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Magazine - Year 1995 - October 1995

Media: TEXT
Language: HINDI
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पूज्यवर की लेखनी से विशेष लेख - जो मिला वह वस्तुतः खरीदा गया

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आमतौर से समान आयु और योग्यता वालों के बीच आदान-प्रदान के आधार पर मित्रता होती है। प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे के सौंदर्य एवं सहयोग को ध्यान में रखते हुए मित्रता बनाते और एक दूसरे के लिए जोखिम उठाते हैं।

पर मैत्री का एक दूसरा आधार भी है जो अभिभावकों और बच्चों के बीच होता है। माता बच्चे को नौ महीने पेट में रखती है और अपने रक्त, माँस का अनुदान देकर एक बूँद बराबर कल को जीवित रह सकने योग्य स्थिति में परिपक्व करती है। असहनीय पीड़ा सहती है, अपने रक्त को दूध में परिणत करके उसका पेट भरती है, अपनी नींद और सुविधा में कटौती करके उसे संभालने में निरन्तर ध्यान रखती है। इसके बदले में बच्चा उसे क्या देता है?

पिता बच्चे के भरण-पोषण की व्यवस्था करता है, उसकी शिक्षा चिकित्सा का भार उठाता है, विवाह करता और आजीविका से लगाता है, मरता है तो अपनी सम्पदा का उत्तराधिकार उसे दे जाता है। इसके बदले बच्चा बाप को क्या देता है? कुछ न मिलने पर भी यह घनिष्ठता जीवन भर निभती है और एकांगी प्रदान आजीवन चलता है, उसमें आदान की कदाचित् ही कमी कोई अपवाद देखा गया हो। साँसारिक दृष्टि से आदान-प्रदान वाली मित्रता का कोई आधार न होने पर भी एक सूक्ष्म स्नेह तन्तु संतान और अभिभावकों के बीच बँधा रहता है। दोनों ही पक्ष समझते हैं यह मेरा है। माँ से थोड़ी देर के लिए अलग होने पर वह रोने लगता है और जैसे ही वह दौड़कर आती और गोदी में उठाती है वैसे ही हँसने, लिपटने लगता है। माँ के साथ रहकर फटे कपड़े और सूखे टुकड़े खाकर वह प्रसन्न रहता है और उसे छोड़कर किसी सुविधा सम्पन्न का होकर रहना नहीं चाहता। माता का पक्ष भी ऐसा ही होता है, वह बच्चे के साथ इसलिए कष्ट उठाती है कि यह मेरा अपना है। पिता भी ऐसा ही समझता है। यदि यह स्नेह सम्बन्ध न हो, तो दूसरों के बच्चों के लिए इतनी ममता क्यों बढ़े? क्यों कोई इतना त्याग करे?

हमारा शरीर और मस्तिष्क सामान्य स्तर का है। साँसारिक साधन या सहयोग भी कुछ कहने लायक स्तर के नहीं मिलें, फिर भी अपनी और दूसरों की आँखों से देखने पर प्रतीत होता है कि जो बन सके, जो कर सके वह अपनी योग्यता, प्रतिभा एवं सम्पदा की तुलना में हजारों गुना लाभ यह कैसे मिला। कोई जुआ लाटरी नहीं फली है और न कोई आकस्मिक भाग्योदय ही हुआ है, जो कुछ भी हुआ है, किया है, मिला है उसमें 99 प्रतिशत न सही, 90 प्रतिशत तो उसी देव सत्ता का अनुदान है, जिसे हम कभी गुरु, कभी मास्टर, कभी बॉस, कभी मार्गदर्शक और कभी दृश्यमान परमेश्वर कहते हैं।

उनने यह सब मुफ्त में दिया? यदि ऐसा होता तो दानी हमसे भी अधिक दीन-हीनों को पहले देता। हम तो दीन-हीन भी नहीं थे, पर उसने एक विशेषता देखी-पात्रता की। पात्रता ही पर्याप्त नहीं हुई, एक-एक सूत्र जुड़ा समर्पण का। यह समर्पण जीभ से नहीं अन्तरात्मा द्वारा हुआ। जब गठबंधन हुआ तो उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष शर्त जुड़ी हुई थी कि जो दिया जायेगा, वह उच्च उद्देश्य के निमित्त रहेगा, अपने निज के लोभ, मोह और अहंता प्रदर्शन में इसमें से राई रत्ती भी नहीं लगेगी। जिस उच्च प्रयोजन के लिए संकेत किया जाएगा अनुदान उसी में लगेगा। यह शर्त पूरी तरह स्वीकार हुई और हम उनके सभी सन्तान बन गये। स्वार्थ सिद्धि के लिए तो गधे को भी बाप बनाया जाता है और गुरु कहने में भी कुछ गाँठ से नहीं जाता यदि किसी बड़ी कामना की पूर्ति का लालच हो, किसी सिद्धि चमत्कार द्वारा हमें निहाल कर दिया जाये। इन दिनों ऐसी ही गुरु शिष्य परम्परा चलती है, जिसमें कहा गया है कि-राम मिलाई जोड़ी, एक अन्धा एक कोढ़ी।" एक पक्ष वरदान माँगता है दूसरा पक्ष जेब काटता है। यदि हमारे सम्बन्ध भी ऐसे ही बने होते तो मखौल बनकर रह जाता। दोनों पक्ष एक दूसरे पर अपनी घात लगाते।

पर अपने मन में कभी कोई कामना, याचना उठी ही नहीं। यदि उठी तो सिर्फ एक, कि किसी प्रकार व्रत निभ जाये। समर्पण में कहीं कोई खोट न उपजे, जिसके लिए अपनी अन्तरात्मा धिक्कारे।

पात्रता जन्म जन्मान्तरों की, जिसमें साधु ब्राह्मण की हर कसौटी पर अपना प्रयत्न पूरी ईमानदारी, समझदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के साथ चले। सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे तो छात्रवृत्ति पाने का हक बन गया। इस जन्म में यह इकरार नामा वज्रलेप-स्याही से लिखा गया है-जो कुछ भी अपना है आपका होकर ही रहेगा। आपकी कोई अमानत मिलेगी तो उसमें से कुछ हड़प लेने की बात न सोची जायेगी। आपने बनाया है तो सच्चे अर्थों में आपके अपने ही बनकर रहेंगे। आपके हर इशारे को अपना कर्तव्य, निज का स्वार्थ मानेंगे। बस इतना निश्चय हुआ तो हम उस सिद्ध पुरुष के दत्तक पुत्र नहीं, सगे निजी बन गये और उनके अनुदान बरसने लगे। जो दिया गया वह उसी काम में खर्च किया गया, जिसके लिए दाता ने दिया। न मन में चोर उठा और न किसी ऐसे परामर्श देने वाले का कहना माना गया। यथार्थता अनेक बार परखी गई। पर किसी प्रलोभन या दबाव के सामने अपने पैर डगमगाये नहीं।

सिद्धियाँ कूड़ा करकट नहीं है, जिन्हें कोई निरर्थक समझकर कूड़े-करकट की तरह बुहार कर किसी गली-कूचे में फेंक दे। वे बड़ी कठिनाई से कमाई जाती है। माँगने वालों की दुनिया में कमी कहाँ है? व्यक्तिगत लाभ उठाने के लिए उन्हें जरूरतमंद ही नहीं, बिना जरूरत वाले भी माँगते हैं। किन्तु देने वाले को विचार करना पड़ता है कि उन्हें किसके हाथों, किस निमित्त सौंपा जाय। मात्र दर्शन करने, पैर छूने और चापलूसी करने पर जब बैंक मैनेजर लाख, पचास हजार ही रकम बिना खाता देखे नहीं उठाने देता तो फिर जिनके पास वस्तुतः आध्यात्मिक सम्पदा है वे उसे बिना सोच-विचार किये, बिना पात्रता और उपयोग का स्वरूप समझे ऐसे ही चाहे किसी को दे दें, यह संभव नहीं।

सयानी सुयोग्य कन्या के लिए वर ढूँढ़ने के लिए जब पिता निकलता है, तो बारीकी से देखता है कि लड़की सुखी रहेगी या नहीं। कोई कुपात्र स्वयं ही माँगने आ पहुँचे और लड़की से कमाई कराने और मौज उड़ाने का मन करे तो कन्या का पिता उसे अस्वीकार ही करेगा? इससे कम विवेक सिद्ध पुरुषों में भी नहीं होता। लेने वाला तो कुछ भी माँग सकता है, पर देने वाले को हजार बार विचार करना पड़ता है कि देना चाहिए या नहीं? देना चाहिए तो कितना? रामकृष्ण परमहंस सिद्ध पुरुष थे। उनके पास नित्य सैकड़ों की संख्या में आते थे। उन सभी की अपनी-अपनी आवश्यकतायें, कठिनाइयाँ और समस्यायें होती थीं। सहायता चाहते थे। परमहंस जी ने सभी का अतिथि सत्कार किया। किसी को खाली हाथ नहीं जाने दिया। सभी की यथासंभव सहायता की और सभी को उस सहयोग से राहत मिली। यह क्रम चलता रहा। इस पर भी वे यह दृष्टि लगाये रहे कि अपना स्थान ग्रहण करने वाला, परम्परा चलाने वाला कोई मिले। यह ढूँढ़ने में उनका लम्बा समय बीत गया। आगन्तुकों में से एक भी ऐसा न मिला, जिसे वे अपना उत्तराधिकारी बनाते। बड़ी कठिनाई से विवेकानंद हाथ लगे। उन्हें प्रोत्साहित करने में कोई कमी न रखी। वे जब समीप आये तो उनकी मर्जी पूरी नहीं कि वरन् अपनी इच्छा पूरी करायी। विवेकानन्द नौकरी की तलाश में थे। इस काम को परमहंस जी चाहते तो चुटकियों में करा सकते थे, पर कराया नहीं, वरन् काली की प्रतिभा के पास भेजा और उनसे माँगने के लिए कहा। वहाँ उन्होंने माता का विराट रूप देखा तो अपने को बदल लिया और कहा माँ, मैं नौकरी माँगने नहीं आया। मुझे भक्ति, शक्ति और शान्ति चाहिए। वही उन्हें मिल भी गया। अपनी पूर्ववर्ती कामना पूरी करा लेते तो किसी दफ्तर में नौकरी करते हुए क्लर्क मात्र रह जाते। देश और विदेश में भारतीय संस्कृति के सन्देश वाहक जिस प्रकार बन गये, उस सौभाग्य से उन्हें वंचित ही रहना पड़ता।

परमहंस जी जब शरीर त्यागने लगे तो उन्होंने अपना पैर विवेकानन्द के सिर पर रखा, उनके शरीर में बिजली कौंध गयी। आँखें खोलकर परमहंस जी ने कहा-जो कुछ मेरे पास था, तुम्हारे सुपुर्द कर दिया। अब यह खोखला शरीर बेकार है, इसकी अन्त्येष्टि करने की तैयारी करो, इतना कह कर उन्होंने आँखें बन्द कर लीं।

विवेकानन्द का आत्मबल उसी स्तर तक पहुँचा, जितना परमहंस जी का था। वे जब बोलते थे, तब अनुभव करते थे कि उनकी जीभ पर परमहंस जी विराजमान् हैं। जिनसे भी सम्पर्क साधा उन्हें उतना ही प्रभावित किया, जितना परमहंस जी किया करते थे। इसी को कहते हैं सद्गुरु का सच्चा अनुदान। वह लूटा नहीं, खरीदा जाता है।

हमने भी खरीदा है। गुरु के उच्चस्तरीय आदेश में अपना निजी का जो कुछ था वह बूँद-बूँद निचोड़ दिया है। अपने लिए कुछ भी बचाया नहीं। दूध लेने के लिए गिलास में भरा पानी फेंकना पड़ता है। हमने अपना पानी फेंका है और दूध पाया है। इस प्रकार के साहस में कुछ गँवाया नहीं, कमाया ही है। अब तो इस तथ्य को वे लोग भी स्वीकार करते हैं, जो आरम्भिक दिनों में हमारी मूर्खता पर हँसा करते थे। अब वे मानते हैं कि वह मूर्खता नहीं, बुद्धिमत्ता थी।

अब तक हमारे शरीर में परिजनों के साँसारिक हित साधन के लिए लोकमंगल के परमार्थ के लिए जो बन पड़ा हो, उसे यही समझना चाहिए कि हमारी सामान्य-सी उपासना साधना का फल नहीं, वरन् उसके पीछे दिया अनुदान ही काम करता रहा। अब हमें भी यह चिन्ता लगने लगी है कि इस जीवन का अन्त करते हुए वे प्रतिभायें कहाँ से पायें, जो हमारी अपेक्षा हजारों गुना काम जो करने के लिए पड़ा है, उसे सम्पन्न कर सकें और हमारी ही तरह दैवी अनुग्रह का अनुदान पाकर अपने को धन्य कर सकें।

पुनःप्रकाशित विशेष लेखमाला-4

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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

October 1995
Type: TEXT
Language: HINDI
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