• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • भारतीय संस्कृति उत्कृष्टता का केन्द्रबिन्दु
    • देव संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाय
    • अपनी सांस्कृतिक गरिमा धूमिल न होने पाये
    • नव निर्माण में देव संस्कृति की भूमिका
    • सांस्कृतिक पुनरुत्थान—युग की परम आवश्यकता
    • एक चुनौती हर भारतीय धर्मानुयायी के लिए
    • अध्यात्म के प्रति बढ़ती विश्व अभिरुचि को सही दिशा मिले
    • सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना धर्म तंत्र से ही सम्भव होगी
    • सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना धर्म तंत्र से ही सम्भव होगी
    • नवनिर्माण मिशन की चार हिन्दी पत्रिकाएं
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • भारतीय संस्कृति उत्कृष्टता का केन्द्रबिन्दु
    • देव संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाय
    • अपनी सांस्कृतिक गरिमा धूमिल न होने पाये
    • नव निर्माण में देव संस्कृति की भूमिका
    • सांस्कृतिक पुनरुत्थान—युग की परम आवश्यकता
    • एक चुनौती हर भारतीय धर्मानुयायी के लिए
    • अध्यात्म के प्रति बढ़ती विश्व अभिरुचि को सही दिशा मिले
    • सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना धर्म तंत्र से ही सम्भव होगी
    • सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना धर्म तंत्र से ही सम्भव होगी
    • नवनिर्माण मिशन की चार हिन्दी पत्रिकाएं
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - देव संस्कृति की गौरव गरिमा अक्षुण्य रहे

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


भारतीय संस्कृति उत्कृष्टता का केन्द्रबिन्दु

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


1 Last
भारत एक देश नहीं, मानवी उत्कृष्टता एवं संस्कृति का उद्गम केन्द्र है। हिमालय के शिखरों पर जमा बर्फ जल धारा बनकर बहता है, अपनी शीतलता पवित्रता से एक सुविस्तृत भू-भाग को सरसता एवं हरीतिमा युक्त कर देता है। भारत वर्ष धर्म और अध्यात्म का उदयाचल है, जहां से सूर्य उगता और सारे भूमण्डल को आलोक से भर देता है। प्रकारान्तर से यह आलोक ही जीवन है जिसके सहारे वनस्पतियां उगती, घटाएं बरसती और प्राणियों में सजीवता की हलचलें होती हैं। ‘डार्विन’ ने अपने प्रतिपादन में मानव को बन्दर की औलाद कहा है। सचमुच यही स्थिति व्यवहार में रही होती यदि नीतिमत्ता, मर्यादा, सामाजिकता, सहकारिता, उदारता जैसे सद्गुण उसमें विकसित न हुए होते।
बीज में वृक्ष की समस्या विशेषताएं सूक्ष्म रूप से कैद रहती हैं। किन्तु वे स्वतः विकसित नहीं हो पातीं। वे प्रसुप्त ही पड़ी रहतीं, यदि अनुकूल परिस्थितियां न मिलती। प्रयत्न पूर्वक उसे अंकुरित, विकसित करके विशाल बनने की स्थिति तक पहुंचाना पड़ता है। मनुष्य के सम्बन्ध में भी तकरीबन यही बात है। सृष्टा ने उसे सृजा तो अपने हाथों से ही है एवं असीम संभावनाओं से परिपूर्ण भी बनाया है, पर साथ ही इतनी कमी भी छोड़ी है कि विकास के प्रयत्न बन पड़ें, तो ही समुन्नत स्तर तक पहुंचने का अवसर मिलेगा।
प्रत्यक्ष है कि जिन्हें सुसंस्कारिता का वातावरण मिला वे प्रगति पथ पर अग्रसर होते चले गये। जिन्हें उससे वंचित रहना पड़ा वे अभी भी अन्य प्राणियों की तरह रहते और पिछड़ी परिस्थितियों में समय गुजारते हैं। इस प्रगतिशीलता के युग में भी ऐसे वनमानुषों की कमी नहीं, जिन्हें बन्दर की औलाद ही नहीं, उसकी प्रत्यक्ष प्रतिकृति भी कहा जा सकता है। यह पिछड़ा पन और कुछ नहीं, प्रकारान्तर से संस्कृति का प्रकाश न पहुंच सकने के कारण उत्पन्न हुआ अभिशाप भर है।
अन्य धर्म प्रचलनों की तुलना हमारी संस्कृति से नहीं की जा सकती। इसे किसी वर्ग, समुदाय, क्षेत्र या सम्प्रदाय की मान्यताओं के समर्थन में नहीं गढ़ा गया है, वरन् मानव की सार्वभौम सत्ता को उत्कृष्ट एवं प्रखर बनाने वाले सिद्धान्तों का समावेश करते हुए इस स्तर का बनाया गया है कि उसे हृदयंगम करने वाले आचरण में उतारने वाले देव मानवों की तरह जी सकें। आज विश्व की प्रगति की दिशा में चल रही क्रमिक गतिशीलता के पीछे जिस दिव्य अनुदान की झांकी मिलती है उसे पर्यवेक्षक एक स्वर से भारत की देव संस्कृति का अनुदान मानते और कृतज्ञता पूर्वक शतशत नमन करते हैं।
भारत में जन्मने के कारण उसे भारतीय संस्कृति नाम मिल गया। यह एक संयोग मात्र है। इसमें किसी क्षेत्र विशेष के प्रति आग्रह या पक्षपात नहीं है। यदि यह सर्वप्रथम कहीं अन्यत्र उगी-उपजी होती तो संभवतः उसे उस क्षेत्र के नाम से पुकारा जाने लगता। उत्पादन कर्त्री भूमि के साथ उसके उपार्जनों का नाम भी जुड़ जाता है। इसे प्रचलन ही कहेंगे। नागपुरी सन्तरे, लखनवी आम, असमी चाय, नागौरी बैल, अरबी घोड़े, मैसूरी चन्दन का यह अर्थ नहीं कि वे उस क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रहेंगे। भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति मानवी संस्कृति के रूप में ही जाना माना गया है। संसार के महामानवों ने उसका मूल्यांकन इसी दृष्टि से किया है। इतिहास के पृष्ठों पर इन तथ्यों का सुविस्तृत उल्लेख है कि इस देव संस्कृति का प्रवाह मलयज पवन की तरह समस्त संसार में बिखरा और उसने बिना किसी भेदभाव के हर क्षेत्र को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में भारी योगदान दिया। किसी समय इस तत्वदर्शन को सर्वत्र जगद्गुरु, चक्रवर्त्ती धरती को स्वर्ग जैसे नामों से कृतज्ञता पूर्वक स्मरण किया जाता था। इसे श्रेष्ठता के प्रति सहज श्रद्धा की स्वतः स्फुरणा कहा जा सकता है।
भारतीय संस्कृति की गरिमा सम्पन्नों, समर्थों, विद्वानों की प्रतिभा की चमत्कृति नहीं कहीं जा सकती, मध्यकालीन संस्कृति दबाव और प्रलोभनों के सहारे अगणित लोगों पर लदी और फैली है किन्तु देव संस्कृति के बारे में इस प्रकार उंगली उठाने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। इसका तत्त्वदर्शन अपने आप में अद्भुत और महान् है। इसे भावुक अभिव्यक्तियों में अमृत, पारस, कल्प वृक्ष जैसे अलंकारिक नाम देकर सम्मानित किया जाता रहा है। अपनाने पर उपलब्ध होने वाले परिणामों और फलितार्थों की महत्ता को देखते हुए इस प्रकार की मान्यता सहज ही बनती चली गई है। श्रेष्ठता किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की बपौती नहीं है। उसे समस्त मानवता की सर्वमान्य गौरव गरिमा का श्रेय मिलना चाहिए और औचित्य को ग्रहण करने की सत्यानुयायी विवेकशीलता को उसे बिना किसी हिचक के मान्यता प्रदान करनी चाहिए। ऐसा होता भी है। संसार भर में ऐसे विवेकवानों की भारी संख्या विद्यमान रही है और है, जो एक स्वर से भारत की नर्सरी में उगी और विश्व उद्यान में स्थान-स्थान पर पनपी देव संस्कृति को उत्कृष्टता की अधिष्ठात्री मानते हैं और कहते हैं कि इसके अनुसरण में हर दृष्टि से हित ही हित है।
पूर्वजों की गरिमा का श्रेय उनके वंशधरों को विशेष रूप से मिलता है यह सर्व विदित है। इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है कि उसे दुर्गति ग्रस्त न होने देने से ही सम्मानित रूप में बनाये रहने की जिम्मेदारी भी उन्हें अन्य लोगों की तुलना में अधिक गम्भीरता पूर्वक समझनी और निभानी चाहिये। श्रेष्ठता की इसलिये अवहेलना की जाये कि वह पुरातन हो चली, बुद्धि संगत नहीं है। शाश्वत सत्यों का सदा समर्थन होना चाहिये। उनके साथ अतीत का इतिहास भी जुड़ गया है। इसलिये अपेक्षाकृत उसे और भी अधिक श्रद्धा मिलनी चाहिये। क्योंकि इस प्रतिपादन ने पिछले लम्बे समय से मनुष्य को दिशा देने और सेवा साधना करने की प्रशस्ति पायी है। इसी दृष्टि से उस समुदाय विशेष के लिये पूर्वजों की थाती को सुरक्षित और जीवन्त रखने का धर्म कर्तव्य पालन करने का विशेष दायित्व माना जाता है।
निष्पक्ष विवेक, विश्व विवेक का कर्तव्य है कि देव संस्कृति की गरिमा और उपयोगिता को बिना झिझक के स्वीकारें किन्तु ऐसा करने पर निकटवर्ती लोगों का पूर्वाग्रह बुरा मानेगा। यदि ऐसा अन्यत्र न बन पड़े तो भी इन उत्तराधिकारियों को विशेष रूप से जागरूकता बरतनी चाहिये कि ऐसी महान् धरोहर धूमिल न होने पाये जिसने पिछले दिनों मानवता की महान सेवा की है और जिससे भविष्य में विश्व को शान्ति और प्रगति में महान् योगदान मिलने की संभावना है।
कोई बात कितनी ही महान् क्यों न हो, यदि वह व्यवहार में न उतरे चिन्तन पर न छाई रहे, तो पुस्तकों में सीमाबद्ध रहने पर उपेक्षित होते-होते वह विस्मृति के गर्त में जा गिरेगी और अपना अस्तित्व गवा देगी।
‘संस्कृति’ दर्शन व परम्परा का एक समुच्चय है। अध्यात्म और धर्म का जोड़ा है। अध्यात्म आस्था को एवं धर्म व्यवहार को कहते हैं। मान्यताएं क्रियाकलापों में भी उतरनी चाहिये। देव संस्कृति के अनुयाइयों चाहे वे भारत में बसे हों अथवा प्रवासियों के रूप में सुदूर देशों में, उनका यह कर्तव्य है कि यदि वे उसकी गरिमा को स्वीकार करते हैं तो इतना और करें कि उनके आहार-विहार, प्रथा प्रचलन रीति-रिवाज, कला-सज्जा, संभाषण शिष्टाचार आदि में भी उसकी झलकी दिखा सकें।
पश्चिम को प्रगतिशील मानना हो और उनका अनुकरण करना हो तो इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिये कि वे अपनी संस्कृति को ईसाई धर्म से भी अधिक प्यार करते थे। गर्म देशों में रहते हुए भी वे ठण्डे मुल्कों की पोशाक पहनते व उससे अपना गौरव मानते थे। संस्कृति की अवधारणा एवं निर्वाह—आत्म-गौरव का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है।
संसार का सामान्य क्रम प्रकृति-प्रेरणा के अनुरूप चल रहा है। प्राणी समुदाय की चेष्टाएं उसी ढर्रे में गतिशील रहती हैं। पर मनुष्य की स्थिति अन्य सभी प्राणियों से भिन्न है। वह कर्म प्रधान है, उच्चस्तरीय पुरुषार्थ सम्पन्न प्राणी है। विकास की असीम सम्भावना होते हुए भी मनुष्य के शरीर में वासना-मन में तृष्णा तथा अन्तराल में अहन्ता और वातावरण में निकृष्टता-प्रचलन में पशु प्रवृत्तियों का बाहुल्य रहने से खतरा यह बना रहता है कि मानवी गरिमा असुरता के चंगुल में फंसकर कहीं उस देवोपम सौभाग्य को दुर्भाग्य में न बदल दे। प्रगति की सम्भावनाओं से वह विमुख न हो जाय। आकर्षणों के जाल-जंजाल में फंसकर कहीं सुर-दुर्लभ सुयोग को नरक की संरचना में न लगा बैठे।
पतनोन्मुखी प्रवाह से बचकर उत्थान की दिशा में अग्रसर होने तथा उन महान सम्भावनाओं को साकार कर सकने के लिए अभीष्ट परिमाण में साहस एवं विवेक का होना आवश्यक है। इन गुणों के सहारे एकाकी अपने बलबूते प्रगति पथ की ओर बढ़ सके इसके लिए अतिरिक्त शिक्षा चाहिए। ऐसी शिक्षा जो मानव के संचित कुसंस्कारों को दबाने तथा प्रसुप्त दैवी तत्वों को उभारने में समर्थ हो सके, ‘संस्कृति’ कहलाती है। संस्कृति अर्थात् व्यक्तित्व को परिष्कृत तथा सुविकसित करने वाली विद्या। इसके दार्शनिक पक्ष को ‘अध्यात्म’ और व्यवहार को ‘धर्म’ कहते हैं। दोनों के समन्वय से परिपूर्ण स्तर की जीवन-शिक्षा की व्यवस्था बनती है। चिन्तन और स्वभाव में उतर कर यह जीवन विद्या मनुष्य को महान बनाती है। ऐसी विशेषताओं से सुसम्पन्न मनीषियों को सांसारिक आकर्षण प्रभावित नहीं कर पाते। संसार के पतनोन्मुखी प्रवाह की उल्टी दिशा में वे मछली की भांति धार को चीरते हुए आगे बढ़ते हैं।
भौतिकी की जानकारी को शिक्षा कह सकते हैं एवं आत्मिकी के रहस्यों का उद्घाटन करने वाली को विद्या। शिक्षा के सहारे मनुष्य बुद्धिमान, चतुर बनता है तथा अनेकों प्रकार के सुविधा-साधनों को उपलब्ध करने में सफल रहता है। निर्वाह क्रम ठीक प्रकार चलता रहे इसके लिए शिक्षा आवश्यक है। किन्तु आन्तरिक व्यक्तित्व का विकास विद्या के बिना सम्भव नहीं। आत्मिक क्षेत्र की विभूतियां प्राप्त करनी हों तो उस विद्या का अवगाहन करना होगा जो जीवन के स्वरूप को समझाती तथा मानवी गरिमा के अनुरूप उपलब्धियों का सदुपयोग करने की प्रेरणा देती है। विद्या को इसीलिए अमृत कहा गया है। इस दृष्टि से शिक्षा का जितना महत्व है, विद्या का उससे भी अधिक है। संस्कृति के अवगाहन से ऐसी ही विद्या का अवतरण होता है जो व्यक्तित्व को सुसंस्कारी तथा परिपूर्ण बनाती है। प्राचीन काल में शिक्षा और विद्या दोनों को ही समान महत्व दिया जाता था तथा गुरुकुलों में इन दोनों का ही समग्र समन्वय था। बुद्धि की प्रखरता पर जितना जोर दिया जाता था, उतना ही व्यक्तित्व के सुसंस्कारी करण पर। वह शिक्षण अधूरा माना जाता था जिसमें एकांगी शिक्षा का समावेश रहता था। चरित्र निष्ठा, प्रामाणिकता तथा सुसंस्कारिता की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही छात्र को परीक्षा में सफल घोषित किया जाता था। आज जैसी छात्र को मात्र विषय विशेष का विज्ञ तथा चतुर बनाने वाली एकांगी शिक्षण व्यवस्था नहीं थी। ऐसी सर्वांग पूर्ण शिक्षण व्यवस्था का ही प्रतिफल था कि देश नर रत्नों का भण्डार था। देश, जाति, धर्म और संस्कृति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले व्यक्तित्वों की कमी नहीं थी।
जीवन विद्या का अवगाहन करने वाले इस संस्कृति शिक्षण की उपेक्षा होने तथा एकांगी शिक्षा को अधिक महत्व देने की परम्परा का आरम्भ होते ही अनेकानेक समस्याएं सामने आयीं। चरित्र की तुलना में चतुरता को अधिक महत्व देने वाली शिक्षा के कारण विज्ञ तो बढ़ते गये। पर उन कुसंस्कारी व्यक्तित्वों की कमी पड़ती गई जिन पर समाज और देश का भविष्य अवलम्बित है। विद्या की उपेक्षा का परिणाम सामने है। संसार में बुद्धिमानों की—विशेषज्ञों की कमी नहीं है। साधनों का बाहुल्य है पर अशान्ति और असन्तोष की ज्वाला में समस्त मानव जाति जल रही है। लोभ, मोह और अहन्ता के त्रिविध राक्षसों ने मनुष्य का सुख-चैन सब कुछ छीन लिया है। विरले ही ढूंढ़ने पर मिलेंगे जो यह कह सकें कि हम जीवन से सन्तुष्ट हैं अन्यथा अधिकांश स्वार्थों की आपाधापी में—कोल्हू के बैल की भांति पिल रहे हैं। दूसरों का—मनुष्य जाति का भविष्य सोचने वाले उदार-भावनाशील मुश्किल से ढूंढ़ने पर मिलेंगे। संकीर्ण स्वार्थों के कारण मनुष्य अनुदार-निष्ठुर बनता जा रहा है तथा अपनी उस आन्तरिक सदाशयता को गंवाता जा रहा है जिसके द्वारा समाज एवं देश का विकास होता है। इन परिस्थितियों में संस्कृतिनिष्ठ शिक्षण की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है।
संस्कृति के अवगाहन से ही मनुष्य आत्म समीक्षा करने तथा व्यक्तित्व को सुसंस्कारों से अलंकृत कर पाने में समर्थ हो पाता है। संसार में अवांछनीय प्रचलनों की भरमार है। पतन-पराभव के तत्वों का बाहुल्य है। आन्तरिक दृढ़ता तथा सिद्धान्त निष्ठा के अभाव में उनसे अपने को अप्रभावित रख पाना कठिन पड़ता है अधिकांश तो पतनोन्मुखी प्रवाहों में कूड़े-करकट की भांति बहते रहते हैं। पर संस्कृति का पल्ला पकड़ने वाले अपना मार्ग स्वयं बनाते तथा उस प्रवाह में बहने से इन्कार कर देते हैं। सद्गुणों से अभिपूरित होने के कारण वे इसी पृथ्वी पर देवताओं की भांति रहते हुए दिव्य जीवन जीते हैं। विद्या का महत्व न समझने—उसे हृदयंगम न करने वाले—वातावरण से दूर रहने—स्वाध्याय सत्संग की उपेक्षा करने वालों को सुसंस्कारी बनने का लाभ नहीं मिलता। जिसे विद्या-लाभ नहीं मिला वह उच्च शिक्षित होते हुए भी नर पशुओं जैसा जीवन और अन्ततः दुर्गति का अधिकारी बनता है। ऐसे नर पामरों की इन दिनों संसार में कमी नहीं है जिनकी मस्तिष्कीय प्रखरता मानव जाति के विनाश का कुचक्र रच रही है। उन शिक्षितों को भी इसी श्रेणी में रखना होगा जो समाज में अराजकता तथा अव्यवस्था और अपराध कृत्यों को बढ़ावा देते हैं अथवा उन कुकृत्यों में संलग्न हैं। संस्कृति विहीन इन शिक्षितों से भला समाज और देश को क्या लाभ मिल सकता है।
संस्कृति को समझने के लिए सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय आवश्यक है किन्तु उसे जीवन में उतारने-स्वभाव का अंग बनाने के लिए श्रेष्ठ व्यक्तित्वों का सान्निध्य एवं सत्परम्पराओं का वातावरण उपलब्ध करना पड़ता है। छोटे बालकों का विकास अभिभावक अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए करते हैं। घर के सभी सदस्यों को अपना स्वभाव-व्यवहार ऐसा बनाना पड़ता है जिसका अनुकूल प्रभाव बालकों पर पड़े। अन्यथा कोरा वाणी का शिक्षण प्रभावी नहीं हो पाता। बालकों का अन्तस् अनुकरण प्रिय होता है संस्कृति की प्रथम कक्षा परिवार है तथा विद्या का आरम्भिक पठन-पाठन परिवार रूपी पाठशाला से ही शुरू होता है। परिवार के सभी सदस्यों को अपनी गरिमा बढ़ाने और बालकों का हित साधने की दृष्टि से सज्जनोचित रीति-नीति अपनानी पड़ती संस्कृति की दूसरी कक्षा गुरुगृह में होती है। वहां पढ़ने-पढ़ाने से भी अधिक लाभ दिव्य वातावरण का मिलता है। शिक्षा तो कक्षाओं में हो सकती है किन्तु संस्कृति का उपार्जन करने के लिए अभीष्ट स्तर का वातावरण चाहिए। प्राचीन गुरुकुलों में ऐसी ही व्यवस्था रहती थी। वहां निवास करते हुए अध्ययन करने वाले शिक्षार्थी को संस्कारवान बनाने का ध्यान विशेष रूप से रखा जाता था।
बालकों के लिए गुरुकुल देव संस्कृति को अभ्यास में उतारने के लिए आवश्यक अंग माने गये थे। प्राचीन कालीन ऋषि इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से भली भांति परिचित थे कि सुसंस्कारी स्वभाव मात्र पुस्तकों के सहारे नहीं बनता। उसके लिए प्रखर व्यक्तित्वों का सान्निध्य और सामुदायिक प्रचलनों में समाविष्ट सज्जनोचित परम्परायें चाहिए। गुरुकुलों में ऐसी ही सर्वांग पूर्ण व्यवस्था थी। सुसंस्कारों को अभ्यास में उतारने योग्य वातावरण तथा व्यक्तित्वों का सान्निध्य मिल सके तो आज भी छात्रों को श्रेष्ठ व्यक्तित्व के रूप में ढाल सकना सम्भव है।
प्रायः लोग अर्थकारी शिक्षा को महत्व देते हैं। व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने वाली विद्या की ओर उपेक्षा बरती जाती है। इस भूल के कारण व्यक्तित्व पर पिछड़ापन लदता है और ऐसे व्यक्तित्वों के बाहुल्य से समाज के अधःपतन का मार्ग प्रशस्त होता है। समाज के मूर्धन्य विज्ञजनों का कर्तव्य है कि वे अर्थ-उपार्जन क्षमता संवर्धन एवं क्रिया-कौशल सिखाने वाली शिक्षा की तरह उस विद्या के विस्तार एवं विकास का प्रबन्ध करें जिससे आत्म कल्याण और लोक कल्याण के उभय पक्षीय प्रयोजन सधते हों। शिक्षा और संस्कृति के दोनों सुयोग एक साथ बन सकें तो सर्वोत्तम अन्यथा दोनों को स्वतन्त्र रूप में विकसित होने दिया जाय एवं परस्पर पूरक बनाया जाय। शिक्षा के साथ विद्या का समावेश अधिक प्रभावी एवं सरल है। मनीषियों ने समय-समय पर अपने ढंग से संगीत, साहित्य, कला को इस प्रकार ढाला है कि वातावरण उनकी इच्छित संस्कृति के अनुरूप ढल गया। मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने के लिए ऋषियों ने गुरुकुल आरण्यक चलाये तथा आश्रम बनाये। उस महान प्रक्रिया को अस्त-व्यस्त नहीं होने देना चाहिए, नहीं निरुद्देश्य समझा जाना चाहिए। इन दिनों संस्कृति परिपोषण की उपेक्षा होने से ही सर्वतोमुखी अधःपतन के दृश्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं तथा समस्यायें बढ़ रही हैं।
जन्म से सभी नर पशु होते हैं। संस्कार सम्पादन से मनुष्य गौरवशाली बनता है। आत्मीयता के विस्तार से व्यक्ति ऋषि बनता है तथा सेवा-साधना के लिए समर्पित होने के उपरान्त जीवन मुक्त देवता कहलाता है। यह संस्कृति की तीन कक्षाएं हैं। जो इनमें से एक में भी प्रविष्ट नहीं हुआ उसे नर पामरों की श्रेणी में ही गिनना चाहिए। शरीर की शोभा स्वच्छता सुगठित स्वास्थ्य एवं वस्त्रालंकारों से होती है किन्तु व्यक्तित्व को प्रखर एवं समर्थ बनाने में देव संस्कृति का ही प्रमुख योगदान होता है। असुर संस्कृति इसके सर्वथा विपरीत है। दर्शन और व्यवहार तो उसका भी है पर उसे अपनाने पर मनुष्य दैत्य बनता और उस मार्ग पर बढ़ते-बढ़ते नर पिशाच की श्रेणी में जा पहुंचता है। दानवी संस्कृति के अनुयायी रावण, हिरण्यकश्यप से लेकर हिटलर, मुसोलिनी, नादिरशाह, चंगेज खां अनेकों हुए हैं, पर वे दूसरों की आंखों में चकाचौंध उत्पन्न करने वाली विडम्बना मात्र जुटा सके। अन्ततः अपना, अपने सम्बन्धियों का और समूचे समाज का सर्वनाश करने की आत्म प्रताड़ना और लोकभर्त्सना के ही अधिकारी बन सके।
जिस प्रकार शरीर के लिए अन्न, वस्त्र, निवास की आवश्यकता है। बुद्धि की प्रखरता के लिए स्कूली शिक्षा जरूरी है। उसी प्रकार जीवन को सफल सार्थक बनाने के लिए व्यक्तित्व में देव संस्कृति का समाविष्ट होना आवश्यक है। नर पशु पेट प्रजनन के लिए जीते हैं। नरमानवों को आदर्श और उद्देश्यों का ध्यान रहता है। वे न्यूनतम में गुजारा करते हैं। आय-व्यय में कटौती करके बचाये हुए समय चिन्तन, धन एवं प्रभाव वर्चस्व को परमार्थ में लगाते हैं। सुसंस्कृत बहुपठित या बहुश्रुत को नहीं वरन् उसे कहते हैं जिसने आदर्शों को अपने चरित्र और चिन्तन का अभिन्न अंग बना लिया है। अपने को ऐसा ढाल लिया हो जिसके सम्पर्क में आने वाले भी उसी प्रकार ढलते चले जायं। कहना न होगा कि ऐसे व्यक्तित्वों की उत्पत्ति उच्चस्तरीय सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठापना से ही सम्भव है।
1 Last


Other Version of this book



देव संस्कृति की गौरव गरिमा अक्षुण्य रहे
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
...

आध्यात्मिक कायाकल्प का विधि- विधान-२
Type: TEXT
Language: HINDI
...

आध्यात्मिक कायाकल्प का विधि- विधान-२
Type: TEXT
Language: HINDI
...

ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
Language: EN
...

ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
Language: EN
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • भारतीय संस्कृति उत्कृष्टता का केन्द्रबिन्दु
  • देव संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाय
  • अपनी सांस्कृतिक गरिमा धूमिल न होने पाये
  • नव निर्माण में देव संस्कृति की भूमिका
  • सांस्कृतिक पुनरुत्थान—युग की परम आवश्यकता
  • एक चुनौती हर भारतीय धर्मानुयायी के लिए
  • अध्यात्म के प्रति बढ़ती विश्व अभिरुचि को सही दिशा मिले
  • सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना धर्म तंत्र से ही सम्भव होगी
  • सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना धर्म तंत्र से ही सम्भव होगी
  • नवनिर्माण मिशन की चार हिन्दी पत्रिकाएं
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj