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Magazine - Year 1994 - October 1994

Media: TEXT
Language: HINDI
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विशेष लेख-3परम वंदनीया माताजी की जीवन-यात्रा - ममत्व लुटाकर जिस महासत्ता ने यह विराट् परिवार बनाया

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माताजी, स्नेह सलिला, परम वंदनीया, शक्ति स्वरूपा, सजल श्रद्धारूपा, वात्सल्यमयी माँ कितने ही नामों से जन-जन तक परिचित माता भगवती देवी शर्मा, जिन्हें स्वयं पूज्यवर गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी भी “माताजी” नाम से संबोधित करते थे, का जीवन श्रद्धा और समर्पण का, ममत्व विस्तार एवं अनुदान वितरण से भरी एक ऐसी अनूठी जीवन-यात्रा का परिचायक है, जो विरले ही देखने में आता है। आगरा नगर के हृदय क्षेत्र में जन्मीं माताजी का जीवन परिचय अभी तक हमारे पाठकों-परिजनों तक अविज्ञात ही रहा है। उनने थोड़ी सी झलक भर देखी है, उनके प्रारंभिक जीवनक्रम की। बहिरंग में तो 1958 के सहस्र कुँडीय महायज्ञ से लेकर 1994 के चित्रकूट अश्वमेध महायज्ञ तक वे पूज्य गुरुदेव की एक समर्पित शिष्या-स्वरूप सत्ता दिखाई देती है, किंतु उनका जीवनकाल जो 69 वर्षों का रहा, के प्रारंभिक क्षणों से लेकर अंत तक के ऐसे कई दुर्लभ संस्मरण, घटना, प्रसंग हैं, जो बताते हैं कि गायत्री परिवार रूपी वट-वृक्ष की स्थापना में उनका योगदान कितना बहुमूल्य रहा।

इन अविज्ञात प्रसंगों को परिजनों तक पहुँचाने (दिसंबर 94 विशेषाँक के द्वारा) के पूर्व एक दृष्टि मातृसत्ता की जीवन-यात्रा पर डालना समीचीन होगा। आश्विन कृष्णा संवत् 1982 20 सितंबर 1926 को प्रातः 8 बजे सावलिया बौहरे धारा के श्री जसवंतराय के घर पर उनका जन्म चौथी संतान के रूप में हुआ। जन्म के समय ही द्रष्टा, भविष्यवक्ताओं ने बताया कि एक दैवी सत्ता शक्ति के रूप में उनके घर आयी है। साधारण से असाधारण बनती हुई यह ऐसे उत्कर्ष को प्राप्त होगी कि करोड़ों व्यक्तियों की श्रद्धा का यह पात्र बनेगी, हजारों-लाखों व्यक्ति इन अन्नपूर्णा के द्वार पर भोजन करेंगे व कोई भी कभी भी इसका आशीर्वाद पा लेगा तो खाली नहीं जाएगा। जीवन के प्रारंभिक वर्षों के संबंध में आगरा वासी, जिन्हें वे क्षण देखने को मिले-बताते हैं कि एक ऐश्वर्यशाली संपन्न घर में जन्म लेने के बावजूद सादगी भरा जीवन ही उन्हें पसंद था। रेशमी कीमती वस्त्रों की तुलना में वे गांधी की बात कह कर सभी को खादी अपनाने की प्रेरणा देती थीं व स्वयं भी वही पहनती थीं। औरों को भोजन कराने-उनका आतिथ्य करने-उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार में वे सबसे आगे बढ़ कर चलती थीं व जिसने भी एक बार उनके हाथों प्यार भरे स्पर्श के साथ भोजन कर लिया, वह उन्हें सदा याद रखता था। बड़े भाई व बहन उन्हें प्यार से “लाली” तब भी कहते थे, व अब जब वे करोड़ों की माताजी बन गयीं, तब भी निःसंकोच कहते रहे, वे वैसा ही प्यार व सम्मान उन्हें देती रहीं। अपनी स्वयं की पूजा-स्थली में शंकर जी की स्थापना कर नित्य पूजा करना, सूर्य की ओर देखकर ध्यान करना, परिवार वालों के लिए एक आश्चर्य की बात थी। क्योंकि किसी ने उन्हें यह सिखाया नहीं था। यह ईश्वराधना स्वतः स्फूर्त थी तथा उनके पूर्व जन्म के दिव्य संस्कारों का परिचय दे सबको आने वाले समय में उनके महत्वपूर्ण होने का आभास देती थी।

यह एक विलक्षण संयोग ही है कि 1926 के वर्ष में तीन महत्वपूर्ण घटनाएं एक साथ घटीं। सतयुग के आगमन की संधि वेला में श्री अरविंद ने इसे सिद्धि वर्ष का वर्ष कहा व पाण्डिचेरी से अपने सभी परिजनों को संबोधित करके कहा कि परिवर्तन की प्रक्रिया अब तीव्र वेग लेगी। उसी वर्ष आगरा नगर से यमुना पार उसी जिले की एक तहसील एतमादपुर के छोटे से गाँव आँवलखेड़ा नामक ग्राम में जो आगरा-जलेसर मार्ग पर 15 मील की दूरी पर स्थित था, 15 वर्षीया युवा साधक श्रीराम की पूजा कोठरी में दिव्य प्रकाश के ऊर्जा पुँज के रूप में एक सूक्ष्म शरीरधारी गुरुसत्ता का प्रकटीकरण हुआ, जिसने उन्हें उनके पूर्व जन्मों का तथा आगामी जीवन के 65 वर्षों के कार्यकाल का बोध कराके प्राण दीक्षा दी-गायत्री महाविद्या को जन-जन तक पहुँचाने के लिए 24-24 लक्ष के चौबीस वर्ष तक 24 महापुरश्चरण संपन्न करने व अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलित कर उस ज्योति के प्रकाश से विश्व-वसुधा के कल्याण के निमित्त स्वयं को तपाने का निर्देश दिया। “श्रीराम मत्त” नाम से संबोधित यही युवा साधक बाद में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य-वेदमूर्ति-तपोनिष्ठ-युगऋषि-प्रखर प्रज्ञा रूपेण महाकाल की संबा प्राप्त कर गायत्री परिवार के अधिष्ठाता बने तथा उनकी जीवन संगिनी बनने का सौभाग्य भगवती देवी जी को मिला, जो दीपक प्रज्ज्वल वाले वर्ष 1926 में ही जन्मीं थी। 1943 में विवाह के बाद पहले आँवलखेड़ा, फिर मथुरा और बाद के चौबीस वर्षों में वे हरिद्वार के सप्त सरोवर स्थित शाँतिकुँज में रहीं। प्रारंभिक 45 वर्ष ब्रज भूमि में व अंतिम 24 वर्ष पावन पुण्य सप्तर्षियों की तपःस्थली में बीते, पर हर पल समर्पण-साधना में, जनहित के लिए तिल-तिल कर गलने में तथा स्नेह व ममत्व को लुटाने में ही नियोजित हुए।

विवाह के बाद बड़ी प्रतिकूल परिस्थितियों में वे उस जमींदार घराने में पहुँची, जहाँ आचार्य जी ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन जी रहे थे। जैसा पति का जीवन, वैसा ही अपना जीवन, जहाँ उनका समर्पण-उसी के पति अपना भी समर्पण यही संकल्प लेकर वे जुट गयीं, कंधे से कंधा मिलाकर पूर्वजन्मों के अपने आराध्याध्य-इष्ट के साथ। चौबीस वर्ष के चौबीस महापुरश्चरणों का उत्तरार्ध चल रहा था। उनने गायों को जौ खिलाकर गोबर छानकर-उनसे जौ निकालकर उसकी रोटी व छाछ पूज्य गुरुदेव को खिलायी, उनके अखण्ड दीपक की रक्षा की। हर आने वाले अभ्यागत का आतिथ्य कर घर में जो भी था, उसी से उसकी व्यवस्था की। बच्चों के लिए आए दूध में पानी पड़ता जाता व उसी से चाय बनाकर दुःखी-पीड़ितों की सेवा की जाती-कष्ट सुने जाते व घावों पर मलहम लगाए जाते। मात्र 200/- रुपये की आय में दो बच्चे, एक माँ स्वयं दो, पाँच व्यक्तियों की व्यवस्था उन सौ-डेढ़ सौ व्यक्तियों के अतिरिक्त करना, जिनका अखण्ड-ज्योति संस्थान आना नित्य होता ही रहता था, मात्र उन्हीं के वश की बात थी। हाथ से कागज कूटकर बनाना उसे सुखाना व फिर उससे पैर से चलने वाली हैंडल प्रेस द्वारा छोटे-छोटे ट्रैक्ट व “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका छापना, उन पर पते लिखकर डिस्पैच करना, बच्चों की पढ़ाई की, देखभाल की व्यवस्था-यह सब अकेले ही उनने किया। इस बीच उनने पूज्य आचार्य जी की पहली पत्नी से उत्पन्न दो संतानों श्री ओमप्रकाश व श्रीमती दयावती शर्मा की विवाह की व्यवस्था की। भले घरों से बहू आयीं, व लड़की भेजी गयी व अपनों से अधिक प्यार दिया गया, जिसे अंत तक निभाया गया। आज भी दोनों श्री ओमप्रकाश जी शर्मा व श्रीमती दया उपाध्याय अपनी सगी माँ से भी बढ़कर आजीवन मिले, पर वंदनीया माताजी के प्यार को याद कर-करके द्रवित हो उठते हैं।

ऐसे न जाने कितने, संबंधियों के मित्र, व गैर संबंधी दुःखी हैं, जिन्हें परम वंदनीया माताजी का अगाध स्नेह व दुलार मिला है, जिससे उन्हें सदा सही राह पर चलने की प्रेरणा मिली-राहत मिली-संवेदना का स्पर्श मिला। जब गायत्री तपोभूमि की स्थापना का समय आया, तब पूज्य गुरुदेव 108 कुँडीय यज्ञ कर 24 वर्षीय अनुष्ठान की समाप्ति करना चाह रहे थे। स्वयं अपनी ओर से पहल करके उनने अपने सारे जेवर, अपने आराध्य के कार्य को सफल बनाने के लिए दे दिये। उन्हें बेचकर गायत्री तपोभूमि की जमीन खरीदी गयी-जमींदारी के बाण्ड्स बेचकर भवन खड़ा हुआ। निजी उदाहरण प्रस्तुत हुआ तो अगणित अनुदान देने वाले आगे आते चले गये व गायत्री परिवार के बीजाँकुर को फलित-पल्लवित होने का अवसर मिला। 1958 का सहस्र कुँडीय महायज्ञ अपने आप में एक ऐतिहासिक धर्मानुष्ठान था, जिसने गायत्री के सद्ज्ञान व यज्ञ के सत्कर्म की दिशाधारा को घर-घर पहुँचा दिया। गायत्री परिवार की संरक्षिका-दुलार बाँटने वाली-मातृ सत्ता के रूप में उनका आविर्भाव हुआ तथा 1959 से 1961 तक पूज्यवर के हिमालय प्रवास-तप साधना में उनने वह सारी जिम्मेदारी निभाई, जिसकी चर्चा हम पहले के लेख में कर चुके हैं। कड़ी परीक्षा की घड़ी तब आयी, जब साढ़े सात वर्ष पूर्व ही पूज्य आचार्य जी ने अपने हिमालय जाने व कर्मभूमि को स्थायी रूप से छोड़ने का संकल्प ले लिया। बाहर से रुद्र व योद्धा-अंदर से कोमल व यति का रूप लिये पूज्यवर ने वह सब हस्ताँतरण माताजी के कंधों पर करना आरंभ कर दिया, जो उन्हें 1971 के बाद उनके हिमालय प्रवास पर जाने पर सप्तर्षियों की भूमि सप्त सरोवर में शक्ति का स्रोत बनकर प्राप्त होने वाला था।

स्थायी रूप से घर-बार छूट गया-ममत्व देने वाली माँ समान सास जिन्हें “ताईजी” कहते थे, महाप्रयाण कर गयीं, बेटी की शादी हो गयी तो वे अपनी छः गोद ली नन्ही-नन्ही पुत्रियों, जिनसे उन्हें 24-24 लक्ष के 24 महापुरश्चरण अखण्ड दीपक के समक्ष संपन्न कराने थे, को लेकर शाँतिकुँज आ गयीं। 1971 से 1990 की अवधि उनके लिए कड़ी कसौटी वाली थी, जिसकी चर्चा हम पहले के एक लेख में कर चुके हैं। यह समय पूज्यवर के परोक्ष रूप से कार्य करने का तथा परम वंदनीया माताजी के एक संगठक के रूप में आँदोलन का संचालन करने वाली मातृ शक्ति के रूप में कार्य करने वाला समय था। इस अवधि में उनने “नारी जागरण अभियान” का शंखनाद करने वाली भारत की संभवतः पहली व एकमात्र पत्रिका का संपादन किया, चौबीस देव कन्याओं को कई गुना कर अगणित टोलियाँ क्षेत्रों में भेजीं तथा अनेकों नारी जागरण मंडल अथवा शाखाएँ सक्रिय रूप से कार्य करने लगीं। विभिन्न सत्रों का संचालन-शिविरार्थियों को अपने हाथ से बना हविष्यात्र का बना भोजन कराके, उनने लाखों परिजनों को अपने अंतःकरण की प्यार की सरिता में स्नान कराया। पूज्यवर बौद्धिक उद्बोधन देते-स्थूल व्यवस्था संबंधी निर्देश देते कभी-कभी गलती होने पर कार्यकर्ताओं को डॉट भी लगा देते, पर प्यार का मलहम माताजी द्वारा लगाया जाता था। सभी इसी प्यार की धुरी पर टिके रहे। क्रमशः परिवार बढ़ते-बढ़ते तीन करोड़ की संख्या पार कर गया।

1990 का वर्ष वसंत पंचमी की वेला में पूज्यवर द्वारा सूक्ष्मीकरण में प्रवेश व इस घोषणा के साथ आया कि अब वे सूक्ष्म में सक्रिय होंगे, किसी से नहीं मिलेंगे। अपना शरीर गायत्री जयंती 2 जून को छोड़ने की घोषणा वे पूर्व से ही इन पंक्तियों के लेखक एवं परम वंदनीया माताजी के समक्ष कर गये थे। इस अवधि में अपने पर पूरा संतुलन रख 2 जून को अपने आराध्य के महाप्रयाण के बाद करोड़ों बच्चों को हिम्मत बँधाकर उनने 1, 2, 3, 4 अक्टूबर 1990 शरद् पूर्णिमा के श्रद्धाँजलि समारोह में उपस्थित 15 लाख परिजनों के माध्यम से जन-जन को आश्वस्त कर दिया कि यह देवी शक्ति द्वारा संचालित मिशन आगे ही आगे बढ़ता चला जाएगा। कोई भी झंझावात इसे हिला न पाएगा। इसके बाद संपन्न विराट् शपथ समारोह एवं 18 अश्वमेध यज्ञ गीता के 18 अध्यायों की तरह हैं, जिन पर पृथक्-पृथक् लेखमाला लिखी जा सकती है, जिनका वर्णन हम आगामी विशेषाँक में पढ़ेंगे। परम वंदनीया माताजी की 69 वर्षीय जीवन यात्रा का समापन पूज्यवर की सूक्ष्म जगत से अंतर्वेदना भरी पुकार के रूप में गायत्री जयंती से ही आरंभ हो चुका था। चार वर्ष की आराध्य से दूरी की सीमा बंधन वाली परिधि टूट चुकी थी। लगता था, कभी भी वे अपने आराध्य से जा मिलेंगी। पूज्यवर जिस समाज-यज्ञ में समिधा की तरह जले, उसमें अपनी अंतिम हविष्य की आहुति देती हुई परम वंदनीया माताजी भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितंबर को अपने जन्मदिवस से 4 दिवस तथा पूज्यवर के काया के जन्मदिवस से 13 दिवस पूर्व महालय श्राद्धारंभ की वेला में महाप्रयाण कर उस विराट् ज्योति से एकाकार हो गयीं। उस महाशक्ति को हम सब शिष्यों का शत्-शत् नमन।

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October 1994
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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