
आइए, करें ईश्वर से वार्तालाप
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क्या हम ईश्वर को देख सकते हैं, उससे वार्तालाप कर सकते हैं? इस प्रश्न का उत्तर नहीं में भी दिया जा सकता है और हाँ में भी। नहीं उस स्थिति में जब ईश्वर को कोई आसमान में ठहरा हुआ और मनुष्यों जैसी आकृति-प्रकृति का मानकर चला जाए। यह विशुद्ध भावनात्मक कल्पना है, जो सम्भवतः ध्यान की एकाग्रता अथवा उत्कृष्टतम मानव का स्वरूप निर्धारण करते हुए उसके सदृश बनने की लक्ष्य स्थापना के लिए की गई प्रतीत होती है। उसके अनेक नाम-रूप ही नहीं गुण-स्वभाव की भारी भिन्नता वाले अगणित स्वरूप भी यहीं बताते कि यह यथार्थता नहीं काल्पनिक स्थापना है। यदि ईश्वर को कोई यथार्थ आकृति होती, तो वह सूर्य, चन्द्र आदि की तरह समस्त विश्व में एक ही प्रकार की दृष्टिगोचर होती। तब देश, जाति एवं सम्प्रदायों द्वारा प्रस्तुत अनेकानेक ईश्वरीय आकृतियाँ क्यों दिखाई पड़ती। तब इन ईश्वरों के बीच मान्यताओं और क्रिया–कलापों का जमीन आसमान जितना अन्तर क्यों रहता।
ऐसे काल्पनिक ईश्वर को देखना और उससे वार्तालाप करना यदि किसी के लिए सम्भव हो सके, तो उसे उसकी भावातिरेकता ही कहा जाएगा। अपनी कल्पना और आस्था का समन्वय भी क विचित्र है। उससे अँधेरे में खड़ी झाड़ी भूत बनकर हमें इतना डरा देती है कि प्राणघातक संकट आ उपस्थित हो। भूत-पलीतों के विविध क्रिया-कौतुक मनुष्य की सघन कल्पनाओं के अतिरिक्त और क्या है? ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी संकल्पशक्ति एवं आस्थाओं से मिश्रित भावुकता के आधार पर गढ़ा जा सकता है। उसके दर्शन भी हो सकते है और वार्तालाप भी हो सकता है, पर इसका परिणाम कुछ नहीं। कल्पना की परिपुष्टि कल्पना के आधार पर कर लेने का रात्रि स्वप्न अथवा दिवास्वप्न किसी का कुछ प्रयोजन पूरा नहीं कर सकता। ऐसे भावुक लोगों की कमी नहीं, जो अपने कल्पित देवी-देवताओं के अक्सर दर्शन करते रहते है। वे कभी स्वप्न में दिखाई पड़ते है, कभी अर्द्धजागृत अवस्था में। यदि वह दर्शन वास्तविक रहे होते तो इतना बड़ा देव-अनुग्रह प्राप्त करने वाले के व्यवहारिक जीवन में स्तर में तथा परिस्थितियों में अन्तर अवश्य पड़ा होता। देवता जिस पर इतने प्रसन्न हो कि दर्शन देने दौड़े आये, उस पर वे अन्य कृपाएँ भी अवश्य करेंगे और उसका स्तर देवोपम बना देंगे। पर यदि वैसा कुछ नहीं होता और दर्शनों का सिलसिला चलता रहता है, तो यथार्थवादी इतना ही कह सकता है कि विनोद की एक अच्छी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि हाथ लग गई।
इस स्तर के ईश्वर का दर्शन करने की बात सोचना बालबुद्धि से अधिक और कुछ नहीं है। विवेकवान व्यक्ति इस जंजाल में नहीं उलझते वरन् तत्व-चिंतन की गहराई में उतरकर इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि अनन्त में संव्याप्त दिव्य चेतना ही ईश्वर है। मनुष्य और इस ईश्वर का मिलन स्थल मानवी अन्तःकरण ही हो सकता है। व्यक्ति की समाविष्ट दिव्यचेतना का केन्द्रस्थल उसका अन्तःकरण है। सजातीय के साथ ही सजातीय का मिलना सम्भव है। आत्मिक चेतना ही ईश्वरीय चेतना के समकक्ष है। अस्तु, उन्हीं दोनों का पारस्परिक मिलन सम्भव हो सकता है। हाड़-माँस से बनी शरीर सत्ता और उसके साथ जुड़ी हुई इन्द्रियाँ स्वयं जड़-पदार्थों को ही देख सकती या अनुभव कर सकती है। यदि ईश्वर जड़ पदार्थों का बना, अचेतन स्थूल वस्तुओं जैसा रहा होता, तो ही आँख से उसे देखना और कान से उसकी आवाज सुनना सम्भव हो सकता था। जिस प्रकार एक मनुष्य दूसरे को देखता है या अपनी कहता उसकी सुनता है, उस स्तर का दर्शन अथवा वार्तालाप सम्भव नहीं हो सकता।
अर्जुन ऐसा ही आग्रह कर रहा था कि मुझे भगवान का दर्शन करना है। इस पर कृष्ण ने कहा-यह चर्मचक्षुओं से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए उसे दिव्य चक्षु दिये गये। दिव्य चक्षु अर्थात् दिव्यदर्शन, तत्त्वदर्शन, विवेक। उसी के माध्यम से अर्जुन ने एक विराट विश्व-ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे। वैसा ही हमारे लिए भी सम्भव हो सकता है। यदि प्रत्यक्ष ईश्वर देखना हो, तो यह विश्व उसी का स्वरूप देखा जा सकता है और उसके अन्तराल में सन्निहित विश्वात्मा की परमात्मसत्ता के रूप में, भाव-सम्वेदना के क्षेत्र में सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
उससे वार्तालाप करना हो तो सत् शास्त्रों के स्वाध्याय में, महामानवों के सत्संग-सान्निध्य में, तत्त्वदर्शन के मनन-चिन्तन में सम्भव हो सकता है। टेलीफोन वार्ता की तरह भगवान से वार्तालाप करने की और टेलीविजन पर चलते-फिरते ईश्वर को देखने की निरर्थक उड़ाने उड़ना छोड़कर ही हम वास्तविकता के निकट पहुँच सकते है। भ्रम-जंजाल गढ़कर तो हम अपने आपको अवास्तविकता के ऐसे जाल में अधिकाधिक फँसाते चले जाएँगे, जिसमें बालू से तेल निकालने जैसे निरर्थक प्रयासों की तरह निराशा ही हाथ लगेगी। सुखद कल्पना गढ़ लेना और ईश्वर के साथ क्रीड़ा-कल्लोल हास-विलास करते रहना एक बात है और वैसी यथार्थता का होना दूसरी। कल्पना की उड़ाने सम्भव है किसी का भावनात्मक समाधान कर सकें, पर वास्तविकता के क्षेत्र में उसके हाथ कोई बड़ी उपलब्धि मिल नहीं सकेगी, यह भी सत्य है।
ईश्वर-दर्शन उचित भी है और आवश्यक भी। पर उस लाभ से लाभान्वित तभी हुआ जा सकता है, जब उसके लिए उपयुक्त स्थान चुनें और उपयुक्त आधार अपनाएँ। मानवी अन्तःकरण ही स्थान है जहाँ उत्कृष्ट भावनाओं एवं विचारणाओं के रूप में मनुष्य और परमेश्वर का मिलन सम्भव हो सकता है। उसी मिलन में वार्तालाप की भी पूरी सम्भावना विद्यमान है। मिलन और वार्तालाप की दोनों आवश्यकताएँ एक ही स्थान पर, एक ही समय पूरी हो सकती है। इसके लिए अपने अन्तःकरण को छोड़कर अन्यत्र भटकने की जरूरत नहीं है। प्रतीक पूजा का आधार इसीलिए लिया जाता है कि हमारी विमूढ़ चेतना क्रमशः ईश्वर के सान्निध्य में पहुँचे, इसके लिए श्रद्धा उगाये और तादात्म्य होने के लिए अभ्यास जुटाये। इससे आगे की मंजिल पूरी करने के लिए तो हमें बहिरंग जड़ जगत में से अपने को समेटकर अन्तरंग क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए ही कदम बढ़ाने पड़ते है। ईंट-पत्थरों के बने देवालयों स्थापित पाषाण प्रतिमाएँ आरम्भिक श्रद्धा-जागरण की दृष्टि से ही उपयुक्त होती है। ईश्वरप्राप्ति का, उसके दर्शन अथवा वार्तालाप का उद्देश्य पूरा नहीं करा सकतीं। इसके लिए तो उसी तीर्थ में जाना पड़ेगा, जहाँ ईश्वरीय प्रकाश की सीधी किरणें आती है और जिसे अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। सच्चा देवमंदिर अपना अंतःक्षेत्र ही है, उसी में अन्तःकरण रूपी सजीव देवप्रतिमा प्रतिष्ठापित है। इसी मर्मस्थल से संपर्क बनाकर हम अपने अध्यात्म लक्ष्य तक पहुँच सकते है। आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन के महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए हमें इस सुनिश्चित स्थान के साथ ही गहन
संपर्क बनाना होगा।
अपने भीतर ही वह सत्ता विद्यमान है, जो हमारा श्रेष्ठतम मार्गदर्शन कर सके और समस्त समस्याओं का हल प्रस्तुत कर सके। अभीष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटा सकना भी पूर्णतया उसकी सामर्थ्य के अंतर्गत है। इस सत्ता केन्द्र का नाम अन्तःकरण है। मनुष्य और ईश्वर का जब कभी -जितना कुछ भी संपर्क बनेगा, इस केन्द्र स्थल पर बनेगा। आत्मा और परमात्मा की प्रणयकेलि का सुसज्जित एकान्त उद्यान यही है। वस्तुतः ईश्वर की सत्ता और महत्ता अत्यन्त व्यापक है, उसे चिन्तय और अनिवर्चनीय कहा जा सकता है।
सुविस्तृत ब्रह्माण्ड में ग्रह नक्षत्र में, एक से दूसरे की दूरी कितनी अधिक है, इसके गणना-अंक देखते ही बुद्धि चकरा जाती है और उनकी भ्रमण कक्षाओं के क्षेत्र की कल्पना की जाए, तो बुद्धि को प्रतीत होगा कि इतने विस्तार का चिन्तन तक उसके लिए असम्भव है। मानवी जानकारी से बाहर भी न जाने कितनी निहारिकाएँ और होंगी, वे जिन घेरे को स्पष्ट करती होंगी, उनके भीतर भिन्न-भिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ और शक्तियाँ काम कर रही होंगी? उनमें रहने वाले जड़-चेतन पदार्थों की स्थिति में कितनी भिन्नता और कितनी विशेषज्ञता होगी, उन सबका नियन्त्रण-संचालन का सूत्र सँभालने वाला कितना कार्य किस प्रकार सम्पन्न करता होगा? उसकी स्वयं की स्थिति कितनी सुविस्तृत होगी? इन सब प्रश्नों पर जब विचार करना आरम्भ करते है, तो तत्त्वदर्शी-मनीषियों की तरह हमें भी अचिन्त्य, अनिवर्चनीय, अनादि, अनंत, नेति-नेति आदि कहकर अपनी चिंतनात्मक असमर्थता और तुच्छता स्वीकार करनी पड़ती है। समग्र ईश्वर को प्राप्त करना तो दूर?, सके विस्तार संबंधी कल्पना तक कर सकना हमारे लिए शक्य नहीं।
ईश्वर को अणोरणीयान् महतो महीयान् कहा गया है। महतो महीयान् को प्राप्त कर सकना अपने साधनों को देखते हुए सम्भव नहीं। हम उसकी अणोरणीयान् सत्ता से ही
संपर्क बना सकते है और उस मर्मस्थल में तादात्म्यता प्राप्त करके अपनी व्यापकता भी ईश्वर की तरह ही असीम बना सकते है॥ ब्रह्म-वेत्ता प्रयास में निरत रहे हो और उन्होंने तत्त्वज्ञान के मार्मिक रहस्योद्घाटन करते हुए यही कहा है कि ईश्वर से संपर्क बनाने का एकमात्र सही स्थान अन्तःकरण ही हो सकता है।
आमतौर से हमारी अभिरुचि बाह्य जगत में बिखरी पड़ी रहती है। बहिर्मुखी चिन्तन में निरत और लिप्सा-लालसाओं के साधन जुटाने में व्यस्त मनुष्य के लिए वह सम्भव ही नहीं हो पाता कि
अंतःक्षेत्र में प्रवेश करके वहाँ भरे पड़े अमृत भण्डार को कल्पवृक्ष को पारस को देखने और समझने में समर्थ हो सके। जब इतना ही नहीं बन पड़ा, तो उस रत्नभण्डार को कुरेद कर बहुमूल्य रत्नों को प्राप्त कर सकना तो बन ही कैसे पड़ेगा?
ईश्वर को प्राप्त कर सकना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। इससे बड़ी सम्पदा एवं उपलब्धि दूसरी हो ही नहीं सकती। विश्व की समस्त विभूतियों के अधिपति के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने पर उसकी समस्त सत्ता से भी अपना संबंध बना जाता है। इसी स्थिति में जो पहुँच गया उसके लिए हर वस्तु करतलगत हो गई। उसे और कुछ प्राप्त करना
शेष नहीं रह गया। इस स्थिति की गरिमा को देखते हुए तत्त्वदर्शी ईश्वरप्राप्ति का माहात्म्य वर्णन करते रहे है और विचारवान लोगों को उस उपलब्धि के लिए प्रयत्न करने की प्रेरणा देते रहे है। स्वाध्याय-सत्संग मनन-चिन्तन योग-तप आदि के समस्त साधन, उपचार ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य पूरा करने के लिए ही बनाये गये।
यह ईश्वर कहाँ मिले? कैसे मिले? इस प्रश्न का उत्तर बालबुद्धि के प्राथमिक विद्यार्थियों को पूजापरक बाह्योपचारों की ओर इशारा करके दिया जाता है। इन्हें तीर्थयात्रा, देव-दर्शन नदी-स्नान व्रत-उपवास दान-पुण्य कथा-कीर्तन विधान-कर्मकाण्ड आदि के साधन बताये जाते है। पर जिन्हें विवेकजन्य प्रौढ़ता प्राप्त हो गई, उन्हें दूसरी बात बतानी पड़ती है। उन्हें अन्तःभूमिका में प्रवेश करने, अन्तःकरण को टटोलने के लिए कहा जाता है। वस्तुतः ईश्वरीय सत्ता के साथ संपर्क बना सकना और उस संपर्क के साथ जुड़े हुए अनुदानों को प्राप्त कर सकना अन्तःकरण के इस सजीव तीर्थ में ही सम्भव होता है, जिसकी तुलना में बहिरंग जगत के समस्त साधन-अनुदान तुच्छ जान पड़ते है।