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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवन विद्या का आलोक केन्द्र

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यदि हम आज के दौर में व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की बात सच्चाई एवं गहराई से सोचते हैं तो हमें उसके मूल आधार अध्यात्म कही जाने वाली जीवनविद्या की ओर ध्यान देना होगा और उसको स्वस्थ स्थिति में लाकर जन-मानस में गहराई तक प्रतिष्ठापित करने के लिए घोर प्रयत्न करना होगा। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में कितने ही कुछ भी प्रयत्न क्यों न किए जाते रहें उनका तनिक भी सन्तोषजनक परिणाम उत्पन्न न होगा। कोई योजना कितनी ही उत्तम क्यों न हो, उसे चलाने वाले, कार्यान्वित करने वाले, उत्कृष्ट व्यक्तित्व और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने वाले नहीं होंगे तो विफलता ही हाथ लगेगी। ओछे लोग जो भी कार्य हाथ में लेंगे, उसे अपने दुर्गुणों के कारण कलुषित कर देंगे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम हर क्षेत्र में देख सकते हैं। उच्च आदर्शों के लिए बनी हुई संस्थाएँ आज पद-लिप्सा और धन-लोभ के कारण संघर्ष का अखाड़ा बनी हुई हैं। मानव जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इन दिनों कंटकाकीर्ण और असुविधाओं से भरा हुआ है। जो आधार हमें प्रगति और प्रसन्नता दे सकते थे, वे ही हमारे शोक-संतापों और दुःखों में बढ़ोत्तरी कर रहे हैं। शरीर रुग्ण, मन अशान्त, परिवार विखण्डित, समाज विक्षुब्ध, विज्ञान घातक, राजनीति भ्रष्ट, देश आतंकित, धर्म जंजाल, शिक्षा अनुपयुक्त किसी भी दिशा में दृष्टिपात करें सर्वत्र उलझनें और विभीषिकाएँ ही दिखती हैं। लगता है सुख-शान्ति के सारे आधार उलटकर दुःख दैन्य के कारण बन गए हैं। इस विडम्बना का एकमात्र कारण जीवनविद्या की उपेक्षा है। जीवनविद्या मानव जीवन का प्राण है। उसे जिस क्षेत्र से भी तिरस्कृत, बहिष्कृत किया जाएगा उसी में विपन्नता उत्पन्न हो जाएगी। जल के बिना मछली नहीं जी सकती है, मानवीय शान्ति भी अध्यात्म की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकती। आज की श्मशान जैसी सर्वव्यापी जलन की एकमात्र कारण यही है।

आर्थिक क्षेत्र में उपार्जन-उत्पादन काफी बढ़ा है। पैसा पहले की अपेक्षा कम नहीं, अधिक है। पर इतने पर भी हम आर्थिक तंगी और भी चौगुनी-सौगुनी अनुभव कर रहे हैं। कारण यह है कि व्यक्तिगत जीवन में हम अधिक अपव्ययी आर विलासी बनते चले जा रहे हैं और व्यापारिक क्षेत्र में जमाखोरी, मुनाफाखोरी, तस्करी, मिलावट, धोखाधड़ी पनप रही है। कमाई बढ़ती है, पर तंगी दूर नहीं होती, इस गोरखधन्धे के पीछे उत्पादक-उपभोक्ता और व्यापारी, वितरकों की ओछी दृष्टि ही झाँकती है। लोग केवल आवश्यकता पूर्ण करने भर के लिए उचित श्रम एवं संग्रह करने का आदर्श अपना लें तो जितनी कुछ अर्थव्यवस्था है, उसी में बड़े संतोष, आनंद के साथ सारे समाज का काम चल सकता है। इसी के साथ वास्तविक प्रगति के सभी अवरुद्ध मार्ग सहज ही खुल सकते हैं।

बढ़ते हुए अपराधों की संख्या के कारण-आर्थिक कम, जीवनविद्या से विमुखता अधिक है। नीति, धर्म और सदाचार का बाँध टूट जाए, व्यक्ति, ईश्वर, परलोक और कर्मफल की सुनिश्चितता पर विश्वास न करे तो फिर वह राजदण्ड और समाजदण्ड से बचने की हजारों तरकीबें ढूँढ़ निकालेगा और गुप्त या प्रकट रूप से परिस्थिति के अनुसार दुष्कर्म करता रहेगा। किसी भी धूर्त और सूझबूझ वाले व्यक्ति के लिए प्रलोभन अथवा आतंक की स्थिति उत्पन्न कर शासन अथवा समाज के दण्ड से बहुत ही सरलतापूर्वक बचते हुए अपराध करना बड़ा आसान है। यही कारण है कि आज दुराचारियों की संख्या दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है।

गिरते हुए स्वास्थ्य का एकमात्र कारण मात्र असंयम है। जब तक विलासिता और वासना के प्रति वर्तमान आकर्षण बना रहेगा, जब तक आहार-विहार की मर्यादाओं को तोड़कर अप्राकृतिक रीति-नीति को अपनाए रहा जाएगा, सर्वजनीन स्वास्थ्य की स्थिति निरन्तर गिरती ही चली जाएगी। मात्र औषधि उपचार से स्वास्थ्य का संरक्षण एवं संवर्द्धन हो सकने की भ्रान्त धारणा मृगतृष्णा की तरह है। उससे मन बहलाव तो हो सकता है, पर प्रयोजन की पूर्ति सम्भव नहीं। अस्वस्थताजन्य संकट बढ़ते ही जाएँगे, बीमारियों का प्रकोप और प्रवाह दिन-प्रतिदिन प्रबल ही होता चला जाएगा। इस दुष्परिणाम से उबरने का उपाय चिकित्सा विज्ञान की प्रगति नहीं, संयम शिक्षा सही सिद्ध होगी। जीवनविद्या की शरण में आए बिना हम स्वस्थ जीवन से वंचित होते चले जाएँगे।

संसार के समस्त सुखों की तुलना में पारिवारिक सौहार्द का महत्व भारी बैठता है। परन्तु आज परिवारों की स्थिति दयनीय है। परिवार-संस्था में जगह-जगह से दरारें टूट-फूट बड़े ही साफ-तौर पर देखी जा सकती हैं। दरअसल पारिवारिक आनन्द के लिए गहन अन्तस्तल से निकलने वाले सद्भाव की आवश्यकता है और इसे केवल वे ही उपलब्ध कर सकते हैं, जो स्वयं उदार, सहृदय और सेवा-भावनाओं से परिपूर्ण हैं। परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन केवल जीवनविद्या के आदर्श ही कर सकते हैं। जब यह तथ्य लोगों के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठापित हो जाएगा, तभी यह आशा की जा सकेगी कि गरीब रहते हुए भी छोटे घर-घरौंदों में रहकर व्यक्ति आनन्द और उल्लास भरे दिन बिता सके।

परिवार का व्यापक स्वरूप समाज है। आज समाज में बड़े पैमाने पर फैली हुई कुरीतियों और अनैतिकताओं ने उसे जर्जर, विसंगठित और दीन-दुर्बल बनाकर रख दिया है। ऐसे समाज का हर सदस्य अपने को अशान्त एवं असुरक्षित ही अनुभव करेगा, उसे अपने चारों ओर घिरा वातावरण आक्रमणकारी, आशंका भरा और अविश्वस्त ही अनुभव होता रहेगा। समाज में अवांछनीय परम्पराएँ चल पड़ें तो उसके सदस्यों का स्तर हर दृष्टि से दयनीय बना रहेगा। इन दिनों यही स्थिति है। आपने समाज में नारी जाति के प्रति, अछूतों के प्रति जो ओछी मान्यता प्रचलित है, उसने आधी जनसंख्या को अविकसित, असमर्थ और असन्तुष्ट बनाकर रख दिया है। आधे शरीर को लकवा मार जाने की तरह हम सामाजिक तौर पर अपंग और असहाय बनकर रह गए हैं।

समाज-सुधार के लिए यों कतिपय-विभिन्न प्रकार के प्रयत्न तथा आन्दोलन चलते रहते हैं और उनकी असफलता और निरर्थकता भी सामने आती रहती है। समाज का बिगाड़ अविवेक और अनौचित्य को अस्वीकार करने के साहस की कमी से हुआ है। सुधार उस दिन से आरम्भ होगा, जिस दिन लोग अनीति और अनौचित्य का प्रतिरोध करने के लिए खड़े हो जाएँगे कि वह अवांछनीयता कितने दिनों से प्रचलित तथा कितनों के द्वारा व्यवहृत है। अनौचित्य के विरुद्ध एकाकी लड़ने का शौर्य जीवनविद्या का तत्त्वज्ञान अपनाने से ही सम्भव है। यह उपलब्धि जिस दिन अपने लोगों में जड़ जमाने लगे समझना चाहिए कि समाज-सुधार की प्रक्रिया तेज हो चली।

राजनीति में आज की गन्दगी हर किसी को निराश करती है। लगता है स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए अतीत में जो महान बलिदान हुए थे, व्यर्थ चले गए। नितनयी योजनाएँ बनती हैं और जनता पर कर और ऋण का भार बढ़ता चला जाता है। जिन लाभों के उसे सब्जबाग दिखाए जाते हैं, वे अन्त तक आकाश-कुसुम ही बने रहते है। न देश में प्रगति, न विदेश में प्रतिष्ठा, डींगे हाँकने से काम क्या बनना है, खोखलापन कहाँ तक छिपाया जा सकता है? हमें स्वराज पाए पचास वर्ष हो चुके-इतने समय में युद्ध जर्जरित जापान, इटली, जर्मनी आदि देश कहाँ से कहाँ जा पहुँचे। अफीमची कहे जाने वाले चीन ने भी अपना कायाकल्प कर लिया। सुव्यवस्थित आधार पर बढ़ने वाले कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, यह देखकर जहाँ हर्श और आश्चर्य होता है, वहीं अपनी ओर देखकर दुःख भी होता है। हमारा नेतृत्व अपने संकीर्ण स्वार्थों के मकड़जाल में बुरी तरह से उलझा हुआ है। भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के संकीर्ण स्वार्थों को प्रमुखता देने की होड़ लगी हुई है।

तथ्य यह है कि राजनीति को कूटनीति मात्र बना दिया गया है। उसके साथ जिन आदर्शों का समावेश होना चाहिए वह कहने-सुनने भर के लिए रह गए हैं। नेता लोग जोड़-तोड़ मिलाकर उल्लू सीधा करने की नीति पर विश्वास करते हैं। आदर्शों के लिए मर मिटने की लगन यदि उनमें रही होती तो आज गाँधी, तिलक, सुभाष जैसे नेताओं का अभाव अनुभव न होता। उत्कृष्ट व्यक्तित्वों का राजनेतृत्व जनसाधारण में कितना उत्साह उत्पन्न करता है, इसके उदाहरणों से इतिहास का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। देश की उत्साहजनक राजनैतिक स्थिति के लिए तब तक हमें प्रतीक्षा ही करनी पड़ेगी, जब तक कि हर राजनेता के व्यक्तित्व को आदर्शवादिता और उत्कृष्टता की कसौटी पर कसे जाने और खरे उतरने के लिए विवश नहीं कर दिया जाता। जीवन-विद्या के आदर्शों से जुड़कर ही राजनीति देश में स्वराज्य, रामराज्य और सतयुग के दृश्य उत्पन्न कर सकती है।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग और क्षेत्र विशेष के संकीर्ण स्वार्थों के लिए जो संघर्ष, शोषण, घृणा, आरोप, आक्रमण, विद्वेष और अनाचार उत्पन्न किए जाते रहते हैं, उनकी कोई भी चिनगारी कभी भी विश्वयुद्ध की आग लगा सकती है और चिरसंचित मानव-संस्कृति का अन्त हो सकता है। बढ़ते हुए परमाणु हथियारों की विभीषिका किसी भी दिन मानवजाति को अपना अस्तित्व गँवा बैठने के लिए विवश कर सकती है। अन्तर्राष्ट्रीय शतरंज का खेल इन दिनों जिस स्तर पर खेला जा रहा है, उसका परिणाम मानव जाति को कभी न उबरने वाले संकट में धकेल देना ही हो सकता है। छुट-पुट उपायों से काम न चलेगा। आयोग और कमीशनों की रिपोर्ट समस्याओं का हल न ढूँढ़ सकेंगी। विश्वशान्ति का आधार आध्यात्मिकता के आदर्श ही हो सकते हैं।

आध्यात्म कही जाने वाली जीवन-विद्या एक ऐसा तथ्य है, जिसके ऊपर मानव कल्याण की आधार-शिला रखी रही हुई है। उसे जिस सीमा तक उपेक्षित एवं तिरस्कृत किया जाएगा, उतना ही दुःख-दारिद्रय बढ़ता जाएगा। हमारी सम्पन्नता, समृद्धि, शान्ति, समर्थता एवं प्रगति का एकमात्र अवलम्बन जीवन विद्या ही है। यदि हमें सुखी और प्रगतिशील होकर जीना है तो स्मरण रखा जाना चाहिए कि दृष्टिकोण में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का समुचित समन्वय नितान्त अनिवार्य है। इसकी विमुखता सर्वनाश को सीधा निमंत्रण देने के बराबर है।

युगनिर्माण मिशन की स्थापना इसी समझ एवं सोच को लेकर की गयी थी। शान्तिकुञ्ज के द्वारा इसी का विस्तार हो रहा है। और अब जीवनविद्या के सूत्रों को अधिक सुव्यवस्थित ढंग से प्रशिक्षित-प्रचारित करने के लिए एक नए आलोक केन्द्र की योजना है। जीवनविद्या का यह आलोक केन्द्र-शान्तिकुञ्ज का ही एक नया आयाम होगा। प्रारम्भिक दौर में इसके चार संकाय होंगे-साधना संकाय, शिक्षा संकाय, स्वास्थ्य संकाय तथा स्वावलम्बन संकाय।

साधना संकाय के अंतर्गत जीवन-साधना के सामान्य सूत्रों के शिक्षण के साथ ही विशेष साधना-सत्र आयोजित किए जाएँगे, जो देश और विश्व के किसी भी कोने में जाकर वहाँ की परिस्थितियों और मनःस्थितियों को ध्यान में रखकर हर वर्ग एवं सम्प्रदाय के लोगों को जीवनविद्या के ऋषिमान्य सूत्रों के प्रति आस्थावान् बना सकें। शिक्षा संकाय के अंतर्गत शिक्षण और लोकशिक्षण के संदर्भ से विचारक्रान्ति को सार्वभौम बनाने की प्रभावी योजना लागू की जाएगी। स्वास्थ्य संकाय के माध्यम से देश एवं विदेश में शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य-संवर्द्धन के साथ ही रोगों से बचाव एवं उनके निवारण के लिए ऋषिमान्य जीवन-पद्धति और उपचार प्रक्रिया की शोध-अनुसंधान प्रशिक्षण एवं विस्तार की योजनाबद्ध व्यवस्था की जाती है। स्वावलम्बन संकाय एक ऐसे ज्योति-स्तम्भ के रूप में होगा-जिससे निःसृत होने वाली ज्योतिर्मय किरणें आज के कठिन समय में हर व्यक्ति को स्वावलम्बी जीवननिर्वाह हेतु मार्गदर्शन कर सकें।

जीवनविद्या के आलोक केन्द्र में संचालित होने वाले ये चारों की संकाय आध्यात्मिक जीवनशैली के विविध सूत्रों का सुव्यवस्थित रूप से प्रशिक्षण देंगे। शान्तिकुञ्ज की यह भावी योजना अध्यात्म कही जाने वाली विद्या की रक्षा के लिए एक तरह का धर्मयुद्ध है, जिसमें मानवीय आदर्शों की रक्षा में कुछ त्याग और बलिदान करने का शौर्य एवं साहस उठता हो, उनके लिए इन पंक्तियों के माध्यम से भावभरा आह्वान किया जाता है। आज फिर वही परीक्षा की घड़ी आ गयी है, जब अध्यात्म की जीवनरक्षा के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने की हिम्मत दिखाई जाए। अखण्ड-ज्योति परिवार के उन परिजनों को, जिनके हृदय में कुछ सार्थक कर गुजरने का तूफान मचल रहा है-शान्तिकुञ्ज द्वारा संकल्पित इस योजना को पूरी करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। उन्हें ही इस बात का प्रण लेना है कि उक्त की अन्तिम बूँद और साँस का अंतिम प्रवाह शेष रहने तक जीवन-विद्या के आलोक को जन-जन तक पहुँचाने में जुटे रहेंगे। उनके इसी संकल्प में मानवता का उज्ज्वल भविष्य निहित है।

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