
अवतार की पहचान
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तेजोदीप्त शरीर। लम्बे श्वेत केश। घुटनों तक प्रलम्ब बाहु। एक हाथ में कमण्डल, पैरों में खड़ाऊँ। ललाट पर प्रचण्ड तिलक। रोम-रोम सफेद हो चला है। आयु का हिसाब न तो इनके पास है और न तो देवों को ही ज्ञात है। भूत, भविष्य, वर्तमान, पृथ्वी, पाताल और अंतरिक्ष में कोई ऐसा काल और लोक नहीं जहाँ इस तपस्वी की गति न हो। विश्व के वृत्त पर शताब्दियों के सुमन झर कर गिर गये। लेकिन काल का कोई झंझावात इसे उड़ा न सका।
मौत इससे भयभीत थी। काल इसका क्रोध देख काँपता था जीवन इसकी शरण में सुरक्षित था। जिस तरह सहस्राब्दियाँ बीत आने पर वटराज के विशाल कलेवर पर नये जड़-मूल झूलते हैं, उसी प्रकार इस सिद्ध पुरुष के सिर पर मटमैली जटाएँ झूल रही थीं।
देवलोक में अभी वह मध्याह्न विश्राम कर ही रहे थे कि नूपुरों और मृदंग की ध्वनियों ने उनके विश्राम में विक्षेप पहुँचाया। महर्षि उठ खड़े हुए और एक देवता से पूछा-क्यों यह शोर कैसा हो रहा है?
अरे आपको मालूम नहीं महाराज, मृत्युलोक में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन की महारानी माया देवी ने एक पुत्र प्रसव किया है।
तो इसमें हँसने-चिल्लाने की क्या बात है? प्रतिदिन धरती पर ऐसे प्राणी पैदा होते हैं।’
नहीं महाराज, यह बालक असाधारण हैं। भविष्य में वह बोधिवृक्ष की छाया में बुद्धत्व प्राप्त करेगा और संसार के समस्त प्राणियों को करुणा का संदेश देगा। वह प्रथम बार मनुष्य के स्वभाव को बदल कर उनमें प्रेम का संचार करेगा। उन्हें हिंसा से अहिंसा की ओर ले जाएगा। मनुष्य तब यह स्वीकार करेगा कि जीवन इसी का नाम नहीं कि आप अकेले जीवित रहें, बल्कि प्राणिमात्र के जीवन की रक्षा उसके प्रति करुणा, मैत्री एवं प्रेम के भाव भी रखना आवश्यक है। उसकी हर चरण चाप से भूलोक में क्रान्तियाँ जन्मेंगी। उसकी वाणी से परिवर्तन के भूचाल आयेंगे। उसकी दृष्टि से करुणामृत का वर्षण होगा और उसके प्रत्येक संकेत से शान्ति का स्रोत बहेगा। वह बहुजन के कल्याण और बहुजन की शान्ति के निमित्त विचरण करेगा। लोक जीवन, वैराग्य साधना और सिद्धि साफल्य के क्षेत्रों में वह विचार क्रान्ति करेगा।
संक्षेप में वह आसमुद्र वसुन्धरा पर धर्मचक्र प्रवर्तन करेगा। उसके द्वारा प्रवाहित विचार गंगा युग-युगान्तरों तक मानव मन के कल्मष का प्रक्षालन करती रहेगी। पाप के प्रपंचों एवं काल के वक्र चक्र के कारण भले यह धारा दुबली होकर ओझल प्रतीत हो परन्तु मिट न सकेगी। समय पाकर जिस प्रकार तरुवर फलते-फूलते हैं और शीर्ण जीर्ण पत्तों को त्यागकर नव पल्लव उपजाते हैं, उसी तरह देवों और मानवों के इस वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, युगाचार्य का विचार प्रवाह, प्रतिपल नवजीवन और शक्ति पाता रहेगा।
ओह, तब तो आज मुझे इस दोपहरी में ही कपिलवस्तु जाना पड़ेगा। जल्दी-जल्दी ब्रह्मर्षि कालदेवल ने आना उत्तरीय संभाला। कमण्डल उठाया। मुँह पर पानी के दो छींटे दिए और मुँह और दाढ़ी के बालों में उलझे जल बिन्दु पोंछे बिना ही वेगपूर्वक वे हिमगिरि के आँगन में उतर पड़े। हिमालय के पहरुओं ने और उस अन्तहीन प्रदेश में तपस्या करने वाले साधुओं ने कालदेवल को यों बिखरे-बिखरे भागे-भागे जाते देख अनुमान लगाया कि हो न हो आज धरा पर कुछ अपूर्व घटा हो। हिमगिरि के श्रृंगों की बर्फीली चोटियाँ पिघल-पिघल कर जैसे किसी देव शिशु के चरण धोने को आकुल चल पड़ी है। कुछ ही समय के अन्तराल में महासिद्ध कालदेवल के खड़ाऊँ की खट-खट कपिलवस्तु में सुनायी पड़ने लगी। जिसे सुनते ही शुद्धोधन के दरबारी, सभासद, मंत्री, प्रहरी, रानियाँ और दास-परिचारक चौंके। सम्राट ने पैरों में साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा-परमर्षि बड़े अच्छे अवसर पर आये। मैं बारम्बार आपका ही स्मरण कर रहा था।"
हर्ष विभोर राजन् को पुत्र जन्म का संवाद देने की सुध न रही। तब मायादेवी ने आगे बढ़कर कहा-महर्षि आज पट्टमहिषी मायादेवी ने युवराज को जन्म दिया है।"
मैंने सुना है, तभी तो मैं इस असमय आया, कालदेवल का साँस चढ़ रहा था-मैं शिशु को देखूँगा, जल्दी करो।"
मंत्रीगण दौड़े। अन्तःपुर में संवाद गया। रानियों ने आरती के थाल, पत्र, पुष्प, कन्द मूल सजाए। लेकिन जब ऋषि आये तो सबको परे हटाकर अपना पथ बनाते चले गये-अभी समय नहीं है।"
नवजात शिशु को स्वयं महाराज शुद्धोधन ने लाकर तपस्वी के चरणों में रख दिया। परन्तु बालक के पैर, अपनी ओर झुके हुए तपस्वी की दाढ़ी में लग गए। तुरन्त ही तपस्वी उठा और हाथ जोड़, गदगद कण्ठ से जय-जय और धन्य भाग्य पुकारता हुआ शिशु के चरणों को बार-बार सिर-माथे पर लगाने लगा।
ऋषि के बहते अश्रु, शिशु का पैर उठाना और तपस्वी वन्दना का यह दृश्य देखकर राजा और परिजन सब चकित हो गए।
“क्या बात है महाराज?” राजा ने हाथ जोड़कर पूछा-आप इतने विह्वल क्यों हो रहे हैं? और शिशु की यह वन्दना।”
“अरे शुद्धोधन, तू नहीं जानता तो चुप रह। मैं इसे प्रणाम न करूँ, तो क्या अपने सिर के सात टुकड़े करवाऊँ?”
इसके पश्चात् कालदेवल ध्यानमग्न हुए। उन्होंने पूर्व के चालीस और भावी चालीस ऐसे अस्सी जन्मान्तरों का वृत्त और इतिहास दिव्यदृष्टि से देखकर जान लिया, अवश्य यह छोकरा बुद्धत्व को प्राप्त करेगा। मुक्ति इसकी चरण-रज लेगी। निर्वाण हाथ बाँधे इसका अनुचर होगा। प्रकट में उन्होंने कहा- “कैसा सौम्य व्यक्तित्व है इसका।”
और कालदेवल अपने पोपले मुँह से मुस्कराए, जिसमें नए दन्ताकुद आ रहे थे।
उपस्थित जन शिशु और कालदेवल पर अपनी दृष्टि लगाए थे। कालदेवल की दृष्टि शिशु पर थी और शिशु की दृष्टि कालदेवल पर थी। कालदेवल ने सोचा- “यह शिशु बड़ा होकर बुद्धत्व प्राप्त करेगा। परन्तु तब तक क्या मैं भी जीवित रहूँगा? काल कब से मुझे खा लेने को आतुर है। कई बार छल-कौशल से उसने यत्न किया। कई बार प्रार्थना की उसने। शरीर का धर्म तो मुझे निभाना ही पड़ेगा। आज नहीं कल। परन्तु क्या एक लम्बी अवधि तक मैं जी सकूँगा। जबकि यह शिशु बुद्ध बनेगा?”
त्रिकालज्ञ तपस्वी ने ध्यान से जाना-अरे तब तक तू जीवित न रहेगा। यात्रा की समाप्ति निकट आ गयी है। पथ का अन्त समीप है। चलते-चलते आज मंजिल अशेष हो गयी है। सब रहेंगे अरे तू अकेला न रहेगा।”
सहस्राब्दियों की आयु व्यतीत करके भी उनके मन में ‘कुछ ही वर्ष’ और जीने की ललक, पिपासा बन गयी। हाय रे मनुष्य! जितना जीता है उतना मरने से मुकरता है। शताब्दियाँ देखी पर तेरे मन में दो-तीन दशाब्दियाँ देखने की प्यास अपूर्ण रह गयी।
बालक के बुद्ध बनने से पूर्व अपनी अवश्यंभावी मृत्यु का चलचित्र देखकर तृषा, ग्लानि, निराशा, पश्चाताप और प्रलोभन की पीर से महर्षि कालदेवल का हृदय समुद्र उद्वेलित हो उठा। उनकी आँखें मिचमिचाईं, होठों से स्फुरण हुआ, हाथ-हथेलियाँ काँपी, जटा, श्मश्रु के केशों में प्रकम्प आया और वे फफक कर रो उठे। महाराज शुद्धोधन घबराकर उनके चरणों में बैठ गए और धीरे-धीरे उनके पैर दबाने लगे। रानियाँ व्यग्र हो उठीं। प्रस्तुत जन समुदाय चित्र लिखित सा रह गया।
कालदेवल का यों फूट-फूट कर रोना असाधारण बात थी। देव, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, असुर, जड़, चेतन नर-नारी किसी ने उन्हें आज तक बिसूरते नहीं देखा था। आज वही महामानव इस मंगल बेला में इस उल्लास में आयोजकों की भावना का ख्याल न कर, यों शकुन बिगाड़ने वाली कर्कशा की तरह बिलख रहा था। दुर्मना व्यक्ति मन ही मन कहते थे-अभी तो यह पोपले
मुँह से मुस्करा रहा था, अभी आँसू बहाने लगा।
“देवर्षि कुछ कहिए तो शिशु का कोई अशुभ होगा?”
“नहीं राजन् स्वयं काल भी इसका बाल-बाँका नहीं कर सकता। आप प्रसन्न हों आपका पुत्र विश्व के इतिहास को नयी दिशा देगा। सहस्रों वर्षों तक राजनीति को नया रुख देगा। मानव स्वभाव को नया रूप देगा। हे सम्राट, यह होनहार शिशु मानव संस्कृति की प्रगति को अभिनव गति देगा और समस्त संसार के प्राणियों को नया धर्म देगा। यह निश्चय ही सम्यक् सम्बुद्ध अर्हत होगा। मैं इसके प्रमाण में बत्तीस लक्षण प्रस्तुत करता हूँ।
इस कुमार की दिव्य देह देखो-इसके पद तल में सर्वाकार परिपूर्ण नाभि नेमि युक्त सहस्रारों वाला चक्र है। यह सुप्रतिष्ठित पाद है अर्थात् इसका पैर धरती पर समान पड़ेगा। यह आयात पार्ष्णि है। .......................................