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Magazine - Year 1994 - Version 2

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संस्कृति है, सौंदर्य की उपासना

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संस्कृति का अर्थ है मनुष्य का भीतरी विकास। उसका परिचय व्यक्ति के निजी चरित्र और दूसरों के साथ किये जाने वाले सद्व्यवहार से मिलता है। दूसरों को ठीक तरह समझ सकने ओर अपनी स्थिति एवं समझ धैर्यपूर्वक औरों को समझा सकने की स्थिति भी उस योग्यता में सम्मिलित कर सकते हैं जो संस्कृति की देन है।

आदान प्रदान एक तथ्य है जिसके सहारे मानवी प्रगति के चरण आगे बढ़ते-बढ़ते वर्तमान स्थिति तक पहुंचे है। कृषि, पशुपालन, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, उद्योग, विज्ञान, दर्शन जैसे जीवन की मौलिक आवश्यकताओं से संबंधित प्रसंग किसी एक क्षेत्र या वर्ग की बपौती नहीं है। एक वर्ग की उपलब्धियों से दूसरे क्षेत्र के लोग परिचित हुये है। परस्पर आदान-प्रदान चले है और भौतिक क्षेत्र में सुविधा संवर्धन का पथ प्रशस्त हुआ है। ठीक यही बात धर्म और संस्कृति के संबंध में भी है। एक ने अपने संपर्क क्षेत्र को प्रभावित किया है। एक लहर ने दूसरों को आगे धकेला है। मिल-जुल कर ही मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ा है। इस समन्वय से धर्मे और संस्कृति भी अछूते नहीं रहे है। उन्होंने एक दूसरे को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित किया है।

अब दुनिया में कोई नस्ल ऐसी नहीं बची जो पूरी तरह रक्त शुद्धि का दावा कर सके। जातियों के बीच प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से रोटी बोटी के व्यवहार चलते रहे है और नस्लों के मूल रूप में आश्चर्यजनक परिवर्तन होता चला गया है। भारत वंशी लोगों के रक्त में आर्य और द्रविड़ रक्त का मिश्रण इतना अधिक हुआ है कि दोनों से मिलकर एक तीसरी अतीव संयुक्त जाति बन गई है। इसी प्रकार एक सभ्यता पर दूसरी सभ्यता के निकट आने का भरी प्रभाव पड़ा है। भारत में पिछले एक हजार वर्ष से मुस्लिम और ईसाई सभ्यताएं आती रही है। उनके अनुयायी कितने बने यह बात पृथक है। सामान्य जनमानस ने बहुत कुछ प्रभाव ग्रहण किया है। प्रचलित भारतीय पोशाक ऐसी नहीं है, जिसे दो हजार वर्ष पुरानी कहा जा सके। इसी प्रकार रीति रिवाजों एवं मान्यताओं में भी अनजाने ऐसे तत्वों का समावेश होता रहा है जिन्हें खुले मन से न सही हिचकिचाहट के साथ समन्वय हुआ स्वीकारा जा सकता है।

यह सभ्यताओं का समन्वय एवं आदान प्रदान उचित भी है और आवश्यक भी। कट्टरता के कटघरे में मानवी विवेक को कैद रखे रहना असंभव है। विवेक दृष्टि जाग्रत होते ही इनके घरों की दीवारें टूटती है और जो रुचिकर या उपयोगी लगता है उसका बिना किसी प्रचार या दबाव के आदान प्रदान चल पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिये कट्टर पंथी प्रयास सदा से हाथ पैर पीटते रहे है पर यह कठिन रहा है। हव उन्मुक्त आकाश में बहती है सर्दी गर्मी का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होता है। इन्हें बंधनों में बाँधकर कैदियों की तरह अपने ही धर में रहने के लिये बाधित नहीं किया जा सकता। संप्रदायों और सभ्यताओं में भी यह आदान प्रदान अपने ढंग से चुपके चुपके चलता रहा है भविष्य में इसकी गति और भी तीव्र होगी।

धर्म और संस्कृति के बारे में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है। वे दोनों ही सार्वभौम है। उन्हें सर्वजनीन कहा जा सकता है। मनुष्यता के टुकड़े नहीं हो सके। सज्जनता की परिभाषा में बहुत मतभेद नहीं है। शारीरिक संरचना की तरह मानवी अंतःकरण की मूलसत्ता भी एक ही प्रकार की है। मौलिक प्रवृत्तियां भी लगभग एक सी हे। एकता व्यापक है और शाश्वत। पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही परमात्मा के अंश है। एक ही धरती पर पैदा हुये है। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह अपना गुजारा करते हैं फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बंधे रह सकते हैं। औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान प्रदान का द्वार जितना खोलकर रखा जाएगा उतना ही स्वच्छ हवा ओर रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियों को बंद रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप से मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।

एकता की दिशा में हम आगे बढ़े तो इसमें पूर्वजों के प्रति अनास्था नहीं वरन् श्रद्धा की ही अभिव्यक्ति है पूर्वज अपने पूर्वजों की विरासत को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुये भी अपने बुद्धिबल और बाहुबल से नये अनुभव एकत्रित करते, लाभ कमाते और साधन जुटाते रह है। इसमें पूर्वजों को संतोश ही हो सकता है साथ ही गर्व भी। अपनी संतान पर कोई अभिभावक यह बंधन नहीं लगाता कि हमसे अधिक शिक्षा या संपत्ति संतान को नहीं कमानी चाहिये। हमसे अधिक यश या कौशल नहीं अर्जित करना चाहिये। बंधन लगाना तो दूर समझदार अभिभावक अपने से अधिक प्रगति करने के लिये अपने उत्तराधिकारियों को उत्साहित और उत्तेजित करते हैं। ऐसी दशा में पूर्वजों की तुलना में एकता के क्षेत्र में हम कुछ कदम और आगे बढ़ सके तो इसमें असमंजस की कोई बात नहीं है। पिता जी यदि 70 वर्ष जिये और बेटा यदि 90 वर्ष जी सके तो इसमें दुख मानने की कोई बात नहीं है। सदाशयता शालीनता एकता और विवेकशीलता की दिशा में प्रगति करना मानवी प्रगति के इतिहास में एक अच्छी कड़ी और जोड़ देना ही कहा जा सकता है।

टब राष्ट्रवाद के दिन लदते जा रहे है। देशभक्ति के जुनून को अब उतना नहीं उभारा जाता जिसमें अपने ही क्षेत्र या वर्ग को सर्वोच्च ठहराया जाय अथवा विश्व विजय करके सर्वत्र अपना ही झण्डा फहराने का उन्माद उठ खड़ा हो। ऐसी पक्षपाती और आवेशग्रसित देशभक्ति तब विचारशील वर्ग में नापसन्द की जाती है और विश्व नागरिकता की वसुधैव कुटुँबकम् की बात को महत्व दिया जाता है। विश्व एकता के सिद्धाँत को मान्यता मिली है और राष्ट्रसंघ सक्रिय हुआ है। इस दिशा में प्रगति के चरण धीमे उठ रहे है। यह चिंता का प्रसंग है। अपेक्षा यही की जाती है कि संसार की व्यापक समस्याओं का समाधान विश्व एकता के बिना और किसी प्रकार संभव न हो सकेगा।

एक भाषा, एक राश्ट्र एक संस्कृति एवं एक धर्म अपनाकर ही उज्ज्वल भविष्य की विश्व शांति की स्थापना हो सकती है यह तथ्य मानवी विवेक ने स्वीकार कर लिया है और विभेद उभारने वाले तत्वों को अमान्य ठहराया जा रहा है। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में भी ऐसी ही व्यापक एकता उत्पन्न करने के लिये वातावरण बनाना होगा। राष्ट्रवाद संप्रदायवाद की तरह सभ्यतावाद की कट्टरता भी अगले दिनों क्रमशः शिथिल होती दिखाई पड़ेगी ऐसा विश्वास मन में बढ़ता जाता है। नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के लिये ऐसे एकतावादी विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता है जिसमें अपने ही पक्ष को सर्वोपरि ठहराया जाने का आग्रह न हो। अपने पराये का भेदभाव न करके औचित्य न्याय तथ्य और विवेक को ही जब मान्यता दी जाएगी तो फिर उपयोगिता स्वीकार करने की मनः स्थिति बन जायेगी तब जहाँ से भी जितनी मात्रा में तथ्य दृष्टिगोचर होगा स्वीकार किया जाएगा। इसके लिये किसी को खेद मनाने की आवश्यकता न होगी कि हमारी अमुक मान्यताओं को सर्वांश में जाग्रत विवेक ने उठाकर ही अगला पैर आगे रखा जाता है। लंबी मंजिल इसी प्रकार पूरी होती है आगे बढ़ना है तो पीछे का पैर अपने स्थान पर जमे रहने का आग्रह नहीं चल सकता।

अंग्रेजी में संस्कृति का अर्थबोधक शब्द है ‘कल्चर’। इसका तात्पर्य है सभ्यता रहन सहन एवं सोचने समझने का तरीका अपने नाम रूप धन परिवार भाषा आदि की तरह ही अपने रहन सहन की पद्धति भी लोगों को प्रिय लगती है यह प्रियता बहुधा पक्षपात के रूप में बदल जाती है। यद्यपि वह लगा ऐसा है मानो सत्य अपने ही हिस्से में आया है और दूसरे सभी गलत सोचते और झूठ बोलते अन्याय मतभेदों की तरह संस्कृति संबंधी मतभेद एक है जिसके लिये बहुत बर भयंकर युद्ध होते रहे है। व्यक्तिगत जीवन में भी विद्वेष घृणा आक्रमण प्रतिरक्षा जैसी विडंबनाएं अनेक बार संस्कृति के नाम पर भी खड़ी होती रही है और उनसे मनुष्य जाति को धन जन नीति सद्भावना शांति और सुरक्षा की दृष्टि से भारी हानि उठानी पड़ी है।

ठस प्रकार जहाँ संस्कृति का मूल अस्तित्व व्यक्ति और समाज के कल्याणकारी तत्व पर आधारित है वहाँ उसके प्रति अत्युत्साह और दुराग्रह में विद्वेष के विष बीज भी कम मात्रा में भरे हुये नहीं है। योरोप में ईसाई धर्म के प्रति और एशिया में इस्लाम धर्म के प्रति अत्युत्साह के कारण जिस निष्ठुरता का स्वरूप मध्य काल में देखने को मिला उससे उन संस्कृति प्रेमियों का गौरव बढ़ा नहीं। इन संप्रदाओं की गरिमा अंतःकरण की गहराई में प्रवेश न कर सकी। यद्यपि बहुतों ने भयभीत होकर अथवा लोभ लाभ की दृष्टि से उन्हें स्वीकार अवश्य कर लिया। पर यह स्वीकृति अंतः से उद्भूत नहीं बाहर से लादी मानी सकती है।

संस्कृति शब्द को सभ्यता से पृथक रख जा सके तो अर्थ का अनर्थ होने से बचा जा सकता है। संस्कृति देश और जाति में विभाजित नहीं हो सकती। वह मानवीय है और सार्वभौम हैं दूसरे अर्थों में उसे मनुष्यता मानवी गरिमा के अनुरूप उच्चस्तरीय श्रद्धा सद्भावना कह सकते हैं इसके प्रकाश में मनुष्य परस्पर स्नेह सौजन्य के बंधनों में बेधते हैं। सहिष्णु बनते हैं एक दूसरे के निकट आने और समझाने का प्रयत्न करते विभेद की खाई पाटते हैं पर सभ्यताओं के संबंध में ऐसा नहीं कहा जा सकता वे क्षेत्रों जातियों मान्यताओं और परिस्थितियों का कलेवर ओढ़े रहने से स्पष्टतः एक दूसरे से बहुत हद तक पृथक दीखती और कितनी ही बातों में उनके बीच असाधारण मतभेद भी है।

सभ्यताएं टकराती भी है एक सभ्यता के अनुयायी दूसरे लोगों को अपने झण्डे तले लाने के लिये उचित ही नहीं अनुचित उपाय काम में लाते हैं अपनी सभ्यता को दूसरों सभ्यता के आक्रमण से बचाने के लिये लोग सुरक्षा के भारी प्रयत्न करते हैं। ऐसे उपाय सोचते हैं जिनसे परस्पर घुलने मिलने और आदान प्रदान के अवसर न आने पावें धर्मों के बीच कट्टरता इस हद तक देखी जाती है कि दूसरे धर्म के पूर्व उपचारों में सम्मिलित होने पर भी प्रतिबंध रहता है इसी प्रकार एक सभ्यता वाले अपने लोगों को दूसरी सभ्यता वाले के वेश विन्यास को अस्वीकार करते हैं। विचारों की तुलनात्मक समीक्षा करने की तो उनमें गुंजाइश ही नहीं रहती। अपना सो श्रेष्ठतम दूसरों का सो निकृष्टतम यही अहंकार बुरी तरह छाया रहता है। सभ्यतानुयायी और धर्मावलंबी कहलाने वाले व्यक्ति ही इस पक्षपात के सर्वाधिक शिकार पाये जाते हैं।

संस्कृति सौंदर्यपासना है। एक भावभरी उदात्त दृष्टि रहे। वन उपवनों नहीं तालाबों प्राणियों बादलों तारकों जैसी सामान्य वस्तुओं को जब सौंदर्य पारखी की दृष्टि से देखा जाता है। तो वे अँतरात्मा में आह्लाद उत्पन्न करती है श्रद्धा के आरोपण से पत्थर में भगवान पैदा होते हैं। साँस्कृतिक चिंतन हम इस संसार को भगवान का विराट स्वरूप और अपने कलेवर को ईश्वर के मंदिर जैसा पवित्र अनुभव कर सकते हैं। जहाँ ऐसी दृष्टि होगी वहाँ दूसरों से सद्व्यवहार करने और अपनी उत्कृष्टता बनाए रखने की ही आकाँक्षा बनी रहेगी और उसे जितना क्रियान्वित करना बन पड़ेगा उतना ही अपना और दूसरों का सच्चा हित साधन बन पड़ेगा। सुसंस्कृत दृष्टिकोण अपनाकर मनुष्य अपने देवत्व को विकसित करने और वातावरण को सुख शांति से भरापूरा बनाने में आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है।

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