
अध्यात्म के प्रति बढ़ती विश्व अभिरुचि को सही दिशा मिले
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एकांकी भौतिक प्रगति मनुष्य को सुख और शान्ति नहीं प्रदान कर सकती। चिन्तन, आचरण और दृष्टिकोण में जिस श्रेष्ठता और शालीनता का समावेश होना चाहिए वह भौतिकवादी जीवन दर्शन को अपनाने से सम्भव नहीं है। आचरण की शुद्धता ही नहीं मनुष्य को आन्तरिक परितृप्ति भी अभीष्ट है। शान्ति, सन्तोष और आनन्द की त्रिवेणी में स्नान किये बिना जीवन नरक तुल्य बना रहता है, और मरघट के पिशाच की भांति असन्तोष की अग्नि में जलता रहता है। इन्द्रियों को विषयों में रस लेने की खुली छूट दे देने का प्रतिपादन करने वाली भौतिक विचार धारा की परिणति सबके सामने है। सुख सुविधाओं से सम्पन्न भौतिक सभ्यता प्रधान देशों में मनुष्य का जीवन उनके लिए भारभूत बना हुआ है। वे ऐसी जीवन पद्धति जीने की कला की खोज में हैं जो उन्हें स्थायी शान्ति, सन्तोष और आनन्द प्रदान कर सके।
स्वच्छन्दवादी भौतिक दर्शन के दुष्परिणाम उनके सामने हैं। चिन्ता आशंका, निराशा, रोग एवं शोक से युक्त नारकीय जीवन की यन्त्रणा अब उन्हें विवश कर रही है कि अपनी गतिविधियों और मान्यताओं को बदलें। विवशता की स्थिति में कभी भौतिकवादी दर्शन को अत्यधिक महत्व देने वालों का स्वाभाविक रुझान अध्यात्म और योग के प्रति अब बढ़ रहा है। इसे किसी व्यक्ति विशेष के प्रयासों का प्रतिफल नहीं युग की करवट अथवा युग परिवर्तन का संकेत समझा जा सकता है कि विश्व की सहज अभिरुचि अध्यात्म के प्रति जागृत हो रही है।
संसार के कितने ही देशों में भारतीय संस्कृति के स्थूल धर्म कलेवरों की स्थापना के प्रति जन उत्साह उमड़ा है। विविध धार्मिक संस्थायें भी उमड़े उत्साह को अभीष्ट दिशा में नियोजित करने का प्रयास अपने-अपने स्तर पर कर रही हैं। उन्नीसवीं सदी के अन्त में भारतीय अध्यात्म दर्शन को विश्व व्यापी बनाने के दृष्टि से स्वामी विवेकानन्द के प्रयास पुरुषार्थ को भुलाया नहीं जा सकता। उसी का प्रतिफल है कि राम कृष्ण मिशन की स्थापना विदेशों में भी हुई। अब उसके कितने ही मठ एवं मन्दिर स्थान-स्थान पर बने हुए हैं। कैलीफोर्निया स्थित वेदान्त मन्दिर में हजारों की तादाद में गोरे भक्तों का जमघट रहता है। उन्हें पूजा, कीर्तन एवं भजन में पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ तन्मय देखा जा सकता है। दक्षिण कैलीफोर्निया के कितने ही स्थानों पर नव निर्मित मन्दिरों में स्वामी रामकृष्ण परम हंस के विचारों का प्रसारण तथा योग अध्यात्म पर चर्चाएं होती रहती हैं। उत्तरी कैलीफोर्निया में वेदान्त सोसायटी द्वारा निर्मित रामकृष्ण मन्दिर सैन फ्रांसिस्को में अवस्थित है। मन्दिर अत्यन्त भव्य है तथा सर्व धर्म समभाव की पृष्ठ भूमि पर बनाया गया है। हिन्दू मुसलिम तथा एंग्लो वास्तुकला का सजीव उपयोग निर्माण में हुआ है। वैलोजी स्ट्रीट पर भी वेदांत सोसायटी का मन्दिर है। मन्दिर के भीतरी कक्ष में एक भव्य सिंहासन पर रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, माता शारदा देवी भगवान बुद्ध तथा ईसामसीह की प्रतिमाएं हैं। सिंहासन के ऊपर सर्व धर्म समभाव का प्रतीक चिन्ह ॐ गोले में अंकित है। दर्शनार्थियों की भारी भीड़ यहां रहती है।
पिट्स वर्ग (पैंसिल्वेनिया) में प्रवासी भारतीयों एवं अमेरिकी नागरिकों की मदद से विशालकाय वेंकटेश्वर मन्दिर का निर्माण कुछ ही वर्षों पूर्व हुआ है। यह मन्दिर पिट्स वर्ग के बाहर एक पहाड़ी पर स्थित है। प्रकृति की छटा भी यहां अनुपम है जो अनायास ही आगन्तुकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। मन्दिर के निर्माण में लगभग एक करोड़ की राशि खर्च हुई है। मन्दिर का मूल ढांचा तिरुपति के तिरुमल्लई मन्दिर से मिलता जुलता है। 80 प्रतिशत भारतीय आबादी वाले दो हजार की जनसंख्या के क्षेत्र फ्लाशिग (न्यूयार्क) में भी वेंकटेश्वर मन्दिर का निर्माण सन् 1978 में हुआ।
‘हरे राम हरे कृष्ण मिशन’ का प्रादुर्भाव विदेशों में सन् 1960 के बाद हुआ। तब से लेकर अब तक कितने ही देशों में प्रचारकों ने मन्दिरों की स्थापना की है। अमेरिका के विभिन्न हिस्सों शिकागो, कैलीफोर्निया, न्यूयार्क स्प्रिंगफील्ड, वाशिंगटन से लेकर अन्य कितने ही नगरों में श्रीराधाकृष्ण मन्दिरों की स्थापना हो चुकी है। गेरुआ धोती पहने, मृदंग-मंजीरे बजाते, गले में माला पहने, त्रिपुण्ड लगाये तथा लम्बी चुटिया धारी गोरे भक्तों को देखकर कभी-कभी शक होता है कि जैसे वृन्दावन की गलियों में पहुंच गये हों। अमेरिका इंग्लैण्ड, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में भी गोरे भक्तों की संख्या बढ़ रही है।
ध्यान और योग का प्रचार करने वाली कितनी ही धार्मिक संस्थाएं विदेशों में कार्यरत हैं। उनके पाश्चात्य अनुयाइयों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। ‘डिवाइन लाइन मिशन’ सन् 1971 में प्रकाश में आया। हूस्टन, डनवर, कोलोरिडो जैसे स्थानों पर उसके सत्संग भवनों में योगाभ्यास का शिक्षण दिया जाता है। अभ्यासियों में अधिकांशतः अंग्रेज होते हैं। स्विट्जरलैंड में भी उसकी शाखाएं योग के प्रचार में लगी हुई हैं। भावातीत ध्यान के क्षेत्र में क्रान्ति मचाने वाले महेश योगी पश्चिमी इन्टेलीजेन्शिया के केन्द्र बने हुए हैं। शारीरिक स्वास्थ्य एवं मनोविकारों के परिशोधन का लक्ष्य लेकर चलने वाली यह ध्यान प्रक्रिया पश्चिमी वर्ग द्वारा अपनायी जा रही है। स्विट्जरलैंड उनका प्रमुख केन्द्र है। अन्यान्य देशों में भावातीत ध्यान के छोटे-बड़े केन्द्र खुल रहे हैं। एक बड़ा वर्ग परमानन्द की खोज में शारीरिक एवं मानसिक धरातलों को स्पर्श करने वाली ध्यान प्रक्रियाओं को सीखने में रत देखा जा सकता है। इनमें से अधिकांश वे हैं जिनकी कभी भी धर्म और अध्यात्म में आस्था नहीं रही। पर स्वच्छन्द जीवन के दुष्परिणामों से ऊबकर अध्यात्म की ओर मुड़े हैं। जे. कृष्णमूर्ति तथा स्वामी चिन्मयानन्द की विचारधारा एवं ध्यान प्रक्रिया के अभ्यासियों की संख्या को देखकर यह कहना पड़ता है कि युग प्रवाह अब भौतिकता से ऊबकर आध्यात्मिकता की ओर मुड़ रहा है।
भारत आदि काल से ही अध्यात्म का सन्देश वाहक रहा है। समय-समय पर उसके नर-रत्नों ने कभी कुमार जीव, संघमित्रा जैसे बौद्ध भिक्षुकों के रूप में तो कभी विवेकानन्द और रामतीर्थ जैसे आत्मज्ञानियों के रूप में विश्व के कोने-कोने में भारतीय अध्यात्मज्ञान और विज्ञान के प्रकाश को सर्वत्र फैलाया है। आज भी उसके पास ऋषियों की सांस्कृतिक विरासत योग और अध्यात्म के गूढ़ ज्ञान के रूप में विद्यमान है दुर्भाग्यवश उसका जो सही और स्वस्थ स्वरूप प्रस्तुत किया जाना चाहिए वह नहीं किया जा रहा है। प्रचलित और प्रख्यात ‘योग’ शब्द हठयोग की कुछ क्रियाओं, योगासनों तथा शारीरिक और मानसिक हलचलों तक सीमित होकर ही रह गया है जबकि उसका लक्ष्य है—व्यक्तित्व की पूर्णता एवं समग्रता का ऐसा योग जो व्यक्तिगत चेतना का समष्टि चेतना के साथ तादात्म्य स्थापित कर दे, यही भारतीय अध्यात्म का मेरुदण्ड रहा है। क्रिया ही नहीं योग का वह दार्शनिक एवं तात्विक पक्ष भी विश्व के सामने आना चाहिए जो मनुष्य के जीवन को पवित्र बनाता है तथा बहुमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। पश्चिमी यूरोपीय देशों की बढ़ती अध्यात्म रुचि को सही दिशा दी ही जानी चाहिए। यह समय की मांग है। वर्तमान युग के भारतीय संतों एवं मनीषियों का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि वह अध्यात्म की संजीवनी विद्या का सही स्वरूप विश्व के समक्ष प्रस्तुत करें।
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स्वच्छन्दवादी भौतिक दर्शन के दुष्परिणाम उनके सामने हैं। चिन्ता आशंका, निराशा, रोग एवं शोक से युक्त नारकीय जीवन की यन्त्रणा अब उन्हें विवश कर रही है कि अपनी गतिविधियों और मान्यताओं को बदलें। विवशता की स्थिति में कभी भौतिकवादी दर्शन को अत्यधिक महत्व देने वालों का स्वाभाविक रुझान अध्यात्म और योग के प्रति अब बढ़ रहा है। इसे किसी व्यक्ति विशेष के प्रयासों का प्रतिफल नहीं युग की करवट अथवा युग परिवर्तन का संकेत समझा जा सकता है कि विश्व की सहज अभिरुचि अध्यात्म के प्रति जागृत हो रही है।
संसार के कितने ही देशों में भारतीय संस्कृति के स्थूल धर्म कलेवरों की स्थापना के प्रति जन उत्साह उमड़ा है। विविध धार्मिक संस्थायें भी उमड़े उत्साह को अभीष्ट दिशा में नियोजित करने का प्रयास अपने-अपने स्तर पर कर रही हैं। उन्नीसवीं सदी के अन्त में भारतीय अध्यात्म दर्शन को विश्व व्यापी बनाने के दृष्टि से स्वामी विवेकानन्द के प्रयास पुरुषार्थ को भुलाया नहीं जा सकता। उसी का प्रतिफल है कि राम कृष्ण मिशन की स्थापना विदेशों में भी हुई। अब उसके कितने ही मठ एवं मन्दिर स्थान-स्थान पर बने हुए हैं। कैलीफोर्निया स्थित वेदान्त मन्दिर में हजारों की तादाद में गोरे भक्तों का जमघट रहता है। उन्हें पूजा, कीर्तन एवं भजन में पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ तन्मय देखा जा सकता है। दक्षिण कैलीफोर्निया के कितने ही स्थानों पर नव निर्मित मन्दिरों में स्वामी रामकृष्ण परम हंस के विचारों का प्रसारण तथा योग अध्यात्म पर चर्चाएं होती रहती हैं। उत्तरी कैलीफोर्निया में वेदान्त सोसायटी द्वारा निर्मित रामकृष्ण मन्दिर सैन फ्रांसिस्को में अवस्थित है। मन्दिर अत्यन्त भव्य है तथा सर्व धर्म समभाव की पृष्ठ भूमि पर बनाया गया है। हिन्दू मुसलिम तथा एंग्लो वास्तुकला का सजीव उपयोग निर्माण में हुआ है। वैलोजी स्ट्रीट पर भी वेदांत सोसायटी का मन्दिर है। मन्दिर के भीतरी कक्ष में एक भव्य सिंहासन पर रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, माता शारदा देवी भगवान बुद्ध तथा ईसामसीह की प्रतिमाएं हैं। सिंहासन के ऊपर सर्व धर्म समभाव का प्रतीक चिन्ह ॐ गोले में अंकित है। दर्शनार्थियों की भारी भीड़ यहां रहती है।
पिट्स वर्ग (पैंसिल्वेनिया) में प्रवासी भारतीयों एवं अमेरिकी नागरिकों की मदद से विशालकाय वेंकटेश्वर मन्दिर का निर्माण कुछ ही वर्षों पूर्व हुआ है। यह मन्दिर पिट्स वर्ग के बाहर एक पहाड़ी पर स्थित है। प्रकृति की छटा भी यहां अनुपम है जो अनायास ही आगन्तुकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। मन्दिर के निर्माण में लगभग एक करोड़ की राशि खर्च हुई है। मन्दिर का मूल ढांचा तिरुपति के तिरुमल्लई मन्दिर से मिलता जुलता है। 80 प्रतिशत भारतीय आबादी वाले दो हजार की जनसंख्या के क्षेत्र फ्लाशिग (न्यूयार्क) में भी वेंकटेश्वर मन्दिर का निर्माण सन् 1978 में हुआ।
‘हरे राम हरे कृष्ण मिशन’ का प्रादुर्भाव विदेशों में सन् 1960 के बाद हुआ। तब से लेकर अब तक कितने ही देशों में प्रचारकों ने मन्दिरों की स्थापना की है। अमेरिका के विभिन्न हिस्सों शिकागो, कैलीफोर्निया, न्यूयार्क स्प्रिंगफील्ड, वाशिंगटन से लेकर अन्य कितने ही नगरों में श्रीराधाकृष्ण मन्दिरों की स्थापना हो चुकी है। गेरुआ धोती पहने, मृदंग-मंजीरे बजाते, गले में माला पहने, त्रिपुण्ड लगाये तथा लम्बी चुटिया धारी गोरे भक्तों को देखकर कभी-कभी शक होता है कि जैसे वृन्दावन की गलियों में पहुंच गये हों। अमेरिका इंग्लैण्ड, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में भी गोरे भक्तों की संख्या बढ़ रही है।
ध्यान और योग का प्रचार करने वाली कितनी ही धार्मिक संस्थाएं विदेशों में कार्यरत हैं। उनके पाश्चात्य अनुयाइयों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। ‘डिवाइन लाइन मिशन’ सन् 1971 में प्रकाश में आया। हूस्टन, डनवर, कोलोरिडो जैसे स्थानों पर उसके सत्संग भवनों में योगाभ्यास का शिक्षण दिया जाता है। अभ्यासियों में अधिकांशतः अंग्रेज होते हैं। स्विट्जरलैंड में भी उसकी शाखाएं योग के प्रचार में लगी हुई हैं। भावातीत ध्यान के क्षेत्र में क्रान्ति मचाने वाले महेश योगी पश्चिमी इन्टेलीजेन्शिया के केन्द्र बने हुए हैं। शारीरिक स्वास्थ्य एवं मनोविकारों के परिशोधन का लक्ष्य लेकर चलने वाली यह ध्यान प्रक्रिया पश्चिमी वर्ग द्वारा अपनायी जा रही है। स्विट्जरलैंड उनका प्रमुख केन्द्र है। अन्यान्य देशों में भावातीत ध्यान के छोटे-बड़े केन्द्र खुल रहे हैं। एक बड़ा वर्ग परमानन्द की खोज में शारीरिक एवं मानसिक धरातलों को स्पर्श करने वाली ध्यान प्रक्रियाओं को सीखने में रत देखा जा सकता है। इनमें से अधिकांश वे हैं जिनकी कभी भी धर्म और अध्यात्म में आस्था नहीं रही। पर स्वच्छन्द जीवन के दुष्परिणामों से ऊबकर अध्यात्म की ओर मुड़े हैं। जे. कृष्णमूर्ति तथा स्वामी चिन्मयानन्द की विचारधारा एवं ध्यान प्रक्रिया के अभ्यासियों की संख्या को देखकर यह कहना पड़ता है कि युग प्रवाह अब भौतिकता से ऊबकर आध्यात्मिकता की ओर मुड़ रहा है।
भारत आदि काल से ही अध्यात्म का सन्देश वाहक रहा है। समय-समय पर उसके नर-रत्नों ने कभी कुमार जीव, संघमित्रा जैसे बौद्ध भिक्षुकों के रूप में तो कभी विवेकानन्द और रामतीर्थ जैसे आत्मज्ञानियों के रूप में विश्व के कोने-कोने में भारतीय अध्यात्मज्ञान और विज्ञान के प्रकाश को सर्वत्र फैलाया है। आज भी उसके पास ऋषियों की सांस्कृतिक विरासत योग और अध्यात्म के गूढ़ ज्ञान के रूप में विद्यमान है दुर्भाग्यवश उसका जो सही और स्वस्थ स्वरूप प्रस्तुत किया जाना चाहिए वह नहीं किया जा रहा है। प्रचलित और प्रख्यात ‘योग’ शब्द हठयोग की कुछ क्रियाओं, योगासनों तथा शारीरिक और मानसिक हलचलों तक सीमित होकर ही रह गया है जबकि उसका लक्ष्य है—व्यक्तित्व की पूर्णता एवं समग्रता का ऐसा योग जो व्यक्तिगत चेतना का समष्टि चेतना के साथ तादात्म्य स्थापित कर दे, यही भारतीय अध्यात्म का मेरुदण्ड रहा है। क्रिया ही नहीं योग का वह दार्शनिक एवं तात्विक पक्ष भी विश्व के सामने आना चाहिए जो मनुष्य के जीवन को पवित्र बनाता है तथा बहुमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। पश्चिमी यूरोपीय देशों की बढ़ती अध्यात्म रुचि को सही दिशा दी ही जानी चाहिए। यह समय की मांग है। वर्तमान युग के भारतीय संतों एवं मनीषियों का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि वह अध्यात्म की संजीवनी विद्या का सही स्वरूप विश्व के समक्ष प्रस्तुत करें।
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