
सौंदर्य-बोध ने खोला मुक्ति का द्वारा
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आधी रात होने के पहले ही अचानक वह जाग उठा। तब क्या वह सो रहा था? वह क्या था? उसका स्वप्न था। वह क्या था? उसका स्वप्न था। वृद्ध रोगी सिद्धार्थ घूम रहा था। गोपा यशोधरा मृत पड़ी थी। महल में हाहाकार मचा था। कितना भयानक था वह स्वप्न आज आनन्द की अखण्ड बेला में वह भी! में वह भीषण यातना का स्वप्न!! सुगन्धित तेल पूर्ण प्रदीज पल रहा था। उसका मंदिम प्रकाश अँधेरे में काँपता हुआ खिल रहा था। उसे लगा उसका जीवन भी वैसे ही एक अनिश्चय और अँधेरे में डगमग कर रहा था।
सिद्धार्थ का मन धड़क उठा। उसने आस-पास देख। कक्ष में अनेकानेक सुन्दरियाँ एक दूसरे से गुँथी बंधी-सी रही थी। वह सोचने लगा बाँधने के लिये कितनी श्रृंखलायें हैं यह और मनुष्य इन्हीं कड़ियों से प्यार करता है। आखिर क्यों? क्या है इसमें? यह सारा प्रासाद एक दिन बियाबान खण्डहर हो जाएगा, उससे सोचा फिर वहाँ क्या पशु चिल्लाया करेंगे? हमारे समस्त सुन्दर स्वप्न दिन इसी तरह काल की ठोकर से धूलि में मिल जाया करते हैं।
यह रूप नहीं रहेगा, बुढ़ापा इस सौंदर्य का ऐसा ढीला कर देगा कि इन्हें देखकर घृणा होने लगेगी। रोगकारक और कुरूप रोग आकर इन सुन्दरियों को डस लेंगे और तब यह साँप के विष जैसी यंत्रणा में छटपटाने लगेगी और फिर मृत्यु ......मृत्यु इनका रक्त चूसने लगेगी। मृत्यु, सर्वनाशी मृत्यु, सर्वव्यापी मृत्यु आएगी और इन सबको अपने जबड़ों में चबाकर फेंकेगी
कौन?
मृत्यु आती नहीं। वह तो अब भी हैं। प्रत्येक वर्ष वह मनुष्य की आयु को एक-एक वर्ष करके अपने मुँह में भरती जाती है, जैसे कोई पशु किसी शिकार को पकड़ता है........
और हठात् उसकी आँखें ठहर गई। यह वह क्या देख रहा है? उसका सिर चकराने लगा? एक सुन्दरी के मुँह से हर श्वाँस के साथ कफ़ सा निकल रहा था। उसको, सुनकर वह झाता था। आज यह कैसी गंदगी निकल रही थी। उफ कितना घृणित है यह सब।
यही जब मुस्कराकर बातें करती थी तब लगता था फूल झड़ रहे हैं और उसके मुख से निकलती बातें कितनी प्यारी लगती थीं। एक-एक शब्द आत्मा को सान्त्वना देता था
आज तब वह इन्हीं में भूला था! यह नारी! कलकण्ठ गायिका!! इसके संगीत में भाव उन्नत होकर उज्ज्वल आलोक विकीर्ण करते थे।
क्या था जो वह समझ नहीं पाया अब तब?
उसके सामने ही यह सब हो रहा था। वह विलास में भूला हुआ जीवन की इस कठोर वास्तविकता को झुठलाये दे रहा था और तब ही किसी सुन्दरी ने करवट ली। उसने देख, वह रमणी अनिन्द्य सुन्दरी थी। उसके शरीर पर अभी तक रक्तवर्ण अंगराग लगा था। किंकिणी बजी। उसकी कटि पर वह कोमल स्वर हुआ जिसमें एक दिन सिद्धार्थ ने आप हाथ डाला था। वह विभोर हो उठी थी और वह अधखुली आँखों से देखकर ऐसे मुस्करायी थी जैसे मालती ने झूमकर गंध फैला दी हो।
सिद्धार्थ ने देखा उसका शरीर उसके मुँह से निकलती लार से भीग गया था।
नींद ने चेतना खोदी है। उस खोने में एक सत्य जागा है। सारे प्राणी अपने अर्धज्ञान में ऐसे ही पड़े हैं। रात में काल के हाथ में रहते हैं दिन में मोहवश अपने को सजाने का प्रयत्न किया करते हैं।
उसे लगा वह रक्त से भीग गयी है। रक्त! यही तो है उसके भीतर
घृणित कफ़। लार। थूक! रक्त! और ऊपर से कितनी स्निग्धता इस घृणा को ढके रहती है। क्या यह सब जीवित है?
क्या यह मृत्यु नहीं है? क्या यह अज्ञान में मृत्यु नहीं है? अज्ञान क्या है?
सत्ता कि वास्तविकता न जानना। अपने आप को सीमित परिस्थितियों में ही बहलाते हैं। मनुष्य कायरता के कारण बड़े सुख को छोड़कर क्षणिक सुख में लगा रहता है। उफ! कितना भयानक है यह सब!!
साधना का पंथ छोड़ कर वह अमर विजय के स्थान पर क्षणिक प्राप्ति में डूबा रहता है।
सारा प्रासाद धधक क्यों रहा है?
कितनी भीषण आग है यह, जो पल-पल एक-एक लपट बनकर सुलग रही है। यह वासना को तृप्त करने वाला शीतल र्स्ष, उस ज्वाला का ही एक रूप है, जो धीरे-धीरे पोषण के नाम पर सब कुछ शोषण कर लेती है। कौन है तू रे विकराल छल! तेरा तो जाल धावा पृथ्वी में ऐसी घिरा हुआ है कि कहीं भी मुक्ति का पथ नहीं दिखाई देता! कहाँ जाय वह व्यक्ति जो इस अति मुमुक्षा की व्याकुलता से मुक्त हो सके।
यही है सुन्दरियों का सौंदर्य?
इसलिये पुरुष व्याकुल रहता है? सिद्धार्थ घृणा से भर उठा था। उसने कहा धिक्कार है सिद्धार्थ तू इसी के लिये अपने आपको भूला रहा। अब तक का तेरा जीवन व्यर्थ गया।
इसमें सौंदर्य क्या है? क्या है इसमें आकर्षण। कुछ नहीं! केवल माँसपिण्ड! चमड़े से मढ़ा हुआ माँस का लोथड़ा!अपने मन से हार कर ही मनुष्य इन सबमें डूब जाता है।
उसका दम घुटने लगा। उसे लगा वह अब सह नहीं सकेगा। वह उठ खड़ा हुआ। उसने नयन मूँद लिए। इसी के लिए सबकुछ है? उसने फिर सोचा।
यह वह चक्र है जिसमें निरन्तर घूमते रहना है।
क्यों? फिर सौंदर्य कहाँ है?
सिद्धार्थ ने नयन खोले। वह सुअलंकृत इन्द्रभवन सा प्रासाद उसे लगा, सड़ती हुई लाशों से भरे कच्चे श्मशान सा था। कितनी बदबू आ रही थी। यह कैसी आग लग रही थी आज, जो उसको आमूल शिखर हिलाए दे रही थी।
इसी अवस्था में रहना है सिद्धार्थ! यहीं सारा जीवन इसी मूर्खता में नष्ट करना है। उसका सिर फटने लगा।
उसने द्वारा के पास आकर कहा “यहाँ कौन है?”
कोई नहीं बोला।
‘सब सो रहे हैं। उसने सोचा।
प्रासाद नितांत नीरव था। उसने फिर पुकारा-कोई है”
मैं छन्दक हूँ।”
“मेरे लिए एक अश्व तैयार कर!” स्वर अजीब था।
इस समय देव।
“अभी”
छन्दक डरा परन्तु प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ। कहा “जो आज्ञा देव! अभी लाता हूँ।”
सिद्धार्थ का हृदय छक-छक कर रहा था। कुछ ही देर में जब छंदक तुरंग कंथक को सजाकर लाया तो देखा सिद्धार्थ नहीं है। फिर देखा, आर्यपुत्र धीरे-धीरे आ रहे हैं। वह आगे आ गया, कहा देव! अश्व आ गया है। सिद्धार्थ गम्भीर था। अब वह घबराया हुआ सा नहीं लग रहा था। वह लौटा हुआ एक नया व्यक्ति था।
अम्मणों भर चमेली के फूलों से ढकी शय्या पर यशोधरा अपने पुत्र के साथ सो रही थी। वह माता थी। वह अपने को सफल नारी समझ रही थी।
उसकी बगल में यह कौन है?
मेरा पुत्र! मेरी आत्मा का प्रतिनिधि!!
हृदय उमंग उठा।
किसका पुत्र? कोई चिल्लाया।
सिद्धार्थ का।
नहीं, यह काल श्रृंखला है जो सेवा और पोषण के नाम पर मोह में बाँध लेता है।
यह कौन है? भद्रा कापिलायिनी! गोपा! यशोधरा! देवदहं की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी! छण्डपाणि के लिए खत्तिय की अत्यन्त प्रिय पुत्री।
नहीं यह छलना है। जो झिलमिल कर तेरी राह भुलाती है। उसका मन फिर हिल उठा। प्रथम पग आगे रखते ही एक हवा का झोंका आया। शीतल परन्तु अज्ञात का भय भरे हुए भविष्य जिसमें काला-काला सा दिखाई देता था।
मन में वासना उठी। कहा प्रभु! यह पथ नहीं। इससे भी बढ़कर एक और मार्ग है। उधर भी नहीं चलते? यदि अपनी सीमा की क्षुद्रता तुम्हें ग्राह्य नहीं तो और भी अनेक पंथ है।
तो फिर क्या है वे!! क्या है वे शीघ्र कहो!
“तुम कौन हो?”
मैं राजकुल का उत्तराधिकारी हूँ। मैं स्वायत्त शासन का स्वामी हो सकता हूँ।
तो सात दिन में तुम्हारा चक्र रत्न उदय हो सकता है सिद्धार्थ! यह कैसे?
क्या तुममें पराक्रम नहीं है? तुम क्या तलवार नहीं उठा सकते? तुम क्षत्रिय हो।
फिर क्या होगा उससे?
पृथ्वी मण्डल पर राज्य कर सकते हो। वैभव काँपेगा जयनिनाद गूजेंगे। अखण्ड, पराक्रम का समुद्र विस्तारित होगा। सम्राट सिद्धार्थ! बस!
और उसकी जाग्रत अन्तरात्मा का उद्घोष समस्त
मनोलोक में परिव्याप्त हो गया। कब तक सोयेगा सिद्धार्थ! कहाँ तक विलास के स्वप्न तुझे लुभायेंगे।
नहीं-नहीं अब और-और नहीं! अब मैं जाग गया हूँ। मुझे राज्य नहीं चाहिए। नहीं सोना, मुझे वैभव के सितारों से टंकी विलास की महानिशा में। मैं तो सहस्रिक लोक धातुओं को उन्नादित करके बुद्ध बनूँगा।
और अपूर्व साहस जागा। उसने कहा यही उचित है सिद्धार्थ! यह तेरे योग्य बात है। कामना, द्रोह, हिंसा सबके तर्कों ने सिर झुका लिया।
और वह उठ खड़े हुए। वह ऐसा भव्य ज्योतित गौरव था जैसे शताब्दियों का जय-जयकार पुञ्जीभूत होकर साकार करुणा दया और क्षमता बनकर खड़ा हो गया था। वह क्षुद्रता की सीमाओं में बँधने वाला नहीं वरन् उससे भी ऊपर मनुष्यत्व का उन्नत व्यक्तित्व था जो अब अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीवित रहना चाहता था। यह था वह व्यक्ति जो अब जाग चुका था। एवं जागने के बाद उसने अपने पग औरों का जाग्रत करने के लिए बढ़ाए थे। ये बढ़े हुए पाँव धीर गंभीर गति से बढ़ने लगे। नंगे पाँव मानो पृथ्वी की धूल में क्षणिक जीवन की पर्तों पर अमरता का जीवित संदेश लिखने के लिए बढ़े चले थे।