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Magazine - Year 1998 - Version 2

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Language: HINDI
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आयुर्वेद शोध को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता

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शरीर वनस्पतियों का ही बदला हुआ रूप है। शहद, शक्कर, फल, अन्न सभी वनस्पतियों से ही बनते हैं। वायु में पोषक आक्सीजन वनस्पतियों का ही उत्पादन है। इन्हीं के आधार पर मनुष्य जीवित रहता है। यहाँ तक कि माँस भी उन्हीं प्राणियों का खाने योग्य होता है, जो शाकाहारी होते हैं। जिन वनस्पतियों से शाकाहारी होते हैं। जिन वनस्पतियों से शरीर बना है, उनमें कई प्रकार के रासायनिक तत्व होते हैं। इनका सन्तुलित मात्रा में बने रहना ही सबल एवं सुदृढ़ स्वास्थ्य का आधार है। आहार, विहार, मौसम, चोट, असंयम की वजह से जब बीमारी आ घेरती है, तो विश्लेषण करने पर पता चलता है कि शरीर में कहीं रासायनिक सन्तुलन बिगड़ गया। विषाक्त इसी कारण उत्पन्न होती है। विकृतियों के लक्षण उभरने का यही कारण है।

गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए बिगड़े हुए रासायनिक सन्तुलन को बनाना पड़ता है। इसमें निष्कासन और अभिवर्द्धन के दोनों ही पक्षों को क्रियान्वित करना पड़ता है। इन प्रयोजनों के लिए वनस्पतियों का आश्रय लेना ही अधिक कारगर है। यों शरीर में अनेकों तरह के खनिज, लवण, वसा, प्रोटीन आदि पदार्थ पाए जाते हैं, पर वे अवयवों में टिकते, रमते तभी हैं, जब वनस्पतियों से उन्हें उपलब्ध कराया जाए। अन्य माध्यमों से उन्हें शरीर में प्रवेश कराने पर वे टिकते नहीं। शरीर में प्रवेश कराने पर वे टिकते नहीं। शरीर की संरचना उन्हें धकेल कर बाहर निकाल देती है। उदाहरण के लिए, अन्न-शाक आदि में रहने वाला क्षार ही पचता हे। यदि उसे खनिज रूप में प्राप्त करके जबरन शरीर में ठूँसा जाए, तो वह मलद्वारों से, स्वेद, साँस आदि से होकर बाहर निकल जाएगा। अंगों पर उन्हें खदेड़ने का अनावश्यक भार पड़ेगा। यही बात अन्य रसायनों के संबंध में भी है। यदि उन्हें रोग-निवारण अथवा पौष्टिकता सम्वर्द्धन के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तो सही मार्ग यही है कि उन्हें वनस्पतियों के माध्यम से ही प्राप्त क्या जाए। अन्य माध्यमों से अपनाई गयी चिकित्सा-प्रणाली क्षणिक चमत्कार भले ही दिखा दे, उसका स्थायी एवं उपयोगी प्रभाव नहीं हो सकता। अतएव शारीरिक दुर्बलता एवं रुग्णता का निवारण करने के लिए ऐसी वनस्पतियाँ ढूँढ़नी पड़ती हैं, जो कमियों को पूरा कर सकें, विषाणुओं का दमन कर सकें।

आज की सुविकसित, अत्याधुनिक एवं बहुप्रचलित चिकित्सा-पद्धति एलोपैथी है। रोगविज्ञान, शरीरविज्ञान एवं शरीर क्रिया-विज्ञान की दृष्टि से गहन अध्ययन एवं शोध के आधार पर रोगों की सम्भावना, स्वरूप एवं जटिलताओं के सम्बन्ध में बड़ी मजबूत नींव इस पद्धति के वेत्ताओं ने खड़ी की है। इस सम्बन्ध में इनके प्रयास सराहनीय हैं। परन्तु यह बात चिकित्सा एवं औषधि के सम्बन्ध में खरी नहीं उतरती। एक नहीं, उतारने देते कि यह पद्धति सुनिश्चित है, हानिरहित है। इञ्जेक्शनों, कैप्सूलों, टॉनिकों, एन्टी-बायोटिकों को भारी मात्रा में लेने की प्रथा-परम्परा जोरों पर है। इनकी चकाचौंध से उपजे बुधिभ्रम को डॉक्टर पूरे उत्साह के साथ बढ़ा रहे हैं। किसी को भी यह समझने-समझाने की फुरसत नहीं है कि उस उत्तेजक और मारक उपचार के पीछे क्या प्रतिक्रिया होती है? रोग तो समयानुसार चला जाता है, पर विषाक्त औषधियों की प्रतिक्रिया जीवनभर एक नयी व्याधि बनकर पल्ला पकड़ लेती है। उसे छोड़ने का नाम नहीं लेती। उपचार कराने वाले नए-नए कष्ट, व्यथाएँ साथ लेकर लौटते हैं। इसके सभी पक्षों को समीक्षा करने के बाद इस पद्धति पर पुनर्विचार करना जरूरी हो जाता है। आरम्भिक लाभ के बावजूद अन्ततः घाटा कहाँ तक स्वीकार्य है, इस पर विवेक-बुद्धि यही कहती है कि इस अदूरदर्शिता को जनमानस से मिटाया जाना चाहिए। तुरन्त का चमत्कार हतप्रभ तो कर देता है, पर अपने दूरगामी दुष्परिणाम छोड़ देता है। यह उपेक्षणीय तो नहीं है, पर एलोपैथी का शब्दार्थ भी कुछ ऐसी ही इंगित करता है। ‘द बुक ऑफ नॉलेज एनसाइक्लोपीडिया’ के अनुसार एलोपैथी वह चिकित्सा-पद्धति है, जो औषधि के प्रयोग से व्याधि के अलावा अन्य दूसरे लक्षण पैदा करती है। भावार्थ यही है कि एक बीमारी का उपचार करने के लिए दूसरा रोग उत्पन्न कर देना।

इन सब तथ्यों पर विचार करने पर यही ठीक जान पड़ता है कि उन पक्षों का पुनर्मूल्यांकन किया जाए, जो रोग का कारण बनते हैं। ऐसा करने पर ही उपयुक्त समाधान की खोज सम्भव है। शरीर का धर्म है अपनी रक्षा के लिए व्यवस्था बनाना। जीवनी-शक्ति के रूप में उसे एक सुरक्षा संस्थान मिला हुआ है। सक्त के श्वेत कण एवं इम्यून संस्थान सुरक्षा सेना, सीमा आरक्षी बल का कार्य करते है। बाह्य आक्रमणकारी जीवाणु-विषाणु पहले मानव शरीर में सुरक्षा पंक्ति की कमजोरी का जायजा लेते हैं। उनकी घातक सामर्थ्य में वृद्धि शरीर की कमजोरी के साथ बढ़ती जाती है एवं परिणाम में शरीर रोगी हो जाता है।

रोग से निवृत्ति भी इस पर निर्भर करती है कि कितना शीघ्र विकार द्रव्यों का निष्कासन सम्भव हो पाता है। शरीर के निष्कासन सम्भव हो पाता है। शरीर के निष्कासन संस्थान का समर्थ होना व्यक्ति के समग्र स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। आन्तरिक अंगों में से एक का भी व्याधिग्रस्त होना कमजोर जीवनी-शक्ति अपाहिज शारीरिक स्थिति एवं नए-नए रोगों के आक्रमण में व्यक्त होता है। चयापचय के परिणामस्वरूप उत्पन्न विकारद्रव्य जब एकत्र होते चले जाते हैं, आहार-विहार में व्यतिक्रम आ जाता है, प्रकृति के अनुकूल दिनचर्या का निर्धारण नहीं हो पाता है, तो रोगों की बाढ़-सी आ जाती है।

इस मूल आधार को समझने के बाद सार्थक चिकित्सा-व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित कर सकना सम्भव है। किसी भी लक्षण को दबाने के बजाय उसे जन्म देने वाले करण को जड़ से मिटाना ही श्रेयस्कर है। दर्द को, वेदना को हरेक औषधियों से उस समय तो मिटाया जा सकता है, परंतु मूल रूप में बैठे रोग को यदि समूल नष्ट नहीं किया गया, तो वह नए रूप में अधिक तीव्रता से उभर कर आ सकता है। अन्ततः निष्कर्ष यही निकलता है कि प्रचलित चिकित्सा-पद्धति में जितना श्रेष्ठ है, वह तो ग्राह्य है, पर सामयिक लाभ का दर्शन किसी भी मूल्य पर जीवन में नहीं उतारा जा सकता। वैसे भी देश में 75 फीसदी निर्धन बसते हैं, देहातों में रहते हैं और छोटे साधनरहित गाँवों में रहकर किसी प्रकार गुजर करते हैं। वहाँ न अस्पताल है और न डॉक्टर। हों भी तो उनकी तगड़ी फीस और दवाओं की महँगी कीमत कहाँ जुटाई जाए? इस विवशता की स्थिति में असंख्यों असहाय रहकर रुग्णता से पीछा नहीं छुड़ा पाते और मौत के मुँह में जाते है। इस प्रकार अकाल मृत्यु की कल्पना करने मात्र से सिहरन उत्पन्न होती है।

समस्या का क्या समाधान होना चाहिए? इस सम्बन्ध में गहन गम्भीर विचार करने पर एक ही प्रकाश-किरण आशा बँधाती है कि किसी प्रकार वनौषधि विज्ञान-आयुर्वेद की चिरपुरातन परम्परा पुनर्जीवित हो सकती तो कितना अच्छा होता। जीवन-मरण जैसी एक महती समस्या का समाधान निकल आता। इस सम्बन्ध में कठिनाई एक ही है कि आयुर्वेद मृतप्राय स्थिति में है। ग्रन्थ वहीं है, प्रयोग-विधान वहीं है, परन्तु प्रभाव वही नहीं है। शुद्ध रूप में वनस्पतियाँ मिलना आज अतिदुर्लभ हो गया है। पंसारी की दुकान पर बीसियों वर्ष पुरानी जड़ी-बूटियाँ मिलती है, जबकि उनका गुण एक बरसात निकलने पर समाप्त हो जाता है। नकली रूप-रंग वाली घास-फूस की भी बेतरह मिलावट होती है, पकने पर औषधियों का लाया जाना चाहिए, पर नयी, कच्ची, पुरानी, सूखी भी उसी ढेर में सम्मिलित करके बेचने वाले मुनाफ़ा कमाते है। उन्हें उपयुक्त खाद-पानी न मिलने पर उपयुक्त गुणों का समावेश नहीं हो पाता। इन कठिनाइयों के रहते उपलब्ध वनस्पतियों में से ज्यादातर गुणहीन एवं अप्रामाणिक होती हैं। ऐसे में वे अपना प्रभाव किसी तरह से दिखाएँ?

मात्र हैरान-परेशान होना, माथे पर हाथ रखकर सोचते रहन और दुर्भाग्य को कोसना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए साहस पूर्ण कारगर उपाय करने की आवश्यकता है। शान्तिकुञ्ज ने इसकी शुरुआत अपनी स्थापना के कुछ ही समय बाद कर दी थी, परन्तु अब इसे सर्वथा नया और व्यापक रूप देने का निश्चय किया गया है। प्रारम्भिक दौर में देश के विभिन्न क्षेत्रों से दुर्लभ, किन्तु अतीव गुणकारी औषधियों को रोपा-पनपाया गया और इस स्थिति एक पहुँचाया गया है, जिसमें कि इस संदर्भ में हुए ऋषि प्रतिपादनों को सत्य सिद्ध करके दिखा सके। इस दिशा में उठे कारगर कदमों से महर्षि चरक, धन्वन्तरि जैसों को सच्ची श्रद्धांजलि भी हो सकती है और उसे आयुर्वेद की शोध के पुनर्जीवन का नाम दिया जा सकता है।

यद्यपि अभी वर्तमान में शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस का वनौषधि उद्यान छोटा है परन्तु पिछले दिनों जिस भूमिखण्ड को खरीदा गया है, वहाँ ऐसी व्यवस्था करने का प्रावधान है, जहाँ से पौधा और बीज समूचे देश में भेज सकने और गाँव-गाँव जड़ी-बूटी उगाने का प्रबन्ध हो सके। इस प्रयत्न की सफलता पर देशवासियों की स्वास्थ्य-रक्षा का एक अति महत्वपूर्ण आधार खड़ा हो सकेगा। तब निर्धनता किसी को भी अकाल मृत्यु का ग्रास न बनने देगी और न किसी को साधनों के अभाव में रुग्णता की व्यथा लम्बे समय तक सहन करते रहने के लिए विवश होना पड़ेगा। वनौषधियों के चमत्कारी गुणों से अवगत होने और उसका सही रीति से उपयोग कर सकने की सुविधा होने पर अपना निर्धन देश चिकित्सा क्षेत्र में पराधीनता से भी मुक्ति पा सकेगा और साथ ही आरोग्य संवर्द्धन-स्वास्थ्य संरक्षण के संदर्भ में महती सफलता प्राप्त कर सकेगा। शुद्ध, सही, सार्थक एवं जीवन्त वनस्पतियाँ यदि उगाई, बढ़ाई और उपलब्ध की जा सकें, तो समझना चाहिए कि देश आरोग्य के सम्बन्ध में स्वावलम्बी हुआ।

अस्पताल-दवाखाने खोल देने से राष्ट्रीय आरोग्य के लक्ष्य को पा लेना सम्भव नहीं। सरकारी एवं गैरसरकारी अर्थ-सुविधा के बल पर उन्हें कहीं भी खोला तो जा सकता है, परन्तु यदि चिकित्सापद्धति एवं औषधियाँ ही उपयुक्त गुण वाली न हुई तो आलीशान भवनों वाले चिकित्सालयों से भला क्या बात बनेगी? वैसे भी यहाँ प्रायः गरीबों का प्रवेश वर्जित ही बना रहता है। इन चिकित्सकों एवं चिकित्सालयों के खर्चीले ठाट-बाट को पूरा कर सकना तो धनपतियों के बूते की ही बात है। निर्धन तो उनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाते, हसरत भरी निगाहों से देखते और निराश ही वापस लौटते है, जबकि आवश्यकता इसी वर्ग को राहत देने की है।

शान्तिकुञ्ज ने आयुर्वेद की शोध का जो कार्य हाथ में लिया है, उसकी अपनी विशेषता है। यह शोधकार्य मात्र प्रयोगशालाओं तक ही सीमित नहीं है, यह आयुर्वेद को सर्वजन-सुलभ बनाने वाला अभियान भी है। यहाँ प्रयोग-परीक्षण के साथ आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार का कार्य भी चलता रहता है। मसाला वाटिका एवं गृहवाटिका के माध्यम से उपयुक्त औषधियों को घर-घर लगाने, पहुँचाने की योजना यहीं से क्रियान्वित की जाती है। अभी बाहर के रोगियों की बहुत बड़ी सेवा कर सकने की व्यवस्था तो नहीं बनी है, पर आश्रम में आने वाले हजारों शिविरार्थियों और स्थायी कार्यकर्ताओं की प्रायः एक हजार संख्या यहाँ उपस्थित रहती ही है। उन्हें सुयोग्य आयुर्वेदाचार्यों के द्वारा रुग्णता निवारण के लिए जड़ी बूटी उपचार से लाभान्वित किया जाता है। उसके जो परिणाम सामने आए हैं, उन्हें देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में यहाँ स्थापित होने वाले आयुर्वेद शोध संस्थान के द्वारा जो कार्य किया जाएगा, उससे देश ही नहीं विदेशों में भी रहने वाले लोगों की रोगनिवारण समस्या का समाधान सम्भव हो सकेगा।

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