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Magazine - Year 1994 - October 1994

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवन पद्धति वही ठीक, जो “मूड” को सही रखे

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First 8 10 Last
कई बार व्यक्ति की ऐसी अवस्था हो जाती है, जिसमें काम में मन नहीं लगता, फलतः वह आधा-अधूरा बन पड़ता है, निश्चित कर्तव्यों और दायित्वों की उपेक्षा होने लगती है, व्यवहार असामान्य हो जाता है और जिस कार्य की सफलता सुनिश्चित मानी गई थी, उसमें असफलता हाथ लगती है। ऐसा क्यों हुआ? पूछने पर पता चलता है कि “मूड” ठीक नहीं था।

आखिर यह “मूड” है क्या? मनोविज्ञानी जैजोंक के शब्दों में कहें, तो वह मानसिक अवस्था, जिसके अच्छे या बुरे होने पर व्यवहार क्रिया और परिणाम में तद्नुरूप अंतर दिखाई पड़ने लगे, सामान्य बोलचाल की भाषा में “मूड” कहलाती है। यों तो एक अस्थायी मनोदशा है, पर जब तक रहती है, आदमी को सक्रिय या निष्क्रिय बनाये रहती है। सक्रियता, उत्फुल्लता, स्फूर्ति, उत्साह, उमंग उस मनःस्थिति का नतीजा है, जिसमें वह सामान्य रूप में अच्छी होती है, जबकि बुरी मनःस्थिति में अंतरंग निष्क्रिय, निस्तेज, निराश और निरुत्साह युक्त अवस्था में पड़ा रहता है। इस प्रकार विनोदपूर्ण स्थिति में व्यक्ति यदि दिखाई पड़े, तो यह कहा जा सकता है कि वह अच्छे “मूड” में है, जबकि नैराश्यपूर्ण दशा उसके खराब “मूड” का द्योतक है।

विलियम एन॰ मोरिस ने अपने ग्रंथ “मूड-दि फ्रेम ऑफ माइण्ड” में मूड बनाने और बिगाड़ने वाली परिस्थितियों को चार वर्गों में विभाजित किया है। पहली श्रेणी में उन घटनाओं को रखा है, जो हलके विधेयात्मक या निषेधात्मक स्तर की हैं, दूसरे में संवेगात्मक प्रकरणों को सम्मिलित किया गया है, तीसरी कोटि भूतकालीन आवेगात्मक स्मृतियों की है, जबकि चौथे में वह निरोध शामिल है, जो आवेश उत्पन्न करने वाले प्रसंगों की भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को रोकता है। मोरिस के अनुसार इन सभी स्थितियों में मनोभाव प्रभावित होता है और घटना के भले-बुरे स्वभाव के अनुसार उसका निर्माण होता है। यहाँ तक संपूर्ण मनोविज्ञान जगत एकमत है, पर मूड-निर्माण संबंधी प्रक्रिया में विशेषज्ञों में पारस्परिक सहमति नहीं हो सकी है। “दि साइकोलॉजी ऑफ फीलिंग एण्ड इमोशन” नामक रचना में मनोविज्ञानी सी॰ ए॰ रुकमिक लिखते हैं कि उत्तेजना पैदा करने वाला उद्दीपन जब समाप्त हो जाता है, तो आवेग भी धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगता है। इस निर्बल संवेग की अवस्था को ही वे “मूड” की संज्ञा देते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो घनीभूत आवेश की तीव्रता जब समय के साथ छितराती है, तो वही “मूड” बन जाती है, जबकि “हैण्डबुक ऑफ सोशल काँग्निशन” नामक पुस्तक में एलीस एम॰ आइसेन कुछ भिन्न मत प्रकट करती हैं। उनका मानना है कि उत्तेजना और मूड साथ-साथ उत्पन्न होते और समानान्तर रह कर कार्य करते हैं। दोनों का प्रादुर्भाव एक ही घटना से होता है। वे किसी ऐसी प्रक्रिया से इनकार करती हैं, जो आवेग की निर्बलता के उपराँत “मूड” जैसी स्थिति पैदा करती हो। “मूड” को वह एक अवशिष्ट अवस्था मानती हैं, एक ऐसी सूक्ष्म अवस्था जो मनोवेग के आरंभ से पृष्ठभूमि में रहती तो है, पर तब तक स्वयं को अप्रकट स्तर का बनाये रहती है, जब तक आवेश एकदम क्षीण न हो जाय।

“मूड” संबंधी यह सैद्धाँतिक विवेचन समझ लेने के उपराँत हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह सदा स्वस्थ मनोदशा में रहे। यदा-कदा वह कभी गड़बड़ा जाय, तो उसे तुरंत पूर्व स्थिति में लाने की कोशिश करनी चाहिए। जिसका मानसिक धरातल जितना लोचपूर्ण होगा, वह उतनी ही जल्दी अपने इस प्रयास में सफल होता प्रतीत होगा। जो जितना शीघ्र सामान्य मानसिक अवस्था में वापस लौट आता है, मनोविज्ञान की दृष्टि से उसे उतना ही स्वस्थ मन वाला व्यक्ति कहा जा सकता है। महामानवों और महापुरुषों की मानसिक संरचना लगभग ऐसी ही होती है। वे क्रोधित नहीं होते, यह बात नहीं। गुस्सा वे भी करते हैं, पर जिस तीव्रता से वह प्रकट होता है, उसी गति से विलुप्त भी हो जाता है। सामान्य लोगों में यह विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती, इसी कारण से लंबे समय तक वह उससे प्रभावित बने रहते हैं। लगातार खराब “मूड” में बने रहने के कारण मन फिर उसी का अभ्यस्त हो जाता है और व्यक्ति अवसाद का पुराना रोगी बन जाता है।

मूर्धन्य व्यवहार त्रिज्ञानी एल॰ बुडजिया अपनी पुस्तक “डायमेन्सन्स ऑफ मूड” में अध्ययन का ब्यौरा देते हुए लिखते हैं कि आज के कठिन समय में जीवन की जटिलताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि व्यक्ति अधिकाँश समय बुरी मनोदशा में बना रहता है। गाँवों की विरल आबादी से जैसे-जैसे वह शहरों के जनसंकुल वातावरण के निकट आता जाता है, वैसे-ही-वैसे पेचीदगियाँ बढ़ती जाती हैं। इसके बढ़ने से मानस पर उसका दबाव तदनुसार बढ़ता जाता है। प्रकाराँतर से यही दबाव खराब मनःस्थिति का कारण बनता है। उनका मानना है कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ जीवन शनैः शनैः जटिल होता चला गया। आज से सौ वर्ष पूर्व मानवी जिंदगी जितनी सरल थी, अब वह वैसी रही नहीं। यही कारण है कि तब लोग खेल और मनोरंजन की तरह जितनी सहजता से तनाव रहित उन्मुक्त जीवन गुजार लेते थे, वैसा आज संभव नहीं। आदि मानवों का जीवन और भी सहज था। उन्हें न भोजन की चिंता थी न भविष्य की फिक्र। जब कभी भूख लगती जंगली कंद-मूलों एवं जंतुओं के शिकार से अपना पेट भर लेते नींद आती, तो पेड़ तले सो लेते, न घर बनाने की आकाँक्षा न संपत्ति जोड़ने की अकुलाहट, आज यहाँ, तो कल वहाँ-यही उनकी दिनचर्या थी। जहाँ इतनी सीधी सादी जिंदगी होगी वहाँ अंतःकरण प्रफुल्ल क्यों न रहेगा? वे कहते हैं कि जटिल जीवन से समस्याएँ बढ़ती हैं और उस बढ़ोत्तरी का असर मन की स्वाभाविकता पर पड़े बिना नहीं रहता।

अशाँत चित्त का दूसरा महत्वपूर्ण कारण गिनाते हुए वे लिखते हैं कि महत्वाकाँक्षाओं यों तो प्रगति के लिए अत्यंत आवश्यक है, पर वह अनियंत्रित होने पर दुख-शोक का कारण बनती है। इन दिनों वह इस कदर बढ़ी-चढ़ी है, कि मनुष्य अधिकाधिक दौलत जुटा लेने,यश कमा लेने और वाहवाही लूट लेने की ही उधेड़बुन में हर घड़ी उलझा दिखाई पड़ता है। जीवन इसके अतिरिक्त भी कुछ है, उन्हें नहीं मालूम। बस यही अज्ञानता विषण्ण मनोदशा की निमित्त बनती है। यहाँ वे प्राच्य दार्शनिकों के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहते हैं कि जीवन के वास्तविक लक्ष्य को जब तक स्मरण नहीं रखा जायेगा, तब तक अवाँछनीय आकाँक्षाओं से ध्यान हटा पाना सरल नहीं और यदि ऐसा नहीं हुआ, तो हलके-फुलके जीवनक्रम की अभिलाषा कभी न उपलब्ध हो सकने वाली मृगतृष्णा बन कर रह जायेगी।

यह सच है कि आदमी का रहन-सहन जितना निर्द्वन्द्व व निश्छल होगा, उतना ही अनुकूल उसकी आँतरिक स्थिति होगी। इसके विपरीत जहाँ बनावटीपन, दिखावा, झूठी शान, प्रतिस्पर्धा होंगे, वहाँ लोगों की मनोदशा उतनी ही असामान्य होती है। एम॰ टी॰ मेडनिक और ए॰ मेहराबियन के प्रस्तुत सर्वेक्षण से यह बात स्पष्ट हो जाती है। सर्वेक्षणकर्ताओं ने आस्ट्रिया के कई शहरों में जाकर इस बात का अध्ययन किया कि शहरी वातावरण का मानवी मनोभावों पर क्या प्रभाव पड़ता है? प्राप्त परिणाम इस बात का स्पष्ट संकेत था कि भोले-भाले ग्रामीणों की तुलना में स्वभाव से अधिक चतुर-चालाक और कृत्रिमता को अपनाने वाले शहरी लोगों का “मूड” अपेक्षाकृत ज्यादा बदतर होता है। सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि नगर निवासियों में से 66 प्रतिशत लोग ऐसे थे, जिनकी सप्ताह में औसतन पाँच से लेकर छः दिन तक मनोभूमि न्यूनाधिक अच्छी नहीं रहती। 31 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे पाये गये, जो सप्ताह में तीन से चार दिनों तक खराब “मूड” के शिकार बने रहते। शेष तीन प्रतिशत में एक प्रतिशत से भी कम लोग ऐसे निकले, जो उस अशाँत परिस्थिति में भी स्वयं को स्थिर चित्त रखने में सफल होते पाये गये, जबकि शेष ऐसे थे, जो बहुत कठिन परिस्थितियों में ही इस रुग्णावस्था की गिरफ्त में आते।

मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि जब कभी मनःस्थिति खराब हो जाय, तो उसे अपने हाल पर अपनी स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया द्वारा ठीक होने के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए। इसमें समय ज्यादा लंबा लगता है और शारीरिक-मानसिक क्षति की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए सलाह देते हुए वे कहते हैं कि इससे जिस भी प्रकार संभव हो सके, उबरने का शीघ्र प्रयास करना चाहिए। विलंब करना अपने आप को हानि पहुँचाने के समान है। अमेरिकन साइकियेट्रिक एसोसिएशन के “डायंग्नोस्टिक एण्ड ए स्टेटिस्टिकल मैनुअल” के अनुसार ऐसी मनोदशा, जिसमें रुचि और प्रसन्नता समाप्त हो जाती हो, इस स्थिति से उबर पाना जल्दी संभव नहीं होता। इससे बाहर निकलने और स्वस्थ सामान्य अवस्था में आने में करीब दो सप्ताह जितना समय लग सकता है। इतने लंबे समय तक अवसादग्रस्त स्थिति में बने रहने से शरीर के विभिन्न तंत्रों पर अनावश्यक दबाव पड़ने लगता है, जिसका प्रकट लक्षण विभिन्न प्रकार की असमानताओं के रूप में सामने आता है। ऐसी स्थिति में भूख बढ़ या घट सकती है। इसी प्रकार वजन, नींद, यौन क्रियाएँ आदि सामान्य स्तर से अधिक या कम हो सकती है। थकान, हीनभावना, कल्पना और चिंतन संबंधी अक्षमता जैसे दोष भी इस अवस्था में प्रकट हो सकते हैं। यह तो वे असमानताएं हुईं, जो व्यक्त होती और दिखाई पड़ती है। इसके अतिरिक्त ऐसे कितने ही दोष हैं जो अप्रकट स्तर के बने रहते हैं। इनमें आँतरिक क्रियाएँ और रक्त रसायनों की न्यूनाधिकता शामिल हैं। विशेषज्ञों के मतानुसार व्यथित मनोभूमि में एड्रीनल कार्ट्रेक्स से कोर्टिसोल नामक एक विशेष रसायन स्रावित होने लगता है, जिससे शरीर की चयापचय क्रिया असाधारण रूप से प्रभावित होती है। अवसादग्रस्त अवस्था में थाइराइड ग्रंथि के रस-स्राव पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ते देखा गया है। इसके अतिरिक्त और भी कितनी ही आँतरिक क्रियाओं को यह मानसिक दशा प्रभावित करती है। बाह्य लक्षणों में स्मरण शक्ति की कमजोरी, निर्णय ले सकने की अक्षमता, व्यवहार में चिड़चिड़ापन, क्रोध, आदि अनेक कमियाँ खराब “मूड” की स्थिति में उत्पन्न होते देखी जाती हैं। इसीलिए विशेषज्ञ बराबर इससे बचे रहने की बात कहते हैं।

उनके अनुसार यदि कभी “मूड” खराब हो जाय, ता एकाकी पड़े रहने की तुलना में मित्रों के साथ हँसी-मजाक में स्वयं को व्यस्त कर लेना, उससे उबरने का एक कारगर तरीका हो सकता है, पर इसके साथ जिस एक बात के प्रति मनोवैज्ञानिक सावधान करते हैं, वह यह कि “मूड” को चर्चा का विषय न बनाया जाय। इससे मनोदशा के सुधरने की अपेक्षा बिगड़ने की संभावना और बढ़ जाती है।

मनोदशा को दुरुस्त करने का एक अन्य तरीका भ्रमण भी हो सकता है। मनः शास्त्रियों का विचार है कि प्रकृति के संपर्क से मन जितनी तीव्रता से प्रकृतिस्थ होता है, उतनी तेजी से अन्य माध्यमों के सहारे नहीं होता देखा जाता, अतएव ऐसी स्थिति में पार्क, उपवन, बाग, उद्यान जैसा आस-पास कोई सुलभ स्थल हो, तो वहाँ जाकर मानसिक अवस्था को सुधारा जा सकता है। नियमित व्यायाम एवं खेल का सहारा लेकर भी मन की दरवस्था को घटाया-मिटाया जा सकता है।

आजकल अवसाद आदि मनोविकारों को भूलने के लिए शराब, गाँजा, भाँग, अफीम, ब्राउन सुगर जैसे नशीले पदार्थों का बहुतायत से सेवन हो रहा है। इनके प्रयोग से पूर्व यह बात जान लेनी चाहिए कि गमगलत करने में इनसे राहत जैसी अनुभूति अवसादग्रस्त को हो सकती है, पर यह कोई इलाज नहीं-महज विषाद को भुलाने का उपक्रम मात्र है। इससे स्थिति सुधरने की तुलना में और बिगड़ती चली जाती है, जिससे बाहर निकल पाना बाद में अत्यंत मुश्किल हो जाता है।

अंतिम उपचार अध्यात्म का है। यदि व्यक्ति भौतिकता में आध्यात्मिकता का समावेश करता चले और जीवन में आवश्यक संयम-नियम का अनुपालन करे, आवश्यकता से अधिक की आकाँक्षा और स्तर से ज्यादा की चाह में प्रवृत्त न रहे, तो मूड के खराब होने जैसी किसी भी कठिनाई से वह बचा रहेगा। यदि कभी इस बुरी मनोदशा से ग्रस्त हुआ भी, तो संयम और अनुशासन के कठोर अनुपालन के कारण जल्द ही उस स्थिति से बाहर आ जाता है। इस दृष्टि से अध्यात्मवादी अधिक लाभ में रहते हैं। वे जितनी निश्चिंततापूर्वक जीवन यापन करते हुए अपने सुनिश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते चलते हैं, उतनी शाँति और संतुष्टि भौतिकता के चकाचौंध में जीने वालों में परिलक्षित नहीं होती। अतएव उत्तम यही है कि वैसा जीवनक्रम अपनाया जाय, जिसमें अवसाद भरी मनःस्थिति में पड़ने की समस्त संभावनाएँ ही निरस्त हो जायँ। जीवन पद्धति वही अच्छी है, जो हमें शाँति और संतोष प्रदान करे एवं चरम लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ाती चले।

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October 1994
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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