
देव संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाय
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अति प्राचीन काल में भारतीय समाज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उच्च शिखरों पर पहुंच गया था और सभ्यता तथा संस्कृति की दृष्टि से अपना देश अति विकसित था, इस तथ्य को अब विदेशी लोग भी स्वीकार करते हैं। अभी भी भारतीय समाज और राष्ट्र को ऊंचा उठाने वाली प्रतिभा का अपने देश में अभाव नहीं है, फिर भी इस विडम्बना को क्या कहें जो प्रगति और उन्नति के लिए पश्चिम की ही ओर निहारती तथा उसी का अनुकरण करने के लिए लालायित रहती है। विरासत के रूप में भारतीय संस्कृति के जो अवशेष अभी भी बचे हुए या जीवन्त हैं, उनकी उपेक्षा कर उपलब्ध तथ्यों को कवि कल्पना मानने तथा हलके स्तर के आयातित ज्ञान विज्ञान में ही अर्थवत्ता खोजने की प्रवृत्ति आत्मविस्मृति ही नहीं आत्म प्रवंचना का भी परिचय देती है।
भारतीय शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि प्राचीन समय में यहां विमानों का प्रचलन था। भारतीय वैज्ञानिक विमानों का आविष्कार करने में सफल हो गये थे। इस तरह के उल्लेख जहां कहीं भी आये हैं, उन्हें स्वीकार करने के स्थान पर तथाकथित पढ़ा-लिखा शिक्षित समुदाय इस विवरण का उपहास ही उड़ाया करता था। इस तथ्य का मजाक ही किया जाता था और कहा जाता था कि मनुष्य भी कहीं आकाश में पशु-पक्षियों की तरह उड़ सकता है? कैसा बचकाना विचार है। लेकिन जब वायुयान का आविष्कार कर लिया गया, तब कहीं जाकर लोगों ने यह माना कि ऐसा भी सम्भव है और प्राचीन ग्रन्थों, इतिहास के इन विवरणों की सत्यता को झिझकते झुझुकते किया।
सौ-डेढ़ सौ वर्ष पूर्व की बातों को जाने भी दें, सोचा जा सकता है कि उस समय भारतीय मानस शताब्दियों से चली आ रही दासता से आक्रान्त था। उस पर गुलामी का प्रभाव था। फलस्वरूप स्वतन्त्रता में सांस लेने वालों की अपेक्षा गुलामी की घुटन में रहने के कारण लोगों का आत्मविश्वास घटा था और हम इस सन्ताप की अग्नि में बराबर झुलसते रहे थे कि हमारे पास वैज्ञानिक प्रतिभा का अभाव है। लेकिन अब तो स्वतन्त्र हुए करीब छत्तीस वर्ष हो चले, फिर भी प्राचीन संस्कृति के प्रति भारतीय ज्ञान विज्ञान के प्रति इतनी उदासीनता या उपेक्षा क्यों है कि उसी लीक पर चला जा रहा है।
उत्तर में यही कहा जा सकता है कि भारत स्वतन्त्र भले ही हो गया हो, परन्तु यहां के नागरिकों में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव अभी तक जागृत नहीं हो सका है। यही कारण है कि लोग न केवल पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण करना श्रेयस्कर समझते हैं बल्कि वहीं के जीवन दर्शन, वहीं की मान्यताओं और वहां के विचारकों का प्रतिपादन भक्ति भाव से ग्रहण करते अपनाते हैं, पश्चिमी संस्कृति के प्रति इसी मुग्ध भाव के कारण अपनी प्रतिभा का मौलिक विकास करने के स्थान पर पश्चिमी ज्ञान विज्ञान को श्रेष्ठ मानकर अपनी संस्कृति के प्रति हीनता की दृष्टि पनपने लगी है। अन्यथा यह सिद्ध करने के पर्याप्त प्रमाण हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता प्राचीन काल में आधुनिक सभ्यता व संस्कृति की अपेक्षा बहुत अधिक उन्नत और विकसित थी।
किन्हीं दूसरे कारणों से आई गुलामी ने उन कड़ियों को तोड़ भले ही दिया हो और इस कारण ज्ञान विज्ञान की वह प्राचीन धारा टूट भले गई हो, पर अभी मृत नहीं हुई है। उसे पुनर्जीवित किया जा सकता है और अपनी प्रतिभा के मौलिक उपयोग द्वारा उसी गौरवास्पद स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। प्रश्न उठता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के गौरव पूर्ण तथा महान होने के क्या प्रमाण हैं? तथ्यों और प्रमाणों के तो ढेर लगाये जा सकते हैं तथा लगाये भी गये हैं। उन सबको यहां प्रस्तुत करने की गुंजाइश नहीं है। लेख के कलेवर को दृष्टिगत रखते हुए कतिपय उदाहरण और विद्वानों के उद्धरण देना ही पर्याप्त होगा।
सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न धाराओं में से एक भवन निर्माण कला को ही लिया जाए। हजारों वर्ष पूर्व भवन निर्माण कला तथा नगरों का विकास अपने देश में प्रगति के चरम को छू चुका था। इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध वास्तुकलाविद् ई.बी. हैवेल ने कहा है, भवन निर्माण के लिए आजकल जो प्रविधियां प्रचलित हैं वे बहुत अधूरी हैं। निश्चित ही यूरोप ने वास्तुकला के क्षेत्र में अद्भुत प्रगति की है परन्तु वह अभी तक भारत की वास्तुकला के स्तर को छू नहीं पाया है। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व विनिर्मित अजन्ता एलोरा की गुफाएं तथा उनके भित्ति चित्र, उन्हीं दिनों बनाये गये भव्य मन्दिर और प्रासादों में दृष्टिगोचर होने वाली श्रेष्ठतम कलाकारिता को देखकर दांतों तले अंगुली दबा कर रह जाना पड़ता है।
भारत ने न केवल वास्तुकला तथा नगर निर्माण के क्षेत्र में चमत्कारी प्रतिभा को खरादा निखारा, वरन् चिन्तन द्वारा ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण भी किया जिनके आधार पर आज भी उसी स्तर को प्राप्त किया जा सकता है। प्रगति के वही शिखर छुए जा सकते हैं। यद्यपि भारत की ज्ञान सम्पदा का अधिकांश भाग विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा जलाये गये ग्रन्थालयों तथा मारे गये अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिभा सम्पन्नों के कारण नष्ट हो गया है। फिर भी अब तक 141 ऐसे ग्रन्थों का पता लगाया जा चुका है, जिनमें वास्तुकला और शिल्प शास्त्र का विस्तृत विवेचन हुआ है। ‘विश्वकर्म प्रकाश’ भानसार तथा भोजदेव कृत ‘समरांगण’ ‘सूत्राधार’ आदि ग्रन्थ अब भी बड़ी सुलभता से प्राप्त होते हैं। इनके सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि इन ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का विवेचन पढ़ कर ही विस्मय विमुग्ध रह जाना पड़ता है।
अंक विज्ञान एक और देन है, भारत की, जिसका उपयोग तो सारा विश्व अब भी धड़ल्ले से कर रहा है। आधुनिक प्रौद्योगिकी मूलतः अंक गणित पर ही आधारित है। उसके बिना उद्योग धन्धों व व्यवसाय रोजगार का काम एक दिन भी नहीं चल सकता और गणित के अंकों का आविष्कार सर्व प्रथम भारत में ही हुआ। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध पश्चिमी विद्वान जी.बी. हालस्टेड ने इस विश्व को इसके लिए भारत का ऋणी बताते हुए कहा है, हिन्दुओं के द्वारा किये गये शून्य के आविष्कार ने मानव जाति की बुद्धि और शक्ति की प्रगति में अभूतपूर्व योगदान दिया है।
भारत ने आध्यात्मिक क्षेत्र में तो विश्व को अनेकानेक अनुदान दिये हैं। भौतिक क्षेत्र में भी इतनी चमत्कृत कर देते वाली सफलताएं अर्जित की हैं कि उनकी आज की वैज्ञानिक उपलब्धियों से तुलना की जाए तो प्रतीत होगा कि आज का विज्ञान तो उन्हें दोहरा भर रहा है। जैसे पश्चिमी वैज्ञानिकों से सैकड़ों वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने यह पता लगाया था कि पृथ्वी घूमती और सूर्य स्थिर है तथा यह भी कि 24 घण्टे में पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा लगा लेती है। अब से दो हजार वर्ष पूर्व विक्रमादित्य के समय में अपना देश नक्षत्र विद्या के क्षेत्र में उन तथ्यों को खोज चुका था जो पश्चिमी वैज्ञानिकों को सैकड़ों वर्ष बाद मालूम हुए। एक इतिहासकार ने अपने एक निबन्ध में यह बात बड़े ही सुन्दर ढंग से कही है, जिस समय गैलीलियो के प्रतिपादन को न्याय की तराजू पर तोला जा रहा था तथा परम्परागत धारणाओं को टूटने से बचाने के लिए उसे मृत्यु दण्ड सुनाया जा रहा था तब भारतीय वैज्ञानिक अपनी वेधशाला में बैठे हुए इन निष्कर्षों से सैकड़ों कदम आगे की खोज कर रहे थे।
पेड़ की शाखा से एक फल टूट कर गिरता देख पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का पता लगाने के लिए न्यूटन की प्रतिभा के आज भी गीत गाये जाते हैं, परन्तु यह कोई नई खोज न थी। न्यूटन से पांच सौ वर्ष पहले ही भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ ग्रन्थ में लिख दिया था कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है, वह अपनी ही शक्ति से स्थिर है। पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है, इसीलिए वह आकाश में फेंकी हुई भारी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। इस तथ्य को सर्वप्रथम उद्घाटित करने का श्रेय भी भास्कराचार्य को ही जाता है कि पृथ्वी गोल है समतल नहीं।
वास्तुकला विज्ञान, अंग गणित, ज्योतिष तथा भूगोल के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं में भी भारतीय प्रतिभा ने निष्णात दक्षता प्राप्त की थी। भारतीय साहित्य शास्त्र विश्व का सर्वाधिक विकसित साहित्य शास्त्र है। अन्य किसी भी भाषा का साहित्य इतना समृद्ध और सामर्थ्य पूर्ण नहीं है जितना कि संस्कृत भाषा का। रस, सम्प्रदाय, अलंकार, रीति ध्वन्यात्मकता तथा गत्यात्मकता के सिद्धान्तों की जितनी गहन और जितनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हुई है उतनी अन्य भाषाओं में अन्यत्र कहीं भी दिखाई नहीं देती। लेकिन साहित्य का आधुनिक विद्यार्थी इन सबके अध्ययन से वंचित ही रह जाता है। भारतीय भाषाओं के आधुनिक लेखक प्राचीन मनीषियों द्वारा अगाध परिश्रम से खोजे तथा निर्धारित किये गये मानदण्डों की अपेक्षा फैशन के तौर पर पश्चिमी साहित्य के मानदण्डों की बैसाखियों का सहारा लेना ही अधिक उचित समझते हैं। यह प्रवृत्ति जिस गति से बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए यह चिन्ता होना स्वाभाविक ही है कि कहीं कालान्तर में इन प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने वाले भी रह जायेंगे अथवा नहीं।
साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं भारतीय ज्ञान विज्ञान की उन समस्त क्षेत्रों के सम्बन्ध में स्थिति चिन्ताजनक है, जिनमें असंख्यों प्रतिभाओं ने अपना जीवन होम कर अनिर्वचनीय उपलब्धियां अर्जित की है। चूंकि यह सारी ज्ञान सम्पदा देवभाषा संस्कृत में लिपिबद्ध की गई है, इसलिए संस्कृत को मातृभाषा घोषित करने के साथ ही इस ज्ञान सम्पदा की भी सहज ही उपेक्षा होने लगी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विदेशी शासकों ने इस देश में अपने पैर जमाते ही इस तथ्य को जान लिया कि संस्कृत का प्रचलन रहा तो देश की जनता का सोया हुआ आत्म गौरव कभी भी जाग सकता है। इसलिए उन्होंने जान बूझकर संस्कृत के अध्ययन व अध्यापन को निरुत्साहित किया और इसके साथ ही जन-मानस में उत्पन्न होने लगी हीनता, हताशा तथा कुण्ठा। मुगल काल से भी अधिक बुरी परिस्थितियां ब्रिटिश काल में रहीं। उस समय तो फिर भी ज्ञान सम्पदा में नया कुछ जोड़ने के लिए भारतीय प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलता था, किन्तु ब्रिटिश काल में यत्किंचित प्रोत्साहन तो क्या उल्टे निरुत्साहित और निराश करने का उपक्रम चल पड़ा।
अब तो भारत स्वतंत्र है। अब तो वैसी कोई विवशता नहीं है, फिर क्या कारण है कि कभी भी भारतीय समाज में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जागृत नहीं हो पा रहा है। खेद है कि इस दिशा में कोई ध्यान देने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाती। ऐसी बात नहीं है कि भारत के पास प्रतिभा का अभाव हो। प्रतिभाओं के लिए उर्वर भारत भूमि अभी भी इतनी वीर प्रसूता है कि तथ्यों के प्रकाश में भारत प्रतिभाओं के विकास की दृष्टि से प्रथम क्रम में आता है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हाल ही में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कुशल इंजीनियर, टैक्नीशियन और डॉक्टर तैयार करने में भारत अन्य सभी देशों से अग्रणी है। लेकिन कमी यही है कि हम अपनी प्रतिभा के साथ विरासत में मिली ज्ञान सम्पदा को जोड़ने में अभी तक समर्थ नहीं हो सके हैं या फिर इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते।
आवश्यकता अनुभव की जाय तो समर्थता भी अर्जित हो सकती है। लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जागृत किया जाए। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जिसे अपनी प्राचीन संस्कृति से मोह न हो, जो उसके प्रति गौरवान्वित न रहता हो। एक भारत ही ऐसा है जो अपने पुरखों की निन्दा, भर्त्सना और उपेक्षा कर रहा है। प्रत्यक्ष करने वाले भी हैं और परोक्ष करने वाले भी। विदेशी पश्चिमी सभ्यता की अन्धी नकल और अपनी संस्कृति के प्रति कुछ भी जानने की उत्सुकता का अभाव, उपेक्षा, नहीं तो और क्या है? आवश्यकता इस बात की है कि अपने गौरवपूर्ण अतीत का अध्ययन किया जाय, उसके प्रगतिशील तत्वों को अपनाया जाय और मौलिक प्रतिभा का विकास किया जाए, तभी भारत विश्व में आत्म सम्मान के साथ जी सकेगा।
भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति का पर्याय माना गया है। सभ्यता का विकास इसी के गर्भ में से हुआ जिसने ज्ञान की अनेकानेक विधाओं को जन्म देकर समस्त विश्व को अपने अनुदानों से सिक्त किया। किसी देश, जाति, धर्म सम्प्रदाय, वर्ग अथवा समाज विशेष तक सीमित न रहकर यह सम्पूर्ण मानव जाति के विकास एवं कल्याण के लिए पथ प्रदर्शन करती रही है।
जब तक इस देश के नागरिक अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को समझते और उन्हें अपने आचरण में उतारते रहे यहां एक से बढ़कर एक नर रत्न, महापुरुष पैदा होते रहे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख-शान्ति की निर्झरिणी बहती रही। इस संस्कृति के ढांचे में ढले हुए नररत्न अपने प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित करते थे। अपनी गौरव गरिमा के कारण वे विश्व भर में वन्दनीय थे। अतीत के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह पता चलता है कि यहां के नर नारियों ने अपनी महान् सांस्कृतिक परम्परा को जीवन्त बनाये रखने के लिए त्याग बलिदान से युक्त अविस्मरणीय भूमिका निभाई है जिसका अवलोकन कर मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। पारिवारिक एवं सामाजिक आदर्शों, देश जाति धर्म संस्कृति के लिए मर मिटने वालों की श्रृंखला में अनेकों नाम ध्रुव तारे की भांति अपनी अमर कृति के साथ इतिहास के पन्नों में अभी भी चमकते हैं।
हर परिवार सांस्कृतिक आदर्शों से अनुप्राणित था। पिता और पुत्र के बीच कैसे सम्बन्ध थे, इसका उदाहरण देखना हो तो रामायण तथा इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। विमाता के कहने पर 14 वर्ष तक के लिए जाने वाले राम, माता-पिता की तीर्थ यात्रा की इच्छा की पूर्ति के लिए उन्हें कांवर में बिठाकर कष्ट साध्य श्रम करने वाले श्रवण कुमार, पिता के दान कर देने पर मृत्यु लोक के लिए सहर्ष प्रस्थान करने वाले नचिकेता के चरित्र को पढ़ने पर अन्तरात्मा पुलकित हो उठती है। भाई का भाई के प्रति क्या कर्तव्य है इसका बोध राम, लक्ष्मण और भरत के जीवन चरित्र के अवलोकन पर होता है। शत्रुता होते हुए कौरवों को जब यक्षों ने बन्दी बना लिया तो युधिष्ठिर से भ्रातृत्व प्रेम से वशीभूत होकर उन्हें छुड़वाया। सच्चे मित्र का क्या कर्तव्य होता है, इसको श्रीकृष्ण ने सुदामा और अर्जुन के प्रति निर्वाह करके दिखाया था।
पति-पत्नी के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिए इसके उदाहरण भारतीय नर-नारियों ने पग-पग पर उपस्थित किए हैं। सीता, सावित्री, गान्धारी, दमयन्ती, सुकन्या, शैव्या, अनसूया जैसी पतिव्रता नारियों की कथाएं आज भी घर-घर सुनाई जाती हैं। पर स्त्री के प्रति माता, भगिनी और पुत्री का भाव रखने वाले चरित्रों की भी कमी नहीं है। शिवाजी द्वारा सुन्दर यवन कन्या को सम्मान पूर्वक सुरक्षित उसके घर पहुंचा देना, अर्जुन द्वारा इन्द्र सभा की सर्व श्रेष्ठ सुन्दरी उर्वशी का प्रणय प्रस्ताव अस्वीकार कर देना, रूप गर्विता देवयानी को कच द्वारा वापिस लौटा देने, जैसे उज्ज्वल चरित्र के अगणित उदाहरण हैं।
अपने आप को तपश्चर्या की अग्नि में आहुति दे देने वाले, पर सतत विश्व मानव के उत्कर्ष में संलग्न ऋषियों की जीवनियां पढ़ने पर अन्तरात्मा उनके चरणों में पुष्पांजलि समर्पित करने को कहती है। वशिष्ठ विश्वामित्र कपिल, कणाद, कश्यप, जमदग्नि भारद्वाज, गौतम, पाराशर, याज्ञवल्क्य, जैमिनी गोभिल, पिप्पलाद, शुकदेव, कात्यायन, शंख, जरत्कारु, लोमश, शृंगी धौम्य, वैशम्पायन आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तिल जलाकर संसार के लिए प्रकाश उत्पन्न किया। प्रसुप्त अन्तरात्मा को जगाने और सद्भाव युक्त सत् प्रेरणाएं उभारने के लिए अपनी ज्ञान धारा को सूत-शौनक निरन्तर प्रवाहित करते थे। धर्म कथाएं एवं गाथाएं उदात्त भावनाओं को उछालने का काम करती थीं। धर्म और संस्कृति के लिए मर मिटने वालों के भी अनेकों साहस भरे उदाहरण मौजूद हैं। धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए बन्दा वैरागी का खौलते तेल के कढ़ाव में कूद जाना, हकीकतराय का हंसते-हंसते सिर कटा देना, गुरु गोविन्द सिंह के बालकों का दीवारों में चिने जाने के लिए तैयार हो जाना, आदि घटनाएं संकीर्ण स्वार्थों के दल-दल में लिप्त देशवासियों को लानत देती हैं। उन्हें उनसे उबरने और महानता की ओर अग्रगमन की प्रेरणा देती हैं।
यहां के निवासी सुख-साधन, धन-सम्पदा के संग्रह को नहीं आत्म शक्ति सम्पादन और उस परमार्थ प्रयोजनों में सदुपयोग को जीवन की सार्थकता मानते रहे हैं। गौतम बुद्ध अपने सुख सौभाग्य पर लात मारकर अज्ञान में डूबे हुए संसार का पथ प्रदर्शन करने के लिए घर छोड़कर निकल पड़े। महावीर ने संयम और अहिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन ही उत्सर्ग कर दिया। भागीरथ राज सुख को त्याग कर दीर्घ काल तक प्यासी पृथ्वी को तृप्त करने के लिए पावन गंगा के अवतरण के लिए तप करते रहे। व्यासजी ने संसार को धर्म ज्ञान देने के लिए अष्टादश पुराणों की रचना में अपना जीवन खपा दिया। आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण की रचना कर मानव जाति को कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया। रोग पीड़ितों के कष्ट निवारण के लिए चरक, सुश्रुत वागभट्ट, धन्वंतरि प्रभृति ऋषि जीवन भर जड़ी-बूटियों धातुओं, विषों आदि का अन्वेषण करते रहे परिणामतः उन्होंने एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र का आविर्भाव किया। ज्योतिर्विद्या की महान् खोज का, आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों का मानवी स्वास्थ्य और पृथ्वी के वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है का श्रेय इन ऋषियों को ही है। सूर्य सिद्धान्त, मकरन्द, ग्रहलाघव जैसे महत्व पूर्ण दुर्लभ ग्रन्थ ज्योतिर्विज्ञान के गूढ़ रहस्यों पर प्रकाश डालते हैं। बिना किसी वैज्ञानिक यन्त्र के अन्तरिक्ष विद्या के विकास में उन्हें कितना श्रम करना पड़ा होगा, यह सोचकर आश्चर्य होता है।
आज धर्म और अध्यात्म के नाम पर पाखण्ड फैलाने वाले तथाकथित साधु-ब्राह्मणों की कमी नहीं है जो इनकी आड़ में अपने स्वार्थों के लिए जन श्रद्धा का शोषण करते और अश्रद्धा को बढ़ावा देते हैं पर भारतीय संस्कृति में साधु ब्राह्मणों की एक गौरव पूर्ण परम्परा रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का एक मात्र आदर्श था जन मानस के अन्तरंग को उत्कृष्ट बनाने के लिए अपनी सामर्थ्य को सतत नियोजित किए रहना। दयानन्द, शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, समर्थ रामदास, तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु, कबीर, विवेकानन्द, सिखधर्म के दस गुरु आदि असंख्यों धर्मगुरु लोक मंगल के कार्य में जीवन पर्यन्त घोर परिश्रम और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोक सेवा को जीवन मुक्ति से कहीं अधिक महत्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा ‘‘आप तो अब मुक्ति के लिए प्रयाण कर रहे हैं।’’ बुद्ध ने उत्तर दिया ‘‘जब तक संसार का एक भी प्राणी भव बन्धन में बंधा हुआ है तब तक मुझे मृत्यु की कामना नहीं होगी। मानव जाति के उत्कर्ष के लिए में बारम्बार जन्म लेता रहूंगा।’’ भगवान बुद्ध के ये शब्द धर्म पथ का अवलम्बन लेने वालों को अध्यात्म के वास्तविक लक्ष्य का बोध कराते हैं। स्वामी दयानन्द योग साधना के लिए हिमालय गये किन्तु कुछ समय बाद उन्हें ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि लोक सेवा को अपनाये बिना योग साधना का लक्ष्य पूरा नहीं होता। साधना के उपरान्त वापिस लौटे तो उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही संव्याप्त अज्ञानान्धकार को मिटाने में खपा दिया। महात्मा शब्द को सार्थक करने वाले गांधी जी द्वारा देश के नव निर्माण के लिए किया गया तप कभी भुलाया न जा सकेगा। पांडित्य और विद्वता की सार्थकता आचरण में है, महामना मालवीय और लोक मान्य तिलक इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे।
देश की बाग डोर संभालने और शासन चलाने वालों का चरित्र कैसा होना चाहिए, इसके अनेकों उदाहरण भारतीय संस्कृति में भरे पड़े हैं। राजा जनक अपने गुजारे के लिए स्वयं हल चलाते थे। राजा कोष में से धन अपने लिए नहीं प्रयुक्त करते थे महर्षि विश्वामित्र को जब यज्ञीय लोकहित के कार्य के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा हरिश्चन्द्र ने समस्त कोष ही सौंप दिया। छत्रपति शिवाजी ने विपुल सम्पत्ति समर्थ गुरु रामदास के चरणों में अर्पित कर दी और स्वयं उनके आज्ञानुसार एक ट्रस्टी की भांति राज्य सम्पत्ति की देख-रेख करते और शासन की व्यवस्था संभालते रहे। महाराणा प्रताप राजसुख की परवाह न करके जीवन भर स्वतन्त्रता संग्राम के धर्म युद्ध में लड़ते रहे। चाणक्य राज्य मन्त्री होते हुए भी एक फूंस की झोंपड़ी में गरीबी का जीवन जीते रहे। अपने निर्वाह के लिए राज्य-कोष से कुछ भी नहीं लेते थे। इन शासकों की जीवन गाथाएं त्याग-बलिदान की घटनाएं पढ़ने से हृदय गदगद हो उठता है।
आज की भांति जिनके पास धन सम्पत्ति होती थी उसे सात पीड़ियों तक के लिए तिजोरी में बन्द रखने की संकीर्ण परम्परा नहीं थी। एक हाथ से कमाने और न्यूनतम गुजारे से बचे अतिरिक्त धन को दूसरे हाथ से सहर्ष समाज के लिए देने की उदारता अपनायी जाती थी। भामाशाह ने जीवन भर की कमाई अथाह सम्पत्ति को निस्पृह भाव से राणाप्रताप को धर्म युद्ध के लिए दे दी। स्वतन्त्रता संग्राम में धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा महेन्द्र प्रताप ने अपनी जमींदारी की सम्पूर्ण सम्पत्ति ही दे डाली। ‘सी. आर दास’ वकालत से हजारों रुपये कमाते थे पर वह सारा का सारा और कितनी ही बार कर्ज लेकर भी सार्वजनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। जमुना लाल बजाज ने अपनी सारी सम्पत्ति गांधी जी के चरणों में सौंप दी और स्वयं स्वतन्त्रता संग्राम के एक सच्चे सेनानी की भांति काम करते रहे।
राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्या सागर, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविन्द रानाडे, गणेश शंकर विद्यार्थी, श्रद्धानंद, सर्वदानन्द, हैड गेवार के जीवन चरित्र में भारतीय संस्कृति की उज्ज्वल झांकी देखी जा सकती है। सन् 1857 से लेकर स्वाधीनता के हिंसात्मक संग्राम के क्रान्तिकारी भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल, सुभाष, खुदी राम सरीखे असंख्यों वीरों और 1921 से लेकर 1947 तक की अहिंसात्मक राज्य क्रान्ति में अगणित व्यक्तियों ने जो त्याग किये हैं उनकी गाथाएं पढ़ते सुनते हुए भुजाएं फड़कने लगती हैं।
मानवता के उत्कर्ष में भारतीय नारियां भी पीछे नहीं रही हैं। पुरुष के कंधा से कंधा मिलाकर वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती रही हैं। वेदों के मन्त्र दृष्टा जिस प्रकार विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषि हुए हैं वैसे ही ऋषिकाएं स्त्रियां भी हुई हैं। ऋग्वेद में ऐसी अनेकों विदुषियों का उल्लेख मिलता है। गोधा घोष, विश्वावारा अपाला, जुहु, अदिति सरमा, रोमशा, लोपामुद्रा शास्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी स्त्रियां न केवल वेद मन्त्रों की द्रष्टा थीं वरन् समय-समय पर उन्होंने यज्ञादि में आचार्य के गुरुतर पद का भली भांति निर्वाह किया। मनु की पुत्री इड़ा प्रकाण्ड याज्ञिक थी। उसने अपने पिता का यज्ञ स्वयं सम्पन्न कराया। महाभारत के शान्ति पर्व के अध्याय 30 में सुलभा नामक एक विदुषी का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी के छक्के छुड़ा दिए थे। भागवत में स्वधा की पुत्री यमुना और धारिणी का वर्णन है। वे विज्ञान विद्या में निष्णात थीं। भारती देवी नामक महिला से शंकराचार्य को भी मात खानी पड़ी। प्रश्नों के उत्तर के लिए उन्हें समय की मोहलत मांगनी पड़ी। ज्ञान ही नहीं धर्म युद्ध में भी नारियों ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। चित्तौड़ की रानियां, बूंदी की रानी दुर्गावती, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, चांद बीबी आदि के पराक्रम से युक्त घटनाओं को पढ़ने से रोमांच हो आता है।
भारत की सांस्कृतिक गौरव गाथा से इतिहास के असंख्यों पन्ने भरे पड़े हैं। यहां घर-घर में ऐसे नर-रत्न पैदा होते रहे हैं जिनके उज्ज्वल चरित्र प्रकाश स्तम्भों की भांति आज भी गिरी मनुष्य जाति के पथ प्रदर्शन के लिए प्रकाशमान हो रहे हैं। यह स्थिति इस देश में इसलिए बनी रही कि ऋषि प्रणीत संस्कृति के प्रति जन-जन में गम्भीर आस्था थी, सांस्कृतिक आदर्शों की रक्षा को हर व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न और जीवन से भी अधिक मूल्यवान मानता था। इस स्थिति के उलटते ही देश का पतन और पराभव आरम्भ हुआ और परतन्त्रता के पास में लम्बी अवधि तक बंधना पड़ा जिसके संस्कार स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी बने हुए हैं।
भारतीय शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि प्राचीन समय में यहां विमानों का प्रचलन था। भारतीय वैज्ञानिक विमानों का आविष्कार करने में सफल हो गये थे। इस तरह के उल्लेख जहां कहीं भी आये हैं, उन्हें स्वीकार करने के स्थान पर तथाकथित पढ़ा-लिखा शिक्षित समुदाय इस विवरण का उपहास ही उड़ाया करता था। इस तथ्य का मजाक ही किया जाता था और कहा जाता था कि मनुष्य भी कहीं आकाश में पशु-पक्षियों की तरह उड़ सकता है? कैसा बचकाना विचार है। लेकिन जब वायुयान का आविष्कार कर लिया गया, तब कहीं जाकर लोगों ने यह माना कि ऐसा भी सम्भव है और प्राचीन ग्रन्थों, इतिहास के इन विवरणों की सत्यता को झिझकते झुझुकते किया।
सौ-डेढ़ सौ वर्ष पूर्व की बातों को जाने भी दें, सोचा जा सकता है कि उस समय भारतीय मानस शताब्दियों से चली आ रही दासता से आक्रान्त था। उस पर गुलामी का प्रभाव था। फलस्वरूप स्वतन्त्रता में सांस लेने वालों की अपेक्षा गुलामी की घुटन में रहने के कारण लोगों का आत्मविश्वास घटा था और हम इस सन्ताप की अग्नि में बराबर झुलसते रहे थे कि हमारे पास वैज्ञानिक प्रतिभा का अभाव है। लेकिन अब तो स्वतन्त्र हुए करीब छत्तीस वर्ष हो चले, फिर भी प्राचीन संस्कृति के प्रति भारतीय ज्ञान विज्ञान के प्रति इतनी उदासीनता या उपेक्षा क्यों है कि उसी लीक पर चला जा रहा है।
उत्तर में यही कहा जा सकता है कि भारत स्वतन्त्र भले ही हो गया हो, परन्तु यहां के नागरिकों में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव अभी तक जागृत नहीं हो सका है। यही कारण है कि लोग न केवल पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण करना श्रेयस्कर समझते हैं बल्कि वहीं के जीवन दर्शन, वहीं की मान्यताओं और वहां के विचारकों का प्रतिपादन भक्ति भाव से ग्रहण करते अपनाते हैं, पश्चिमी संस्कृति के प्रति इसी मुग्ध भाव के कारण अपनी प्रतिभा का मौलिक विकास करने के स्थान पर पश्चिमी ज्ञान विज्ञान को श्रेष्ठ मानकर अपनी संस्कृति के प्रति हीनता की दृष्टि पनपने लगी है। अन्यथा यह सिद्ध करने के पर्याप्त प्रमाण हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता प्राचीन काल में आधुनिक सभ्यता व संस्कृति की अपेक्षा बहुत अधिक उन्नत और विकसित थी।
किन्हीं दूसरे कारणों से आई गुलामी ने उन कड़ियों को तोड़ भले ही दिया हो और इस कारण ज्ञान विज्ञान की वह प्राचीन धारा टूट भले गई हो, पर अभी मृत नहीं हुई है। उसे पुनर्जीवित किया जा सकता है और अपनी प्रतिभा के मौलिक उपयोग द्वारा उसी गौरवास्पद स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। प्रश्न उठता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के गौरव पूर्ण तथा महान होने के क्या प्रमाण हैं? तथ्यों और प्रमाणों के तो ढेर लगाये जा सकते हैं तथा लगाये भी गये हैं। उन सबको यहां प्रस्तुत करने की गुंजाइश नहीं है। लेख के कलेवर को दृष्टिगत रखते हुए कतिपय उदाहरण और विद्वानों के उद्धरण देना ही पर्याप्त होगा।
सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न धाराओं में से एक भवन निर्माण कला को ही लिया जाए। हजारों वर्ष पूर्व भवन निर्माण कला तथा नगरों का विकास अपने देश में प्रगति के चरम को छू चुका था। इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध वास्तुकलाविद् ई.बी. हैवेल ने कहा है, भवन निर्माण के लिए आजकल जो प्रविधियां प्रचलित हैं वे बहुत अधूरी हैं। निश्चित ही यूरोप ने वास्तुकला के क्षेत्र में अद्भुत प्रगति की है परन्तु वह अभी तक भारत की वास्तुकला के स्तर को छू नहीं पाया है। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व विनिर्मित अजन्ता एलोरा की गुफाएं तथा उनके भित्ति चित्र, उन्हीं दिनों बनाये गये भव्य मन्दिर और प्रासादों में दृष्टिगोचर होने वाली श्रेष्ठतम कलाकारिता को देखकर दांतों तले अंगुली दबा कर रह जाना पड़ता है।
भारत ने न केवल वास्तुकला तथा नगर निर्माण के क्षेत्र में चमत्कारी प्रतिभा को खरादा निखारा, वरन् चिन्तन द्वारा ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण भी किया जिनके आधार पर आज भी उसी स्तर को प्राप्त किया जा सकता है। प्रगति के वही शिखर छुए जा सकते हैं। यद्यपि भारत की ज्ञान सम्पदा का अधिकांश भाग विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा जलाये गये ग्रन्थालयों तथा मारे गये अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिभा सम्पन्नों के कारण नष्ट हो गया है। फिर भी अब तक 141 ऐसे ग्रन्थों का पता लगाया जा चुका है, जिनमें वास्तुकला और शिल्प शास्त्र का विस्तृत विवेचन हुआ है। ‘विश्वकर्म प्रकाश’ भानसार तथा भोजदेव कृत ‘समरांगण’ ‘सूत्राधार’ आदि ग्रन्थ अब भी बड़ी सुलभता से प्राप्त होते हैं। इनके सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि इन ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का विवेचन पढ़ कर ही विस्मय विमुग्ध रह जाना पड़ता है।
अंक विज्ञान एक और देन है, भारत की, जिसका उपयोग तो सारा विश्व अब भी धड़ल्ले से कर रहा है। आधुनिक प्रौद्योगिकी मूलतः अंक गणित पर ही आधारित है। उसके बिना उद्योग धन्धों व व्यवसाय रोजगार का काम एक दिन भी नहीं चल सकता और गणित के अंकों का आविष्कार सर्व प्रथम भारत में ही हुआ। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध पश्चिमी विद्वान जी.बी. हालस्टेड ने इस विश्व को इसके लिए भारत का ऋणी बताते हुए कहा है, हिन्दुओं के द्वारा किये गये शून्य के आविष्कार ने मानव जाति की बुद्धि और शक्ति की प्रगति में अभूतपूर्व योगदान दिया है।
भारत ने आध्यात्मिक क्षेत्र में तो विश्व को अनेकानेक अनुदान दिये हैं। भौतिक क्षेत्र में भी इतनी चमत्कृत कर देते वाली सफलताएं अर्जित की हैं कि उनकी आज की वैज्ञानिक उपलब्धियों से तुलना की जाए तो प्रतीत होगा कि आज का विज्ञान तो उन्हें दोहरा भर रहा है। जैसे पश्चिमी वैज्ञानिकों से सैकड़ों वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने यह पता लगाया था कि पृथ्वी घूमती और सूर्य स्थिर है तथा यह भी कि 24 घण्टे में पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा लगा लेती है। अब से दो हजार वर्ष पूर्व विक्रमादित्य के समय में अपना देश नक्षत्र विद्या के क्षेत्र में उन तथ्यों को खोज चुका था जो पश्चिमी वैज्ञानिकों को सैकड़ों वर्ष बाद मालूम हुए। एक इतिहासकार ने अपने एक निबन्ध में यह बात बड़े ही सुन्दर ढंग से कही है, जिस समय गैलीलियो के प्रतिपादन को न्याय की तराजू पर तोला जा रहा था तथा परम्परागत धारणाओं को टूटने से बचाने के लिए उसे मृत्यु दण्ड सुनाया जा रहा था तब भारतीय वैज्ञानिक अपनी वेधशाला में बैठे हुए इन निष्कर्षों से सैकड़ों कदम आगे की खोज कर रहे थे।
पेड़ की शाखा से एक फल टूट कर गिरता देख पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का पता लगाने के लिए न्यूटन की प्रतिभा के आज भी गीत गाये जाते हैं, परन्तु यह कोई नई खोज न थी। न्यूटन से पांच सौ वर्ष पहले ही भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ ग्रन्थ में लिख दिया था कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है, वह अपनी ही शक्ति से स्थिर है। पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है, इसीलिए वह आकाश में फेंकी हुई भारी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। इस तथ्य को सर्वप्रथम उद्घाटित करने का श्रेय भी भास्कराचार्य को ही जाता है कि पृथ्वी गोल है समतल नहीं।
वास्तुकला विज्ञान, अंग गणित, ज्योतिष तथा भूगोल के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं में भी भारतीय प्रतिभा ने निष्णात दक्षता प्राप्त की थी। भारतीय साहित्य शास्त्र विश्व का सर्वाधिक विकसित साहित्य शास्त्र है। अन्य किसी भी भाषा का साहित्य इतना समृद्ध और सामर्थ्य पूर्ण नहीं है जितना कि संस्कृत भाषा का। रस, सम्प्रदाय, अलंकार, रीति ध्वन्यात्मकता तथा गत्यात्मकता के सिद्धान्तों की जितनी गहन और जितनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हुई है उतनी अन्य भाषाओं में अन्यत्र कहीं भी दिखाई नहीं देती। लेकिन साहित्य का आधुनिक विद्यार्थी इन सबके अध्ययन से वंचित ही रह जाता है। भारतीय भाषाओं के आधुनिक लेखक प्राचीन मनीषियों द्वारा अगाध परिश्रम से खोजे तथा निर्धारित किये गये मानदण्डों की अपेक्षा फैशन के तौर पर पश्चिमी साहित्य के मानदण्डों की बैसाखियों का सहारा लेना ही अधिक उचित समझते हैं। यह प्रवृत्ति जिस गति से बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए यह चिन्ता होना स्वाभाविक ही है कि कहीं कालान्तर में इन प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने वाले भी रह जायेंगे अथवा नहीं।
साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं भारतीय ज्ञान विज्ञान की उन समस्त क्षेत्रों के सम्बन्ध में स्थिति चिन्ताजनक है, जिनमें असंख्यों प्रतिभाओं ने अपना जीवन होम कर अनिर्वचनीय उपलब्धियां अर्जित की है। चूंकि यह सारी ज्ञान सम्पदा देवभाषा संस्कृत में लिपिबद्ध की गई है, इसलिए संस्कृत को मातृभाषा घोषित करने के साथ ही इस ज्ञान सम्पदा की भी सहज ही उपेक्षा होने लगी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विदेशी शासकों ने इस देश में अपने पैर जमाते ही इस तथ्य को जान लिया कि संस्कृत का प्रचलन रहा तो देश की जनता का सोया हुआ आत्म गौरव कभी भी जाग सकता है। इसलिए उन्होंने जान बूझकर संस्कृत के अध्ययन व अध्यापन को निरुत्साहित किया और इसके साथ ही जन-मानस में उत्पन्न होने लगी हीनता, हताशा तथा कुण्ठा। मुगल काल से भी अधिक बुरी परिस्थितियां ब्रिटिश काल में रहीं। उस समय तो फिर भी ज्ञान सम्पदा में नया कुछ जोड़ने के लिए भारतीय प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलता था, किन्तु ब्रिटिश काल में यत्किंचित प्रोत्साहन तो क्या उल्टे निरुत्साहित और निराश करने का उपक्रम चल पड़ा।
अब तो भारत स्वतंत्र है। अब तो वैसी कोई विवशता नहीं है, फिर क्या कारण है कि कभी भी भारतीय समाज में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जागृत नहीं हो पा रहा है। खेद है कि इस दिशा में कोई ध्यान देने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाती। ऐसी बात नहीं है कि भारत के पास प्रतिभा का अभाव हो। प्रतिभाओं के लिए उर्वर भारत भूमि अभी भी इतनी वीर प्रसूता है कि तथ्यों के प्रकाश में भारत प्रतिभाओं के विकास की दृष्टि से प्रथम क्रम में आता है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हाल ही में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कुशल इंजीनियर, टैक्नीशियन और डॉक्टर तैयार करने में भारत अन्य सभी देशों से अग्रणी है। लेकिन कमी यही है कि हम अपनी प्रतिभा के साथ विरासत में मिली ज्ञान सम्पदा को जोड़ने में अभी तक समर्थ नहीं हो सके हैं या फिर इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते।
आवश्यकता अनुभव की जाय तो समर्थता भी अर्जित हो सकती है। लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जागृत किया जाए। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जिसे अपनी प्राचीन संस्कृति से मोह न हो, जो उसके प्रति गौरवान्वित न रहता हो। एक भारत ही ऐसा है जो अपने पुरखों की निन्दा, भर्त्सना और उपेक्षा कर रहा है। प्रत्यक्ष करने वाले भी हैं और परोक्ष करने वाले भी। विदेशी पश्चिमी सभ्यता की अन्धी नकल और अपनी संस्कृति के प्रति कुछ भी जानने की उत्सुकता का अभाव, उपेक्षा, नहीं तो और क्या है? आवश्यकता इस बात की है कि अपने गौरवपूर्ण अतीत का अध्ययन किया जाय, उसके प्रगतिशील तत्वों को अपनाया जाय और मौलिक प्रतिभा का विकास किया जाए, तभी भारत विश्व में आत्म सम्मान के साथ जी सकेगा।
भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति का पर्याय माना गया है। सभ्यता का विकास इसी के गर्भ में से हुआ जिसने ज्ञान की अनेकानेक विधाओं को जन्म देकर समस्त विश्व को अपने अनुदानों से सिक्त किया। किसी देश, जाति, धर्म सम्प्रदाय, वर्ग अथवा समाज विशेष तक सीमित न रहकर यह सम्पूर्ण मानव जाति के विकास एवं कल्याण के लिए पथ प्रदर्शन करती रही है।
जब तक इस देश के नागरिक अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को समझते और उन्हें अपने आचरण में उतारते रहे यहां एक से बढ़कर एक नर रत्न, महापुरुष पैदा होते रहे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख-शान्ति की निर्झरिणी बहती रही। इस संस्कृति के ढांचे में ढले हुए नररत्न अपने प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित करते थे। अपनी गौरव गरिमा के कारण वे विश्व भर में वन्दनीय थे। अतीत के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह पता चलता है कि यहां के नर नारियों ने अपनी महान् सांस्कृतिक परम्परा को जीवन्त बनाये रखने के लिए त्याग बलिदान से युक्त अविस्मरणीय भूमिका निभाई है जिसका अवलोकन कर मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। पारिवारिक एवं सामाजिक आदर्शों, देश जाति धर्म संस्कृति के लिए मर मिटने वालों की श्रृंखला में अनेकों नाम ध्रुव तारे की भांति अपनी अमर कृति के साथ इतिहास के पन्नों में अभी भी चमकते हैं।
हर परिवार सांस्कृतिक आदर्शों से अनुप्राणित था। पिता और पुत्र के बीच कैसे सम्बन्ध थे, इसका उदाहरण देखना हो तो रामायण तथा इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। विमाता के कहने पर 14 वर्ष तक के लिए जाने वाले राम, माता-पिता की तीर्थ यात्रा की इच्छा की पूर्ति के लिए उन्हें कांवर में बिठाकर कष्ट साध्य श्रम करने वाले श्रवण कुमार, पिता के दान कर देने पर मृत्यु लोक के लिए सहर्ष प्रस्थान करने वाले नचिकेता के चरित्र को पढ़ने पर अन्तरात्मा पुलकित हो उठती है। भाई का भाई के प्रति क्या कर्तव्य है इसका बोध राम, लक्ष्मण और भरत के जीवन चरित्र के अवलोकन पर होता है। शत्रुता होते हुए कौरवों को जब यक्षों ने बन्दी बना लिया तो युधिष्ठिर से भ्रातृत्व प्रेम से वशीभूत होकर उन्हें छुड़वाया। सच्चे मित्र का क्या कर्तव्य होता है, इसको श्रीकृष्ण ने सुदामा और अर्जुन के प्रति निर्वाह करके दिखाया था।
पति-पत्नी के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिए इसके उदाहरण भारतीय नर-नारियों ने पग-पग पर उपस्थित किए हैं। सीता, सावित्री, गान्धारी, दमयन्ती, सुकन्या, शैव्या, अनसूया जैसी पतिव्रता नारियों की कथाएं आज भी घर-घर सुनाई जाती हैं। पर स्त्री के प्रति माता, भगिनी और पुत्री का भाव रखने वाले चरित्रों की भी कमी नहीं है। शिवाजी द्वारा सुन्दर यवन कन्या को सम्मान पूर्वक सुरक्षित उसके घर पहुंचा देना, अर्जुन द्वारा इन्द्र सभा की सर्व श्रेष्ठ सुन्दरी उर्वशी का प्रणय प्रस्ताव अस्वीकार कर देना, रूप गर्विता देवयानी को कच द्वारा वापिस लौटा देने, जैसे उज्ज्वल चरित्र के अगणित उदाहरण हैं।
अपने आप को तपश्चर्या की अग्नि में आहुति दे देने वाले, पर सतत विश्व मानव के उत्कर्ष में संलग्न ऋषियों की जीवनियां पढ़ने पर अन्तरात्मा उनके चरणों में पुष्पांजलि समर्पित करने को कहती है। वशिष्ठ विश्वामित्र कपिल, कणाद, कश्यप, जमदग्नि भारद्वाज, गौतम, पाराशर, याज्ञवल्क्य, जैमिनी गोभिल, पिप्पलाद, शुकदेव, कात्यायन, शंख, जरत्कारु, लोमश, शृंगी धौम्य, वैशम्पायन आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तिल जलाकर संसार के लिए प्रकाश उत्पन्न किया। प्रसुप्त अन्तरात्मा को जगाने और सद्भाव युक्त सत् प्रेरणाएं उभारने के लिए अपनी ज्ञान धारा को सूत-शौनक निरन्तर प्रवाहित करते थे। धर्म कथाएं एवं गाथाएं उदात्त भावनाओं को उछालने का काम करती थीं। धर्म और संस्कृति के लिए मर मिटने वालों के भी अनेकों साहस भरे उदाहरण मौजूद हैं। धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए बन्दा वैरागी का खौलते तेल के कढ़ाव में कूद जाना, हकीकतराय का हंसते-हंसते सिर कटा देना, गुरु गोविन्द सिंह के बालकों का दीवारों में चिने जाने के लिए तैयार हो जाना, आदि घटनाएं संकीर्ण स्वार्थों के दल-दल में लिप्त देशवासियों को लानत देती हैं। उन्हें उनसे उबरने और महानता की ओर अग्रगमन की प्रेरणा देती हैं।
यहां के निवासी सुख-साधन, धन-सम्पदा के संग्रह को नहीं आत्म शक्ति सम्पादन और उस परमार्थ प्रयोजनों में सदुपयोग को जीवन की सार्थकता मानते रहे हैं। गौतम बुद्ध अपने सुख सौभाग्य पर लात मारकर अज्ञान में डूबे हुए संसार का पथ प्रदर्शन करने के लिए घर छोड़कर निकल पड़े। महावीर ने संयम और अहिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन ही उत्सर्ग कर दिया। भागीरथ राज सुख को त्याग कर दीर्घ काल तक प्यासी पृथ्वी को तृप्त करने के लिए पावन गंगा के अवतरण के लिए तप करते रहे। व्यासजी ने संसार को धर्म ज्ञान देने के लिए अष्टादश पुराणों की रचना में अपना जीवन खपा दिया। आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण की रचना कर मानव जाति को कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया। रोग पीड़ितों के कष्ट निवारण के लिए चरक, सुश्रुत वागभट्ट, धन्वंतरि प्रभृति ऋषि जीवन भर जड़ी-बूटियों धातुओं, विषों आदि का अन्वेषण करते रहे परिणामतः उन्होंने एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र का आविर्भाव किया। ज्योतिर्विद्या की महान् खोज का, आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों का मानवी स्वास्थ्य और पृथ्वी के वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है का श्रेय इन ऋषियों को ही है। सूर्य सिद्धान्त, मकरन्द, ग्रहलाघव जैसे महत्व पूर्ण दुर्लभ ग्रन्थ ज्योतिर्विज्ञान के गूढ़ रहस्यों पर प्रकाश डालते हैं। बिना किसी वैज्ञानिक यन्त्र के अन्तरिक्ष विद्या के विकास में उन्हें कितना श्रम करना पड़ा होगा, यह सोचकर आश्चर्य होता है।
आज धर्म और अध्यात्म के नाम पर पाखण्ड फैलाने वाले तथाकथित साधु-ब्राह्मणों की कमी नहीं है जो इनकी आड़ में अपने स्वार्थों के लिए जन श्रद्धा का शोषण करते और अश्रद्धा को बढ़ावा देते हैं पर भारतीय संस्कृति में साधु ब्राह्मणों की एक गौरव पूर्ण परम्परा रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का एक मात्र आदर्श था जन मानस के अन्तरंग को उत्कृष्ट बनाने के लिए अपनी सामर्थ्य को सतत नियोजित किए रहना। दयानन्द, शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, समर्थ रामदास, तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु, कबीर, विवेकानन्द, सिखधर्म के दस गुरु आदि असंख्यों धर्मगुरु लोक मंगल के कार्य में जीवन पर्यन्त घोर परिश्रम और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोक सेवा को जीवन मुक्ति से कहीं अधिक महत्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा ‘‘आप तो अब मुक्ति के लिए प्रयाण कर रहे हैं।’’ बुद्ध ने उत्तर दिया ‘‘जब तक संसार का एक भी प्राणी भव बन्धन में बंधा हुआ है तब तक मुझे मृत्यु की कामना नहीं होगी। मानव जाति के उत्कर्ष के लिए में बारम्बार जन्म लेता रहूंगा।’’ भगवान बुद्ध के ये शब्द धर्म पथ का अवलम्बन लेने वालों को अध्यात्म के वास्तविक लक्ष्य का बोध कराते हैं। स्वामी दयानन्द योग साधना के लिए हिमालय गये किन्तु कुछ समय बाद उन्हें ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि लोक सेवा को अपनाये बिना योग साधना का लक्ष्य पूरा नहीं होता। साधना के उपरान्त वापिस लौटे तो उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही संव्याप्त अज्ञानान्धकार को मिटाने में खपा दिया। महात्मा शब्द को सार्थक करने वाले गांधी जी द्वारा देश के नव निर्माण के लिए किया गया तप कभी भुलाया न जा सकेगा। पांडित्य और विद्वता की सार्थकता आचरण में है, महामना मालवीय और लोक मान्य तिलक इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे।
देश की बाग डोर संभालने और शासन चलाने वालों का चरित्र कैसा होना चाहिए, इसके अनेकों उदाहरण भारतीय संस्कृति में भरे पड़े हैं। राजा जनक अपने गुजारे के लिए स्वयं हल चलाते थे। राजा कोष में से धन अपने लिए नहीं प्रयुक्त करते थे महर्षि विश्वामित्र को जब यज्ञीय लोकहित के कार्य के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा हरिश्चन्द्र ने समस्त कोष ही सौंप दिया। छत्रपति शिवाजी ने विपुल सम्पत्ति समर्थ गुरु रामदास के चरणों में अर्पित कर दी और स्वयं उनके आज्ञानुसार एक ट्रस्टी की भांति राज्य सम्पत्ति की देख-रेख करते और शासन की व्यवस्था संभालते रहे। महाराणा प्रताप राजसुख की परवाह न करके जीवन भर स्वतन्त्रता संग्राम के धर्म युद्ध में लड़ते रहे। चाणक्य राज्य मन्त्री होते हुए भी एक फूंस की झोंपड़ी में गरीबी का जीवन जीते रहे। अपने निर्वाह के लिए राज्य-कोष से कुछ भी नहीं लेते थे। इन शासकों की जीवन गाथाएं त्याग-बलिदान की घटनाएं पढ़ने से हृदय गदगद हो उठता है।
आज की भांति जिनके पास धन सम्पत्ति होती थी उसे सात पीड़ियों तक के लिए तिजोरी में बन्द रखने की संकीर्ण परम्परा नहीं थी। एक हाथ से कमाने और न्यूनतम गुजारे से बचे अतिरिक्त धन को दूसरे हाथ से सहर्ष समाज के लिए देने की उदारता अपनायी जाती थी। भामाशाह ने जीवन भर की कमाई अथाह सम्पत्ति को निस्पृह भाव से राणाप्रताप को धर्म युद्ध के लिए दे दी। स्वतन्त्रता संग्राम में धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा महेन्द्र प्रताप ने अपनी जमींदारी की सम्पूर्ण सम्पत्ति ही दे डाली। ‘सी. आर दास’ वकालत से हजारों रुपये कमाते थे पर वह सारा का सारा और कितनी ही बार कर्ज लेकर भी सार्वजनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। जमुना लाल बजाज ने अपनी सारी सम्पत्ति गांधी जी के चरणों में सौंप दी और स्वयं स्वतन्त्रता संग्राम के एक सच्चे सेनानी की भांति काम करते रहे।
राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्या सागर, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविन्द रानाडे, गणेश शंकर विद्यार्थी, श्रद्धानंद, सर्वदानन्द, हैड गेवार के जीवन चरित्र में भारतीय संस्कृति की उज्ज्वल झांकी देखी जा सकती है। सन् 1857 से लेकर स्वाधीनता के हिंसात्मक संग्राम के क्रान्तिकारी भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल, सुभाष, खुदी राम सरीखे असंख्यों वीरों और 1921 से लेकर 1947 तक की अहिंसात्मक राज्य क्रान्ति में अगणित व्यक्तियों ने जो त्याग किये हैं उनकी गाथाएं पढ़ते सुनते हुए भुजाएं फड़कने लगती हैं।
मानवता के उत्कर्ष में भारतीय नारियां भी पीछे नहीं रही हैं। पुरुष के कंधा से कंधा मिलाकर वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती रही हैं। वेदों के मन्त्र दृष्टा जिस प्रकार विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषि हुए हैं वैसे ही ऋषिकाएं स्त्रियां भी हुई हैं। ऋग्वेद में ऐसी अनेकों विदुषियों का उल्लेख मिलता है। गोधा घोष, विश्वावारा अपाला, जुहु, अदिति सरमा, रोमशा, लोपामुद्रा शास्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी स्त्रियां न केवल वेद मन्त्रों की द्रष्टा थीं वरन् समय-समय पर उन्होंने यज्ञादि में आचार्य के गुरुतर पद का भली भांति निर्वाह किया। मनु की पुत्री इड़ा प्रकाण्ड याज्ञिक थी। उसने अपने पिता का यज्ञ स्वयं सम्पन्न कराया। महाभारत के शान्ति पर्व के अध्याय 30 में सुलभा नामक एक विदुषी का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी के छक्के छुड़ा दिए थे। भागवत में स्वधा की पुत्री यमुना और धारिणी का वर्णन है। वे विज्ञान विद्या में निष्णात थीं। भारती देवी नामक महिला से शंकराचार्य को भी मात खानी पड़ी। प्रश्नों के उत्तर के लिए उन्हें समय की मोहलत मांगनी पड़ी। ज्ञान ही नहीं धर्म युद्ध में भी नारियों ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। चित्तौड़ की रानियां, बूंदी की रानी दुर्गावती, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, चांद बीबी आदि के पराक्रम से युक्त घटनाओं को पढ़ने से रोमांच हो आता है।
भारत की सांस्कृतिक गौरव गाथा से इतिहास के असंख्यों पन्ने भरे पड़े हैं। यहां घर-घर में ऐसे नर-रत्न पैदा होते रहे हैं जिनके उज्ज्वल चरित्र प्रकाश स्तम्भों की भांति आज भी गिरी मनुष्य जाति के पथ प्रदर्शन के लिए प्रकाशमान हो रहे हैं। यह स्थिति इस देश में इसलिए बनी रही कि ऋषि प्रणीत संस्कृति के प्रति जन-जन में गम्भीर आस्था थी, सांस्कृतिक आदर्शों की रक्षा को हर व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न और जीवन से भी अधिक मूल्यवान मानता था। इस स्थिति के उलटते ही देश का पतन और पराभव आरम्भ हुआ और परतन्त्रता के पास में लम्बी अवधि तक बंधना पड़ा जिसके संस्कार स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी बने हुए हैं।