
जप के साथ ध्यान-यही है साधना का महाविज्ञान
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सन् 1962 की बात है, शिकागो के टेड सीरियस नाम के एक व्यक्ति ने कल्पना द्वारा दूरवर्ती वस्तुओं के चित्र फिल्म कैमरे पर उतार कर न केवल वैज्ञानिकों को अचम्भे में डाल दिया अपितु विज्ञान के समक्ष एक चुनौती खड़ी कर दी-क्या उसे प्रकृति, पदार्थ और ब्रह्माण्ड की जानकारियों के लिये मात्र भौतिक उपकरणों तक ही सीमित रहना पड़ेगा? क्या मनुष्य शरीर उससे भी समर्थ उपकरण नहीं है जिसके द्वारा ब्रह्माण्ड व्यापी हलचलों की इतनी स्पष्ट जानकारी ली जा सकती है जितनी भौतिक उपकरणों के द्वारा भी सम्भव नहीं है?
वस्तुतः बात यह हुई कि एक दिन टेड सीरियस नामक उक्त व्यक्ति अपने एक फोटोग्राफर मित्र से फोटो खिंचवाने जा रहा था। रास्ते में किसी परिचित ने बताया कि वह अभी उसकी ससुराल से आ रहा है जहाँ उसकी धर्मपत्नी अत्यंत संकटग्रस्त अवस्था में बीमार है। टेड सीरियस को प्रातःकाल ही धर्मपत्नी का पत्र मिला था। जिसमें किसी तरह की अस्वस्थता की कहीं कोई उल्लेख नहीं था, तो भी इस समाचार से उसकी स्मृति धर्मपत्नी के लिये घनीभूत होती चली गई। जिस समय वह कैमरे के सामने बैठा, उस समय वह पूरी तरह अपनी पत्नी के ही विचारों में खोया हुआ था, उसी स्थिति में जोहान्स नामक उसके फोटोग्राफर ने उसका फोटो लिया, जब उसने फिल्म धोई तो वह यह देखकर आश्चर्य चकित रह गया कि जिस नम्बर की फिल्म में उसने टेड सीरियस का चित्र उतारा था, उसमें चारपाई पर लेटी हुई एक महिला का चित्र था उसके आस-पास एक पुरुष, एक महिला, दो युवतियाँ खड़े थे और एक अन्य व्यक्ति जो डॉक्टर लगता था, स्टेथिस्कोप से उस महिला के शरीर की जाँच कर रहा था। पीछे पता चला कि सचमुच उसकी पत्नी बीमार थी और उसी स्थिति में सचमुच उसी डॉक्टर ने उसका मुआइना किया था।
टेड सीरियस ने यह चित्र देखा तो चिल्ला पड़ा अरे यह स्त्री तो मेरी धर्मपत्नी है, पास खड़े लोग उसी की ससुराल के ससुर, सास व कुटुम्बी थे, डॉक्टर उन्हीं का फेमिली डॉक्टर था जिसे टेड अच्छी तरह पहचानता और नाम आदि भी जानता था।
यह विशेषता फिल्म की थी? या कोई फोटोग्राफर को हिप्नोटाइज कर रहा था टेड के दिमाग में कोई चक्कर था? इस प्रश्न से फोटोग्राफर के दिमाग में पर्त के पर्त उमड़ते रहे। उसने कई तरह की फिल्मों से, कैमरे बदल बदल कर स्वस्थ चित्त से टेड के चित्र लिये। वह हर बार यह देख हैरान रह जाता कि टेड जिस भी वस्तु का ध्यान कर रहा होता कैमरे की फिल्म में वही ध्यान वाला चित्र उतरता। यह एक ऐसी घटना थी जो वैज्ञानिकों को भी आश्चर्य चकित करने वाली थी सो उसने उसकी सूचना पत्रकारों को दी, पत्रकारों की उपस्थिति में टेड के चित्र खींचे गये तब भी टेड की सशक्त कल्पना के ही चित्र आये। टेड अखबारों के आकर्षण का विषय बन गया, उसकी कल्पना के फोटो सहित उसके तरह-तरह के फोटो अखबारों में छपे, उसे देखने परीक्षण करने वालों का ताँता लग गया। इस बीच उसके परीक्षण के तौर पर जो फोटो लिए गये उसमें, नैपोलियन बोनापार्ट, उसकी सेना, इटली और कोर्सिका के किले, मिश्र के पिरामिड तथा कुछ ऐसे ऐतिहासिक स्थलों के चित्र भी कल्पना से खींचे जो अब केवल पुरातत्व सामग्री के रूप में ही उपलब्ध थे। इन कल्पना चित्रों और यथार्थ में उतना अन्तर तो होता था कि कल्पना चित्र कुछ धुँधले होते थे पर आकृति, कटाव और वस्तु में राई रत्ती भर भी अन्तर नहीं होता। नैपोलियन बोनापार्ट की सेना जो सैकड़ों वर्ष पूर्व थी, के चित्र देखकर पुरातत्व वेत्ताओं ने यह सिद्ध किया था कि नैपोलियन बोनापार्ट के सिपाही ठीक यही वेशभूषा धारण करते थे। नवम्बर 1968 की कादम्बनी अंक में फतेहपुर सीकरी के बुलन्द दरवाजा और लाल किले के उसके ध्यान फोटो छाप कर उन्हें कैमरे के फोटो से मिलाया गया है उनमें रत्ती भर भी अंतर नहीं है जबकि टेड सीरियस ने भारतवर्ष का मात्र नक्शा देखा है, भारतवर्ष की भूमि पर पैर रखने का उसे कभी कोई सुयोग नहीं मिला।
इन आश्चर्य जनक घटनाओं से दो प्रश्न उभरते हैं- (1) क्या सचमुच ही ध्यान से “ध्येय और ध्याता” के बीच कोई भौतिक सम्पर्क स्थापित हो सकता है ओर उस सम्पर्क से दोनों के बीच कोई रासायनिक आदान प्रदान की क्रिया संभव हो सकती है? (2) क्या सृष्टि में ऐसे भी कोई तत्व हैं जो मानवीय चेतना का सम्बन्ध भूत और भविष्य से जोड़ सकते हैं?
इस समय तक माइक्रोवेव, माइक्रो फिल्म तथा माइक्रो ट्रान्समीटर का आविष्कार हो चुका था, जिससे यह बात तो सिद्ध हो चुकी थी कि “शब्द” और “आकार” को शक्ति तरंगों (एनर्जी वेव) में बदल कर उन्हें नियन्त्रित अवस्था में एक स्थान से दूसरे स्थान में भेजा जा सकता है। इस प्रणाली को “टेलीविजन” कहते हैं जिसके द्वारा एक स्थान से शक्तिशाली विद्युत तरंगों के सहारे चित्र और ध्वनियाँ चारों ओर प्रक्षेपित की जा सकती हैं। यह तरंगें जितनी अधिक विद्युत शक्ति से अनुप्रेरित होंगी प्रेषण उतनी ही दूर तक ग्रहण किया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि टेलीविजन प्रसारणों में जबर्दस्त विद्युत शक्ति नियोजित की जाती है अन्यथा इन प्रसारणों को एक दो मील में भी पकड़ना असंभव हो जाये।
उपरोक्त घटना की वस्तु स्थिति की जाँच वैज्ञानिकों, फोटोग्राफरों, बुद्धिजीवियों की एक सम्मिलित टीम ने की जिसकी अध्यक्षता “इलिनाएस सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च” की उपाध्यक्षा पालिन ओहलर ने की। जाँच कमेटी ने जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किये उनमें इन घटनाओं की पुष्टि तो की गई पर यह स्पष्ट स्वीकार किया गया कि विज्ञान अभी तक तथ्यों का पता लगाने में असमर्थ है।
सुप्रसिद्ध अमेरिकी “जीव रसायनज्ञ” डॉ. कैमरान ने चूहों पर तरह-तरह के प्रयोग करके यह बताने का प्रयास किया कि मनुष्य शरीर जिन कोशाओं (सेल्स) से बना है। उनमें “न्यूक्लिक एसिड” नामक ऐसा तत्व पाया जाता है जिसे ध्यान के द्वारा निरन्तर प्रशिक्षित करने के बाद बहुत शक्तिशाली रूप में कहीं भी प्रक्षेपित किया जा सकता है। उससे दो वस्तुओं के बीच जो संबंध स्थापित होते हैं उसमें विचार प्रणाली का आदान प्रदान हो सकता है, ऐसा तो अभी खोजने में नहीं आ पाया किन्तु यह सुनिश्चित तथ्य है कि एक के कुछ तत्व और उनके गुण दूसरे में और दूसरे के पहले में निश्चित रूप से हस्तान्तरित होते हैं। ध्यान द्वारा जब किसी वस्तु को एक व्यक्ति के मन से जोड़ा जाता है तो इस न्यूक्लिक एसिड की विचार माला के माध्यम से उस वस्तु का प्रतिबिम्ब परिलक्षित हो सकता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि भारतीयों का ध्यान-विज्ञान एक दुर्लभ खोज थी उसी के माध्यम से ऋषि मुनि तपस्वी योगी सृष्टि की सुदूर हलचलों को अपनी मस्तिष्क के टेलीविजन प्लेट पर उतार लिया करते थे और भूत भविष्य वर्तमान को खुली हुई पुस्तक के रूप में पढ़ लिया करते थे।
इंग्लैण्ड की बी. एफ. गुडरिच कम्पनी के रिसर्च डाइरेक्टर डॉ. डब्लू. एल. सेमान तथा इटली के जीन विशेषज्ञों ने ध्यान के साथ जप की महत्ता को भी सूक्ष्म ध्वनि तरंगों का आविष्कार कर प्रतिपादित कर दिया है। उन्होंने एक प्रयोग में देखा कि रात के अन्धकार में भी बिजली के बहुत से तार फैले होने पर भी चमगादड़ वहाँ उड़ते समय तारों से टकराता नहीं। उन्होंने चमगादड़ की आँखों पर पट्टी बाँधकर उड़ाया और जिस स्थान पर उड़ाया गया वहाँ बहुत बारीक से बारीक धागे असंख्य मात्रा में बाँध दिये, इस जटिल स्थिति में भी चमगादड़ बिना धागों से टकराये उड़ते रहे। बिना आँखों की सहायता के चमगादड़ वस्तुओं की उपस्थिति का किस तरह पता लगाता है, इस अध्ययन के दौरान पता चला कि चमगादड़ उड़ते समय मुँह से अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि निकालता है, यह कर्णातीत ध्वनि तारों से टकराकर चमगादड़ के रेटीकूलर फार्मेशन(मस्तिष्क का वह भाग जहाँ हिन्दू शिखा रखते हैं) से टकराती है और ध्यान वाले स्थान तक पहुँचकर चमगादड़ को वस्तु की उपस्थिति का भान करा देती है।
मंत्रोच्चारण में कर्णातीत ध्वनि के निरंतर कम्पन को ध्यान द्वारा, “नाभिकीय रसायन” बहुत दूर से दूर अज्ञात स्थान तक पहुँचाने तक समर्थ हो जाता है। टेड सीरियस की तरह लक्ष्य के सन्देश, प्राण और प्रकाश अन्तः करण में उतरने लगते हैं इसे ही अपने इष्ट का स्वप्न, संदेश, सहायता आदि जो भी कहें मान सकते हैं।
गायत्री मंत्र की ध्वनि तरंगें तार के छल्ले की तरह ऊपर उठती हैं और ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म अन्तराल को माध्यम बनाकर सूर्य तक जा पहुँचती हैं। यह ध्वनि वहाँ से प्रतिध्वनित होकर अपने साथ गर्मी, प्रकाश और विद्युत अणुओं की फौज जप करने वाले के शरीर में उसी तरह उतारती चली जाती हैं जिस तरह टेड सीरियस के ध्यान करने पर ध्येय का प्रतिबिम्ब उसके मस्तिष्क में छाया चित्र की तरह उतरता चला आता है। टेड इस प्रयास में भी है कि वह टेलीविजन की तरह आकृतियों को समय की निर्धारित सीमा में लगातार उतार दे अर्थात् मस्तिष्क के चित्र मूवी कैमरे में उतारे जिससे प्राचीन काल में हुई घटनाओं को भी टेलीविजन की तरह देखा जा सके।
सूर्य हमारे ब्रह्माण्ड का केन्द्र नाभिक अथवा आत्मा है, हमारी सृष्टि का प्रारम्भ विकास और विनाश यहीं से होता है। यदि कोई चेतना से पूरी तरह सूर्य में आत्मसात् हो सके तो टेड सीरियस भले ही मूवी कैमरे में चित्र उतार पाये अथवा नहीं, पर उस तरह का व्यक्ति निःसन्देह न केवल भूत, भविष्य का ज्ञाता अपितु सृष्टि के सूक्ष्मतम रहस्यों का ज्ञाता भी हो सकता है। सिद्धावस्था ध्यान द्वारा चेतना की इसी प्रगाढ़ मिलन की अवस्था को कहते हैं, जिसमें साधक और इष्ट, गायत्री उपासक और गायत्री माँ, साधक का मन और सविता के प्राण दोनों एक हो जाते हैं।
सिद्धावस्था न भी प्राप्त हो तो भी क्रमिक जप, उपासना और ध्यान से साधक उसी मात्रा में प्रत्यावर्तित प्राण और आत्मबल सम्पन्न होता चलता है। गायत्री उपासना में जप के साथ सविता देवता के ध्यान के पीछे यही महाविज्ञान काम करता है। जिसे न जानने वाला भी लाभान्वित होता है और जानने वाला तो लाभान्वित होता ही है।