
गायत्री मंत्र और वाक् शक्ति
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शब्द को ब्रह्म कहा गया है। शब्द-ब्रह्म, नाद-ब्रह्म आदि संबोधनों से शास्त्रों में इसकी महिमा और गरिमा गाई गई है। यह अलंकारिक वर्णन नहीं बल्कि यथार्थ है। लेकिन जिन शब्दों को ब्रह्म कहा गया है वे मात्र ध्वनि नहीं है। वाद्य यंत्र पर यदि उल्टी सीधी अंगुलि से आघात किये जाये तो केवल आवाज भर होगी जबकि क्रमबद्ध और लयबद्ध ध्वनि निकालनी हो तो उसके लिए प्रशिक्षित मस्तिष्क और सधे हुए हाथ होना जरूरी है। मंत्रों से भी अभीष्ट परिणाम प्राप्त करने के लिए उनका लयबद्ध, तालबद्ध और क्रमबद्ध विधान पूरा करना आवश्यक है।
जिह्वा से उच्चारित किये गये शब्द तो दूसरे व्यक्ति तक अपनी जानकारी और अनुभूति भर पहुँचा सकते है। इसके अतिरिक्त उनका कोई उपयोग नहीं होता। पर मंत्र चमत्कारी क्षमताओं से सम्पन्न होते हैं और वे अपना परिणाम तभी प्रस्तुत करते हैं जबकि उन्हें निर्धारित विधि से प्रयुक्त किया जाय। जिस प्रकार जैसे तैसे अंगुलि चलाने से दीपक राग या मल्हार राग उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार जैसे तैसे मंत्रोच्चारण करने से उसके प्रभावोत्पादक परिणाम प्राप्त नहीं किये जा सकते। फिर गायत्री मंत्र में तो 24 अक्षरों का गुम्फन ही इस प्रकार किया गया है कि उसके लिए निर्धारित विधि और आवश्यक बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। साधारण बातचीत में ही कई लोग बातों को उस रूप में नहीं कह पाते जिस रूप में कि कहना चाहिए और न ही सभी सुनने वाले कहीं गई बात को उसी रूप में स्वीकार कर सकते हैं।
जब सामान्य व्यवहार तक में वाणी की यह दुर्गति हो जाती है और उच्चारण अविश्वस्त तथा अप्रामाणिक माने जा सकते हैं तो उससे व्यावहारिक आदान प्रदान की पूरी तरह आवश्यकता पूर्ति नहीं हो पाती तो फिर मंत्राराधन द्वारा आध्यात्मिक प्रयोजन की पूर्ति तो और ही बात है। इसी कठिनाई को ध्यान में रखते हुए मंत्राराधन में ‘वाणी’ मात्र से सम्भव हो सकने वाले क्रिया काँडों को महत्व नहीं दिया गया है।
जीभ से तो लोग आये दिन कथा, कीर्तन, भजन, पाठ, जप आदि के माध्यम से तरह-तरह के चित्र विचित्र वचन बोलते रहते हैं। यदि उतने भर से धर्मचर्या के उद्देश्य पूरे हो जाया करते तो फिर सरलता की अति ही कही जाती। छोटे-छोटे लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करने, साधन जुटाने एवं मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ती है तब कहीं आधी-अधूरी सफलता का योग बनता है। अध्यात्म क्षेत्र जितना उच्चस्तरीय है उतनी ही उसकी विभूतियाँ भी बहुमूल्य हैं। निश्चित रूप से उसके लिए प्रयास भी अपेक्षाकृत अधिक कष्ट साध्य ही होते हैं। यदि उतने बड़े लाभ मात्र जिह्वा से अमुक शब्दावली दुहरा देने भर से प्राप्त हो जाया करते तो उन्हें पाने से कोई भी वंचित न रहता पर इतना सस्तापन है कहाँ?
महत्व की दृष्टि से हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। अध्यात्म-उपलब्धियों में शब्द शक्ति की महत्ता बताई और महिमा गाई गई है। मन्त्राराधन के फलस्वरूप मिलने वाले लाभों का वर्णन विस्तारपूर्वक शास्त्रों में भरा पड़ा है, पर उसे शब्द चमत्कार भर नहीं मान लिया जाना चाहिए। यदि उच्चारण ही सब कुछ रहा होता तो साधना ग्रन्थ पढ़ने वाले प्रेस कर्मचारी और पुस्तक विक्रेता पहले ही लाभान्वित हो लेते। पाठक को उनका बचा खुचा ही शायद कुछ हाथ लगता। शब्दोच्चारण में जप के अति सरल कर्मकाण्ड के लिए थोड़ा-सा समय लगा देने में किसी को क्या कुछ असुविधा होगी? उतना तो कोई बालक-नासमझ या वृद्ध अशक्त भी कर सकता है, फिर समर्थ व्यक्ति तो उसे उत्साह पूर्वक करते और भरपूर लाभ उठाते। ऐसा कहाँ होता है? लाभों का माहात्म्य विस्तार पढ़ते हुए भी कुछ करने के लिए कहाँ किसी का उत्साह होता है।