो जायेंगे। परम पूज्य गुरुदेव के सूक्ष्म एवं कारण सत्ता में विलीन होकर हम अपने आत्मीय कुटुँबियों को अधिक प्यार बाँटेंगे, उनकी सुख-सुविधाओं में अधिक सहायक होंगे।
हमारा कार्य अब सारथी का होगा। दुष्प्रवृत्तियों से महाभारत का मोर्चा अब पूरी तरह हमारे कर्तव्यनिष्ठ बालक सँभालेंगे। सभी क्रियाकलाप न केवल पूर्ववत् संपन्न होंगे, वरन् विश्व के पाँच अरब लोगों के चिंतन, जीवन, व्यवहार, दृष्टिकोण में परिवर्तन और मानवीय संवेदना की रक्षा के लिए और अधिक तत्पर होकर कार्य करेंगे। हम तब तक रुकें नहीं, जब तक धरती पर स्वर्ग और मनुष्य में देवत्व का अभ्युदय स्पष्ट दृष्टिगोचर न होने लगे।
*समाप्त*