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Magazine - Year 1995 - Version 2

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स्नायु संस्थान में छिपी है जादुई पिटारी

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मस्तिष्कीय क्षमता के चमत्कार पग-पग पर सामान्य लोक व्यवहार में दृष्टिगोचर होते हैं। सूझबूझ वाले बुद्धिमान मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ते और सफलता पाते हैं। इसके विपरीत मूढ़मति और मंदबुद्धि लोग अनुकूल परिस्थितियाँ रहने पर भी पिछड़ी स्थिति में पड़े रहते हैं। जीवन की गहन समस्याओं को सुलझाने में और आत्मोत्कर्ष का लाभ प्राप्त करने में भी मनःस्थिति की प्रखरता ही लाभ देती है। ज्ञान तंतुओं के माध्यम से यह तत्त्व समस्त शरीर में फैला हुआ है। मस्तिष्क उसका केन्द्रीय कार्यालय है। एक वर्कशॉप है। यह सुविस्तृत ज्ञान-विस्तार अध्यात्म की भाषा में मनः चेतना कहलाता है। बौद्धिक प्रगति के लिए आमतौर पर स्कूली प्रशिक्षण तथा दूसरी तरह के उपाय काम में लाये जाते हैं, पर मनःचेतना के आध्यात्मिक उपचार साधनात्मक है। उनके माध्यम से मनःशक्ति विकसित और परिष्कृत की जाती है।

इस संदर्भ में वैज्ञानिक अनुशीलन ध्यान देने योग्य है। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व शारीरिक रोगों का कारण ऋतु प्रभाव एवं विषाणुओं का आक्रमण माना जाता था। नवीनतम शोधें शरीर पर पूरी तरह मनःसत्ता का अधिकार मानती है और बताती है कि बाह्य कारणों से उत्पन्न हुए रोग तो शरीर की जीवनी शक्ति स्वयं ही अच्छे कर लेती है अथवा मामूली से उपचार से वे अच्छे हो सकते हैं। जटिल रोग तो आमतौर पर मनोविकारों के ही परिणाम होते हैं। उनका निराकरण औषधि प्रयोग से नहीं, मानसिक परिशोधन से ही सम्भव हो सकता है।

शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों का भी यही प्रधान कारण है। दुष्कर्म अथवा दुर्बुद्धिग्रस्त व्यक्ति शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों से भी ग्रसित रहते हैं। उन्माद जैसी स्थिति में न आये, तो भी असंतुलन से ग्रस्त व्यक्ति विक्षिप्तों जैसी दशा में पड़े रहते हैं। ऐसे लोगों की मनःस्थिति कितनी दयनीय होती है, यह देखने भर से कष्ट होता है। शारीरिक व्यथाओं से पीड़ितों की अपेक्षा मनोरोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या ही नहीं, पीड़ा भी उनकी अधिक है। इन व्यथाओं से छुटकारे का उपाय अस्पतालों में नहीं, साधनाओं पर ही अवलम्बित मनः परिष्कार प्रधान है। वे उपाय-उपचार अन्य प्रकार भी हो सकते हैं, पर अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उसे मनःचेतना की परिष्कार साधना से अधिक सुविधापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है।

शरीर विज्ञान के अध्येता जानते है कि मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए तन्तु सारे शरीर में फैले हैं। उन्हीं के माध्यम से इस जटिल यंत्र का संचालन होता है। इन्द्रियों की क्रियाशक्ति, अनुभूतियाँ, सरसताएँ मस्तिष्क में ही जाकर खुलती है। इन्द्रिय गोलक तो मात्र सूचनाएँ संग्रह करने और उन्हें मस्तिष्कीय केन्द्रों तक पहुँचाने भर का काम करते हैं। कोई मानसिक कष्ट होने पर सारा शरीर शिथिल हो जाता है और क्रियाशक्ति में स्पष्टतः अस्त–व्यस्तता दीखने लगती है। भय चिन्ता, शोक, निराशा जैसे प्रसंगों पर किसी भी व्यक्ति का चेहरा उदास और सारा शरीर शिथिल देखा जा सकता है। क्रोध, अपमान, द्वेष, प्रतिशोध की स्थिति में किस प्रकार अंग-प्रत्यंगों में उत्तेजना आ जाती है, इसे किसी आवेशग्रस्त पर छाए उन्माद को देखकर सहज ही पता लगाया जा सकता है। और निश्चिन्त रहने वाले स्वस्थ रहते और दीर्घजीवी बनते हैं। इसके विपरीत क्षुब्ध रहने वाले दुर्बल हो जाते हैं और अकाल मृत्यु से असमय मरते हैं। यह तथ्य स्पष्ट करते हैं कि शरीर उससे कहीं अधिक भाव-संस्थान का होता है।

शरीर में स्नायु मंडल द्वारा नलिका वित्तीय ग्रंथियों द्वारा भावनाएँ क्रियाशील होती हैं। हमारे सम्पूर्ण शरीर में स्नायुओं का जला बिछा हुआ है। सामान्यतः स्नायु उज्ज्वल वर्ण होते हैं और तार की तरह ठोस होते हैं। शरीर की समस्त इन्द्रियाँ स्नायुओं के ही मुख्य स्नायु सुतली की तरह मोटा होता है। फिर उसकी अधिकाधिक पतली होती चली जाती है।

सम्पूर्ण स्नायु मंडल के दो भाग हैं-ऐच्छिक और अनैच्छिक। चलने-फिरने झुकने-मुड़ने वस्तुएँ उठाने रखने आदि की क्रियाओं में अपने हाथ-पैर आदि का इच्छानुसार हिलाते हैं। यह स्नायुओं के ही कारण है। अनैच्छिक स्नायुओं पर हमारा ऐसा अधिकार नहीं होता। वे शरीर की आन्तरिक क्रियाएँ सम्पादित करते हैं जैसे हृदय की धड़कनें साँसों का चलना आदि।

अनैच्छिक स्नायु मंडल का केन्द्र मस्तिष्क का एक लघु अंश हाइपोथेलेमस होता है। यही अवयव नारी व पौरुष ग्रंथियों का नियंत्रित करता है, साथ ‘मानोअमीन आक्सीडेज’ नामक ऐंजाइम भी सम्पूर्ण शरीर में विकीर्ण होते हुए भी केन्द्रीय स्नायविक प्रणाली में विशेष रूप से जमा रहता है। हाइपोथेलेमस द्वारा पिट्यूटरी ग्रंथि भी उत्तेजित होती है और उससे विभिन्न हारमोन्स निकलते हैं, जो दुर्भावनाओं का परिणाम भी होते हैं और सद्भावनाओं का कारण भी। किसी नई परिस्थिति के उपस्थित होने पर नलिका विहीन ग्रंथियों पर दबाव पड़ता है और वे विभिन्न हारमोन्स को स्रावित करती हैं। इन हारमोन्स की शरीर में प्रतिक्रिया होती है और यह प्रतिक्रिया उसी के अनुरूप भावना समूहों को जन्म देती है, जैसे किसी रोग के कीटाणुओं के संक्रमण दबाव से पिट्यूटरी ग्रंथि ने कोई हारमोन छोड़ा, इससे शरीर में तेज हलचल मच गई, व्यक्ति को अव्यवस्था और अशान्ति महसूस होने लगी और वह बीमार पड़ गया। इस बीमारी की दशा में तरह-तरह की भावनाएँ, जो अचेतन मन में दबी थीं, उभरने लगीं। उनके परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक प्रतिक्रियाएँ भी पैदा होने लगती है।

मनःचेतना का निवास मस्तिष्क में बताये जाने का अर्थ केवल इतना ही है कि उसका केन्द्रीय कार्यालय वहीं है। उसके सूक्ष्म अवयव, उसकी शाखा प्रशाखाएँ तो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त-विस्तृत हैं। मस्तिष्क के कोषाणु अन्य कोषाणुओं से अधिक समझदार और अधिक अनुभवी होते हैं, इसीलिए वे शेष कोषाणुओं के नेता कहे जाते हैं। वे जिस दिशा में चलते हैं, शेष कोषाणु भी उसी दिशाधारा में बहने के लिए बाधित हो जाते हैं। सम्पूर्ण सूक्ष्मशरीर को स्वस्थ प्रसन्न, उल्लसित, प्रगतिशील बनाये रखने के लिए मस्तिष्कीय स्थिति वैसी होनी जरूरी है। नेता ही निराश, हताश, कुण्ठित हुआ, तो प्रगति की क्या आशा की जा सकती है। नेता का संवेग समस्त अनुयायियों को प्रभावित करता है।

वियना के मनःचिकित्सक डॉ. फैंकल का मत है कि मानसिक धरातल की शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है। मानसिक असंतुलन का कारण जीवन की सार्थकता को न समझना है-ऐसा वे मानते हैं। इसीलिए उन्होंने ‘लोगोथेरेपी’ या अंतर्बोध चिकित्सा नाम की चिकित्सा पद्धति विकसित की है। डॉ. फैंकल की मान्यता है कि जिस व्यक्ति को अपने जीवन और कार्य की सार्थकता का बोध नहीं हो, वह स्वस्थ नहीं रह सकता। मनुष्य जीवन के लक्ष्य और उनकी सिद्धि ही आनन्द का आधार है-ऐसा उनका विश्वास है। इसीलिए उनकी चिकित्सा प्रणाली में रोगी से प्रिय-अप्रिय सभी विषयों पर चर्चा कर उसे जीवन की सार्थकता की तलाश प्रेरणा दी जाती है। व्यक्ति को जैसे ही जीवन में सार्थकता की अनुभूति हो उठती है, वह अपने भीतर निहित शक्तियों का स्मरण कर आत्मविश्वास से भर उठता है और धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगता है। मनःक्षेत्र की स्वस्थता उसके स्थूल शरीर को भी स्वस्थ बना

देती है।

सूक्ष्म शरीर की हलचलों का स्थूल शरीर पर स्पष्ट एवं निश्चित परिणाम होता है। तंत्रिकीय रोगों का कारण दबे हुए गन्दे विचार ही होते है। शरीर शास्त्री भी अब इस मत का समर्थन करने लगे हैं। उनका तो यहाँ तक कहना है कि मात्र मानसिक चित्रों के आधार पर ही अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है। ‘इम्पैक्ट ऑफ माइन्ड आन दि बाड़ी सिस्टम’ नामक पुस्तक में डॉ. एम.पियरगेट लिखते हैं कि जटिल व्याधियों से लेकर फोड़े, फुंसी, एग्जिमा जैसे चर्म रोगों का कारण मात्र मानसिक क्षोभ तथा भावनात्मक उद्वेग होते हैं। मानसिक क्षोभ, भावनात्मक उद्वेग, निषेधात्मक चिन्तन, सूक्ष्म शरीर की विकृतियाँ हैं, जिनका स्थूल शरीर पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार परिष्कृत दृष्टिकोण, स्वस्थ-उदात्त चिन्तन, आदर्शवादी विचारधारा सूक्ष्म शरीर को तेजस्वी व प्रखर बनाती है और उसका श्रेष्ठ प्रभाव भी स्थूल शरीर पर स्पष्ट देखा जा सकता है। विज्ञान और मनोविज्ञान के क्षेत्र में पिछले दिनों इस सम्बन्ध में अनेकानेक प्रयोग किये गये। उनसे इस संदर्भ में किसी प्रकार की शंका की गुँजाइश एकदम समाप्त हो गई कि चिन्तन का तदनुरूप प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता।

अब तक किये गये ऐसे ही विविध आधुनिक प्रयोगों से यह स्पष्ट हो गया है कि मन का, मस्तिष्क का कष्ट प्रत्येक कोषाणु को कष्ट में डाल देता है। घृणा, ईर्ष्या, द्वेष का अनिष्ट प्रभाव समस्त कोषाणुओं में तुरन्त दौड़ जाता है। इन प्रभावों को यदि रोका जा सके, तो स्वस्थता की गारण्टी दी जा सकती है। शरीर वेत्ताओं ने पिछले दिनों ऐसे कुछ प्रयोग किये, जिनसे यह स्पष्ट हो गया कि विज्ञान के सहारे भी मस्तिष्कीय विकृतियों को दूर कर पाना संभव है। आधुनिक विज्ञान इसे विधा को ‘ब्रेन वाशिंग' कहकर पुकारता है। साधना विज्ञान में इसके लिए विभिन्न प्रकार की साधनाओं का सहारा लिया जाता है एवं विकृति के मूल में स्थित विकृति को परिष्कृत कर चेतना को स्वस्थ, सुन्दर और समुन्नत स्तर का बनाया जाता है। अध्यात्म की भाषा में इसे ही मनःशक्ति का विकास कहा गया है। शरीरशास्त्र की भाषा में इसे प्रतिभा परिष्कार कहते है। यह विकास चाहे अध्यात्म साधना द्वारा सम्पन्न हो, चाहे भौतिक उपचारों द्वारा वर्तमान मानव की यह महती आवश्यकता है। इसे उपलब्ध किया ही जाना चाहिए।

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