
सांस्कृतिक पुनरुत्थान—युग की परम आवश्यकता
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संस्कृति मनुष्य के अन्तरंग को विकसित करती है सभ्यता बहिरंग जीवन को संवारती है। अन्तरंग एवं बहिरंग के सम्मिलित स्वरूप से प्रगतिशील जीवन का समग्र एवं स्वस्थ स्वरूप बनता है। व्यक्ति एवं समाज के उत्थान-पतन में इन दोनों की समन्वित भूमिका होती है। संस्कृति मनुष्य की प्रकृति का निर्माण करती है, विचार एवं चिन्तन को आधार देती है। सभ्यता से आकृति-बाह्य जीवन शैली विकसित होती है। बहिरंग जीवन को—संस्कृति को प्राण की संज्ञा दी जा सकती है। कलेवर का स्वरूप कैसा होगा यह अन्तरंग के प्राण तत्व के ऊपर निर्भर करता है। व्यक्ति अथवा समाज का स्वरूप व्यवहार एवं चरित्र कैसा होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिस सांस्कृतिक परिवेश में वे सांस ले रहे हैं, इसका स्तर कैसा है? सभ्यताओं के उद्भव विकास एवं पराभव की घटनाओं में सांस्कृतिक मूल्यों की ही प्रधान भूमिका होती है। सभ्यताओं का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता। वे तो संस्कृति के अनुरूप ढलती, बनती तथा परिवर्तित होती रहती हैं। स्पष्ट है कि सांस्कृतिक मूल्य ही समाज के मेरुदण्ड है—समाज को गढ़ने अथवा पराभव के गर्त में ढकेलने के प्रधान कारक हैं।
मनुष्य का चिंतन एवं चरित्र संस्कृति के अनुरूप ही बनता है संस्कृति में जिस प्रकार के वैचारिक मूल्यों का समावेश होगा, व्यक्ति एवं समाज का वैसा ही स्वरूप होगा। वर्तमान समय में समाज के ऊपर दृष्टिपात करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि चारित्रिक दृष्टि से मनुष्य का पतन इतना कभी नहीं हुआ। चोरी, डकैती, हिंसा, बलात्कार जैसे अपराधों में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है। दैनिक पत्र-पत्रिकायें इन्हीं घटनाक्रमों से भरी रहती हैं। समाचार पर इनसे ही रंगे रहते हैं। उन्हें पढ़ कर समस्त समाज के प्रति—मानव जाति के प्रति घृणा-सी हो जाती है। हर विचारशील आदर्श एवं सिद्धान्तनिष्ठ के मन में आक्रोश उभरता है। पर मात्र आक्रोश से घृणा करने से समाधान नहीं निकल सकता। उसके लिए समस्याओं की जड़ में प्रविष्ट होकर कारण एवं निवारण ढूंढ़ने होंगे जो मनुष्य को अधःपतन की ओर अभिप्रेरित करते हैं।
प्रशासकीय स्तर के अनेकानेक प्रयासों की असफलता सामने है। यह समस्या एक राष्ट्र की न होकर विश्वव्यापी है। कानून की कठोर दण्ड व्यवस्था भी रोकथाम करने में अपनी असफलता व्यक्त कर रही है। पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था अपनी असमर्थता का रोना रो रही है। बाह्य उपचार की रोकथाम की यह व्यवस्था तभी तक कारगर सिद्ध हो रही है जब तक कि अपराधी पुलिस के शिकंजे में कठघरे के शेर के समान आबद्ध हैं। उससे बाहर निकलते ही नरभक्षी शेर जैसे और भी आक्रामक रुख अपना लेता है, उसी प्रकार अपराधी और भी जागरूक होकर अपराध कृत्य में वृद्धि करता है। बढ़ती हुई आग एवं छूत के रोग के समान नैतिक पतन का रोग समाज में बढ़ता ही जा रहा है। वर्तमान सभ्यता का यही स्वरूप है। जो समाज के सांस्कृतिक अवमूल्यन का नैतिक एवं वैचारिक पराभव का बोध कराता है।
गहराई से विचार करने पर पता लगता है कि समस्यायें व्यवहार की न होकर मूलतः संस्कृति की—विचारों एवं चिन्तन की हैं। अतएव बाह्य प्रकट होने वाले अनैतिक आचरणों में सुधार करने के लिए वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर ही प्रयास करने होंगे।
बुद्धि के विकास के साथ-साथ विचारों की सामर्थ्य का महत्व बढ़ा है साथ ही वैचारिक साधन-स्रोतों का भी विस्तार हुआ है। कभी सभ्यता अविकसित थी—साधनों का अभाव था। पर मानवी आस्था प्रबल होने के कारण समाज के प्रेरणा स्रोत ऋषि अपने श्रेष्ठ विचारों से समाज को दिशा देते थे। ऋषि परम्परा विलुप्त हुई। समाज आस्थावान कम बुद्धिमान अधिक बना। फलतः वैचारिक अनुदानों के केन्द्र बिन्दु ने करवट ली। उसका स्वरूप भी बदला। त्याग, बलिदान, सेवा, परमार्थ, करुणा, दया उदारता, चरित्र-निष्ठा से भरी आदर्शनिष्ठ संस्कृति का स्थान उपभोग की संस्कृति ने लिया। बुद्धि ने नीति के स्थान पर अनीति को प्रोत्साहन दिया। वैचारिक अनुदान देने वाले विकसित साधनों ने भी बुद्धि की हां में हां मिलायी।
सबने एक स्वर से भौतिकवाद को, प्रत्यक्षवाद को महत्व दिया। चिंतन और चरित्र को उदार एवं उदात्त बनाने वाली परोक्ष किंतु महत्वपूर्ण आध्यात्मिक विचारधारा की उपेक्षा हुई। फलतः उपभोग की भौतिक संस्कृति ही समाज का आदर्श बन गयी। समाज के मेरुदण्ड कहे जाने वाले विचारक, कलाकार, साहित्यकार, वैज्ञानिक, राजनेता सभी ने एक स्वर से समर्थन दिया। चारित्रिक उत्थान की सैद्धान्तिक बातें तो की गईं पर व्यवहारिक स्तर पर रचनात्मक कार्यक्रमों में इस महती आवश्यकता को स्थान न मिल सका। फलस्वरूप समाजोत्थान के लिए मेरुदण्ड कही जाने वाली आदर्शों एवं सिद्धान्तों से युक्त विचारधारा जिसे पुरातन भाषा में अध्यात्मिक अधुनातन में नैतिक सिद्धांत कहा जा सकता है उपेक्षित बनी रही, व्यवहारिक जीवन में न उतर सकी। सिद्धान्त एवं व्यवहार में एकरूपता का अभाव ही चारित्रिक एवं नैतिक संकट का कारण बना।
समस्याओं की गढ़ बनी भौतिकवादी संस्कृति ने सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों को बुरी तरह रौंदा है। अब आवश्यकता पड़ी है कि इस स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाय। ऐसी संस्कृति का विकास करना, प्रसार करना आवश्यक है जिसमें उदार एवं उदात्त विचारधारा का समावेश हो। जो पदार्थ को नहीं चेतना को महत्व दे। जो वस्तुओं का उपयोग तो सोचे पर उपभोग को तिरस्कृत करे। इसके लिए कई स्तर पर प्रयास करने होंगे। वर्तमान वैचारिक प्रवाह को ही उलटना होगा।
विश्वव्यापी नैतिक संकटों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए अब आवश्यकता आ पड़ी है कि विचार एवं चिंतन शक्ति को नैतिक पुनरुत्थान में नियोजित किया जाय। यह कार्य अध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना से ही सम्भव होगा।
वर्तमान मानवी चिन्तन का ढर्रा है—जैसे भी बने अधिकाधिक उपार्जन उपभोग करो। स्पष्ट है यह नीति अनीति, अपराध एवं अवांछनीयता को ही प्रोत्साहन देती है। प्रकारान्तर से यह कहा जाय कि वर्तमान अनेकानेक अपराधों में योगदान भौतिकवादी संस्कृति का है तो यह अत्युक्ति नहीं होगी।
आज बुद्धिवाद का ही चारों ओर आधिपत्य नजर आता है। निरंकुश भौतिक वाद की बाढ़ अपनी चरम सीमा पर है। मनुष्य छोटा बौना होता और सिकुड़ता चला जा रहा है। विलासिता के अतिरिक्त उसे कुछ सूझ ही नहीं पड़ता। दुष्प्रयोजनों में निरत हमारी बुद्धि, चेष्टा और सम्पदा संसार में नाटकीय वातावरण उत्पन्न करती चली जा रही है। इसका परिणाम किस सुखद दुर्भाग्य में होगा उसकी कल्पना मात्र से सिहरन उठती, रोमांच हो उठता है।
जीवन और मृत्यु के निर्णायक चौराहे पर खड़ी मनुष्य जाति अपनी मनमर्जी करती रहे और हम मूक दर्शक बने देखते रहें, यह उचित नहीं लगता। इतिहास साक्षी है कि विश्व की सर्वांगीण प्रगति में भारत ने अपने विकास के आरम्भ से ही असाधारण योगदान दिया है। इस देश के देव-मानव सदा से स्वयं को विश्व नागरिक मानते रहे हैं और क्षेत्र विशेष की परिधि में अपने को सीमित न रखकर समस्त संसार की अवगति को प्रगति में बदलने के लिये भागीरथ प्रयत्न करते रहे हैं। इस देश में निर्वाह की समुचित सुविधाएं रही है। रत्नगर्भा शस्यस्यामला भारत भूमि के वरद पुत्रों को कभी किसी प्रकार का अभाव दारिद्रय नहीं रहा वे समस्त विश्व को अपना सेवा क्षेत्र मानकर सुदूर भूखण्डों की अत्यन्त कठिन यात्राएं करते रहे हैं। इसे उन्होंने सदैव साधना माना तथा अविकसित पड़े भूखण्डों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिये अपने ज्ञानविज्ञान का पूरा अनुदान प्रदान किया। वन्य जीवों जैसे जीवन-यापन करने वाले मनुष्यों को उन्होंने कृषि, पशुपालन, शिल्प, व्यवसाय परिवहन, शिक्षा; चिकित्सा, समाज-संगठन, धर्म-संस्कृति आदि से परिचित कराया और उन प्रगति प्रयासों से उन्हें अभ्यस्त बनाकर सुविकसित स्तर तक पहुंचाया। ऐसे अनुदानों ने ही उसे संसार के कोने-कोने से जगद्गुरु का भावभरा सम्मान दिलाया। भारत वर्ष का चक्रवर्ती सांस्कृतिक साम्राज्य विश्व-वसुधा के कोने-कोने तक छाया था। यह सब इसलिए सम्भव हो सका कि यहां से निवासी सीमित क्षेत्र में अपने स्वार्थों को सीमित नहीं रखे रहे वरन् उन्होंने समस्त विश्व को अपना घर-परिवार और सार्वभौम सुख शान्ति को अपनी निजी प्रगति माना।
आज की स्थिति भूतकाल की उपेक्षा कहीं अधिक दुर्गति ग्रस्त है। संसार में कहीं चैन नहीं, शान्ति नहीं, संतोष नहीं, उद्वेग और संक्षोभ से आज मनुष्य जाति का प्रत्येक सदस्य बेतरह जल रहा है। यदि आज हमारा चिन्तन पूर्व की तरह परिष्कृत रहा होता तो निस्सन्देह इस धरती पर स्वर्ग से कहीं अधिक सम्पन्नता और प्रसन्नता बिखरी पड़ी होती किन्तु हुआ उल्टा ही। समृद्धि बढ़ी पर सद्बुद्धि का लोप हो गया। विकास के स्थान पर विनाश का ही पथ प्रशस्त हुआ है।
हमारी स्वयं की परिस्थिति विपन्न होते हुए भी अपने सांस्कृतिक धरोहर इतनी सम्पन्न है कि आज की स्थिति में भी विश्व का दार्शनिक क्षेत्र में नेतृत्व करने में सक्षम है। भारत का अध्यात्म इतना उत्कृष्ट है कि उसे किसी देश, जाति और काल की सीमा में नहीं बांधा जा सकता वरन् सार्वभौम सर्वकालीन और सार्वजनीन ही कहा जा सकता है। भटकाव को सही राह पर लाने की उसमें पूरी क्षमता है। संसार के अन्य देशों ने पिछले दिनों हमें बहुत कुछ दिया है। हम और कुछ तो नहीं पर उत्कृष्ट स्तर का तत्व दर्शन दे सकते हैं। जिससे भटकी हुई मानव जाति अपनी स्थिति एवं दिशा धारा पर पुनर्विचार करने और दिशा प्रवाह बदलने हेतु तत्पर हो सके।
संस्कृतियों के संदेशवाहक परिस्थितिवश भिन्न-भिन्न देशों में जा बसे होते हैं और अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का वे बड़ी निष्ठा पूर्वक पालन भी करते हैं। इतने पर भी उन विभिन्न देशवासियों को अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं एवं सांस्कृतिक एकता के क्षेत्र को व्यापक बनाये रहने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती। ईसाई धर्म रोम में उगा और इस्लाम अरब में पनपा। फिर भी उनके अनुयायी अनेक देशों में बसे और वहां के वफादार नागरिक रहते हुये भी अपनी सांस्कृतिक भावनाओं को व्यापक बनाये रखते हैं। जब भी अवसर मिलता है, वे मक्का, यरुशलम आदि जा पहुंचते हैं। बौद्ध देशों के निवासी अभी भी गुरुभूमि भारत माता के दर्शन करने निरन्तर भारत आते रहते हैं। भावनात्मक एकता का दायरा असीम है। इस पर आधारित आत्मीयता तब तक बनी ही रहेगी जब तक कि मनुष्य श्रद्धातत्व की सर्वथा तिलांजलि न दे दे।
भारत भूमि के निवासी राष्ट्रीयता की दृष्टि से अनेक देशों में बसे हैं। वहां के वफादार नागरिक भी है। इतने पर भी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक एकता का तथ्य अपने स्थान पर यथावत् बना रहता है। भौगोलिक रेखा विभाजन का इस पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए।
कई भाई बड़े होने पर आजीविका कमाने के लिए सुदूर क्षेत्रों में जा बसते हैं। फिर भी उनकी कौटुम्बिकता यथावत बनी रहती है। बहुत दिनों तक मिलना जुलना न बन पड़ने पर भी घर परिवार की बात आती है तो दूरवर्ती होने पर भी वे ऐसे कदम उठाते हैं मानों मीलों दूरी के बावजूद एक दूसरे से अलग नहीं हो पाये हों। इन भाइयों में से किसी की मृत्यु हो जाय और उनके पीछे विधवा तथा बालकों के परिपोषण का प्रश्न आ पड़े तो दूरवर्ती होते हुये भी वैसी ही सहानुभूति दर्शाई जाती है मानों वे अब भी उसी पुरातन घर परिवार के सदस्य बने हुए हैं। जिसमें कि जन्मे और खेले थे। इन कुटुम्बियों के बीच रंजखुशी में ही नहीं अन्य प्रकार से भी एक दूसरे की सहारा देने की बात सोचते हैं। वैसा कुछ न भी बन पड़े तो गहरी सहानुभूति तो रहती ही है। राम-लक्ष्मण के वनवास भुगतने पर भरत और शत्रुघन प्रायः उसी स्तर का तपसी जीवन जीते रहे। शरीर के दूर-दूर रहने पर भी आत्मीयता के आधार पर बनी निकटता, इसी सघन संवेदना के कारण टिकी रह पाती है।
संस्कृति माता की तरह अत्यन्त विशाल हृदय है। धर्म सम्प्रदाय उसके छोटे-छोटे बाल-बच्चों की तरह है जो आकृति-प्रकृति में एक दूसरे से अनमेल होते हुये भी माता की गोद में समान रूप से खेलते हैं। भारतीय मूल के व्यक्ति कहीं भी जा बसें अपनी सांस्कृतिक एकता एवं आत्मीयता के बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकते। ये बन्धन इतने मजबूत हैं कि इन्हें मीलों की दूरी तो क्या, जन्म-जन्मान्तरों के साथ बदलती स्मृति भी तोड़ सकने में समर्थ नहीं हो सकती।
भारत एक विचित्र राष्ट्र है। इसमें धर्म सम्प्रदायों जाति विरादरियों प्रथा-परम्पराओं की बहुलता है। भाषायें भी ढेरों बोली जाती हैं। इनके प्रति परम्परागत रुझान के होते हुये भी सांस्कृतिक एकता में कोई अन्तर नहीं आता। मध्यकाल का ऐसा अन्धकार युग भी रहा है जब जाति और परम्पराओं ने संकीर्णता की दीवारें खड़ी कीं और अपने छोटे दायरे को ही वे सब कुछ मानने लगे। इन्हीं दिनों जाति विद्वेष एवं साम्प्रदायिक विग्रह भी पनपे थे। किन्तु एक ही धर्म संस्कृति के लोग मात्र, प्रांत, भाषा, सम्प्रदाय, प्रथा-प्रचलन जैसे छोटे कारणों को लेकर एक दूसरे से पृथक अनुभव करें, असहयोग दिखायें तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।
आज वैसी बात नहीं रही। आज की विवेकशीलता उदार दृष्टिकोण अपनाती चली जा रही है। इसी कारण देवसंस्कृति के अनुयायी जाति-बिरादरी, भाषा-प्रान्त जैसे छोटे घेरों को तोड़कर एक महान संस्कृति के अनुयायी कहने और कहाने में गर्व अनुभव करने लगे हैं। जिस प्रकार एकता का यह भाव देश भर में बढ़ा है उसी प्रकार प्रवासी बन्धुओं में भी यह भावना विकसित हुई है। अब हर विवेकवान की मान्यता यह बन चली है कि ‘देव संस्कृति के उत्तराधिकारी होने की मान्यता’ भारतीय मूल के सभी विचारशीलों को एकता व आत्मीयता के सूत्र में बांधे रहने, परस्पर पारिवारिकता बनाये रखने के लिये पर्याप्त सामर्थ्यवान है।
यह दुर्भाग्य की बात है कि देव संस्कृति की गरिमा को उसके उत्तराधिकारी ही अपेक्षा के गर्त में धकेलते चले जा रहे हैं। संस्कृति को प्रथा प्रचलन की परिपाटी भर मान बैठना भूल है। इसके साथ एक महान परम्परा जुड़ी है। उसे यदि सही रूप से समझाया व अपनाया जा सके तो अतीत जैसे गौरव, वातावरण और वैभव का पुनर्जीवित हो उठना सुनिश्चित है।
भारत भूमि के मूल निवासी, देवसंस्कृति के अनुयायी प्रवासियों को यह आवश्यकता अनुभव करना चाहिये कि मध्यकालीन कुरीतियों, अन्धविश्वासों एवं धर्म के इस क्षेत्र में घुस पड़ी अनेकानेक विकृतियों को बुहारने के पश्चात जो शाश्वत और सत्य बच जाता है उसे न केवल मान्यता देने का वरन् जन-जन को अवगत कराने तथा व्यवहार में उतारने का भावभरा प्रयास किया जाय।
प्रवासी बन्धुओं को भिन्न परिस्थितियों में भिन्न वातावरण में एवं भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के बीच निर्वाह करना पड़ता है। स्वाभाविक है कि बहुसंख्यक लोगों का दबाव अल्पसंख्यकों पर आ पड़ता है। इन दिनों भारतीय संस्कृति की अवहेलना इसके अनुयायियों द्वारा ही किये जाने के कारण विदेशों में इनका पक्ष और भी अधिक कमजोर पड़ा है। स्थिरता एवं प्रोत्साहन का आधार न मिलने व सामने ईसाइयत जैसे प्रचलनों का दबाव पड़ने से गाड़ी उसी पटरी पर घूमने लगती हैं। प्रवासी भारतीय की हर पीढ़ी अपने पूर्वजों की तुलना में देव संस्कृति के लिये कम रुचि दिखाती व उपेक्षा करती देखी जा सकती है। यदि यह क्रम चलता रहा तो बहुत शीघ्र प्रवासी बन्धु अपनी सांस्कृतिक आस्थाओं को खोते खोते किसी दिन उन्हें पूर्णतया तिलांजलि दे बैठेंगे।
होना यह चाहिये था कि ये प्रवासी बन्धु अपने-अपने देशों में राष्ट्रीय दृष्टि से वहां के वफादार नागरिक रहते हुये वहां भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि बन कर रहते। अपने आपको संगठित करते अपरिचित व्यक्तियों को अपने प्रभाव के उपयोग द्वारा इस गरिमा से परिचित कराते। यदि ऐसा बन पड़ा होता तो सौ से भी अधिक राष्ट्रों में से प्रवासी भारतीय इन देशों के असंख्य लोगों को इस महान् परम्परा का अनुयायी बनाने में सफल हो चुके होते किन्तु होता उल्टा रहा है। इनकी संख्या बढ़नी तो दूर घटी ही है, जबकि सर्वत्र जन-संख्या वृद्धि की बाढ़-सी आयी है।
भारतीय संस्कृति की महानता को देखते हुये विज्ञसमुदाय की यह मान्यता दिन-दिन सुदृढ़ होती जा रही है कि अगले दिनों समस्त विश्व की एक समन्वित संस्कृति होगी और उसका निर्धारण भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों एवं प्रचलनों के आधार पर होगा। ऐसी स्थिति में इस महान परम्परा के अनुयायियों का यह कर्तव्य हो जाता है कि न केवल उसके दर्शन, स्वरूप, व्यवहार आदि से सर्व साधारण को परिचित करायें बल्कि इस प्रकार की जीवन चर्या स्वयं भी अपनायें, जिससे सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों में एकरूपता आ सके।
मनुष्य का चिंतन एवं चरित्र संस्कृति के अनुरूप ही बनता है संस्कृति में जिस प्रकार के वैचारिक मूल्यों का समावेश होगा, व्यक्ति एवं समाज का वैसा ही स्वरूप होगा। वर्तमान समय में समाज के ऊपर दृष्टिपात करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि चारित्रिक दृष्टि से मनुष्य का पतन इतना कभी नहीं हुआ। चोरी, डकैती, हिंसा, बलात्कार जैसे अपराधों में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है। दैनिक पत्र-पत्रिकायें इन्हीं घटनाक्रमों से भरी रहती हैं। समाचार पर इनसे ही रंगे रहते हैं। उन्हें पढ़ कर समस्त समाज के प्रति—मानव जाति के प्रति घृणा-सी हो जाती है। हर विचारशील आदर्श एवं सिद्धान्तनिष्ठ के मन में आक्रोश उभरता है। पर मात्र आक्रोश से घृणा करने से समाधान नहीं निकल सकता। उसके लिए समस्याओं की जड़ में प्रविष्ट होकर कारण एवं निवारण ढूंढ़ने होंगे जो मनुष्य को अधःपतन की ओर अभिप्रेरित करते हैं।
प्रशासकीय स्तर के अनेकानेक प्रयासों की असफलता सामने है। यह समस्या एक राष्ट्र की न होकर विश्वव्यापी है। कानून की कठोर दण्ड व्यवस्था भी रोकथाम करने में अपनी असफलता व्यक्त कर रही है। पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था अपनी असमर्थता का रोना रो रही है। बाह्य उपचार की रोकथाम की यह व्यवस्था तभी तक कारगर सिद्ध हो रही है जब तक कि अपराधी पुलिस के शिकंजे में कठघरे के शेर के समान आबद्ध हैं। उससे बाहर निकलते ही नरभक्षी शेर जैसे और भी आक्रामक रुख अपना लेता है, उसी प्रकार अपराधी और भी जागरूक होकर अपराध कृत्य में वृद्धि करता है। बढ़ती हुई आग एवं छूत के रोग के समान नैतिक पतन का रोग समाज में बढ़ता ही जा रहा है। वर्तमान सभ्यता का यही स्वरूप है। जो समाज के सांस्कृतिक अवमूल्यन का नैतिक एवं वैचारिक पराभव का बोध कराता है।
गहराई से विचार करने पर पता लगता है कि समस्यायें व्यवहार की न होकर मूलतः संस्कृति की—विचारों एवं चिन्तन की हैं। अतएव बाह्य प्रकट होने वाले अनैतिक आचरणों में सुधार करने के लिए वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर ही प्रयास करने होंगे।
बुद्धि के विकास के साथ-साथ विचारों की सामर्थ्य का महत्व बढ़ा है साथ ही वैचारिक साधन-स्रोतों का भी विस्तार हुआ है। कभी सभ्यता अविकसित थी—साधनों का अभाव था। पर मानवी आस्था प्रबल होने के कारण समाज के प्रेरणा स्रोत ऋषि अपने श्रेष्ठ विचारों से समाज को दिशा देते थे। ऋषि परम्परा विलुप्त हुई। समाज आस्थावान कम बुद्धिमान अधिक बना। फलतः वैचारिक अनुदानों के केन्द्र बिन्दु ने करवट ली। उसका स्वरूप भी बदला। त्याग, बलिदान, सेवा, परमार्थ, करुणा, दया उदारता, चरित्र-निष्ठा से भरी आदर्शनिष्ठ संस्कृति का स्थान उपभोग की संस्कृति ने लिया। बुद्धि ने नीति के स्थान पर अनीति को प्रोत्साहन दिया। वैचारिक अनुदान देने वाले विकसित साधनों ने भी बुद्धि की हां में हां मिलायी।
सबने एक स्वर से भौतिकवाद को, प्रत्यक्षवाद को महत्व दिया। चिंतन और चरित्र को उदार एवं उदात्त बनाने वाली परोक्ष किंतु महत्वपूर्ण आध्यात्मिक विचारधारा की उपेक्षा हुई। फलतः उपभोग की भौतिक संस्कृति ही समाज का आदर्श बन गयी। समाज के मेरुदण्ड कहे जाने वाले विचारक, कलाकार, साहित्यकार, वैज्ञानिक, राजनेता सभी ने एक स्वर से समर्थन दिया। चारित्रिक उत्थान की सैद्धान्तिक बातें तो की गईं पर व्यवहारिक स्तर पर रचनात्मक कार्यक्रमों में इस महती आवश्यकता को स्थान न मिल सका। फलस्वरूप समाजोत्थान के लिए मेरुदण्ड कही जाने वाली आदर्शों एवं सिद्धान्तों से युक्त विचारधारा जिसे पुरातन भाषा में अध्यात्मिक अधुनातन में नैतिक सिद्धांत कहा जा सकता है उपेक्षित बनी रही, व्यवहारिक जीवन में न उतर सकी। सिद्धान्त एवं व्यवहार में एकरूपता का अभाव ही चारित्रिक एवं नैतिक संकट का कारण बना।
समस्याओं की गढ़ बनी भौतिकवादी संस्कृति ने सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों को बुरी तरह रौंदा है। अब आवश्यकता पड़ी है कि इस स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाय। ऐसी संस्कृति का विकास करना, प्रसार करना आवश्यक है जिसमें उदार एवं उदात्त विचारधारा का समावेश हो। जो पदार्थ को नहीं चेतना को महत्व दे। जो वस्तुओं का उपयोग तो सोचे पर उपभोग को तिरस्कृत करे। इसके लिए कई स्तर पर प्रयास करने होंगे। वर्तमान वैचारिक प्रवाह को ही उलटना होगा।
विश्वव्यापी नैतिक संकटों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए अब आवश्यकता आ पड़ी है कि विचार एवं चिंतन शक्ति को नैतिक पुनरुत्थान में नियोजित किया जाय। यह कार्य अध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना से ही सम्भव होगा।
वर्तमान मानवी चिन्तन का ढर्रा है—जैसे भी बने अधिकाधिक उपार्जन उपभोग करो। स्पष्ट है यह नीति अनीति, अपराध एवं अवांछनीयता को ही प्रोत्साहन देती है। प्रकारान्तर से यह कहा जाय कि वर्तमान अनेकानेक अपराधों में योगदान भौतिकवादी संस्कृति का है तो यह अत्युक्ति नहीं होगी।
आज बुद्धिवाद का ही चारों ओर आधिपत्य नजर आता है। निरंकुश भौतिक वाद की बाढ़ अपनी चरम सीमा पर है। मनुष्य छोटा बौना होता और सिकुड़ता चला जा रहा है। विलासिता के अतिरिक्त उसे कुछ सूझ ही नहीं पड़ता। दुष्प्रयोजनों में निरत हमारी बुद्धि, चेष्टा और सम्पदा संसार में नाटकीय वातावरण उत्पन्न करती चली जा रही है। इसका परिणाम किस सुखद दुर्भाग्य में होगा उसकी कल्पना मात्र से सिहरन उठती, रोमांच हो उठता है।
जीवन और मृत्यु के निर्णायक चौराहे पर खड़ी मनुष्य जाति अपनी मनमर्जी करती रहे और हम मूक दर्शक बने देखते रहें, यह उचित नहीं लगता। इतिहास साक्षी है कि विश्व की सर्वांगीण प्रगति में भारत ने अपने विकास के आरम्भ से ही असाधारण योगदान दिया है। इस देश के देव-मानव सदा से स्वयं को विश्व नागरिक मानते रहे हैं और क्षेत्र विशेष की परिधि में अपने को सीमित न रखकर समस्त संसार की अवगति को प्रगति में बदलने के लिये भागीरथ प्रयत्न करते रहे हैं। इस देश में निर्वाह की समुचित सुविधाएं रही है। रत्नगर्भा शस्यस्यामला भारत भूमि के वरद पुत्रों को कभी किसी प्रकार का अभाव दारिद्रय नहीं रहा वे समस्त विश्व को अपना सेवा क्षेत्र मानकर सुदूर भूखण्डों की अत्यन्त कठिन यात्राएं करते रहे हैं। इसे उन्होंने सदैव साधना माना तथा अविकसित पड़े भूखण्डों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिये अपने ज्ञानविज्ञान का पूरा अनुदान प्रदान किया। वन्य जीवों जैसे जीवन-यापन करने वाले मनुष्यों को उन्होंने कृषि, पशुपालन, शिल्प, व्यवसाय परिवहन, शिक्षा; चिकित्सा, समाज-संगठन, धर्म-संस्कृति आदि से परिचित कराया और उन प्रगति प्रयासों से उन्हें अभ्यस्त बनाकर सुविकसित स्तर तक पहुंचाया। ऐसे अनुदानों ने ही उसे संसार के कोने-कोने से जगद्गुरु का भावभरा सम्मान दिलाया। भारत वर्ष का चक्रवर्ती सांस्कृतिक साम्राज्य विश्व-वसुधा के कोने-कोने तक छाया था। यह सब इसलिए सम्भव हो सका कि यहां से निवासी सीमित क्षेत्र में अपने स्वार्थों को सीमित नहीं रखे रहे वरन् उन्होंने समस्त विश्व को अपना घर-परिवार और सार्वभौम सुख शान्ति को अपनी निजी प्रगति माना।
आज की स्थिति भूतकाल की उपेक्षा कहीं अधिक दुर्गति ग्रस्त है। संसार में कहीं चैन नहीं, शान्ति नहीं, संतोष नहीं, उद्वेग और संक्षोभ से आज मनुष्य जाति का प्रत्येक सदस्य बेतरह जल रहा है। यदि आज हमारा चिन्तन पूर्व की तरह परिष्कृत रहा होता तो निस्सन्देह इस धरती पर स्वर्ग से कहीं अधिक सम्पन्नता और प्रसन्नता बिखरी पड़ी होती किन्तु हुआ उल्टा ही। समृद्धि बढ़ी पर सद्बुद्धि का लोप हो गया। विकास के स्थान पर विनाश का ही पथ प्रशस्त हुआ है।
हमारी स्वयं की परिस्थिति विपन्न होते हुए भी अपने सांस्कृतिक धरोहर इतनी सम्पन्न है कि आज की स्थिति में भी विश्व का दार्शनिक क्षेत्र में नेतृत्व करने में सक्षम है। भारत का अध्यात्म इतना उत्कृष्ट है कि उसे किसी देश, जाति और काल की सीमा में नहीं बांधा जा सकता वरन् सार्वभौम सर्वकालीन और सार्वजनीन ही कहा जा सकता है। भटकाव को सही राह पर लाने की उसमें पूरी क्षमता है। संसार के अन्य देशों ने पिछले दिनों हमें बहुत कुछ दिया है। हम और कुछ तो नहीं पर उत्कृष्ट स्तर का तत्व दर्शन दे सकते हैं। जिससे भटकी हुई मानव जाति अपनी स्थिति एवं दिशा धारा पर पुनर्विचार करने और दिशा प्रवाह बदलने हेतु तत्पर हो सके।
संस्कृतियों के संदेशवाहक परिस्थितिवश भिन्न-भिन्न देशों में जा बसे होते हैं और अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का वे बड़ी निष्ठा पूर्वक पालन भी करते हैं। इतने पर भी उन विभिन्न देशवासियों को अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं एवं सांस्कृतिक एकता के क्षेत्र को व्यापक बनाये रहने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती। ईसाई धर्म रोम में उगा और इस्लाम अरब में पनपा। फिर भी उनके अनुयायी अनेक देशों में बसे और वहां के वफादार नागरिक रहते हुये भी अपनी सांस्कृतिक भावनाओं को व्यापक बनाये रखते हैं। जब भी अवसर मिलता है, वे मक्का, यरुशलम आदि जा पहुंचते हैं। बौद्ध देशों के निवासी अभी भी गुरुभूमि भारत माता के दर्शन करने निरन्तर भारत आते रहते हैं। भावनात्मक एकता का दायरा असीम है। इस पर आधारित आत्मीयता तब तक बनी ही रहेगी जब तक कि मनुष्य श्रद्धातत्व की सर्वथा तिलांजलि न दे दे।
भारत भूमि के निवासी राष्ट्रीयता की दृष्टि से अनेक देशों में बसे हैं। वहां के वफादार नागरिक भी है। इतने पर भी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक एकता का तथ्य अपने स्थान पर यथावत् बना रहता है। भौगोलिक रेखा विभाजन का इस पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए।
कई भाई बड़े होने पर आजीविका कमाने के लिए सुदूर क्षेत्रों में जा बसते हैं। फिर भी उनकी कौटुम्बिकता यथावत बनी रहती है। बहुत दिनों तक मिलना जुलना न बन पड़ने पर भी घर परिवार की बात आती है तो दूरवर्ती होने पर भी वे ऐसे कदम उठाते हैं मानों मीलों दूरी के बावजूद एक दूसरे से अलग नहीं हो पाये हों। इन भाइयों में से किसी की मृत्यु हो जाय और उनके पीछे विधवा तथा बालकों के परिपोषण का प्रश्न आ पड़े तो दूरवर्ती होते हुये भी वैसी ही सहानुभूति दर्शाई जाती है मानों वे अब भी उसी पुरातन घर परिवार के सदस्य बने हुए हैं। जिसमें कि जन्मे और खेले थे। इन कुटुम्बियों के बीच रंजखुशी में ही नहीं अन्य प्रकार से भी एक दूसरे की सहारा देने की बात सोचते हैं। वैसा कुछ न भी बन पड़े तो गहरी सहानुभूति तो रहती ही है। राम-लक्ष्मण के वनवास भुगतने पर भरत और शत्रुघन प्रायः उसी स्तर का तपसी जीवन जीते रहे। शरीर के दूर-दूर रहने पर भी आत्मीयता के आधार पर बनी निकटता, इसी सघन संवेदना के कारण टिकी रह पाती है।
संस्कृति माता की तरह अत्यन्त विशाल हृदय है। धर्म सम्प्रदाय उसके छोटे-छोटे बाल-बच्चों की तरह है जो आकृति-प्रकृति में एक दूसरे से अनमेल होते हुये भी माता की गोद में समान रूप से खेलते हैं। भारतीय मूल के व्यक्ति कहीं भी जा बसें अपनी सांस्कृतिक एकता एवं आत्मीयता के बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकते। ये बन्धन इतने मजबूत हैं कि इन्हें मीलों की दूरी तो क्या, जन्म-जन्मान्तरों के साथ बदलती स्मृति भी तोड़ सकने में समर्थ नहीं हो सकती।
भारत एक विचित्र राष्ट्र है। इसमें धर्म सम्प्रदायों जाति विरादरियों प्रथा-परम्पराओं की बहुलता है। भाषायें भी ढेरों बोली जाती हैं। इनके प्रति परम्परागत रुझान के होते हुये भी सांस्कृतिक एकता में कोई अन्तर नहीं आता। मध्यकाल का ऐसा अन्धकार युग भी रहा है जब जाति और परम्पराओं ने संकीर्णता की दीवारें खड़ी कीं और अपने छोटे दायरे को ही वे सब कुछ मानने लगे। इन्हीं दिनों जाति विद्वेष एवं साम्प्रदायिक विग्रह भी पनपे थे। किन्तु एक ही धर्म संस्कृति के लोग मात्र, प्रांत, भाषा, सम्प्रदाय, प्रथा-प्रचलन जैसे छोटे कारणों को लेकर एक दूसरे से पृथक अनुभव करें, असहयोग दिखायें तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।
आज वैसी बात नहीं रही। आज की विवेकशीलता उदार दृष्टिकोण अपनाती चली जा रही है। इसी कारण देवसंस्कृति के अनुयायी जाति-बिरादरी, भाषा-प्रान्त जैसे छोटे घेरों को तोड़कर एक महान संस्कृति के अनुयायी कहने और कहाने में गर्व अनुभव करने लगे हैं। जिस प्रकार एकता का यह भाव देश भर में बढ़ा है उसी प्रकार प्रवासी बन्धुओं में भी यह भावना विकसित हुई है। अब हर विवेकवान की मान्यता यह बन चली है कि ‘देव संस्कृति के उत्तराधिकारी होने की मान्यता’ भारतीय मूल के सभी विचारशीलों को एकता व आत्मीयता के सूत्र में बांधे रहने, परस्पर पारिवारिकता बनाये रखने के लिये पर्याप्त सामर्थ्यवान है।
यह दुर्भाग्य की बात है कि देव संस्कृति की गरिमा को उसके उत्तराधिकारी ही अपेक्षा के गर्त में धकेलते चले जा रहे हैं। संस्कृति को प्रथा प्रचलन की परिपाटी भर मान बैठना भूल है। इसके साथ एक महान परम्परा जुड़ी है। उसे यदि सही रूप से समझाया व अपनाया जा सके तो अतीत जैसे गौरव, वातावरण और वैभव का पुनर्जीवित हो उठना सुनिश्चित है।
भारत भूमि के मूल निवासी, देवसंस्कृति के अनुयायी प्रवासियों को यह आवश्यकता अनुभव करना चाहिये कि मध्यकालीन कुरीतियों, अन्धविश्वासों एवं धर्म के इस क्षेत्र में घुस पड़ी अनेकानेक विकृतियों को बुहारने के पश्चात जो शाश्वत और सत्य बच जाता है उसे न केवल मान्यता देने का वरन् जन-जन को अवगत कराने तथा व्यवहार में उतारने का भावभरा प्रयास किया जाय।
प्रवासी बन्धुओं को भिन्न परिस्थितियों में भिन्न वातावरण में एवं भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के बीच निर्वाह करना पड़ता है। स्वाभाविक है कि बहुसंख्यक लोगों का दबाव अल्पसंख्यकों पर आ पड़ता है। इन दिनों भारतीय संस्कृति की अवहेलना इसके अनुयायियों द्वारा ही किये जाने के कारण विदेशों में इनका पक्ष और भी अधिक कमजोर पड़ा है। स्थिरता एवं प्रोत्साहन का आधार न मिलने व सामने ईसाइयत जैसे प्रचलनों का दबाव पड़ने से गाड़ी उसी पटरी पर घूमने लगती हैं। प्रवासी भारतीय की हर पीढ़ी अपने पूर्वजों की तुलना में देव संस्कृति के लिये कम रुचि दिखाती व उपेक्षा करती देखी जा सकती है। यदि यह क्रम चलता रहा तो बहुत शीघ्र प्रवासी बन्धु अपनी सांस्कृतिक आस्थाओं को खोते खोते किसी दिन उन्हें पूर्णतया तिलांजलि दे बैठेंगे।
होना यह चाहिये था कि ये प्रवासी बन्धु अपने-अपने देशों में राष्ट्रीय दृष्टि से वहां के वफादार नागरिक रहते हुये वहां भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि बन कर रहते। अपने आपको संगठित करते अपरिचित व्यक्तियों को अपने प्रभाव के उपयोग द्वारा इस गरिमा से परिचित कराते। यदि ऐसा बन पड़ा होता तो सौ से भी अधिक राष्ट्रों में से प्रवासी भारतीय इन देशों के असंख्य लोगों को इस महान् परम्परा का अनुयायी बनाने में सफल हो चुके होते किन्तु होता उल्टा रहा है। इनकी संख्या बढ़नी तो दूर घटी ही है, जबकि सर्वत्र जन-संख्या वृद्धि की बाढ़-सी आयी है।
भारतीय संस्कृति की महानता को देखते हुये विज्ञसमुदाय की यह मान्यता दिन-दिन सुदृढ़ होती जा रही है कि अगले दिनों समस्त विश्व की एक समन्वित संस्कृति होगी और उसका निर्धारण भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों एवं प्रचलनों के आधार पर होगा। ऐसी स्थिति में इस महान परम्परा के अनुयायियों का यह कर्तव्य हो जाता है कि न केवल उसके दर्शन, स्वरूप, व्यवहार आदि से सर्व साधारण को परिचित करायें बल्कि इस प्रकार की जीवन चर्या स्वयं भी अपनायें, जिससे सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों में एकरूपता आ सके।