
ज्ञातव्य
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मातृसत्ता श्रद्धांजलि पुस्तक माला के अन्तर्गत 108 पुस्तकों का एक सेट गायत्री तपोभूमि मथुरा द्वारा तैयार किया गया है। आदरणीय पं. लीलापतजी शर्मा के संरक्षण में परमपूज्य गुरुदेव के विशाल साहित्य सागर से चुनकर अनेकानेक विषयों पर तपोभूमि के उनके सहयोगियों ने छोटी-छोटी 108 पुस्तकें तैयार की हैं। सवा लाख घरों में गायत्री ज्ञान मंदिर स्थापित करने का लक्ष्य भी इसके साथ रखा गया है। 600 रुपये में उपलब्ध इस सैट को प्रथम पूर्णाहुति के समय स्थापना हेतु 450 रुपये में ही दिया जा रहा है। इस सम्बन्ध में परिजन गायत्री तपोभूमि मथुरा व आँवलखेड़ा में सम्बन्धित स्टाॅल्स से सम्पर्क साधें।
शब्दों में जो गहन रहस्य छिपा है वह यह है कि अध्यात्म प्रयोजनों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली को उच्चस्तरीय होना चाहिए। वह इतनी परिष्कृत हो कि उसकी पवित्रता, प्रामाणिकता एवं क्षमता को ईश्वर के समतुल्य ठहराया जा सके। इसके लिए कई लोग स्वर विन्यास की बात सोचते हैं और अनुमान लगाते हैं कि मन्त्रों में उच्चारण का जो स्वर क्रम बताया गया है, उसे जान लेने से काम बन जायेगा। यह मान्यता भी तथ्य की दिशा में एक छोटा कदम भर ही है। इस चिन्तन में इतनी-सी ही जानकारी है कि हमारे क्रिया-कृत्यों को अनगढ़ नहीं-सुव्यवस्थित होना चाहिए। भले ही वह उच्चारण ही क्यों न हो? वाणी को शिष्टाचार-सन्तुलन सभ्यता का अंग माना जाता है। जो ऐसे ही अण्ड-दण्ड बोलते रहते हैं वे असभ्य कहलाते और तिरस्कार के पात्र बनते हैं। ऐसी दशा में मंत्र प्रयोजन में यदि उनके साथ जुड़े हुए व्यवस्था नियमों का पालन किया जाये का निर्देश है तो उसका पालन होना ही चाहिए। इसमें सतर्कता एवं जागरूकता अपनाये जाने की बात दृष्टिगोचर होती है। यह दिशा उत्साहवर्धक है। इससे प्रमाद पर अंकुश लगने और व्यवस्था अपनाने में उत्साह उत्पन्न होने का बोध होता है, यह उचित भी है और आशाजनक भी।
मंत्रों का उच्चारण सही हो, शुद्धता और गति का ध्यान रहे यह आवश्यक है। स्वर, लय, क्रम, विराम आदि को जाना व माना जाये। मंत्रोच्चार की कक्षा में प्रवेश का यह आवश्यक कदम है। पूजा उपचार के अन्य कर्मकाण्डों में भी यह सतर्कता बरती जानी चाहिए। आलसी प्रमादियों की तरह आधी अधूरी चिन्ह पूजा करने की बेगार भुगत लेने से तो अश्रद्धा मात्र टपकती है। अन्यमनस्कता एवं उपेक्षापूर्वक किये गये नित्यकर्म तक बेतुके और बेढंगे होते हैं तो अध्यात्म की उपलब्धियाँ उस ढंग से किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है। इस स्वभाव से तो जीविका उपार्जन तक में असफलता मिलती है, फिर साधना क्षेत्र में उसका परिणाम अवरोध उत्पन्न करने के अलावा और क्या हो सकता है।
गायत्री मंत्र के अभीष्ट परिणाम प्राप्त करने के लिए उसके उच्चारण से लेकर विधि-विधान तक में सुव्यवस्था एवं सतर्कता बरती जानी चाहिए किन्तु इतने भर से ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि हमारे उच्चारण ‘मन्त्र’ बन गये और उन्हें शब्द ब्रह्म या नाद की संज्ञा मिल गई। इसके लिए वाणी को ‘वाक्’ के रूप में परिष्कृत करना होगा। यह स्वर साधना नहीं, इसके लिए समूचे व्यक्तित्व को-मन वाणी, कर्म, स्वभाव को, चिन्तन एवं चरित्र को, उच्चस्तरीय बनाने के भागीरथी प्रयत्न में जुटना होता है। मन्त्रोच्चारण की विधि-व्यवस्था कुछ घंटों में सीखी जा सकती है- उसका परिपूर्ण अभ्यास कुछ दिनों में हो सकता है। किन्तु व्यक्तित्व की मूल सत्ता का स्तर ऊँचा उठाना काफी कठिन है। उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। दूसरों को सुधारने में जितनी कठिनाई पड़ती है अपने को सुधारना उससे भी अधिक कष्ट साध्य और श्रम साध्य है।
जिह्वा उच्चारण तंत्र है। अन्य वाद्य यंत्रों की तरह उसका सही होना तो प्राथमिक आवश्यकता है। मंत्र की शब्दावली शुद्ध हो। भाषा की अशुद्धियाँ न हो। प्रवाह एवं स्वर ठीक हो। इसके अतिरिक्त जिह्वा साधना की दृष्टि से सामान्य व्यवहार में उसके रसना प्रयोजन एवं वार्ताक्रम में साधकों जैसी रीति-नीति का समावेश किया जाये। अनीति की, हराम की कमाई न खाई जाये। परिश्रम और न्याय के सहारे जितना कुछ कमाया जा सके उतने में ही मितव्ययितापूर्वक गुजारा किया जाये। चटोरेपन की बुरी आदत से लड़ा जाये और सात्विक सुपाच्य पदार्थों को औषधि भाव से उतनी ही मात्रा में लिया जाये जितनी की पेट की आवश्यकता एवं क्षमता है। इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले के लिए मद्य, माँस जैसे अभक्ष्यों को ग्रहण करने की तो बात ही क्या उत्तेजक मसाले और नशीले पदार्थों-मिष्ठान्न पकवानों तक से परहेज करने की जरूरत पड़ती है। अन्न का मन पर प्रभाव पड़ने की बात स्पष्ट है। सात्विक आहार में मनःक्षेत्र में सात्विकता बढ़ती है और उससे अनेक दोष-दुर्गुण जो अभक्ष्य खाते रहने पर छूट नहीं सकते थे, अनायास ही घटते-मिटते चले जाते हैं। अस्वाद व्रत पालन करने वाले के लिए अन्य इन्द्रियों पर काबू रख सकना सरल हो जाता है।
आहार की सात्विकता का वाणी की पवित्रता पर गहरा असर पड़ता है। अभक्ष्य आहार से जिह्वा की सूक्ष्म शक्ति नष्ट होती है और उसके द्वारा उच्चारित शब्द आध्यात्मिक प्रयोजन पूरे कर सकने की क्षमता से रहित ही बने रहते है। वाणी का दूसरा कार्य है वार्तालाप। हमारे दैनिक जीवन में वार्तालाप का स्तर उच्चस्तरीय एवं आदर्श परम्पराओं से युक्त होना चाहिए।
मंत्र को धीमे जपा जाता है। शब्दावली अस्पष्ट एवं धीमी रहती है। बहुत बार तो वाचिक से भी अधिक महत्व मानसिक और उपाँशु का होता है। उनमें तो वाणी नाम मात्र को ही होती है किन्तु इन मौन जपों में भी मध्यमा, परा, पश्यन्ति वाणियाँ काम करती रहती हैं। यह तीनों वाणियाँ मनुष्य के दृष्टिकोण, चरित्र एवं आकांक्षा से संबंधित रहती हैं। यदि व्यक्ति ओछा, घटिया और दुष्ट है, उसकी आकांक्षाएँ निकृष्ट, दृष्टिकोण विकृत एवं चरित्र भ्रष्ट है तो तीनों सूक्ष्म वाणियाँ निम्नस्तरीय ही बनी रहेंगी और उनके समन्वय से बैखरी वाणी तक प्रभावहीन, संदिग्ध एवं अप्रामाणिक बनी रहेगी। उसका साँसारिक उपयोग भी कोई महत्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न न कर सकेगा। फिर उसके द्वारा की गई मंत्र साधना तो सफल हो ही कैसे सकती है।
मंत्र जप की विधि सरल है पर साधना कठिन है और साधना के बिना उपयुक्त परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता। मंत्र जप की साधना में जिह्वा समेत समस्त उपकरणों का परिशोधन करना पड़ता है। जो तथ्य को समझते हैं विधिविधान तक ही सीमित नहीं रहते अपितु जीवन प्रक्रिया को उच्चस्तरीय बनाने की सुविस्तृत रूप रेखा भी तैयार करते हैं। उस प्रयास में जिसे जितनी सफलता मिलेगी उसके जप तप उसी अनुपात में सफल होते देखे जा सकते हैं।
इसी आधार पर शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार होता हैं समूची आत्मसत्ता को परिष्कृत बनाने से वाणी की परिणति वाक् शक्ति में होती है। इसका प्रभाव असीम है और उसकी सहायता से असम्भव को भी संभव किया जा सकता है। शतपथ ब्राह्मण में गायत्री का विवेचन करते हुए कहा गया है- परावाक् उसका मर्मस्थल है। परावाक् का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया है-वह हृदयस्पर्शी है प्रसुप्त को जगाता है, स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि का आधार वही है, देवताओं के अनुग्रह वरदान का केन्द्र उसी में है। इस विश्व में जो कुछ श्रेष्ठ है वह वाक् की प्रतिध्वनि एवं प्रतिक्रिया ही समझी जानी चाहिए।
बैखरी वाणी जब साधना सम्पन्न होकर वाक् बनती है तो उसका विस्तार श्रवण क्षेत्र तक सीमित न रहकर तीनों लोकों की परिधि तक व्यापक होता है। वाणी में ध्वनि है ध्वनि में अर्थ। किन्तु वाक् शक्ति रूपा है। उसकी क्षमता का उपयोग करने पर वह सब जीता जा सकता है जो जीतने योग्य है।
कौत्स मुनि ने मंत्र अक्षरों के अर्थ की उपेक्षा की है और कहा है कि उनकी क्षमता शब्द गुँथन के आधार पर समझी जानी चाहिए। उसमें वाक् तत्व ही प्रधान रूप से काम करता है। इस परावाक् का स्तवन करते हुए श्रुति कहती है।
देवी वाचमजनयन्त देवास्तां;विश्चरूपाः पशवो ददन्ति।
सा नो मंद्रेष्षमूर्ग दुहाना,धेनुर्वागस्मानुफ्सुष्टुवैतु
परावाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मंत्रात्मक ही हैं। यही विज्ञान है, इस कामधेनु वाक् की शक्ति से हम जीवित हैं। उसी के कारण हम बोलते और जानते हैं।
इससे स्पष्ट है कि गायत्री मंत्र में वाक् तत्व इतना प्रधान है कि यदि उसे सिद्ध कर लिया जाये तो आयु-प्राण से लेकर कीर्ति और द्रव्य तक लौकिक उपलब्धियाँ तथा आत्मकल्याण, आत्मबल, आत्मज्ञान, ब्रह्मतेज, ब्रह्मवर्चस् जैसी आध्यात्मिक उपलब्धियाँ अर्जित की जा सकती है।