
युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष-6 - बुद्धि विपर्यय से विचारक्रान्ति निपटेंगी
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संसार में अनेक प्रकार के घटना क्रम घटित होते रहते, परिवर्धन और परिवर्तन का क्रम चलता रहता है। इनकी जानकारियाँ आँख, कान जैसी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा मस्तिष्क को मिलती रहती है। उसके समर्थन बिन न तो मन बहुत देर उछल-कूद कर सकता है और न शरीर असमंजस छोड़कर कुछ करने के लिए तत्पर होता है।
शरीर और मन दोनों को ही अन्तिम निर्णय के लिए बुद्धि के निर्धारणों की ही अपेक्षा रहती है यह बुद्धिमत्ता ही मनुष्य की अत्यधिक विशेषता है। गायत्री महामंत्र में आत्मा ने परमात्मा से एक ही प्रमुख प्रार्थना की है कि उसकी बुद्धि क्षमता को सदाशयता के साथ नियोजित कर दिया जाए। इतने भर से सर्वतोमुखी प्रगति का द्वारा खुल जाएगा।
जीवन के किस पक्ष को समग्र अभ्युदय का श्रेय दिया जाय और किसे अनर्थ करने के लिए दोषी ठहराया जाय। इसका विश्लेषण करने पर एक ही बिन्दु सामने आता है। प्रचलनों को व्यापक बनाने और वातावरण में उत्कृष्टता निष्कृष्टता के तत्व भरने के उसी की भूमिका को प्रमुख माना जा सकता है। उसी का स्तर गिरना व्यक्ति और समाज के अधःपतन का एकमात्र कारण है। पदार्थ और प्राणी उसी के संकेतों की प्रतीक्षा करते और और अपनी स्थिति बदलते रहते है।
इस तथ्य को समझ लेने के उपरान्त आज की समस्याओं के साथ जुड़ी हुई जटिलता पर विचार करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि उसकी बुद्धिमत्ता का स्तर गिरा है। दूसरों का हित साधन भी जुड़ा है। शोषण, उत्पीड़न की रीति नीति अपनाना, लिप्सा, तृष्णा और अहंता के लिए आकुल व्याकुल हो जाना उससे कभी बन ही नहीं पड़ता।
वर्तमान अनुपयुक्त परिस्थितियों को देखते हुए उनका कारण ढूँढ़ते समय तात्कालिक कारण तो अनेक प्रतीत हो सकते और उसके निराकरण के उपाय भी अनेकानेक सोचे जा सकते है। उतने पर भी तथ्य जहाँ का तहाँ रहता है कि विपत्तियों के उत्पादन में दुर्बुद्धि की ही खुराफातें अपनी बाजीगरी चमत्कार संरचनाओं में लगा दिया है। भले उसे इसमें तात्कालिक लाभ का बढ़ा चढ़ा लालच प्रोत्साहित करता रहा है। भले ही उसे उस मदान्ध स्थिति में भावी दुष्परिणामों का भान न हुआ हो।
वस्तुस्थिति समझने और चिरस्थायी उपाय उपचार सोचने के लिए हमें तह तक उतरना होगा और उस उद्गम को खोजना होगा, पागल हाथी को सधे हुए बलिष्ठ हाथ ही जंजीरों से कसते और उसे सही तरह रहने के लिए बाधित करते है। होम्योपैथी वाले विष को विष से शमन करने का सिद्धान्त अपनाते हुए ही अपने प्रतिपादनों की सार्थकता सिद्ध करते है।
समझने और समझाने के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र सामने खाली पड़ा है, जो इस प्रतीक्षा में बैठा है कि झाड़ झंखाड़ों को उखाड़कर यह सुरम्य उद्यान खड़ा कर सकने वाले कब और कहाँ से आये। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में घुसी अवांछनीयताओं को एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक बुहारना होगा।
विचारक्रांति ही अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसी एक मास्टर चाबी से वे सभी ताले खुल सकते हैं, जिनमें सुखद संभावनाओं के मणि−माणिक तिजोरी बंद स्थिति में जकड़े पड़े है। यह धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में लड़े जाने वाले महाभारत की तुलना में अधिक व्यापक अधिक सूक्ष्म और अधिक महत्वपूर्ण है। महाविनाश की दौड़ती चली आ रही विभीषिका अपनी विजय दुन्दुभी बजाये या फिर विकास को धरती पर परमार्थ उतने जैसी सुलभता मिले, इसका निर्णय इन्हीं दिनों होना है।