
अपनी सांस्कृतिक गरिमा धूमिल न होने पाये
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मैकक्रिडल नाम पाश्चात्य विचारक ने सिकन्दर के आक्रमणों पर एक पुस्तक लिखी है, जिसमें उसने मैगस्थनीज के इंदिक ग्रन्थ का उद्धरण दिया है। इस पुस्तक में उल्लेख है कि जब सिकन्दर भारत पर आक्रमण करने के लिए निकला, तब उसके गुरु अरस्तू ने उसे आदेश दिया कि भारत से लौटते समय दो उपहार लाना—एक गीता, तथा दूसरा कोई एक दार्शनिक सन्त। सिकन्दर जब वापस लौटने लगा तो उसने अपने ओनियोक्रोटस नामक एक सैनिक को आदेश दिया कि भारत के किसी सन्त को ढूंढ़कर ससम्मान ले आओ। सैनिक ‘दण्डी स्वामी’ जिसका उल्लेख ग्रीक भाषा में ‘डैडीमींग’ के रूप में हुआ है—सो मिला। दण्डी स्वामी से सिकन्दर के दूत ने मिलकर कहा—आप हमारे साथ चलें, सिकन्दर महान् आपको मालामाल कर देंगे। अपार वैभव आपके चरणों में होगा। अपनी सहज मुस्कान में दण्डी स्वामी ने उत्तर दिया—हमारे रहने के लिए शस्य-श्यामला भारत की पावन भूमि, पहनने के लिए वल्कल वस्त्र, पीने के लिए गंगा की अमृत धार तथा खाने के लिए एक पाव आटा पर्याप्त है। हमारे पास संसार की सबसे बड़ी सम्पत्ति आत्मधन है। इस धन की दृष्टि से दरिद्र तुम्हारा सिकन्दर हमें क्या दे सकता है? शक्ति एवं सम्पत्ति के दर्प से चूर सिकन्दर ने सैनिक की वार्तालाप को जब सुना तो विस्मित रह गया। अहंकार चकनाचूर हो गया। आध्यात्मिक सम्पदा के धनी इस देश के समक्ष नतमस्तक होकर चला गया।
मैक्समूलर ने एक एक पुस्तक लिखी है—‘इण्डिया वट कैन इट टीच अस।’ इस पुस्तक को पढ़ने से उनकी भारत के प्रति अगाध श्रद्धा भाव का पता लगता है। वे लिखते हैं कि—‘‘मैं विश्वभर में उस देश को ढूंढ़ने के लिए चारों दिशाओं में दृष्टि दौड़ाऊं, जिस पर प्रकृति देवी ने अपना सम्पूर्ण वैभव, पराक्रम एवं सौन्दर्य मुक्त हाथों से लुटाकर उसे पृथ्वी का स्वर्ग बना दिया है तो मेरा इशारा भारत की ओर होगा। यदि मुझसे पूछा जाय कि अन्तरिक्ष के नीचे वह कौन-सा स्थल है, जहां मनुष्य ने अपने अन्तराल में सन्निहित ईश्वर प्रदत्त उदात्त भावों को पूर्णरूपेण विकसित किया है तथा जीवन की गहराई में उतार कर कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है उनमें अधिकांश को सुलझाया है, जिसे जानकर ‘कांट एवं प्लेटो’ जैसे दार्शनिकों से प्रभावित मनीषी भी आश्चर्यचकित रह जांय तो मेरी अंगुली सहज ही भारत की ओर उठेगी और यदि मैं अपने आपसे प्रश्न करूं कि हम यूरोपवासी जो अब तक केवल ग्रीक यहूदी एवं रोमन विचारों में पलते रहे हैं। किस साहित्य से वह प्रेरणा ले सकते हैं जो हमारे अन्तरंग जीवन को परिशोधित करे—उसे उन्नति की ओर अग्रसर करे—व्यापक एवं विश्वजनीन बनाये—सही अर्थों में मानवीय गुणों से सुसम्पन्न करे जिससे हमारे पंचभौतिक जीवन को ही नहीं, हमारी सनातन आत्मा को भी प्रेरणा मिले तो पुनः मेरी उंगली भारत की ओर उठ जायेगी।’’
प्रकृति-सौन्दर्य, सम्पदा एवं आत्मिक विचार सम्पदा का धनी यही वह देश है जिसके ज्ञान सागर में डुबकी लगाकर जर्मनी का प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर कह पड़ा कि—‘‘विश्व के सम्पूर्ण साहित्यिक भण्डार में किसी ग्रन्थ का अध्ययन मानव विकास के लिए इतना उपयोगी एवं ऊंचा उठाने वाला नहीं है जितना कि उपनिषदों की विचारधारा का अवगाहन। इस सागर में डुबकी लगाने से मुझे शान्ति मिली है तथा मृत्यु के समय में भी शान्ति मिलेगी।
सम्प्रदाय, मजहब, जाति, वर्ग एवं राष्ट्रीय दीवारों से निकल कर मानवी सिद्धांतों एवं विश्व बन्धुत्व को प्रोत्साहन देने वाली यहां की ज्ञान सम्पदा ने प्रत्येक धर्म एवं मजहब के व्यक्तित्वों को प्रभावित किया है। औरंगजेब का भाई दाराशिकोह उपनिषदों के एक बार रसास्वादन के उपरान्त उसकी मस्ती में इतना डूबा कि निरन्तर छह माह तक काशी के पंडितों को बुलाकर उनकी व्याख्या सुनता रहा। दूसरों को भी उसका लाभ मिले—यह सोचकर उसने 1656 में स्वयं फारसी में उपनिषदों का अनुवाद किया। दाराशिकोह के इस भाषान्तर को फ्रेंच के विद्वान ‘एन्क्विटिल ड्युपैरो’ ने पढ़ा। उसकी रुचि इतनी बढ़ी कि सभी प्रमुख प्राच्य शास्त्रों, वेदों उपनिषदों का अध्ययन कर डाला। फारसी अनुवाद के आधार पर उसने 1801 में इनका लैटिन भाषा में अनुवाद किया। दाराशिकोह का फारसी अनुवाद एवं इन्क्विटिल का ईसाई अनुवाद अब भी मुस्लिम एवं ईसाई जगत में अत्यन्त श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है।
भारत जो प्रकृति की क्रीड़ास्थली है, जिसको प्रकृति ने अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से विशेष रूप से संवारा है। जहां गंगा, जमुना एवं गोदावरी की धारायें सम्पूर्ण देश को अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक अनुदानों से सिक्त करती हैं। हिमालय के शिखरों से दैवी चेतना का सतत प्रवाह चलता है। जहां ऋषियों की आध्यात्मिक एवं वैचारिक सम्पदा अब भी वातावरण में गुंजित होती है। वही देश जो कभी ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ से सम्बोधित किया जाता था। आज आत्म विस्मृति में पड़ी अपनी गौरव गरिमा को भूल चुका है। इस देश के तेतीस करोड़ नागरिक कभी तेतीस करोड़ देवताओं के रूप में जाने जाते थे। यह आध्यात्मिक विचारधारा की ही परिणति थी जिसने चिंतन एवं चरित्र में, व्यक्तित्व में उतर कर देवतुल्य बना दिया। देव मानवों को जन्म देने वाली प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक वातावरण से ओत-प्रोत इस पावन भूमि में अब भी वे विशेषतायें मौजूद हैं—जिनका अवलम्बन लेकर मनुष्य को देवोपम बनाया जा सके।
इस देश के पास ऋषियों की विरासत वैचारिक पूंजी है और साथ में प्रकृति का अनुदान भी जिसने प्राच्य से लेकर पाश्चात्य तक हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई सभी मतावलम्बियों को प्रभावित किया है। मैक्समूलर से लेकर दाराशिकोह तक की श्रद्धा इसके प्रति समय-समय पर प्रकट होती रही है। आवश्यकता भारतीय मानस की तमिस्रा को तोड़ने की है, जो तमस् में सोया पड़ा है। आत्म-विस्मृति को तोड़ने के लिये व्यापक स्तर पर विचार-क्रान्ति की मशाल जलानी होगी। आलस्य एवं प्रमाद की जड़ता में डूबी जन-चेतना को उस गर्त से निकलने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान छेड़ना होगा।
भारतीय संस्कृति में समन्वय की अद्भुत विशेषता रही है। यही कारण है कि युगों-युगों के घात-प्रतिघात के बावजूद भी वह अपना अस्तित्व बनाये हुए है। अपनी विशालता एवं महानता के कारण वह सदा दूसरी संस्कृतियों को अपने भीतर समाहित करती रही है। कितने ही आक्रमणकारी, आततायी आये—कितनी ही जातियों का यहां आवागमन हुआ किन्तु वह अक्षुण्ण बनी रही। जो कभी विजय का गान गाते, यहां उत्साह में झूमते हुए आये थे, वे इस संस्कृति के विशाल समुद्र में विलीन हो गये। उन्हें इससे पृथक करना सम्भव नहीं।
उनमें से प्रत्येक की कोई न कोई भाषा, धर्म अथवा संस्कृति रही होगी, प्रत्येक की कुछ अपनी आदतें रही होंगी, अपने विचार एवं रीति-रिवाज भी रहे होंगे—लिखित-अलिखित उनका कुछ साहित्य रहा होगा किन्तु इनमें किसी भी वस्तु या विचार का अब कोई अलग अस्तित्व नहीं है। मुसलमानों के आगमन से पूर्व यहां जितनी जातियां, चाहे वे यवन हों, हूण हों या तुर्क, मंगोल हों या यूनानी, सभी इस संस्कृति के सागर में समाकर एक रूप हो गयीं। भारत की सांस्कृतिक महानता में दूसरी जातियों का भी महान योगदान है। ‘यह ऐसी सांस्कृतिक रसायन’ है जिसमें विभिन्न संस्कृतियों के रस समाहित हैं।
एकता एवं समन्वय की विशेषता की भावाभिव्यक्ति महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में इस प्रकार की है—‘‘यह भारत देश महानता का केन्द्र है। ओ मेरे हृदय! इस पवित्र तीर्थ में श्रद्धा से अपनी आंखें खोलो। किसी को भी ज्ञात नहीं है कि किसके आमन्त्रण पर मनुष्यता की कितनी ही धारायें तीव्र वेग से प्रवाहित होती हुई कहां-कहां से आयीं और इस महासमुद्र में समा गयीं। आर्य, अनार्य, द्रविण और चीनी वंश के लोग यहां हैं। शक, हूण, पठान और मंगोल जैसी जातियां आयीं और सभी एक शरीर में समाकर एक हो गयीं। इस देश के हृदय में प्रवाहित रक्त में सबका स्वर ध्वनित हो रहा है।
न केवल इनकी संस्कृतियों की विशेषताओं को अपनाया वरन् अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं का लाभ भारत ने समस्त विश्व को दिया। कभी उसने अपनी महानता द्वारा सम्पूर्ण विश्व का नेतृत्व किया और ज्ञान-विज्ञान की अनेकानेक विद्याओं से विश्व को परिचित कराया। अपनी सांस्कृतिक गौरव-गरिमा, चरित्रनिष्ठा, ज्ञान के प्रति अगाध श्रद्धा मानव मात्र को एकता के सूत्र में बांधने वाले तत्व ज्ञान ने ‘मैक्समूलर’ जैसे यूरोपीय विद्वान को नत-मस्तक किया और यह कहने पर बाध्य किया कि ‘‘विश्व को शान्ति, एकता, समता और शुचिता का सन्देश देने में कोई देश समर्थ हो सकता है तो वह भारत ही होगा। भारत का तत्व ज्ञान मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट हो सके तो इस भूमण्डल पर स्वर्गीय परिस्थितियों का दिग्दर्शन कर सकना सम्भव है। मेरा विश्वास है कि जब कभी भी संसार को एकता के सूत्र में आबद्ध किये जाने के प्रयत्न होंगे तो इसके लिए भारतीय तत्वज्ञान से ही दिशा एवं प्रेरणा लेनी होगी।’’
कभी इस देश का ज्ञान यहां के निवासियों के चरित्र में झलकता था अर्थात् ज्ञानवाणी की चर्चाओं तक सीमित न रहकर व्यवहार का अंग बना था। फलस्वरूप तेतीस करोड़ व्यक्तियों का यह देश तेतीस करोड़ देवताओं के रूप में प्रख्यात था। स्वर्णिम युग के उस गौरव से विभूषित इस देश की वर्तमान स्थिति पर विचार करते हैं तो भारी निराशा होती है तथा इस बात पर शक होता है कि विश्व का नेतृत्व करने वाला क्या यही वह देश है जिसने विश्व वसुन्धरा में कभी अपने ज्ञान एवं विज्ञान की जानकारियों से सुख-समृद्धि एवं शांति की गंगा बहाई थी।
सर्वविदित है कि ज्ञान की सार्थकता आचरण में है। उसकी उपयोगिता आचरण की शुद्धि में है। कभी वह चरित्र की निर्मलता, पवित्रता एवं श्रेष्ठता के साथ जुड़कर विश्व भर में अपनी ध्वजा-पताका फहराने में समर्थ बना। आज वही चरित्रनिष्ठा को खोकर चर्चा एवं वाक्-विलास का साधन मात्र बनकर रह गया है। ज्ञानराशि के उत्तराधिकारी होते हुए देशवासियों के आचरण में भारी गिरावट आई है। गीता, उपनिषद, वेद जैसे ज्ञान के अगाध स्रोत हमारे पास हैं। अनेकों शास्त्र एवं पुराण हमें उपलब्ध हैं। ऋषियों के ज्ञान-विज्ञान का संचित कोष हमें विरासत के रूप में प्राप्त है जो दूसरे देशों में इतने विपुल परिमाण में अनुपलब्ध है किन्तु आज उनके उपदेशों पर चलने की हम में शक्ति नहीं है। ‘‘एक ही ब्रह्म फैलकर अनेक हो गया।’’ यह सूक्ति तो प्रत्येक को याद है किन्तु हमारा आचरण इसके विपरीत हो गया है। आडम्बरों, रूढ़ियों, जाति-पांति, रीति-रिवाजों में इतने ग्रस्त हैं कि उपरोक्त ज्ञान काम नहीं आता। ‘‘एकोऽहम् बहुस्यामि’’ की दुहाई देने वाले मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद करते देखे जाते हैं तो भारी निराशा होती है और ज्ञान की पवित्रता पर शक होने लगता है।
पतन का दूसरा कारण बना मिथ्या अहंकार। मनीषियों का मत है कि कोई भी संस्कृति परस्पर आदान-प्रदान से ही समृद्ध बनती है। सबसे अलग कूपमण्डूक में रहकर जीने वाले समाज की संस्कृति स्वभावतः सीमित और संकीर्ण होगी। जबकि अपने में दूसरों की विशेषताओं को समाहित करने वाली संस्कृति अपनी सम्पन्नता बढ़ाती जाती है। संसार से रूठकर ज्ञान के मिथ्या अहंकार में ग्रस्त अलग बैठने का भाव ही संस्कृति को ले डूबता है। विश्व की अनेकों संस्कृतियां परस्पर सांस्कृतिक विनिमय रुक जाने के कारण ही काल के गर्भ में समा गईं। उनका कोई चिन्ह अब शेष नहीं रहा। जिन्होंने आदान-प्रदान के लिए अपने दरवाजे खुले रखे वे अक्षुण्ण बनी रहीं। संस्कृति का सर्वाधिक विकास सम्पर्क से होता है। पिछला इतिहास इस बात का साक्षी है। भारत से ज्ञान एवं विज्ञान का आलोक बिखेरने के लिए समय-समय पर परिव्राजक विश्व के अनेक देशों में जाते रहे। दूसरे देशवासियों को भी इसका लाभ मिला। परिव्राजक अपने साथ दूसरी संस्कृतियों में समाहित ज्ञान की अनेकानेक धाराओं को अपने साथ लाते थे। सर्वांगीण प्रगति में भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि में सांस्कृतिक विशेषताओं के आदान-प्रदान का विशेष योगदान रहा।
कालान्तर में यह परम्परा टूट गई। प्रगति के इस युग में नित नई ज्ञान की शाखाओं का आविष्कार हो रहा है। उसका लाभ भी तभी मिल पाता है जब परस्पर सम्पर्क का अनवरत क्रम बना रहे। पिछले अन्धकार युग में हमने अपने ज्ञान के अहंकार में विश्व से सम्पर्क तोड़ लिया। आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से समर्थ होते हुए भी भौतिक ज्ञान की उपेक्षा करने से प्रगति क्षेत्र में पिछड़ गये। पश्चिमी देशों ने भौतिक क्षेत्र में प्रबल पुरुषार्थ किया और समुन्नत होते गये। उनके ज्ञान का लाभ लेने से हमने इन्कार कर दिया और भौतिक प्रगति को जीभर कोसा। फलस्वरूप भौतिक दृष्टि से हम उतने ही पिछड़ते चले गये।
बीसवीं सदी के इस भौतिकवादी युग में जबकि सम्पूर्ण विश्व की निगाहें भारत की ओर लगी हैं, उसे अपनी चरित्र निष्ठा को जागृत करना होगा। भौतिक क्षेत्र में उस देश ने अपने पिछले पूर्वाग्रहों को छोड़कर नई करवट ली हैं। प्रगति के लिये भी उसने नया प्रयास किया है और तदनुरूप सफलतायें भी पाई हैं। परस्पर सम्पर्क से दूसरों के ज्ञान का लाभ मिला और भौतिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त हुआ है। विकास मार्ग का एक अवरोध समाप्त हुआ। दूसरा कदम उठाना होगा—देश में चरित्र निष्ठा को जगाने का।
यह सम्भव हो सके तो भारतीय संस्कृति एवं उसका तत्व ज्ञान अब भी विश्व को दिशा देने में सक्षम है। विश्व को एकता, समता एवं शुचिता में आबद्ध करने में अपनी संस्कृति पूर्णतः समर्थ है। देश में इन दिनों आई वैचारिक एवं आध्यात्मिक क्रान्ति की लहर इसी बात का संकेत देती है कि भारत अपने सांस्कृतिक गौरव-गरिमा को प्राप्त करने के लिए इस युग संक्रांति काल में प्रयत्नशील रहे तो अगले दिनों वह न केवल अपने अतीत के गौरव को वापस लायेगा वरन् समस्त विश्व को नेतृत्व करेगा।
मैक्समूलर ने एक एक पुस्तक लिखी है—‘इण्डिया वट कैन इट टीच अस।’ इस पुस्तक को पढ़ने से उनकी भारत के प्रति अगाध श्रद्धा भाव का पता लगता है। वे लिखते हैं कि—‘‘मैं विश्वभर में उस देश को ढूंढ़ने के लिए चारों दिशाओं में दृष्टि दौड़ाऊं, जिस पर प्रकृति देवी ने अपना सम्पूर्ण वैभव, पराक्रम एवं सौन्दर्य मुक्त हाथों से लुटाकर उसे पृथ्वी का स्वर्ग बना दिया है तो मेरा इशारा भारत की ओर होगा। यदि मुझसे पूछा जाय कि अन्तरिक्ष के नीचे वह कौन-सा स्थल है, जहां मनुष्य ने अपने अन्तराल में सन्निहित ईश्वर प्रदत्त उदात्त भावों को पूर्णरूपेण विकसित किया है तथा जीवन की गहराई में उतार कर कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है उनमें अधिकांश को सुलझाया है, जिसे जानकर ‘कांट एवं प्लेटो’ जैसे दार्शनिकों से प्रभावित मनीषी भी आश्चर्यचकित रह जांय तो मेरी अंगुली सहज ही भारत की ओर उठेगी और यदि मैं अपने आपसे प्रश्न करूं कि हम यूरोपवासी जो अब तक केवल ग्रीक यहूदी एवं रोमन विचारों में पलते रहे हैं। किस साहित्य से वह प्रेरणा ले सकते हैं जो हमारे अन्तरंग जीवन को परिशोधित करे—उसे उन्नति की ओर अग्रसर करे—व्यापक एवं विश्वजनीन बनाये—सही अर्थों में मानवीय गुणों से सुसम्पन्न करे जिससे हमारे पंचभौतिक जीवन को ही नहीं, हमारी सनातन आत्मा को भी प्रेरणा मिले तो पुनः मेरी उंगली भारत की ओर उठ जायेगी।’’
प्रकृति-सौन्दर्य, सम्पदा एवं आत्मिक विचार सम्पदा का धनी यही वह देश है जिसके ज्ञान सागर में डुबकी लगाकर जर्मनी का प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर कह पड़ा कि—‘‘विश्व के सम्पूर्ण साहित्यिक भण्डार में किसी ग्रन्थ का अध्ययन मानव विकास के लिए इतना उपयोगी एवं ऊंचा उठाने वाला नहीं है जितना कि उपनिषदों की विचारधारा का अवगाहन। इस सागर में डुबकी लगाने से मुझे शान्ति मिली है तथा मृत्यु के समय में भी शान्ति मिलेगी।
सम्प्रदाय, मजहब, जाति, वर्ग एवं राष्ट्रीय दीवारों से निकल कर मानवी सिद्धांतों एवं विश्व बन्धुत्व को प्रोत्साहन देने वाली यहां की ज्ञान सम्पदा ने प्रत्येक धर्म एवं मजहब के व्यक्तित्वों को प्रभावित किया है। औरंगजेब का भाई दाराशिकोह उपनिषदों के एक बार रसास्वादन के उपरान्त उसकी मस्ती में इतना डूबा कि निरन्तर छह माह तक काशी के पंडितों को बुलाकर उनकी व्याख्या सुनता रहा। दूसरों को भी उसका लाभ मिले—यह सोचकर उसने 1656 में स्वयं फारसी में उपनिषदों का अनुवाद किया। दाराशिकोह के इस भाषान्तर को फ्रेंच के विद्वान ‘एन्क्विटिल ड्युपैरो’ ने पढ़ा। उसकी रुचि इतनी बढ़ी कि सभी प्रमुख प्राच्य शास्त्रों, वेदों उपनिषदों का अध्ययन कर डाला। फारसी अनुवाद के आधार पर उसने 1801 में इनका लैटिन भाषा में अनुवाद किया। दाराशिकोह का फारसी अनुवाद एवं इन्क्विटिल का ईसाई अनुवाद अब भी मुस्लिम एवं ईसाई जगत में अत्यन्त श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है।
भारत जो प्रकृति की क्रीड़ास्थली है, जिसको प्रकृति ने अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से विशेष रूप से संवारा है। जहां गंगा, जमुना एवं गोदावरी की धारायें सम्पूर्ण देश को अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक अनुदानों से सिक्त करती हैं। हिमालय के शिखरों से दैवी चेतना का सतत प्रवाह चलता है। जहां ऋषियों की आध्यात्मिक एवं वैचारिक सम्पदा अब भी वातावरण में गुंजित होती है। वही देश जो कभी ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ से सम्बोधित किया जाता था। आज आत्म विस्मृति में पड़ी अपनी गौरव गरिमा को भूल चुका है। इस देश के तेतीस करोड़ नागरिक कभी तेतीस करोड़ देवताओं के रूप में जाने जाते थे। यह आध्यात्मिक विचारधारा की ही परिणति थी जिसने चिंतन एवं चरित्र में, व्यक्तित्व में उतर कर देवतुल्य बना दिया। देव मानवों को जन्म देने वाली प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक वातावरण से ओत-प्रोत इस पावन भूमि में अब भी वे विशेषतायें मौजूद हैं—जिनका अवलम्बन लेकर मनुष्य को देवोपम बनाया जा सके।
इस देश के पास ऋषियों की विरासत वैचारिक पूंजी है और साथ में प्रकृति का अनुदान भी जिसने प्राच्य से लेकर पाश्चात्य तक हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई सभी मतावलम्बियों को प्रभावित किया है। मैक्समूलर से लेकर दाराशिकोह तक की श्रद्धा इसके प्रति समय-समय पर प्रकट होती रही है। आवश्यकता भारतीय मानस की तमिस्रा को तोड़ने की है, जो तमस् में सोया पड़ा है। आत्म-विस्मृति को तोड़ने के लिये व्यापक स्तर पर विचार-क्रान्ति की मशाल जलानी होगी। आलस्य एवं प्रमाद की जड़ता में डूबी जन-चेतना को उस गर्त से निकलने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान छेड़ना होगा।
भारतीय संस्कृति में समन्वय की अद्भुत विशेषता रही है। यही कारण है कि युगों-युगों के घात-प्रतिघात के बावजूद भी वह अपना अस्तित्व बनाये हुए है। अपनी विशालता एवं महानता के कारण वह सदा दूसरी संस्कृतियों को अपने भीतर समाहित करती रही है। कितने ही आक्रमणकारी, आततायी आये—कितनी ही जातियों का यहां आवागमन हुआ किन्तु वह अक्षुण्ण बनी रही। जो कभी विजय का गान गाते, यहां उत्साह में झूमते हुए आये थे, वे इस संस्कृति के विशाल समुद्र में विलीन हो गये। उन्हें इससे पृथक करना सम्भव नहीं।
उनमें से प्रत्येक की कोई न कोई भाषा, धर्म अथवा संस्कृति रही होगी, प्रत्येक की कुछ अपनी आदतें रही होंगी, अपने विचार एवं रीति-रिवाज भी रहे होंगे—लिखित-अलिखित उनका कुछ साहित्य रहा होगा किन्तु इनमें किसी भी वस्तु या विचार का अब कोई अलग अस्तित्व नहीं है। मुसलमानों के आगमन से पूर्व यहां जितनी जातियां, चाहे वे यवन हों, हूण हों या तुर्क, मंगोल हों या यूनानी, सभी इस संस्कृति के सागर में समाकर एक रूप हो गयीं। भारत की सांस्कृतिक महानता में दूसरी जातियों का भी महान योगदान है। ‘यह ऐसी सांस्कृतिक रसायन’ है जिसमें विभिन्न संस्कृतियों के रस समाहित हैं।
एकता एवं समन्वय की विशेषता की भावाभिव्यक्ति महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में इस प्रकार की है—‘‘यह भारत देश महानता का केन्द्र है। ओ मेरे हृदय! इस पवित्र तीर्थ में श्रद्धा से अपनी आंखें खोलो। किसी को भी ज्ञात नहीं है कि किसके आमन्त्रण पर मनुष्यता की कितनी ही धारायें तीव्र वेग से प्रवाहित होती हुई कहां-कहां से आयीं और इस महासमुद्र में समा गयीं। आर्य, अनार्य, द्रविण और चीनी वंश के लोग यहां हैं। शक, हूण, पठान और मंगोल जैसी जातियां आयीं और सभी एक शरीर में समाकर एक हो गयीं। इस देश के हृदय में प्रवाहित रक्त में सबका स्वर ध्वनित हो रहा है।
न केवल इनकी संस्कृतियों की विशेषताओं को अपनाया वरन् अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं का लाभ भारत ने समस्त विश्व को दिया। कभी उसने अपनी महानता द्वारा सम्पूर्ण विश्व का नेतृत्व किया और ज्ञान-विज्ञान की अनेकानेक विद्याओं से विश्व को परिचित कराया। अपनी सांस्कृतिक गौरव-गरिमा, चरित्रनिष्ठा, ज्ञान के प्रति अगाध श्रद्धा मानव मात्र को एकता के सूत्र में बांधने वाले तत्व ज्ञान ने ‘मैक्समूलर’ जैसे यूरोपीय विद्वान को नत-मस्तक किया और यह कहने पर बाध्य किया कि ‘‘विश्व को शान्ति, एकता, समता और शुचिता का सन्देश देने में कोई देश समर्थ हो सकता है तो वह भारत ही होगा। भारत का तत्व ज्ञान मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट हो सके तो इस भूमण्डल पर स्वर्गीय परिस्थितियों का दिग्दर्शन कर सकना सम्भव है। मेरा विश्वास है कि जब कभी भी संसार को एकता के सूत्र में आबद्ध किये जाने के प्रयत्न होंगे तो इसके लिए भारतीय तत्वज्ञान से ही दिशा एवं प्रेरणा लेनी होगी।’’
कभी इस देश का ज्ञान यहां के निवासियों के चरित्र में झलकता था अर्थात् ज्ञानवाणी की चर्चाओं तक सीमित न रहकर व्यवहार का अंग बना था। फलस्वरूप तेतीस करोड़ व्यक्तियों का यह देश तेतीस करोड़ देवताओं के रूप में प्रख्यात था। स्वर्णिम युग के उस गौरव से विभूषित इस देश की वर्तमान स्थिति पर विचार करते हैं तो भारी निराशा होती है तथा इस बात पर शक होता है कि विश्व का नेतृत्व करने वाला क्या यही वह देश है जिसने विश्व वसुन्धरा में कभी अपने ज्ञान एवं विज्ञान की जानकारियों से सुख-समृद्धि एवं शांति की गंगा बहाई थी।
सर्वविदित है कि ज्ञान की सार्थकता आचरण में है। उसकी उपयोगिता आचरण की शुद्धि में है। कभी वह चरित्र की निर्मलता, पवित्रता एवं श्रेष्ठता के साथ जुड़कर विश्व भर में अपनी ध्वजा-पताका फहराने में समर्थ बना। आज वही चरित्रनिष्ठा को खोकर चर्चा एवं वाक्-विलास का साधन मात्र बनकर रह गया है। ज्ञानराशि के उत्तराधिकारी होते हुए देशवासियों के आचरण में भारी गिरावट आई है। गीता, उपनिषद, वेद जैसे ज्ञान के अगाध स्रोत हमारे पास हैं। अनेकों शास्त्र एवं पुराण हमें उपलब्ध हैं। ऋषियों के ज्ञान-विज्ञान का संचित कोष हमें विरासत के रूप में प्राप्त है जो दूसरे देशों में इतने विपुल परिमाण में अनुपलब्ध है किन्तु आज उनके उपदेशों पर चलने की हम में शक्ति नहीं है। ‘‘एक ही ब्रह्म फैलकर अनेक हो गया।’’ यह सूक्ति तो प्रत्येक को याद है किन्तु हमारा आचरण इसके विपरीत हो गया है। आडम्बरों, रूढ़ियों, जाति-पांति, रीति-रिवाजों में इतने ग्रस्त हैं कि उपरोक्त ज्ञान काम नहीं आता। ‘‘एकोऽहम् बहुस्यामि’’ की दुहाई देने वाले मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद करते देखे जाते हैं तो भारी निराशा होती है और ज्ञान की पवित्रता पर शक होने लगता है।
पतन का दूसरा कारण बना मिथ्या अहंकार। मनीषियों का मत है कि कोई भी संस्कृति परस्पर आदान-प्रदान से ही समृद्ध बनती है। सबसे अलग कूपमण्डूक में रहकर जीने वाले समाज की संस्कृति स्वभावतः सीमित और संकीर्ण होगी। जबकि अपने में दूसरों की विशेषताओं को समाहित करने वाली संस्कृति अपनी सम्पन्नता बढ़ाती जाती है। संसार से रूठकर ज्ञान के मिथ्या अहंकार में ग्रस्त अलग बैठने का भाव ही संस्कृति को ले डूबता है। विश्व की अनेकों संस्कृतियां परस्पर सांस्कृतिक विनिमय रुक जाने के कारण ही काल के गर्भ में समा गईं। उनका कोई चिन्ह अब शेष नहीं रहा। जिन्होंने आदान-प्रदान के लिए अपने दरवाजे खुले रखे वे अक्षुण्ण बनी रहीं। संस्कृति का सर्वाधिक विकास सम्पर्क से होता है। पिछला इतिहास इस बात का साक्षी है। भारत से ज्ञान एवं विज्ञान का आलोक बिखेरने के लिए समय-समय पर परिव्राजक विश्व के अनेक देशों में जाते रहे। दूसरे देशवासियों को भी इसका लाभ मिला। परिव्राजक अपने साथ दूसरी संस्कृतियों में समाहित ज्ञान की अनेकानेक धाराओं को अपने साथ लाते थे। सर्वांगीण प्रगति में भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि में सांस्कृतिक विशेषताओं के आदान-प्रदान का विशेष योगदान रहा।
कालान्तर में यह परम्परा टूट गई। प्रगति के इस युग में नित नई ज्ञान की शाखाओं का आविष्कार हो रहा है। उसका लाभ भी तभी मिल पाता है जब परस्पर सम्पर्क का अनवरत क्रम बना रहे। पिछले अन्धकार युग में हमने अपने ज्ञान के अहंकार में विश्व से सम्पर्क तोड़ लिया। आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से समर्थ होते हुए भी भौतिक ज्ञान की उपेक्षा करने से प्रगति क्षेत्र में पिछड़ गये। पश्चिमी देशों ने भौतिक क्षेत्र में प्रबल पुरुषार्थ किया और समुन्नत होते गये। उनके ज्ञान का लाभ लेने से हमने इन्कार कर दिया और भौतिक प्रगति को जीभर कोसा। फलस्वरूप भौतिक दृष्टि से हम उतने ही पिछड़ते चले गये।
बीसवीं सदी के इस भौतिकवादी युग में जबकि सम्पूर्ण विश्व की निगाहें भारत की ओर लगी हैं, उसे अपनी चरित्र निष्ठा को जागृत करना होगा। भौतिक क्षेत्र में उस देश ने अपने पिछले पूर्वाग्रहों को छोड़कर नई करवट ली हैं। प्रगति के लिये भी उसने नया प्रयास किया है और तदनुरूप सफलतायें भी पाई हैं। परस्पर सम्पर्क से दूसरों के ज्ञान का लाभ मिला और भौतिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त हुआ है। विकास मार्ग का एक अवरोध समाप्त हुआ। दूसरा कदम उठाना होगा—देश में चरित्र निष्ठा को जगाने का।
यह सम्भव हो सके तो भारतीय संस्कृति एवं उसका तत्व ज्ञान अब भी विश्व को दिशा देने में सक्षम है। विश्व को एकता, समता एवं शुचिता में आबद्ध करने में अपनी संस्कृति पूर्णतः समर्थ है। देश में इन दिनों आई वैचारिक एवं आध्यात्मिक क्रान्ति की लहर इसी बात का संकेत देती है कि भारत अपने सांस्कृतिक गौरव-गरिमा को प्राप्त करने के लिए इस युग संक्रांति काल में प्रयत्नशील रहे तो अगले दिनों वह न केवल अपने अतीत के गौरव को वापस लायेगा वरन् समस्त विश्व को नेतृत्व करेगा।