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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवन-साधना का महत्व एवं उपयोगिता

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First 27 29 Last
साधना चेतनाक्षेत्र का ऐसा पुरुषार्थ है, जिसमें सामान्यश्रम एवं मनोयोग का नियोजन भी असामान्य विभूतियों एवं शक्तियों को जन्म देता है। साधारण स्थिति में हर वस्तु तुच्छ है। पर यदि उसे उत्कृष्ट बना दिया जाए, उसकी सूक्ष्मता तक प्रवेश पा लिया जाए तो उसे ऐसा कुछ मिलता है, जिसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण कहा जा के। ऊपरी तौर पर समुद्र में खारे पानी के सिवा और क्या नजर आता है? पर उसकी गहराई में उतरने वाले उसे रत्नाकर के रूप में अनुभव करते है। बात दोनों ही सही है, उथली दृष्टि से खारे पानी का गड्ढा बेकार में इतनी जमीन घेरे हुए है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर समस्त भू-मण्डल को सुख वर्षा के रूप में जीवन रस देने वाला वही प्रतीत होता है। धूलि के छोटे-छोटे कण यों ही बेकार नजर आते है। पर जब उनसे प्रचण्ड अणुशक्ति प्रकट होती है, तो सारी दुनिया चमत्कृत रह जाती है। स्थूल से सूक्ष्म में जितना गहरा उतर जाता है, उतने ही रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन होता जाता है।

जीवन मोटी दृष्टि से ऐसा ही एक खिलवाड़ है, जिसे ज्यों-त्यों करे काटना पड़ता है। निर्वाह की आवश्यकता जुटने गुत्थियों को सुलझाने और प्रतिकूलताओं के अनुकूलन में माथा-पच्ची करते-करते मौत के दिन पूरे हो जाते हैं। अभावों और संकटों से पीछा ही नहीं छूटता। कई बार तो गाड़ी इतनी भारी हो जाती है कि खींचे नहीं खिंचती। फलतः प्रयत्नपूर्वक अथवा प्रवेश करना पड़ता है। नीरस और निरर्थक जीवन एक ऐसा अभिशाप है, जिसे दुर्भाग्य के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। किन्तु लगता यही रहता है कि बेकार जन्मे और निरर्थक जिए। पर साधारण तौर पर जीवन का यही स्वरूप है, जो विपरीत परिस्थितियों में तो अन्य प्राणियों से भी गया-बीता प्रतीत होता है।

असाधारण जीवन इससे आगे की बात है। सफल-समर्थ एवं समुन्नत स्तर के व्यक्ति सौभाग्यशाली नजर आते हैं और उनकी स्थिति प्राप्त करने के लिए मन ललचाता है। भौतिक सम्पन्नता से सम्पन्न और आत्मिक विभूतियों के धनी लोगों की न प्राचीनकाल में कमी थी और न अब है। पिछड़े और समुन्नत स्तर के व्यक्ति सौभाग्यशाली नजर आते है और उनकी स्थिति प्राप् करने के लिये मन ललचाता है। भौतिक संपन्नता से सम्पन्न और आत्मिक विभूतियों के धनी लोगों की न प्राचीनकाल में कमी थी और न अब है। पिछड़े और समुन्नत वर्गों के बची अन्तर देखने से अचरज होता है कि एक जैसी काया में रहने वाले इनसानों की स्थिति में इतना ऊँचा या नीचा होने का क्या कारण हो सकता है? स्रष्टा का पक्षपात एवं प्रकृति के अंधेर कहने से भी काम नहीं चलता। क्योंकि दोनों की सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित सत्ता में अन्धेरगर्दी की थोड़ी-सी भी गुँजाइश नहीं है। यदि अव्यवस्था एवं व्यतिक्रम होता तो ग्रह-नक्षत्र अपनी धुरी पर घूमते नजर न आते। परमाणुओं के घटक उच्छृंखलता बरतते और परस्पर टकराकर उसी मूल स्थिति में लौट गए होते, जिसमें कि महत तत्व अपनी अविज्ञात स्थिति में अनन्तकाल से पड़ा था। अन्धेरगर्दी के रहते इस सृष्टि-संरचना एवं प्रक्रिया की कोई गुँजाइश नहीं थी।

मनुष्यों के बीच पाए जाने वाले आसमान-जमीन जैसे अन्तर का यही कारण नजर आता है कि जीवन की ऊपरी परतों तक ही जिन्होंने मतलब रखा, उन्हें छिलका ही हाथ लगा, किन्तु जिन्होंने गहरे उतरने की चेष्टा की, उन्हें एक के बाद एक बहुमूल्य उपलब्धियाँ मिलती चल गयी। गहराई में उतरने को अध्यात्म की भाषा में साधना कहते है। साधना किसकी? इसका एक मात्र एवं सुनिश्चित उत्तर यही है, जीवन की। जीवन मनचाहा फल देने वाला कल्पतरु है। जो भी इसका जितना सदुपयोग कर सका, उतना ही वह धन्य हो जाता है। उसके होठों पर सदा-सर्वदा मुसकराहट के फूल खिलते हैं। स्रष्टा ने बीज रूप में वैभव का अपरिमित भण्डार इसी मानवीय काया में समेटा-सँजोया हुआ है। हमारी भूल इतनी ही रही कि न उसे खोजा गया और न काम में लाया गया। इस भूल का परिमार्जन आत्मज्ञान है। यह जाग्रति जब सक्रिय बनती है तो आत्मोत्कर्ष के लक्षण तत्कालीन दृष्टिगोचर होने लगते है। इसी आत्म-परिष्कार का नाम साधना है।

साधना से सिद्धि तक पहुँचने की बात सौ फीसदी सच है। भौतिक जगत में विविध क्षेत्रों में साधनारत पुरुषार्थी चमत्कारी सफलताएँ पाते देखे गए हैं। जीवन तो ऐसा विलक्षण क्षेत्र है जो कि जड़-जगत के किसी मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण घटक से भी कहीं अधिक बहुमूल्य है। जड़ सीमित है, चेतन असीम और अनन्त है। जड़ से केवल साधन भर पाए जा सकते है, जबकि चेतन में तो आनन्द और उल्लास के भण्डार भरे पड़े है। इनकी साधना का एक सुविस्तृत विज्ञान है।

साधना के इन अभ्यासों को ऊपरी तौर पर देखने से यह भ्रान्ति होती है कि यह सब कुछ कहीं बाहर से माँगने-पाने का उपक्रम है, पर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। पात्रता का सम्वर्द्धन ही साधना है। इसके लिए जीवन के बहिरंग को व्यवस्थित और अन्तरंग को परिष्कृत को योग एवं व्यवस्थित को तप कहते है। साधना के यही दो क्षेत्र है। बहिरंग को सभ्यता की मर्यादा में रहना पड़ता है और अन्तरंग को सुसंस्कृत बनाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। साधना का तत्वदर्शन यही है। सरकस में काम करने वाले पशुओं को इस कदर प्रशिक्षित कर देते हैं कि उनके आश्चर्यजनक करतब देखकर बुद्धिमान इनसान भी हैरत में पड़ जाता है। लगभग यही प्रक्रिया अनगढ़ एवं अव्यवस्थित जीवन-सम्पदा को सुव्यवस्थित और समुन्नत बनाने के लिए करनी पड़ती है। साधना के समस्त उपचार इसी महान उद्देश्य के लिए बनाए गए है।

सामान्य प्रचलन है कि सिद्धियाँ तो दैव अनुग्रह से बरसती है। साधना इसी के लिए की गयी मनुहार है। यह मान्यता बहुत थोड़े अंशों में ही सच है। दुकानदार माँगने से कोई वस्तु निकाल कर दिखा देता है, पर देता तभी है जब उसकी उचित कीमत चुका दी जाए। प्रार्थना को अपनी आवश्यकता की अभिव्यक्ति माना जा सकता है, परन्तु इसे याचना कहना या समझना भारी भूल है। याचना का मतलब तो बिना मूल्य दिए कुछ बहुमूल्य पाने के लिए गिड़गिड़ाना है। इस उपाय से पहले तो अनुदान मिलते नहीं है, यदि किसी तरह मिल भी जाते हैं, तो उनका स्तर बहुत हल्का होता है। यह न तो सन्तोषप्रद है, न ही सम्मानजनक। उसका उपयोग करते समय आत्मग्लानि ही होती रहती है।

फिर यह प्रचलन तो मानवीय है। विश्व-व्यवस्था में तो बिना कीमत दिये तो कुछ नहीं मिलता। यहाँ तो कर्म फल विधान की अकाट्य विधि-व्यवस्था सब ओर लागू नजर आती है। स्रष्टा की समुचित सृष्टि इसी धुरी पर परिभ्रमण करती है। यहाँ का नियम यही है कि पात्रता प्रस्तुत करने वाले को ही अनुदान दिये जाए। पवन प्राण वायु की प्रचुर मात्र के लिए हर एक सामने खड़ा रहता है, पर उसे सक्षम फेफड़े ही ग्रहण कर पाते हैं। सामर्थ्य एवं सक्षम होते हुए भी पवन मृतकों को कुछ भी दे सकने में असमर्थ व असहाय ही रहता है। मनोरम-मनमोहक नजारों से भरी-पूरी इस दुनिया को निहारने का आनन्द मात्र उन्हीं को मिलती है जिनकी आँखें सही है। ध्वनि प्रवाह के अगणित उतार-चढ़ावों को समझने एवं सुनने का आनन्द उठाने की सुविधा इस दुनिया में विद्यमान है, पर उस से लाभान्वित हो सकना उन्हीं के लिए सम्भव है, जिनकी कान की झिल्ली ठीक है। बाहर से दैवी-अनुग्रह बरसने की बात सत्य होते हुए भी यह निर्वाध नहीं है। यह शर्त जुड़ी ही हुई है, कि अनुदान उपलब्ध करने के लिए पात्रता अनिवार्य है।

पात्रता का विकास करने वाले को अतिरिक्त याचना नहीं करनी पड़ती। जो उपयुक्त है, वह अनायास ही मिलता है। उपयुक्त का तात्पर्य है अपने स्तर के अनुरूप। स्तर को बढ़ाए बिना न तो विभूतियाँ मिलती है और न मिलने पर ठहरती है। अतएव पात्रता की समर्थता का अभिवर्द्धन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। साधना में यही करना पड़ता है। यह प्रयास जितना प्रौढ़, प्रखर एवं परिपक्व होता है उसी अनुपात में विभूतियाँ भी उफनती और बाहर से बरसती और दृष्टिगोचर होने लगती है।

पेड़ अपनी आकर्षण-शक्ति बादलों को खींचते और बरसने के लिए मजबूत करते है। पौधों पर ओस के कण अपने आप ही जमा हो जाते है। खदानें अपने सजातीय कणों को दूर-दूर तक आमन्त्रण भेजती है और उन्हें अपने निकट खींच बुलाती है। यह चुम्बकत्व है, जो जहाँ जितना अधिक होता है, सजातियों को उसका उसी स्तर का आह्वान-आमंत्रण मिलता है। परिणाम में वे उसी गति से दौड़ते-भागते चले आते हैं। खिलते फूलों का चुम्बकीय आकर्षण मधुमक्खियों तितलियों और भौंरों का न्योता बुलाता है। निखरे यौवन से अनेकों आँखें अनायास ही आकर्षित हो जाती है। प्रतिभा अनेकों का अपना प्रशंसक एवं अनुयायी बनाती है। ये आकर्षण शक्ति के चमत्कार है। साधक का चुम्बकत्व दैवी-शक्तियों का अदृश्य रूप में आमन्त्रण देता है और उन्हें अनुग्रह बरसाने के लिए विवश करता है।

सिद्धियों-विभूतियों की एक धारा ऊपर से, बाहर से बरसती है और दूसरी नीचे से, भीतर से उभरती है। दैवी-अनुग्रह से अनेकों लाभान्वित होते है। ठीक उसी प्रकार आत्मोत्कर्ष की प्रक्रिया द्वारा प्रसुप्त क्षमताओं का जागरण होता है। इसके साथ अनायास ही वे विभूतियाँ प्रकट होती है जिनसे सामान्यजन वंचित ही नहीं अपरिचित बने रहते है। मनुष्य की भीतर बहुत कुछ है, इतना कुछ जिस स्रष्टा की सामर्थ्य के समतुल्य कहा जा सकता है। वृक्ष का विशालकाय ढाँचा छोटे-से बीज में सुनिश्चित रूप में विद्यमान रहता है। सौरमण्डल की समस्त प्रक्रिया सूक्ष्म रूप से नये परमाणु में यथावत गतिशील रहती है। जड़ें नीचे से रस खींचती और पेड़ के कलेवर को हरा-भरा पुष्पित, फलित बनाने के सारे सरंजाम जुटाती है। यद्यपि ये आँखों से दिखाती नहीं, जमीन में दबी रहती है तो भी जानकारों को पता रहता है कि पेड़ तो मात्र कलेवर है, उसकी शोभा-समर्थता का स्रोत तो अदृश्य जड़ों में ही पूर्णतया सन्निहित है। जीव का छोटा अन्तराल लगभग उतना ही समर्थ है, जितना कि ब्रह्म का विराट विस्तार। व्यक्ति भीतर से ही उगते-उठते हैं। बाहर तो उस अंतरंग प्रगति का परिचय भर मिलता है।

जीवन की प्रसुप्त शक्तियाँ भीतर से ही जगती-उभरती हैं। उनके उफनने पर उसी तरह की प्रवाहधारा बहने लगती है,? जैसे कि यमुना, नर्मदा आदि कुण्डों से निकलकर भू-तल पर प्रवाहित होती है। ब्रह्म की दिव्यशक्तियाँ साधक पर अन्तरिक्ष से घटाओं की तरह बरसती है। निर्झर भी ऊपर से नीचे गिरते और भूमि पर गतिशील होते देखे जाते हैं। ये दोनों ही सौभाग्य हर किसी के लिए सहज सुलभ है। पात्रता का परिचय देकर इस संसार के विभिन्न बाजारों में से कुछ भी, कितनी ही मात्रा में खरीदा जा सकता है। इसी प्रकार बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता, प्रतिभा आदि सामर्थ्यों के भी अपने-अपने क्षेत्र है और उनमें उपलब्धियाँ पर्याप्त करने वाले अपनी योग्यता एवं तत्परता के अनुरूप जो चाहे सो, जितना चाहे सो पा लेते है। जिनकी पात्रता नहीं, उनके प्रार्थना-याचना करते रहने पर भी कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता।

जीवन-साधना का यह सिद्धान्त शाश्वत सत्य की तरह स्पष्ट है। उसमें न सन्देह की गुँजाइश है, न विवाद की

गायत्री महाविद्या के तत्वदर्शन एवं उसकी समर्थ साधना से अखण्ड-ज्योति के पाक चिर-परिचित हैं। यदि उसे पात्रता का समर्थता का, व्यक्तित्व के परिष्कार की प्रक्रिया माना जाए और उस महाप्रयास में निरत हुआ जाए, तो ऐतिहासिक एवं विद्यमान अध्यात्मवादियों की तरह हर कोई आने स्तर को क्रमशः अधिकाधिक ऊँचा उठा सकता है। इतना ऊँचा जिसकी गरिमा को हिमालय से कम नहीं वरन् अधिक ही उत्तुंग, समुन्नत एवं समृद्ध कहा जा सके। इन दिनों लोकसेवा के लिए जिन उत्कृष्ट व्यक्तित्वों को भारी आवश्यकता है, उसका निर्माण इसी जीवन-साधना से ही सम्भव है। जीवन-साधना के हवनकुण्ड में अपनी आहुति देकर ही स्वयं के व्यक्तित्व में निहित अनन्त शक्तियों का जागरण सम्भव है।

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