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Magazine - Year 1994 - October 1994

Media: TEXT
Language: HINDI
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विशेष लेख-2 - ऋषि युग्म का सुनियोजित लीला-संदोह

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अक्टूबर सन् 1959 की “अखण्ड -ज्योति” पत्रिका के पृष्ठ 4 पर एक लेख छपा था-”अखण्ड-ज्योति के उत्तरदायित्वों में परिवर्तन-लेखिका के स्थान पर लिखा था-”भगवती देवी शर्मा धर्मपत्नी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य।” लेख का शीर्षक पढ़कर सब चौंके कि अकस्मात् यह परिवर्तन क्यों? संपादक के रूप में तो हम आचार्य श्री को ही जानते क्यों हैं? उनने अपना नाम यो दायित्व क्यों माताजी को सौंप दिया क्या वे अब हमें पत्रों-पत्रिकाओं-स्थूल दर्शनों के माध्यम से नहीं मिलेंगे? तरह-तरह की जिज्ञासायें सभी के मन में थीं। माताजी ने बड़े सरल भाव से उस लेख में लिखा था-”अखण्ड-ज्योति के इस अंक पर संपादक के स्थान पर मेरा नाम पढ़कर पाठकों को आश्चर्य होगा।” काफी दिन हो गये परिवार के परिजनों की भोजन व्यवस्था का कार्य मेरे जिम्मे है”-”वह कार्य मेरे स्वभाव का एक अंग बन गया है। परिवार के परिजनों आगंतुक अतिथियों की आये दिन बड़ी संख्या देखकर मुझे भोजन संबंधी अधिक कार्यभार की वृद्धि से परेशानी होना तो दूर उलटे दूने आनंद की अनुभूति होती है। बहुत दिनों से मेरी यही कार्यशैली रही है। अब उस कार्य से भिन्न “अखण्ड-ज्योति” के संपादन के कार्य भी मुझे संलग्न देखकर पाठकों को निश्चय ही आश्चर्य होगा।” आगे पाठकों को हुए असमंजस का समाधान भी था।

उनने लिखा “आचार्य जी के घर में जब से प्रवेश हुआ है तब से मैंने उन्हें देवता के रूप में पाया और परमेश्वर के रूप में पूजा हे। उनकी प्रत्येक इच्छा और आज्ञा में मुझे अपना सौभाग्य और कल्याण अनुभव होता रहा है। समय-समय पर वे मुझे कड़ी परीक्षाओं में डालते रहे हैं”-”मैंने अपने इस छोटे से जीवन (1943 से 1959) ऐसी अगणित घटनायें देखी हैं जिनमें उनके आशीर्वाद को पाकर तुच्छ व्यक्ति भी महान कार्य संपन्न कर सके हैं। उसी बलबूते पर मेरा संकोच शाँत हो जाता है और “अखण्ड-ज्योति” की गुरुतम जिम्मेदारी को अपने कंधे पर लेने का साहस किसी प्रकार समेट पाती हूँ”-”उन्हें अब फिर साधना क्षेत्र में लौटना है। अखण्ड-ज्योति का यह संपादन परिवर्तन भी इसी योजना का एक अंग है।” “पूरी बात तो उनने अभी स्पष्ट नहीं की है, पर मालूम होता है कि किन्हीं विशेष स्थानों पर किन्हीं विशेष आत्माओं के सान्निध्य में मथुरा से बहुत दूर रहने की उनकी योजना है। वे राष्ट्र के लिए एक विशेष शक्ति का आविर्भाव करने के लिए कुछ विशेष साधनात्मक कार्यक्रम बना रहे हैं।”-”अखण्ड-ज्योति का यह संपादकीय परिवर्तन भी उसी का एक पूर्व भाग माना जा सकता है।”

वस्तुतः परम वंदनीया माताजी के कंधों पर जो जिम्मेदारी मात्र बत्तीस वर्ष की आयु में ही जिन विशिष्ट उद्देश्यों के लिए पूज्यवर ने डाली थी, वह गायत्री परिवार की जीवन यात्रा में एक नया मोड़ था। वे परख रहे थे कि उनकी जीवन संगिनी-शिष्या-समर्पित साधिका उनकी आगामी हिमालय प्रवास की अवधि में जहाँ वे कठोर तप कर ऋषि सत्ताओं के सान्निध्य में प्रचंड ऊर्जा उत्पादन सेतु जा रहे थे-वेदों के अतिरिक्त पुराण-ब्राह्मण-उपनिषद्-आरण्यक सहित समग्र आर्ष ग्रंथों के भाष्य का दायित्व भी पूरा करने को संकल्पित हो प्रस्थान कर रहे थे। इस परिवार की अभिभाविका-संरक्षिका का दायित्व भी सँभाल सकेंगी या नहीं। कुल चौबीस माह की अवधि तक यह परीक्षाक्रम चला। पूज्यवर गुरुदेव वापस हिमालय प्रवास से लौटे। इस बीच दुर्गम हिमालय से जहाँ देवता-ऋषिगण श्रेष्ठ आत्मायें सतत विश्व कल्याण के निमित्त तप करती रहती हैं-हिमालय के हृदय यमुनोत्री से लेकर नंदादेवी के तपःपूत ऊर्जा पुँज क्षेत्र से “एक साधक की डायरी के कुछ पृष्ठ” भी लिख-लिखकर भेजते रहे अखण्ड-ज्योति में छपे। अखण्ड दीप इस बीच जलता रहा व वंदनीया माताजी की परीक्षा लेता रहा। पूज्य गुरुदेव ने आते ही पुनः संपादनक्रम अक्टूबर 1961 से सँभाल लिया और साधकों के मार्गदर्शन के निमित्त पंचकोशी जागरण साधना से लेकर उनके द्वारा आराधना उपक्रम के अंतर्गत युग निर्माण योजना एवं सत्संकल्प रूपी घोषणा पत्र द्वारा मिशन को एक नया मोड़ दिया।

सितंबर 1961 के “अखण्ड-ज्योति” अंक के अंतिम दो पृष्ठों 38, 39 पर बड़ी विनम्रतापूर्वक उनने लिखा कि उनके दुर्बल कंधों ने गुरुदेव की अज्ञातवास की अवधि में जो जिम्मेदारियाँ सँभाली, उनमें कई त्रुटियाँ रही होंगी, जिसके लिए वे क्षमाप्रार्थी हैं। उनने लिखा “सदा की भाँति अब पूज्य आचार्य जी ही अखण्ड-ज्योति का कार्यभार आगामी माह से स्वयं ही सँभालेंगे। यद्यपि पिछले अंकों में भी उनके ही विचार और भावनाओं की प्रतिध्वनि ही पत्रिका के पृष्ठों पर गूँजती रही है पर आगे तो स्वयं ही हम सबका मार्गदर्शन करेंगे”-”अखण्ड-ज्योति अब आत्मविकास के व्यावहारिक मार्गदर्शन की पत्रिका रहेगी”-”दस वर्षीय एक शिक्षण योजना पूज्य आचार्य जी ने बनाई है, उसी से साधनात्मक मार्गदर्शन अब चलेगा।”

एक परीक्षा पूरी हुई। कितना विधि व्यवस्था पूर्ण-सुनियोजित लीला पुरुषों का जीवनक्रम होता है-यह अखण्ड-ज्योति के पिछले पृष्ठों को पलट कर देखा जा सकता है। ठीक दस वर्ष बाद पूज्यवर ने अज्ञातवास पर मथुरा से स्थायी रूप से विदाई लेकर परम वंदनीया माताजी के कंधों पर पूरे मिशन की जिम्मेदारी सौंपकर साधना उपक्रम हेतु हिमालय प्रस्थान किया। दोनों ने जिसे कर्मभूमि बनाया था व अखण्ड-ज्योति संस्थान (घीया मंडी मथुरा) तथा गायत्री तपोभूमि (वृन्दावन रोड मथुरा) से क्रमशः साधना-लेखन एवं सत्र संचालन-प्रचार-संगठन का कार्य बखूबी 30 वर्षों तक संपन्न किया था उसे सदा के लिए छोड़कर पूज्यवर 20 जून को चले गए। परम वंदनीया माताजी को शाँतिकुँज सप्त सरोवर हरिद्वार में अखण्ड दीपक चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण करने वाली छः कुमारी कन्याएँ व तीन वरिष्ठ कार्यकर्ता गणों के साथ नीरव एकाँत में रहने का निर्देश दे गए। कैसा निष्ठुर सा लगता है यह कदम एक बैरागी संत का, जिसने जीवन भर औरों के हित स्वयं को तिल-तिल कर जलाया था, अगाध स्नेह लुटाकर एक विराट् परिवार का अभिभावक कहलवाया था, किंतु ऐसा लगता भर है। यह एक सुनियोजित कार्य स्थानाँतरण की प्रक्रिया भर थी।

परम वंदनीया माताजी के विषय में अपने विदाई संदेश में “अपनों से अपनी बात” के क्रम में मई 1971 के अंक में पूज्य गुरुदेव लिखते हैं “अभियान का दिशा निर्धारण माता जी ठीक तरह करती रहेंगी। उन्हें हमारी तरह अधिक बातें करना नहीं आता, पर आत्मिक गुणों की दृष्टि से वे हमसे कुछ आगे ही हैं, पीछे नहीं। परिवार को प्यार और प्रकाश देने की जिम्मेदारी उन पर छोड़कर हम एक प्रकार से निश्चित हैं। हमें रत्ती भर भी भय नहीं है कि आँदोलन या संगठन हमारे जाने के पीछे लड़खड़ा जाएगा।” ‘इस बाल-परिवार की साज सँभाल करने के लिए हम माताजी को छोड़ जाते हैं। वे अपनी तपश्चर्या इसी प्रयोजन में लगाती-खर्च करती हमारी परंपरा को जीवित रखेंगी।’ कितना सुव्यवस्थित शक्ति हस्ताँतरण! जबकि स्वयं वे प्रत्यक्ष सशरीर आगामी गायत्री जयंती के पूर्व वहीं शाँतिकुँज आकर रहने वाले थे, किंतु उनने स्वयं को पीछे कर लिया व प्रत्यक्ष भूमिका आमूलचूल परमवंदनीया माताजी को सौंप दी।

इसके पश्चात् पूज्यवर की सुनियोजित पाँच पंचवर्षीय योजनाएँ आरंभ हुईं जिनमें प्रारंभिक चार में दोनों गुरुदेव व माताजी को तथा अंतिम में मात्र परम वंदनीया माताजी को ही सक्रिय भूमिका निभानी थी। 1971 में जब परम वंदनीया माताजी ने पत्रिका संपादन से शक्ति उपार्जन, अनुदान वितरण की महतीं जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली तब यह 1959 की तुलना में और भी अधिक कठिन कार्य था। नया स्थान, नन्ही-नन्ही कुमारी कन्याएँ जिन्हें साधना पथ पर प्रशस्त करना था तथा श्री बलराम सिंह परिहार सहित मात्र तीन कार्यकर्ता। शाँत-साधना के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान, किंतु मथुरा में आते-जाते रहने वाले आगन्तुक दर्शनार्थी यहाँ थे, पूज्यवर भी साथ नहीं थे। अतः यह और भी कड़ी परीक्षा की घड़ी थी।

“अपनों से अपनी बात” के क्रम को जारी रखते हुए जुलाई 1971 की अखण्ड-ज्योति में “पत्रिकाओं का संपादन और-मैं” शीर्षक से वंदनीया माताजी लिखती हैं “मेरे लिए मेरे गुरु, अवलंबन और भगवान आचार्य जी ही हैं। उनकी आज्ञानुवर्तिनी और इच्छा अनुगामिनी बनने के अतिरिक्त और कभी कुछ सोचा नहीं। सो मथुरा छोड़ने, हरिद्वार रहने, चौबीस लक्ष्य के उन जैसे चौबीस पुरश्चरण करने के आदेश शिरोधार्य करने के अतिरिक्त और कुछ सोच ही नहीं सकती थी-”संपादक की जगह पर कानूनी दृष्टि से किसका नाम छपता है, इसका कुछ मूल्य-महत्व नहीं, वस्तुतः स्थिति यही रहेगी कि भूतकाल की तरह भविष्य में भी गुरुदेव के विचार ही परिजनों को निरंतर उपलब्ध होते रहेंगे। “अखण्ड-ज्योति शत-प्रतिशत उन्हीं की अभिव्यक्तियों से आगे भी उसी तरह परिपूर्ण रहेगी, जैसी अब तक रही है।” कितनी सरलता व विनम्रता से दिया गया आश्वासन है पाठकों को? वह पूरी तरह निभा भी। पूज्यवर के प्राण चेतना का प्रवाह “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका के रूप में परिजनों तक पहुँचता रहा व क्रमशः पाठकों-उसके निर्धारणों को जीवन में उतारने वालों की संख्या बढ़ती चली गई। अपना पूर्व से चला आ रहा संकल्प उसने पूरी तरह निभाया-लागत मूल्य पर पत्रिका सभी को मिले तथा उसमें किसी प्रकार का विज्ञापन न प्रकाशित हो यह आज भी निभ रहा है।

पूर्व में निर्दिष्ट पंचवर्षीय योजनाओं को जरा हम परिजनों के समक्ष खोल दें कि किस सुनियोजित ढंग से 1971 के बाद से 2001 तक के समय का पूज्यवर पूर्व से विभाजन कर गये थे। इससे महापुरुषों के लीला संदोह को समझने का भी अवसर सभी को मिलेगा। 1972 में जनवरी माह के उत्तरार्ध में कुछ समय के लिए माताजी की अंतर्वेदना को जो कार्य भाराधिक्य एवं अचानक आए हृदय के दौरे से उठीं थीं सुनते हुए पूज्यवर दुर्गम हिमालय में जहाँ थे, वहीं से सीधे शाँतिकुँज आये। माताजी के लिए वह एक अलौकिक रोमाँचकारी क्षण था। सारा कष्ट संताप उनको देखते ही दूर हो गया। ठीक भी है, शक्ति स्वरूपा को हो भी क्या सकता था। इन पंक्तियों का लेखक जनवरी 1972 के उन क्षणों का साक्षी है, जब पूज्यवर ने अपनी सारी आगामी योजनाएं हृदयाघात के कष्ट से उबर रहीं वंदनीया माताजी को समझायीं तथा जैसे आये थे वैसे ही वे चले गये, पुनः गायत्री जयंती तक कभी भी आने का आश्वासन देकर। अप्रैल 1972 की “अखण्ड-ज्योति” की “अपनों से अपनी बात” में “गुरुदेव क्यों आये? क्यों चले गये?” शीर्षक से परम वंदनीया माताजी ने विस्तार से इन सभी घटनाक्रमों का, भावी योजनाओं-प्राण प्रत्यावर्तन से लेकर अन्य सत्रों की भूमिका पर विवेचन प्रस्तुत किया है, जो कि प्रथम पंचवर्षीय योजना में पूज्यवर के अज्ञातवास के बाद प्राण प्रत्यावर्तन के, जीवन साधना के, वानप्रस्थों आदि के महत्वपूर्ण शिक्षण सत्र ऋषि परंपरा के बीजारोपण प्रक्रिया के अंतर्गत चलने थे। 1975 तक यही क्रम चला। इस बीच पूज्यवर पहले विदेश प्रवास पर तेजनिद्या व केन्या की यात्रा पर पानी के जहाज से गये तथा डेढ़ माह बाद फरवरी 1973 में लौट आये। प्रवासी भारतीयों को भी लगा कि कोई हमारा अपना भी है, जो मीलों दूर से हमारी संस्कार परंपरा को पुनर्जीवित करने आया है। देव संस्कृति का विश्वसंस्कृति में विस्तार का यह प्रारंभिक चरण था, जो बाद में 1991 से 1994 में विराट् रूप लेकर सारे विश्व भर में फैल गया “समस्त विश्व को भारत के अस्त्र अनुदान” नाम का ग्रंथ इसी के बाद लिखा गया, जिन्हें संस्कृति-इतिहास का मील का पत्थर माना गया।

1976 तक वंदनीया माताजी की तपःपूत बालिकाएँ अनुष्ठान संपन्न कर नारी जागरण सत्रों का संचालन कर रहीं थीं। पूज्यवर का प्रत्यक्ष शिक्षण ले, एक नयी लहर “नारी जागरण” की पूरे भारत में फैली व पाँच-पाँच देवकन्याओं के जत्थे प्रव्रज्या पर निकल पड़े। तीन-तीन माह के नारी जागरण सत्र शाँतिकुँज में चलने लगे। इसी बीच ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की भी स्थापना हो गयी। गंगा तट पर कणाद ऋषि की तपोभूमि में विनिर्मित इस शोध संस्थान में देश-विदेश से ढेरों शोध ग्रंथ एवं उपकरण जुटाए गए तथा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का ढाँचा खड़ा किया जाने लगा। युवा, सुशिक्षित, चिकित्सक व वैज्ञानिक आवीवन काम करने आ गए। तृतीय पंचवर्षीय योजना 1980 के पूर्वार्ध में आरंभ हुई, जब पूज्यवर ने प्रज्ञापीठों, शक्तिपीठों, स्वाध्याय मंडलों के निर्माण व संगठन को सुव्यवस्थित बनाने का निर्देश किया। देखते-देखते भव्य निर्माण होते चले गए व दो वर्ष तक पूज्यवर स्वयं प्रवास पर गए एवं अनेकों शक्तिपीठों में प्राण प्रतिष्ठा अपने हाथों संपन्न की।

1984 का आरंभ ही चौथी पंचवर्षीय योजना में उनके द्वारा सूक्ष्मीकरण साधना से हुआ। तत्पश्चात् वसंत 1986 से भारत भर में युग संधि महापुरश्चरण साधना का तीव्र गति से संपादन, राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों व 108 कुँडीय महायज्ञों का भारत भर में सम्पन्न होने के साथ दीप महायज्ञों का प्रचलन घर-घर होना उत्तरार्ध की चौथी व अति महत्वपूर्ण योजना का अंग था। अंतिम 6 माह में पूज्यवर ने महाकाल की प्रेरणा के क्राँतिधर्मी साहित्य विरवित कर इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य के रूप में परिष्कृत प्रतिभा द्वारा लाये जाने की घोषणा की। उनने 2 जून 1990 (गायत्री जयंती) को महाप्रयाण के साथ ही सारी शक्ति परम वंदनीया माताजी को सौंप कर सूक्ष्म में स्वयं को विलीन कर मिशन को प्रचंड शक्ति संपन्न बना दिया।

पूज्यवर के श्रद्धाँजलि स्वरूप आयोजित 4 अगस्त 1990 के आगाखाँ आडिटोरियम नयी दिल्ली के कार्यक्रम तथा विराट् श्रद्धाँजलि समारोह (1, 2, 3, 4 अक्टूबर 90) से ही पाँचवीं पंचवर्षीय योजना आरंभ हुई जिसका संचालन परमवंदनीया माताजी को प्रत्यक्षतः 19 सितंबर 1994 तक करना था। शक्ति साधना समारोहों, संस्कार महोत्सवों, रजवंदन समारोहों, विराट शपथ समारोह तथा देवसंस्कृति दिग्विजय अभियान के निमित्त संपन्न 15 भारत में तथा 3 विदेश के अश्वमेध महायज्ञों द्वारा मिशन की गति सौ गुनी बढ़कर मिशन के पक्षधरों की संख्या साढ़े पाँच करोड़ से अधिक जा पहुँची। इन 18 आयोजनों तक की जिम्मेदारी प्रत्यक्ष रूप से परम वंदनीया माताजी ने ली थी। बुलावा आते ही उनने अपनी चेतना को समेटा व सूक्ष्मीकृत हो अपने इष्ट के साथ जा मिलीं। समय भी चुनकर महालय श्राद्धारंभ का निर्धारित किया, जो भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितंबर का था व 11:50 घड़ी में बजे थे।

महाप्रयाण से पूर्व अगली दो पंचवर्षीय योजनाओं के क्रम में 90 और अश्वमेधी पराक्रम आगामी 2005 तक पूरे विश्व में संपन्न किये जाने का निर्देश दे गयी हैं एवं यह अपौरुषेय सा लगने वाला भागीरथी कार्य निश्चिंत ही संपन्न हो कर रहेगा, ऐसा सभी का दृढ़ विश्वास है। तब तक देव संस्कृति विश्वसंस्कृति बन जाएगी एवं घर-घर में गायत्री मंत्र की प्राण ऊर्जा एवं यज्ञ की सुवास संव्याप्त हो सकेगी, मानव में देवत्व व धरती पर स्वर्ग के अवतरण का ऋषि युग्म का स्वप्न साकार होगा, ऐसा आश्वासन दुर्गम हिमालयवासी ऋषि सत्ताओं का है जो विश्व व्यवस्था का इन दिनों संचालन कर रही हैं तथा जिनके साथ ही परम वंदनीया माताजी की सत्ता एकाकार हुई है।

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October 1994
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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