• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • नवसृजन का पावन यज्ञ
    • सृजन का प्रेरक प्रवाह
    • जीवन विद्या का आलोक केन्द्र
    • विद्या−विस्तार की पुरातन परम्परा
    • स्वतन्त्रता की स्वर्णजयंती और जीवनमूल्यों का वर्तमान संकट
    • स्वावलम्बन शिक्षा की अनिवार्य शर्त बने
    • वसन्त (kahani)
    • सतयुग की वापसी सुनिश्चित करने वाली शिक्षा-प्रणाली
    • आत्मा की बात (Kahani)
    • भारतीय विद्याओं का पुनर्जीवन समय की अनिवार्य आवश्यकता
    • चिरपुरातन आयुर्वेद की गौरवमयी परम्परा
    • आयुर्वेद शोध को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
    • ईश्वर-विश्वासी (Kahani)
    • धन्वन्तरि परम्परा के पुनर्जीवन हेतु एक अद्वितीय अनुसंधान केन्द्र
    • सम्बन्ध नहीं, नीति और न्याय का पक्ष ही वरेण्य है (Kahani)
    • दुर्लभ वनौषधि वाटिका
    • अधिक श्रद्धावान (Kahani)
    • गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में एक अभिनव साधना-आरण्यक
    • पर्यावरण संरक्षण के लिए वनौषधियों का महत्व
    • यज्ञ विधा का वनौषधि विज्ञान
    • शाश्वत दान (Kahani)
    • आयुर्वेद की प्रखरता का रहस्य
    • शक्ति का केन्द्रीकरण (Information)
    • वेदकालीन महर्षियों की देन-ज्योतिर्विज्ञान
    • नींव का पत्थर (Kahani)
    • ज्योतिर्विज्ञान को नए सिरे से समझने का प्रयास
    • भागने की मत सोचो (Kahani)
    • जीवन-साधना का महत्व एवं उपयोगिता
    • वाणी और भावना (Kahani)
    • विद्या-विस्तार की प्रव्रज्या परम्परा
    • युग की माँग-परिव्राजकों का प्रशिक्षण अभियान
    • तत्त्वज्ञान के अधिकारी (Kahani)
    • देवसंस्कृति को विश्वसंस्कृति बनाने का उपक्रम भाषाओं का प्रशिक्षण
    • प्रवासी भारतीयों को दायित्व-बोध कराने वाला विशेष प्रशिक्षणक्रम
    • बांटने का सुख (Kahani)
    • राष्ट्रीय जागरण का नव अभियान-ग्रामोत्थान
    • प्रेम (Kahani)
    • गोवंश-समृद्धि की व्यावहारिक रूपरेखा-गौशाला
    • जलधि की सहायता (Kahani)
    • वीरता वही, जो युग को बदल दे।
    • गायत्री जयन्ती पर विशेष- - उनके लिए एक आह्वान-अनुरोध जो पूज्य गुरुदेव के अपने हैं
    • सज्जनता (Kahani)
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ
    • संकीर्णता और भयपूर्ण जीवन (Kahani)
    • अपनों से अपनी बात- - नवयुग का मत्स्यावतार अपना इतिहास पुनः दुहरा रहा है।
    • सूक्ष्मीकरण एवं उज्ज्वल भविष्य का अवतरण (Information)
    • वरदायी शान्तिकुञ्ज
    • वरदायी शान्तिकुञ्ज (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • नवसृजन का पावन यज्ञ
    • सृजन का प्रेरक प्रवाह
    • जीवन विद्या का आलोक केन्द्र
    • विद्या−विस्तार की पुरातन परम्परा
    • स्वतन्त्रता की स्वर्णजयंती और जीवनमूल्यों का वर्तमान संकट
    • स्वावलम्बन शिक्षा की अनिवार्य शर्त बने
    • वसन्त (kahani)
    • सतयुग की वापसी सुनिश्चित करने वाली शिक्षा-प्रणाली
    • आत्मा की बात (Kahani)
    • भारतीय विद्याओं का पुनर्जीवन समय की अनिवार्य आवश्यकता
    • चिरपुरातन आयुर्वेद की गौरवमयी परम्परा
    • आयुर्वेद शोध को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
    • ईश्वर-विश्वासी (Kahani)
    • धन्वन्तरि परम्परा के पुनर्जीवन हेतु एक अद्वितीय अनुसंधान केन्द्र
    • सम्बन्ध नहीं, नीति और न्याय का पक्ष ही वरेण्य है (Kahani)
    • दुर्लभ वनौषधि वाटिका
    • अधिक श्रद्धावान (Kahani)
    • गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में एक अभिनव साधना-आरण्यक
    • पर्यावरण संरक्षण के लिए वनौषधियों का महत्व
    • यज्ञ विधा का वनौषधि विज्ञान
    • शाश्वत दान (Kahani)
    • आयुर्वेद की प्रखरता का रहस्य
    • शक्ति का केन्द्रीकरण (Information)
    • वेदकालीन महर्षियों की देन-ज्योतिर्विज्ञान
    • नींव का पत्थर (Kahani)
    • ज्योतिर्विज्ञान को नए सिरे से समझने का प्रयास
    • भागने की मत सोचो (Kahani)
    • जीवन-साधना का महत्व एवं उपयोगिता
    • वाणी और भावना (Kahani)
    • विद्या-विस्तार की प्रव्रज्या परम्परा
    • युग की माँग-परिव्राजकों का प्रशिक्षण अभियान
    • तत्त्वज्ञान के अधिकारी (Kahani)
    • देवसंस्कृति को विश्वसंस्कृति बनाने का उपक्रम भाषाओं का प्रशिक्षण
    • प्रवासी भारतीयों को दायित्व-बोध कराने वाला विशेष प्रशिक्षणक्रम
    • बांटने का सुख (Kahani)
    • राष्ट्रीय जागरण का नव अभियान-ग्रामोत्थान
    • प्रेम (Kahani)
    • गोवंश-समृद्धि की व्यावहारिक रूपरेखा-गौशाला
    • जलधि की सहायता (Kahani)
    • वीरता वही, जो युग को बदल दे।
    • गायत्री जयन्ती पर विशेष- - उनके लिए एक आह्वान-अनुरोध जो पूज्य गुरुदेव के अपने हैं
    • सज्जनता (Kahani)
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ
    • संकीर्णता और भयपूर्ण जीवन (Kahani)
    • अपनों से अपनी बात- - नवयुग का मत्स्यावतार अपना इतिहास पुनः दुहरा रहा है।
    • सूक्ष्मीकरण एवं उज्ज्वल भविष्य का अवतरण (Information)
    • वरदायी शान्तिकुञ्ज
    • वरदायी शान्तिकुञ्ज (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


सतयुग की वापसी सुनिश्चित करने वाली शिक्षा-प्रणाली

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 7 9 Last
सुसंस्कारों से भरी-पूरी जीवन-प्रक्रिया ही सतयुग की वापसी को सुनिश्चित और सम्भव बना सकती है। मानवीय व्यक्तित्व का मूल्याँकन इसी आधार पर होता है। महत्वपूर्ण कार्य इसी के सहारे बन पड़ते हैं। गौरव-गरिमा इसी के आधार पर निखरती है। महामानवों में गणना कराने वाली विभूति यही है। अपने देश का अतीत इसी के बल पर उज्ज्वल रहा है। इसके लिए शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप कुछ इस ढंग से रखा गया था, जिसके सहारे व्यक्ति अनिवार्य रूप से सभ्य एवं सुसंस्कारी बन सके। शिक्षा की सार्थकता भी ऐसा ही सान्निध्य-संपर्क देने एवं वातावरण का निर्माण करने में है। अनुकरणप्रिय वृत्ति होने के नाते मनुष्य को ऐसा सान्निध्य और वातावरण चाहिए, जिससे सद्गुणों का निरन्तर अभ्यास बढ़ता रहे। पठन-पाठन अध्ययन-चिन्तन का उपक्रम ऐसा होना चाहिए, जिससे चेतना का स्तर सुविकसित होता हों सुसंस्कारों की विभूति जिसे उपलब्ध है, वह शरीर से चाणक्य जैसे कुरूप, अष्टावक्र जैसा अपंग एवं सुदामा जैसा निर्धन होते हुए भी इन कमियों के कारण जीवन के किसी भी क्षेत्र में रुकता नहीं, सफलता की दिशा में दुर्गति से आगे बढ़ता जाता है।

अतीतकाल में भारत देवमानवों की निवासस्थली देवभूमि माना जाता रहा है। इसका कारण यहाँ जन्मने वालों के कायाकलेवर सम्बन्धित विशेषता से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। शरीरों की रचना जैसी पुरातनकाल में थी, वैसी ही अब भी है। सच तो यह है कि साधन-सुविधाओं की दृष्टि से हम अपने पूर्वजों की तुलना में कहीं अधिक सुसम्पन्न हैं। कमी है तो मात्र सुसंस्कारिता की। इस अभाव के कारण ही व्यक्ति हर दृष्टि से दीन-हीन हो गया है। धूर्तता, वितृष्णा जैसे दुर्गुणों के कारण व्यक्ति सम्पन्न और शिक्षित कहाते हुए भी असन्तोष और उद्वेग से हर घड़ी घिरा रहता है। स्वयं बेचैन रहता है और अपने संपर्क-क्षेत्र में आने वाले हर किसी को चैन से नहीं रहने देता।

पुरातनकाल के सतयुगी वातावरण को वापस लाने के लिए हमें सुसंस्कारिता का वातावरण पुनः बनाना होगा। यह कही बाज़ार में नहीं बिकती और न पेड़ों पर लगती है। इसके लिए व्यक्तित्व को गढ़ने-ढालने वाली शिक्षा-प्रणाली को फिर से लागू करना होगा। तभी ऐसे व्यक्ति उपजेंगे एवं पनपेंगे, जिनका कार्यक्षेत्र सज्जनों से घिरा और शालीनता की विचारधारा से भरा होगा। पहले घर-परिवार एवं समाज इसी विशेषता से भरे-पूरे थे। उनके सामने ऐसा चिन्तन रहता था, जिसके कारण आदर्शवादिता उनके कार्यों में घुली रहती थी। एक-दूसरे को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, औरों के लिए समय निकालने, ध्यान देने की अनिवार्यता सभी के जीवन में थी। अब यह परम्परा एक तरह से समाप्त हो गयी है।

जब संस्कार ही अच्छे नहीं रहे, तो जीवन कहाँ से अच्छा होगा? संस्कारों को सतही तौर पर न देख पाने के बावजूद इनका प्रभाव स्पष्ट है। जीवन समुद्र की तरह है। समुद्र जैसा कुछ बाहर से दिखाई देता है, वस्तुतः वैसा ही या उतना नहीं है। बाहर की सतह पर सिर्फ कुछ लहरें उठती या तैरती दिखाती है। सब कुछ समतल लगता है। पर भीतर इसके सिवाय भी बहुत कुछ है। उसकी गहराई मीलों की है। प्रचण्ड जलधाराएँ बहती हैं। लाखों प्रकार के जलचर इतनी अधिक संख्या में हैं, जितने इस धरती पर भी नहीं रहते। खनिज तथा दूसरे प्रकार के पदार्थ असीम मात्रा में भरे पड़े हैं। इतनी विशालता एवं व्यापकता है समुद्र की, यह उतना स्वल्प नहीं जितना कि खुली आँखों से सतही तौर पर दिखता है।

ऐसी ही कुछ इनसानी जिन्दगी है। उसकी सतह छोटी है। खाना, कमाना, सोना, हँसना, रोना जैसे क्रिया–कलापों की हलचल मात्र जीवन नहीं है। शरीर और परिवार के दायरे तक वह सीमित नहीं है। जीवन की तह में अनेक प्रकार के सुख-दुख आनन्द, इच्छाएँ, आकर्षण, विग्रह, उद्वेग, भ्रम, भय भरे पड़े हैं। उसमें परस्पर विरोधी प्रचण्ड धाराएँ बहती हैं, जो एक-दूसरे से टकराती भी हैं और एक दूसरे को उदरस्थ भी करती हैं। विस्फोट, कम्पन और तूफान भी आते हैं और कई बार ऐसे अप्रत्याशित शक्तिचक्र उफन पड़ते हैं, जिनसे समूचा वातावरण प्रभावित होने लगता है। इस तरह इनसानी जीवन उतना सतही नहीं है, जितना कि आमतौर पर समझ लिया जाता है।

हालाँकि सतही समझ और सोच के कारण प्रायः यही सिखाया जाता है कि जीवन का मकसद क्लर्क, अफसर, व्यापारी डॉक्टर आदि बनना है। स्कूल-कालेजों का समूचा ढाँचा-ढर्रा इसी के लिए है। शिक्षा के प्रचलित उपक्रम में कहीं कोई नहीं बताता कि जीवन का क्षेत्र कितना बड़ा और कितना गहरा है। उसे ठीक तरह समझने और उपलब्धियों से लाभान्वित होने के लिए सोचने और करने का सही तरीका क्या होना चाहिए?

सारे शैक्षिक सरंजाम परीक्षाएँ कराने में व्यस्त हैं। बौद्धिक कुशलता के आधार पर उन्हें श्रेणी प्रदान की जाती है। उपलब्ध परीक्षा-अंकों के आधार पर उनके स्तर का वर्गीकरण किया जाता है। जिसे कम अंक मिले उसे अधिक नम्बर पाने वाले की तुलना में हेय ठहराया जाता है। इस प्रकार ऊँच-नीच के आधार पर टिकी एक नए किस्म की जाति-बिरादरी खड़ी की जाती है। हो सकता है कि मस्तिष्क का एक अंश प्रकृति प्रदत्त ढंग से विकसित होने के कारण कोई छात्र बहुत अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ हो, किन्तु जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उसकी पहुँच बहुत ही भौंड़ी और गन्दी हो। क्या मानवीय श्रेष्ठता का श्रेय सिर्फ परीक्षाओं के आधार पर निर्धारित होना सम्भव है?

शिक्षा का प्रयोजन केवल छात्रों को कमाऊ बना देने तक नहीं समेट दिया जाना चाहिए। यदि बात इतनी ही होती, तो उन्हें उतना श्रम कराने और समय गँवाने की क्या आवश्यकता है। बाप-दादों के धन्धे में कुशलता बिना पड़े या कम पढ़े होने पर भी प्राप्त की जा सकती है। इससे आमदनी भी नौकरियों में मिलने वाली राशि की अपेक्षा अधिक ही होगी। शिक्षा का उद्देश्य इससे कहीं अधिक विस्तृत होना चाहिए। यदि जानकारियाँ मस्तिष्क में ठूँसते रहने का नाम ही शिक्षा है, तो उसका सरल तरीका यह है कि काई साक्षर व्यक्ति विश्वकोष उठाकर अपनी रुचि के विषयों का विवरण पढ़ने लगे, तो उसे इतनी अधिक जानकारियाँ उपलब्ध हो जाएँगी, जितनी प्राध्यापकों को भी नहीं होती। इतनी-सी बात के लिए कष्टसाध्य पढ़ाई में सिर क्यों खपाया जाए? समय क्यों गँवाया जाए?

शिक्षा का सही मकसद है, व्यक्ति में अच्छे संस्कारों का बीजारोपण साथ ही उसे यथार्थता का ज्ञान देना। दुनिया वैसी ही नहीं है, जैसी कि हमें दिखाई देती है या बताई जाती है। व्यक्ति और समाज की समस्याएँ वहीं नहीं है जिनकी चर्चा की जाती रहती है। यथार्थता की तली तक पहुँचने के लिए किस प्रकार की गोताखोरी की जानी चाहिए, इसी कला को सिखाना शिक्षा का उद्देश्य है। भ्रान्तियों, विकृतियों, कुसंस्कारों के बन्धनों से छुटकारा पाकर अच्छे संस्कार एवं स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता पाना ही जीवन जीने का मकसद है। इसी से जीवन और जगत की यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। तत्त्वदर्शियों ने इसी को मुक्ति कहा है, जिसे केवल संस्कारवान आत्माएँ ही प्राप्त करती हैं।

इसे पाने के लिए छात्र में ऐसे संस्कारों एवं साहस को विकसित करना पड़ेगा कि वह विवेक और तथ्य का सहारा लेकर यथार्थता की तह तक पहुँच सके। सभी तरह के भ्रम-जंजालों के आवरण चीरकर जो लोग सत्य को समझने और स्वीकार करने में तत्पर हो सकें, ऐसी ऋतम्भरा-प्रज्ञा को प्रसुप्ति से विरतकर सक्रिय जागरण में संलग्न करना ही विद्या का मूलभूत उद्देश्य है। यदि हमें ऐसा कुछ सीखने को नहीं मिलता, हमारे, अन्तःकरण में सुसंस्कारों का संवर्द्धन नहीं होता, तो शिक्षा कैसे पूरी हुई?

आज सर्वत्र भय, अविश्वास, सन्देह और आशंका का साम्राज्य व्याप्त है। हर व्यक्ति बेतरह डरा हुआ है। अवांछनीय और अनुचित को जानते-मानते हुए उसे अस्वीकार करने का साहस नहीं होता। अपनी मौलिकता मानों मनुष्य ने खो दी है। अपने पास मानों उसकी कोई समझ है ही नहीं। कुसंस्कार उसे बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। इन्हीं के चक्रव्यूह में फँसी हुई उसकी मनोभूमि एक प्रकार से पराधीनता के पाश में जकड़ी हुई है। ऐसे बंदिश और बाधित व्यक्ति को शिक्षित कैसे कहा जाए? शिक्षा की सार्थकता तो मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना को कुसंस्कारों की मूर्छना से विरत करने में है। उसे इस योग्य बनाने में है कि वह जीवन का स्वरूप समझ सके, समस्याओं की तह तक पहुँच सके, यथार्थ निर्णय कर सके और औचित्य को अपनाने के लिए साहसपूर्वक अड़ सके।

आज के दौर में धर्मशास्त्रों, राजनेता, मनीषी और कलाकारों के प्रतिपादन परस्पर विरोधों और भ्रान्तियों से भरे पड़े हैं। इनमें से किसी सही ठहराया जाए, किसे गलत कहा जाए अथवा इनमें कितना अंश उपयोगी, कितना अनुपयोगी है? इसका निर्णय अच्छे संस्कारों एवं स्वतन्त्र चिन्तन का विकास किए बिना और किसी तरह हो ही नहीं सकता। जब तक सुसंस्कारों का संवर्द्धन नहीं किया जाता, तब तक मानव जीवन की, विश्ववसुधा की कुरूपता को हटाना किसी भी तरह सम्भव नहीं। यह संसार, मानव-जीवन सुन्दर और सुखद बनाया गया है, पर कुसंस्कारजन्य दुर्बुद्धि ही है, जिसने सब कुछ विकृत और दुखद बनाकर रख दिया। इस विडम्बना से मुक्ति दिला सकने की क्षमता केवल सार्थक शिक्षा में है। शिक्षा वहीं है, जो मानवीय अन्तःकरण में अच्छे संस्कारों को पल्लवित कर सके, ढर्रे में घुसे हुए अनौचित्य को हिम्मत और निर्भयता के साथ निकाल कर फेंक सके।

पुरानी दुनिया अब टूट रहीं है। प्रचलित ढर्रे अब बिखरने ही वाले हैं। युद्धों से, दाँव-पेंचों से, अभाव से, दारिद्रय से, शोषण, उत्पीड़नों से, छल-प्रपंचों से आम आदमी ऊब चुका है। सुविधा-साधनों की बढ़ोत्तरी के साथ दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि भी बेहिसाब हो रही है। जो चल रहा है, उसे चलने दिया जाए, तो आज के समय का शोषण कल वीभत्स और नग्न रक्तपात के रूप में सामने आ खड़ा होगा और मानवी सभ्यता बेमौत मर जाएगी। उस स्थिति को बदले बिना और कोई चारा नहीं। नई दुनिया अगर न बनाई जा सकी, तो इस बढ़ती हुई घुटन से मनुष्यता का दम घुट जाएगा।

नई दुनिया का निर्माण संस्कारवान व्यक्ति ही कर सकते हैं। पहले भी गुरुकुल-आरण्यकों से निकले तपःपूत महापुरुषों ने इस मोर्चे पर अपने साहस के जौहर दिखाए थे। उनके समर्थ संकल्प एवं सार्थक बलिदान ने अतीत के भारत में सतयुगी दृश्य साकार किए थे। आज पुनः इसी लोकोत्तर परम्परा की आवश्यकता है। क्योंकि वर्तमान की सड़न को यथावत चलने दिया गया तो उससे असह्य विपत्ति ही बढ़ेगी। तथ्य यही बताते हैं कि अब तो नई दुनिया में ही मनुष्य जीवन रह सकेगा और विश्व का सौंदर्य स्थिर रह सकेगा। ऐसा नवीन विश्व जीवन्त लोगों द्वारा ही विनिर्मित हो सकेगा। अतएव जीवन में सत्-संस्कारों का बीजारोपण करने वाली, उन्हें पुष्पित-पल्लवित करने वाली समग्र शिक्षा की व्यवस्था हमें करनी ही पड़ेगी। इसके बिना प्रगति की समस्त संभावनायें अवरुद्ध ही पड़ी रहेंगी।

युग-सन्धि के इस ऐतिहासिक पर्व पर जिन कामों को शीघ्रता से पूरा करना है, उनमें से यह सर्वप्रमुख है। इसका विशेष उत्तरदायित्व अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाली जाग्रत आत्माओं का है। उन्हें समय की आवश्यकता को देखते हुए, लोकहित की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने को खपाना चाहिए, ताकि उनके पीछे अनेकों चलें। यह महत कार्य देखने में किसी को भले ही थोड़ा कठिन लगता हो, परन्तु वह है सर्वथा सामयिक और श्रेयस्कर ही।

First 7 9 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • नवसृजन का पावन यज्ञ
  • सृजन का प्रेरक प्रवाह
  • जीवन विद्या का आलोक केन्द्र
  • विद्या−विस्तार की पुरातन परम्परा
  • स्वतन्त्रता की स्वर्णजयंती और जीवनमूल्यों का वर्तमान संकट
  • स्वावलम्बन शिक्षा की अनिवार्य शर्त बने
  • वसन्त (kahani)
  • सतयुग की वापसी सुनिश्चित करने वाली शिक्षा-प्रणाली
  • आत्मा की बात (Kahani)
  • भारतीय विद्याओं का पुनर्जीवन समय की अनिवार्य आवश्यकता
  • चिरपुरातन आयुर्वेद की गौरवमयी परम्परा
  • आयुर्वेद शोध को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
  • ईश्वर-विश्वासी (Kahani)
  • धन्वन्तरि परम्परा के पुनर्जीवन हेतु एक अद्वितीय अनुसंधान केन्द्र
  • सम्बन्ध नहीं, नीति और न्याय का पक्ष ही वरेण्य है (Kahani)
  • दुर्लभ वनौषधि वाटिका
  • अधिक श्रद्धावान (Kahani)
  • गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में एक अभिनव साधना-आरण्यक
  • पर्यावरण संरक्षण के लिए वनौषधियों का महत्व
  • यज्ञ विधा का वनौषधि विज्ञान
  • शाश्वत दान (Kahani)
  • आयुर्वेद की प्रखरता का रहस्य
  • शक्ति का केन्द्रीकरण (Information)
  • वेदकालीन महर्षियों की देन-ज्योतिर्विज्ञान
  • नींव का पत्थर (Kahani)
  • ज्योतिर्विज्ञान को नए सिरे से समझने का प्रयास
  • भागने की मत सोचो (Kahani)
  • जीवन-साधना का महत्व एवं उपयोगिता
  • वाणी और भावना (Kahani)
  • विद्या-विस्तार की प्रव्रज्या परम्परा
  • युग की माँग-परिव्राजकों का प्रशिक्षण अभियान
  • तत्त्वज्ञान के अधिकारी (Kahani)
  • देवसंस्कृति को विश्वसंस्कृति बनाने का उपक्रम भाषाओं का प्रशिक्षण
  • प्रवासी भारतीयों को दायित्व-बोध कराने वाला विशेष प्रशिक्षणक्रम
  • बांटने का सुख (Kahani)
  • राष्ट्रीय जागरण का नव अभियान-ग्रामोत्थान
  • प्रेम (Kahani)
  • गोवंश-समृद्धि की व्यावहारिक रूपरेखा-गौशाला
  • जलधि की सहायता (Kahani)
  • वीरता वही, जो युग को बदल दे।
  • गायत्री जयन्ती पर विशेष- - उनके लिए एक आह्वान-अनुरोध जो पूज्य गुरुदेव के अपने हैं
  • सज्जनता (Kahani)
  • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ
  • संकीर्णता और भयपूर्ण जीवन (Kahani)
  • अपनों से अपनी बात- - नवयुग का मत्स्यावतार अपना इतिहास पुनः दुहरा रहा है।
  • सूक्ष्मीकरण एवं उज्ज्वल भविष्य का अवतरण (Information)
  • वरदायी शान्तिकुञ्ज
  • वरदायी शान्तिकुञ्ज (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj