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Magazine - Year 1998 - Version 2

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स्वर्ग-नरक सब यही पर विद्यमान

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स्वर्ग और नरक नाम के कोई नगर, ग्राम देश या स्थान कही भी नहीं है। सौरमण्डल के ग्रह-उपग्रहों को खोज लिया गया है। इस निखिल ब्रह्माण्ड के तारकों, महासूर्यों और आकाश गंगाओं की अद्यावधि जानकारियों में अब तक ऐसे किसी लोक के अस्तित्व की सम्भावना नहीं दीखती जैसी कि विविध धर्म-सम्प्रदायों में उनका अपने-अपने ढंग से उल्लेख किया है।

तब क्या स्वर्ग-आकार मात्र कल्पना भर है। कर्मों के फल प्राप्त करने के लिए कोई माध्यम नहीं है क्या? जिन कर्मों का फल इस जन्म में नहीं मिल सका उनके लिए ईश्वर के दरबार में कोई व्यवस्था नहीं है क्या? सद्गति और दुर्गति का कोई माध्यम न हो तो फिर शुभ कर्म और अशुभ कर्म करने वालों को तदनुरूप प्रतिफल कैसे मिलेगा? आदि अनेक प्रश्न उभर कर आते है और यह असमंजस उत्पन्न करते है कि यदि स्वर्ग-नरक का अस्तित्व था ही नहीं, तो धर्म-संस्थापकों ने इतना बड़ा उनका कलेवर रचकर खड़ा क्यों कर दिया?

हम जानना चाहिए कि स्वर्ग-नरक दोनों का अस्तित्व है और उनके माध्यम से शुभ-अशुभ कर्मों के फल मिलने की समुचित व्यवस्था मौजूद है। अन्तर केवल स्थान विशेष को है। सन्देहास्पद बात केवल इतनी भर है कि उनके लिए कही कोई नियत ग्राम या स्थान है या नहीं।

इहलोक हमारा प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप और परलोक हमारा भावनात्मक दृष्टिकोण है। इन दोनों ही लोकों में कर्मफल मिलने की समुचित व्यवस्था मौजूद है। उसका निर्माण स्वसंचालित प्रक्रिया के आधार पर हुआ है। किसी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप की उसमें आवश्यकता नहीं है। यही व्यावहारिक भी था और तर्क संगत भी। एक छोटे से मुकदमें का फैसला कराने में कितने वकील, गवाह, जज, पुलिस आदि कार्यकर्ता लगते है। कितने कागज, सबूत इकट्ठे होते है और जेल-व्यवस्था के लिए कितने उपकरण इकट्ठे करने पड़ते है। मनुष्य जीवन में क्षण-क्षण पर भले-बुरे कर्म बनते है। एक दिन में ही उनके दण्ड-पुरस्कार की सैकड़ों फाइलें बन सकती है। जीवनभर में तो वे असंख्यों हो जाएँगी। फिर 600 करोड़ों से अधिक मनुष्य इस धरती पर मौजूद है। उन सबका लेखा-जोखा रखना और दण्ड-पुरस्कार का विधान बनाना इतना बड़ा हो जाएगा कि उसके लिए मनुष्य लोक से अधिक कर्मचारी लग जाएँगे। अस्तु अन्य सत्ता के माध्यम से दण्ड-पुरस्कार की व्यवस्था एक प्रकार से कठिन ही नहीं असम्भव भी है।

मनुष्य को जहाँ इच्छापूर्वक भले-बुरे कर्म करने की स्वतन्त्रता मिली है वहाँ उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने और परिणाम प्रस्तुत करने की स्वसंचालित समस्त सृष्टि में यही हो रहा है, बीज जमीन में बोया जाता है। खाद, पानी मिलते ही वह अंकुरित होता है और पौधा वृक्ष बनने लगता है। ईश्वर सर्वत्र समाया हुआ है, इसलिये यह कार्य ईश्वर करता है, यों कहने में भी हर्ज नहीं है। पर ईश्वर भी इतना झंझट कहाँ तक सिर पर लादता? उसने स्वसंचालित प्रक्रिया बनाकर अपना कर्मफल सम्बन्धी प्रयोजन सरल कर लिया है।

चक्की में ऊपर से अनाज डालते है नीचे आटा निकलता जाता है। कोल्हू में ऊपर से सरसों डालते ही तेल टपकने लगता है। मोटर में मीटर लगा रहता है और वह बताता रहता है। कि कितने मील चल लिए। यह स्वसंचालित मशीनों का जमाना है। बड़े-बड़े प्रिंटिंग प्रेस घण्टे में हजारों कागज इसी आधार पर छापते है। एक बार मशीन चला दी फिर सारा काम अपने आप वे मशीनें करती रहती है। इधर कच्चा माल डाला जाता रहता है उधर से तैयार बनकर निकलता रहता है।

कर्मफल की प्रक्रिया भी इसी तरह की है। बुरे कर्म के दुखद परिणाम जिन्हें नरक कहते है निश्चित रूप से मिलते है और भले कर्मों का सत्परिणाम जिन्हें स्वर्ग कहा जाता है मिलना भी उतना ही सुनिश्चित है। यह स्वसंचालित ढंग से होता रहता है। शरीर अपने कर्मफल की व्यवस्था स्वयं कर लेता है। बैठे रहिए, तोंद बढ़ जाएगी और चलना-फिरना कठिन। अपच, दिल की धड़कन आदि कितने ही कष्टकर रोग घेर लेंगे। श्रम करना धर्म है और हरामखोरी, पसीना न बहाना अधर्म। शारीरिक पाप किया बैठे रहने का उसका फल मोटापे के साथ जुड़े हुए कष्टों के रूप में सामने आ गया। अधिक खाया-पेट में दर्द, रात भर जगे-सिर में दर्द, नशा पिया-बदहजमी-जहर खाया-मौत स्नान करने में आलस-बदबू-जुए खाज। नियमित व्यायाम-पहलवान-पथ्य परहेज-निरोगता यह दण्ड-पुरस्कार की व्यवस्था शरीर अपने आप ही किसी बाहरी हस्तक्षेप के बिना स्वतः ही कर लेता है। कर्म करने की अपनी इच्छा-फल देने की उस स्वसंचालित ईश्वरीय सत्ता की इच्छा। दोनों का अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध है। कर्म कर लें उसके फल से बचे रहें यह नहीं हो सकता।

आलसी दरिद्री रहते है, प्रमादी के लिए प्रगति के द्वार बन्द हो जाते है। क्रोधी शत्रुओं से घिर जाता है, धूर्त मित्रों से वंचित हो जाता है बेईमान के सहयोगी बिछड़ जाते है उद्दण्ड को घृणा मिलती है अपव्ययी ऋणी बनता है यह दण्ड -व्यवस्था हर किसी को पग- पग पर अनुभव होती है और श्रेष्ठ कर्म करते हुए मनुष्य सम्माननीय यशस्वी सहयोग, सम्पन्न, समृद्ध सफल बनता है और उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचता है। स्वयं सुखी रहता है और दूसरों को सुखी बनाता है। यह कर्मफल की स्वर्ग-नरक प्रक्रिया निरन्तर सामने रहती है। पापी दुष्ट दुरात्मा राजदण्ड भुगतते हैं घृणास्पद बनते है और स्नेह-सहयोग से वंचित होकर मरघट के प्रेत पिशाच बने एकाकी घूमते है। यह घृणित जीवन नरक नहीं है तो क्या है? सेवाभावी सद्गुणी सन्त सज्जन धरती के देवता समझे जाते है और मरने के बाद भी वन्दनीय श्रद्धास्पद ही बने रहते है। उनकी यशगाथाएँ अनेकों को प्रेरणा भरा प्रकाश देती रहती है। इसे स्वर्ग प्राप्ति न कहें तो और क्या कहें? सम्मानास्पद श्रद्धा पात्र सज्जन और प्रामाणिक किसी व्यक्ति को माना जाय इससे बढ़कर सौभाग्य और सन्तोष की बात और क्या हो सकती है। इस प्रकार के कर्मफल प्राप्त करते रहने की, स्वर्ग-नरक जैसी प्रक्रिया हम निरन्तर फलित होती देखते रहते हैं।

कई व्यक्ति दूसरों को धोखा देकर अपनी वस्तुस्थिति छिपा लेने में प्रवीण बन जाते है और इस प्रकार पापकर्म करते हुए दूसरों द्वारा मिलने वाले दण्ड से बच निकलने की तरकीब निकालते है। यह चतुराई आजकल बहुत चल पड़ी है। इससे कुछ लाभ तो है, पर हानि उससे कही अधिक है। लाभ यह है कि सरकार की पकड़ में न आने पर राजदण्ड से बच जाते है। पाप प्रकट न हो तो दूसरों के द्वारा घृणा, निन्दा एवं विलगता से होने वाली हानि बच जाती है। पर इसमें जो छिपाव का ताना-बाना बुनना पड़ता है, वह अन्तरमन में एक विचित्र प्रकार की घुटन पैदा करता है। अन्तरमन की बनावट ऐसी है कि वह इस घुटन को पचा नहीं सकती।

हवा भरे गुब्बारे का पानी में जितने जोर से डुबाते है अवसर मिलते ही वह उसी वेग से उछलकर ऊपर आ जाता है। छिपे हुए पाप शारीरिक व्याधि और मानसिक आधि बनकर समय-कुसमय ऐसी बुरी तरह फूटते है कि चिकित्सा उपचार काम नहीं करते।

यह पाप शरीर और मन को कष्ट देने तक ही सीमित नहीं रहते वरन् अन्तरिक्ष में अनेक अदृश्य विपत्तियों का सृजन करते रहते है। पत्थर के कोयले की अँगीठी को कितने ही व्यक्ति ठण्ड से बचने के लिए कमरे में बन्द करके रख लेते है। तत्काल ठण्ड से तो बचत दीखती है, पर वहाँ की वायु में ऐसा विष भर जाता है जिससे सोते-सोते ही उनकी मौत हो जाती है। शरीर में चोट नहीं लगी बुखार आया नहीं मस्तिष्क की नस फटी नहीं सब कुछ ज्यों का त्यों, मौत का कुछ कारण मोटी आँख से दिखाई नहीं पड़ता। पर जानकार जानते है कि अँगीठी ने वायु में विष घोल दिया और वही मौत का कारण बना। ऐसे कितने ही अज्ञात प्रत्यक्ष कारण अनायास ही विपत्ति बनकर सामने आ जाते है, जिनका अपने तात्कालिक क्रिया-कलाप से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं दीखता। इसी प्रकार कई बार सुविधा-सफलताएँ भी मिल जाती है जिनके लिए उचित श्रम और प्रयत्न नहीं किया गया होता। यह असंगत अवरोध और अनुदान-दैव इच्छा एवं भाग्य का खेल बनकर सामने आते है। उनका प्रत्यक्ष कारण नहीं दीखता, पर परोक्ष कारण वह स्वसंचालित प्रक्रिया ही होती है, जिसने अपने कर्मों के फल अनुसार अन्तरिक्ष में धीरे-धीरे वातावरण बनाया और वह भले-बुरे अप्रत्याशित अवसर सामने आकर खड़े हो गये।

समय लग सकता है। आज का फल आज न मिलने से व्यक्ति भ्रम में पड़ सकता है और यह सोच सकता कि बुरे कर्म के दण्ड से बचे गये या भला कर्म निष्फल चला गया पर वस्तुतः ऐसा होता कभी नहीं। तुरन्त या कालान्तर में इसका रहस्य अज्ञात होने के कारण प्रत्यक्षवादी उतावले अनास्थावान् हो उठते हैं, पर यदि धैर्य रखा जाय तो प्रतीत होगा कि इसी जन्म में अथवा अगले जन्म में प्रत्येक कर्म का भला-बुरा परिणाम मिलना सुनिश्चित है।

उसी व्यवस्था-क्रम पर तो यह विश्व टिका हुआ है, यदि यह असंदिग्ध हो जाये तो फिर ऐसा अन्धेर फैले ऐसी अराजकता उपज कि कही कुछ सँभलना -सँभालना सम्भव न हो सके। फिर न कोई पाप से डर और न पुण्य का झंझट। दृष्टिकोण अपने आप में चित्त की प्रसन्नता -अप्रसन्नता सन्तोष -असन्तोष शान्ति -अशान्ति बनकर पग -पग पर फलित होता रहता है। सत्कर्म करने पर मन में अनायास ही सन्तोष और उल्लास उठता रहता है किसी कष्ट पीड़ित की सहायता अपना काम हर्ज करके यदि कर दी जाय तो भीतर एक परम सात्विक हलका और शीतल मलयज पवन जैसा आनन्द उठता अनुभव होगा। इसके विपरीत यदि चोरी ठगी अनीति बरतकर किसी को क्षति पहुँचाई गई  होगी तो भीतर ही भीतर कोई खटमल पिस्सू की तरह काट रहा होगा और आत्मसन्तोष और आत्मधिक्कार अन्तः करण को बलिष्ठ और दुर्बल बनाते है और इसी आधार पर प्रगति के अगणित मार्ग खुलते और अवरुद्ध होते है। पापी का अन्तरात्मा दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, दूसरों पर से ही नहीं, अपने पर से भी उसका विश्वास उठ जाता है।

अपने स्वल्प-उपार्जन से सादगी का जीवन जीते हुए सन्तुष्ट रहे, चरित्र उज्ज्वल रखे और दूसरों के प्रति स्नेह -सहयोग भरा दृष्टिकोण रखे, उसे निरन्तर अपने भीतर एक अमृत जैसी निर्झरिणी कल-कल ध्वानि से प्रवाहित होती हुई अनुभव होगी और लगेगा कि भावना क्षेत्र में स्वर्गीय सुषमा ही प्रादुर्भूत हो रही है।

मरने के बाद भी भले-बुरे कर्मों के दण्ड कितने ही प्रकार से मिलते होंगे। दो जन्मों के बीच सुखद और कष्टकर स्थिति रहती होगी, अगले जन्म उत्कृष्ट या निकृष्ट मिलते होंगे। स्वर्ग-नरक का स्थान भाव नगर ही सही, प्रतिफल की व्यवस्था मरणोत्तर जीवन में तत्काल भी रहती होगी। पर इस जन्म में तत्काल भी भले बुरे परिणाम मिलते रहते हैं और स्वर्ग-नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया भी हमें नियन्त्रण में रहने और विवेकपूर्ण रीति-नीति अपनाने के लिए बाध्य करती रहती है।

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