
कर्ता एकमात्र भगवान
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सुल्तान निजामुद्दीन मध्य भारत का सुल्तान था। जो भी उसके पास आता खाली हाथ नहीं लौटता था। इस दरियादिली के साथ उसमें दाता होने का अहं भी कूट-कूट कर भरा था। माँगने वाले उसकी प्रशंसा में कहा करते थे,
“जिसको नहीं दे भगवान,उसे देता है सुल्तान।” अपनी झूठी प्रशंसा से प्रसन्न होकर वह माँगने वालों को इतना धन देता था कि उन्हें दुबारा न माँगना पड़े।
मध्य भारत में उन्हीं दिनों एक साधु बाबा थे। सभी उन्हें बाबा मस्तराम कहकर पुकारते थे। बाबा रोज भिक्षा माँगने निकलते थे। कुछ लोगों ने बाबा मस्तराम से कहा-बाबा रोज-रोज भिक्षा माँगने का चक्कर खत्म करो। एक दिन जाकर सुल्तान से माँग लो। बस आपको सिर्फ उसके द्वार पर पहुँच कर इतना ही तो पुकारना है, जिसको नहीं दे भगवान उसे देता है सुल्तान।
स्वभाव से फक्कड़ बाबा यह सुनकर जोर से हँस पड़े और कहने लगे-पागल है वह। लगता है उसे अपने पर भारी घमण्ड हो गया है। भला वह है कौन किसी को देने वाला। अरे जिसे न दे भगवान, उसे क्या देगा सुल्तान।
बाबा की बात धीरे-धीरे सुल्तान तक पहुँच गयी थी। उनकी बातें सुल्तान को अच्छी नहीं लगी। उसे लगा जैसे बाबा मस्तराम उसका मखौल उड़ा रहे है। आखिरकार सुल्तान में एक योजना बनायीं।
योजना के अनुसार सुल्तान ने गाँव वाले का वेश बनाया। बैलगाड़ी में तरबूज भरे और उधर जाकर बैठ गया, जिधर से बाबा मस्तराम भी माँगने जाया करते थे। थोड़ी देर में बाबा मस्तराम भिक्षा लेने निकले। जब वे तरबूज वाले के पास पहुँचे तो उसने आदर सहित बाबा को छाँटकर अच्छा-सा तरबूज भिक्षा में दे दिया।
बाबा तरबूज को लेकर वापस लौट चले। उन्होंने तरबूज एक तरफ रखा और भजन-पूजन में बैठ गए। कुछ देर में एक राहगीर विश्राम के लिए बाबा की झोपड़ी में आ गया।
संयोगवश राहगीर के पास भी एक तरबूज था। लेकिन उसका तरबूज बाबा के तरबूज से बहुत छोटा था। बाबा के तरबूज को देखकर वह मन-ही-मन सोच रहा था, काश। इतना बड़ा तरबूज मेरे पास होता। मैं ठहरा परिवार वाला। इस छोटे-से तरबूज से किस तरह काम चलेगा, वैसे भी इतने बड़े तरबूज का साधु बाबा क्यों करेंगे?
राहगीर तो यह सोच ही रहा था बाबा उसके मन की बात जान गए थे। सो बोले-भाई यह तरबूज मुझे दे दो। यह सुनकर राहगीर चौका। बोला-नहीं बाबा भला मैं आपका तरबूज कैसे ले सकता हूँ।
बाबा मस्तराम ने हँसते हुए कहा-संकोच नहीं करो, बेटा। मैं तो अकेला फक्कड़ हूँ। तुम बाल-बच्चे वाले हो? इसे तुम ले जाओगे तो बच्चों सहित मजे से खाओगे। मेरा काम तो छोटे वाले तरबूज से भी चल जाएगा। बाबा के इतना कहने पर उसने तरबूज लेना मंजूर कर लिया। तरबूज को लेकर अपने घर चला गया।
भोजन के समय बाबा ने तरबूज काटा। तरबूज बहुत मीठा था बाबा के लिए पर्याप्त था कुछ देर में राहगीर भी अपने घर पहुँच गया। इतना बड़ा और अच्छा तरबूज देखकर घर के सभी सदस्य प्रसन्न थे। सबके सब तरबूज खाने बैठे। तरबूज को चाकू से काटा गया। मगर अन्दर से तरबूज को देखकर वे हैरान रह गए।
तरबूज में हीरे-मोती-जवाहरात छिपे हुए थे। इतनी दौलत तो उन्होंने कभी देखी भी नहीं थीं जब उन्होंने तरबूज को ध्यान से देखा, तो समझ गए कि सफाई पूर्वक तरबूज को खोखला कर उसमें धन भर दिया गया था। हालाँकि उन लोगों की तरबूज खाने की इच्छा पूरी नहीं हुई थी पर वे प्रसन्न थे। आखिर एक गरीब परिवार को एकाएक इतना धन मिल गया था। वे इसे साधु बाबा की कृपा मान रहे थे।
दूसरे दिन मस्तराम बाबा फिर भिक्षा माँगते हुए उस तरबूज वाले की तरफ चले गए। बाबा की भीख माँगते देखकर वह चौका। उसने बाबा से कहा-लगता है आपको भीख माँगने की आदत ही पड़ चुकी अन्यथा इतना धन मिलने के बाद भी कोई भीख माँगता है?
कौन-सा धन? बाबा ने हैरानी से पूछा।
वही धन, जो मैंने तुम्हें कल दिया था कल तुमने मुझे तरबूज अवश्य दिया था, पर कोई धन नहीं।
अपना असली परिचय देते हुए सुल्तान ने कहा-मैंने कल जो तरबूज दिया था उसमें बेशुमार दौलत थी। इतनी दौलत कि जीवन भर
खर्चा करो, तो भी समाप्त नहीं। होती। मैं आज इसीलिए बैठा हूँ कि तुम अब भी भिक्षा माँगते हो क्या, यह जान सकूँ।
बाबा मस्तराम सब कुछ जान चुके थे। वे हँसते हुए सुल्तान से बोले-जिसे नहीं दे भगवान उसे क्या देगा सुल्तान मन में घमण्ड नहीं लाओ सुल्तान-देने वाला ईश्वर है। सुल्तान की क्या हस्ती जो उसकी मर्जी के बिना किसी को कुछ दे दे। यदि तम देते हो तो ईश्वर की मर्जी से ही देते हो। यह कहते हुए बाबा मस्तराम ने तरबूज बदलने वाली सम्पूर्ण घटना कह सुनायी। वे बोले कि धन तरबूज में भरकर मेरे माध्यम से राहगीर को देने के लिए ईश्वर का आदेश था। सो तुमने पूरा लिया।
सुल्तान समझ गया कि उसने कितना बड़ा भ्रम पाल रखा है। उसे समझ में आ गया कि कर्ता एकमात्र भगवान ही है, कर्म के माध्यम भले ही अनेकों हों।