
नव निर्माण में देव संस्कृति की भूमिका
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देव संस्कृति चिरपुरातन समय से ही समूचे विश्व के हर क्षेत्र एवं समुदाय की सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से अनुप्राणित करने में समर्थ रही है। यदि विश्व को आज की परिस्थितियों में एक सूत्र में बांधने की बात सोची जाय तो एक ही संस्कृति ‘विश्व संस्कृति’ की बात मस्तिष्क में आती है। ऐसा स्वरूप देव संस्कृति का ही बनता है, जो सारे विश्व की अनेकानेक संस्कृतियों के उपयोगी एवं महत्वपूर्ण अंशों का समुच्चय है। इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति ही ऐसी है जिसे अनायास ही मानवी संस्कृति—देव परम्पराओं के उत्कृष्टतम स्वरूप की मान्यता मिल सके।
भारत भूमि की परम्परागत महानता मात्र इतने तक ही सीमित नहीं रही है कि यहां के निवासी समर्थ, सुसंस्कृत एवं समृद्ध भर थे। यदि बात इतनी छोटी होती तो इस प्रकार के उदाहरण अन्यत्र भी खोजे जा सकते थे। अपनी-अपनी परिधि में अपने-अपने ढंग से सभी उत्कर्ष अभ्युदय के प्रयत्न करते एवं योग्यता परिस्थिति के अनुरूप सफल भी होते रहते। कौन कितना सफल हुआ—अन्तर मात्र इतने का रहा। परिणामों में इस अनुपात से अन्तर तो रहेगा, पर तथ्यों एवं प्रयासों को असाधारण एवं अनुपम नहीं कहा जा सकता। भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ इसलिए कहा जाता है उसके अपने कुछ मौलिक निर्धारण एवं प्रयास थे। इनमें सर्वोपरि यह था कि जो पाया जाय उसे बिना अपने पराये का भेदभाव किये बांटा-बिखेरा जाय। इस विभाजन-वितरण में विशेषतया अधिक जरूरतमंदों को प्राथमिकता देने की नीति का पूरा-पूरा समावेश किया गया। सूर्य की ऊर्जा, बादलों की सरसता एवं वायु की सजीवता बनकर इस धरती पर निवास करने वाले मनुष्यों को नहीं वरन् समूचे जीव जगत् को सुखी समुन्नत बनाने में अपनी क्षमता लगाती है, फलतः कृतज्ञता भरा सम्मान भी पाती है।
स्वर्ग लोक के निवासियों की सम्पदा उन्हीं के काम आती है। धरती वाले उस वैभव का लाभ कहां उठा पाते हैं? देवताओं में देने की प्रवृत्ति तो है, पर साथ ही है यह इस स्तर की कि जो अनुनयपूर्वक मांगे उसे को अनुग्रह रूप में दिया जाय। बिना मांगे स्वतः विपन्नता को तलाशना एवं बिना याचना के उस विषमता को निरस्त करने के लिए जा पहुंचना यह विशेषता धरती के देवमानवों में ही पाई जाती है। व्यवहार में इसे तब देखा जाता है जब कभी भूकम्प, दुर्भिक्ष, बाढ़ अग्नि काण्ड, महामारी, दुर्घटनायें सामने आती हैं। अनेकों भावनाशील उस समय अपनी सहायता लेकर संकट-ग्रस्तों की सहायता को दौड़ते हैं।
यही एक प्रमुख कारण है कि देवमानवों की मनःस्थिति एवं जीवन चर्या की सुरदुर्लभ कहा गया है। इस आनन्द से वंचित रहने के कारण देवता धरती पर उतरते और मानव जन्म लेकर अपने को कृतकृत्य करते हैं। भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ इसी दृष्टि से कहा जाता रहा है कि इस पर जन्मे और बढ़े व्यक्ति सदा से यह ध्यान रखते रहे कि उन्हें हर स्तर का वैभव प्रचुर परिणाम में कमाना तो है, अकेले खाना नहीं है। वरन् जो भी कुछ हाथ में है उसे अपने से अधिक अभाव ग्रस्तों को प्राथमिकता देते हुए व्यापक क्षेत्र में वितरित करना है।
अतीत के विभूतिवानों-देवमानवों की इस विशेषता का सर्व विदित प्रमाण यह भी है कि उनने अपने देश के कोने-कोने में सुसंस्कारिता का वैभव बढ़ाने में कोई कमी न रखी। इसके अतिरिक्त समस्त वसुधा को अपना कुटुम्ब मानकर कष्ट साध्य यात्रायें करते हुए वे वहां जा पहुंचे, जहां पिछड़े पन का अनुपात-अपेक्षाकृत अधिक था। इतिहास साक्षी है कि अभ्युदय का वातावरण बनाने के लिए विश्व के कौने-कौने में इस भूमि की प्राणवान् आत्मायें पहुंचती और वहां सर्वतोमुखी प्रगतिशीलता का वातावरण बनाती रही है। बादलों की गरिमा इसीलिए है कि वे जहां भी पहुंचते हैं, सरसता का उपहार देते हैं सूर्य की वन्दना इसीलिए है कि उसका सम्पर्क क्षेत्र गर्मी और रोशनी से रहित रह नहीं सकता। भारत के देवमानवों ने विश्व को जो अजस्र अनुदान दिये हैं, उनका कृतज्ञता पूर्वक अनन्तकाल तक स्मरण किया जाता रहेगा।
दुर्भाग्यवश मध्यकाल के अन्धकार युग ने इस ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ भारतभूमि की सारी विशेषताओं का अपहरण कर लिया। पतन और पराभव ही पल्ले रह गया। अब हम दानी नहीं, मात्र याचक बनकर रह गये हैं। शासन, अर्थ, शिक्षा, विज्ञान आदि भौतिक क्षेत्रों में ही नहीं वरन् संस्कृति की दृष्टि से भी भारत वर्ष अब आयातक भर है। निर्यातक बनाने की स्थिति तो अभी तक नहीं बन पाई। इस दृष्टि से ईसाई मिशन निर्यातक होने का गौरव प्राप्त करते हैं। इस देश के साधु-बाबा, धर्म प्रचारक और दूसरे लोग कभी विदेश जाते हैं तो लालच की आंखें और याचना की झोली भर लेकर बाहर पहुंचते हैं। बहाने बनाने के हजार रास्ते हैं। मांगने के लिए भी अनेकों सच्चे झूठे कारण एवं पाखण्ड खड़े किये जा सकते हैं। दृष्टि तो वही रही, जिसके कारण उनके प्रति जन साधारण की श्रद्धा घटती और प्रभावोत्पादक सामर्थ्य मिटती है।
सर्वविदित है कि भौतिक वादी दृष्टिकोण और सम्पन्नता के दुरुपयोग ने नैतिक मूल्यों का बुरी तरह ह्रास किया है। फलतः स्नेह सहयोग में भारी कमी आयी है। स्वार्थपरता और निष्ठुरता बढ़ने से सारा प्रचलन ही उलट गया है। विषाक्त वातावरण ने जन जीवन को अनिश्चित, अशान्त और आतंकित कर दिया है। इन दिनों समृद्धि तो निश्चित रूप से बढ़ी है पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि पूर्वजों की स्वल्प साधनों वाली स्थिति की तुलना में वह अत्यन्त तुच्छ और कष्टकारक बनकर रह गयी है। इस व्यापक विपन्नता को दूर करने के लिए भारत अभी भी इस स्थिति में है कि पूर्वजों के प्रतिपादनों और निर्धारणों से विश्व मानव को अवगत करते हुए वह यह सुझाये कि विनाश के कगार पर खड़ी सभ्यता को पीछे लौटाने एवं शान्तिपूर्वक जीने का क्या तरीका हो सकता है?
निस्सन्देह भारत बहुत कुछ खो चुका। उसके पास जो भी कुछ बचा है अत्यन्त अस्त-व्यस्त और नष्ट-भ्रष्ट है। फिर भी उसके कुछ टुकड़े ऐसे हैं, जिन्हें अभी भी डूबते को तिनके के सहारे की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है उदाहरणार्थ संयुक्त परिवार पद्धति, पतिव्रत धर्म, जीवित और मृतक पूर्वजों के लिए, चरण स्पर्श, श्राद्ध और तर्पण जैसे माध्यमों से कृतज्ञता ज्ञापन, परलोक पर विश्वास से नीति-नियन्त्रण, परमार्थ के लिए अंशदान, प्राणियों के प्रति करुणा, स्वल्प में सन्तोष जैसे अनेकों प्रचलन ऐसे हैं कि उन्हें विश्व व्यवस्था में सुनियोजित रूप से प्रचलित करने की बात नये सिरे से, नये प्रयत्नों से उठाई जा सके तो भारत वैसा ही श्रेयाधिकारी हो सकता है जैसा कि समर्थ प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र अपनी शस्त्र सम्पदा व साधनों के माध्यम से वर्चस्व प्राप्त कर रहे हैं। आवश्यकता मात्र समर्थता एवं प्रभुत्व की परिभाषाएं बदलने की है। यह पुरुषार्थ यदि किया जाना है, तो वर्तमान प्रतिकूल परिस्थितियों में ही। यह असंभव नहीं, पूर्णरूपेण ससम्भव है।
वैभव न सही, दिशा दे सकने वाला आलोक अभी भी पूर्वजों की तिजोरियों में भरा पड़ा है और उसका प्रमाण परिचय अभी भी अपने टूटे झोंपड़ों में, अपने अस्तित्व को ज्यों का त्यों जीवित रखे है। यह बपौती भी इतनी मूल्यवान है कि इसे संसार की मण्डी में प्रस्तुत किया जा सके तो विचार शीलता इसका महत्व समझे बिना न रहेगी। इतना ही नहीं, उसे अपनाये जाने की भी पूरी-पूरी संभावना है, क्यों कि उस महान् अनुसरण के विकल्प में एक ही मार्ग बच रहता है—‘‘मनुष्य समुदाय द्वारा सामूहिक आत्महत्या का वरण किया जाना।’’
आदर्शवादिता की बातें करना और व्यवहार में उन आदर्शों से ठीक विपरीत आचरण करना जितना निन्द्य और गर्हित है सम्भवतः उतना बुरा अनैतिक कर्मों में प्रवृत्त होना भी नहीं है। क्योंकि इस प्रकार का आचरण अनीति पूर्ण तो होता ही है, उनसे सिद्धान्तों की बातें कह कर उसे ढकने दबाने की एक और अनैतिकता स्वभाव में समाविष्ट हो जाती है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, ‘तुम आदर्शों की बात करो और उन्हें अपने व्यवहार में न उतारो तो तुमसे चोर, डाकू और लुटेरे अच्छे, कम से कम कथनी और करनी का अन्तर तो नहीं होता।’
दुर्भाग्य से इन दिनों ये प्रवंचना पूर्ण स्थिति बहुत सघनता के साथ पाई जाती है। उदाहरण के लिए दहेज को ही लिया जाए। प्रत्येक व्यक्ति दहेज प्रथा की बुराइयां गिनाते नहीं थकता और पानी पी-पीकर इस कुरीति को कोसता है। इस विषय पर किसी से भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा जाए वह इसका अन्त अनिवार्य रूपेण चाहता प्रतीत होता है। लेकिन अधिकांश व्यक्ति जब अवसर आता है तब मजबूरी के नाम पराये, घर के, अन्य किन्हीं सम्बन्धितों का दबाव बताकर अपने लिए बचाव का रास्ता खोज लेते हैं और दहेज के लिए मुंह फाड़ने लगते हैं। इस दोहरी रीति-नीति को जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी स्पष्टतया देखा जा सकता है। ईमानदारी, परिश्रम, लगन, दायित्वनिष्ठा, कर्तव्य परायणता, उदारता आदि गुणों या आदर्शों की हर कोई सराहना करता है तथा उनका पालन आवश्यक बताता है किन्तु जब बात उनके पालन पर आती है तो लोग बगलें झांकने लगते हैं।
आदर्शों के प्रति यह दोहरी और दोगली दृष्टि न हमारी संस्कृति का अंग रही है और न इस संस्कृति के प्रणेताओं में कहीं इस तरह का छद्म देखने में आया है। बल्कि इस तरह के हजारों उदाहरण हमारे सांस्कृतिक इतिहास में भरे पड़े हैं। जिनमें लोगों ने आदर्शवादिता को पराकाष्ठा के स्तर पर पालन किया। आदर्शों के लिए हमारे मनीषियों ने एक अनूठा शब्द खोजा है—जीवन मूल्य। आदर्शों को जीवन मूल्य कहा गया है—अर्थात् जीवन का मूल्य देकर भी जिन पर दृढ़ रहा जाना चाहिए। मनुष्य को सबसे बढ़कर जीवन ही प्रिय है। संसार की समस्त सम्पदाओं की तुलना में वह जीवन को ही प्रधानता देता है। मनीषियों ने जीवन के ऊपर भी आदर्शों को प्रधानता दी है। यह विस्मय विमुग्ध कर देने वाली बात है कि जिस जीवन की तुलना में सब कुछ तुच्छ है वह जीवन आदर्शों के लिए बलि चढ़ाना श्लाघनीय समझा गया है।
आदर्शों की यह पराकाष्ठा ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है। भारतीय संस्कृति के इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिन लोगों ने इन आदर्शों के लिए अपने जीवन को भी दांव-पर चढ़ा दिया उन्हें मनीषियों ने अवतार कह कर सम्बोधित किया एवं सराहा और पूजा है। पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए भगवान राम द्वारा राजमहल में उपलब्ध होने वाली सुविधाओं का त्याग कर जंगल में वनवासी बनकर रहने लगने का उदाहरण विख्यात है। लक्ष्मण ने अपने भाई के प्रति कर्तव्य-पालन के लिए तमाम सुख सुविधाओं को छोड़ दिया। भ्रातृ-प्रेम का इतना अनूठा उदाहरण संसार के किन्हीं अन्य देशों में मिलना दुर्लभ है। भरत द्वारा राज्य को धरोहर मानकर सम्हालने तथा स्वयं तापस वेश धारण कर जीवन व्यतीत करने का उदाहरण भी अपने ही जातीय इतिहास में मिलता है।
सत्य के लिए अपना सारा जीवन, राजपाट आदि सब सुख सुविधाएं छोड़कर श्मशान में बिक जाने का हरिश्चन्द्र जैसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। महारथी कर्ण और राजा बलि द्वारा दान धर्म की पराकाष्ठा को स्पर्श कर लेने का गौरव पूर्ण अध्याय भी अपने ही इतिहास में जुड़ा हुआ है। कर्ण जानते थे कि कवच-कुण्डल देने से वे मर सकते हैं, उनके लिए जीवन संकट उपस्थित हो सकता है, परन्तु इन्द्र जब उनके सामने याचक बनकर उपस्थित होते हैं, और इन्द्र ही क्यों कोई भी क्यों न हो? उनके लिए न करते नहीं बनता। कर्ण के पिता सूर्य जब इस षड्यन्त्र का पर्दाफाश करते हुए अपने पुत्र को सचेत करते और व्यावहारिक बनने का उपदेश देते हैं तो कर्ण यही कहते हैं कि मैं व्यावहारिकता का ही निर्वाह कर रहा हूं। थोड़ी चीज देकर अधिक प्राप्त करना लाभदायक सौदा ही कहा जायेगा। यह नश्वर शरीर तो एक न एक दिन नष्ट होना ही है। आज होता है या कल होता है इससे क्या अन्तर पड़ता है। मैं इसके बदले अमर कीर्ति प्राप्त कर रहा हूं तो इसमें घाटे की क्या बात है?
नियम और अनुशासन की मर्यादा तोड़ने पर राजा हंसध्वज ने अपने पुत्र को भी दण्डित करने से नहीं बख्शा। जब देश रक्षा के लिए हर युवक को युद्ध में जाने का निर्देश दिया और सभी युवा व्यक्ति रणा-गण में पहुंच गये तो उन्हें पता चला कि राजकुमार सुधन्वा इस अनुशासन मर्यादा का उल्लंघन कर अपनी नवविवाहित पत्नी के साथ प्रणय-लीला में उलझे हुए हैं। राजपुत्र होने के साथ-साथ सुधन्वा नव-विवाहित भी थे। हंसध्वज चाहते तो पुत्र को क्षमा कर सकते थे, परन्तु कर्तव्य सो कर्तव्य। नियम सो नियम। राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को जो दण्ड दिया जाना घोषित किया गया था, वही दण्ड उन्होंने अपने पुत्र को भी दिया। अनुशासन तोड़ने वालों के लिए गरम तेल में डाल देने का दण्ड निर्धारित था, सो सुधन्वा को भी यही दण्ड दिया गया।
शरणागत की रक्षा करना भारतीय धर्म और संस्कृति का गौरव रहा है और इस गौरव को इतिहास पुरुषों ने बड़े से बड़ा त्याग कर भी स्थापित किया है। राजा शिवि ने अपनी शरण में आये पक्षी की रक्षा के लिए उसका शिकार कर रहे बाज को अपनी जांघ का मांस खिला कर अद्भुत शरणागत वत्सलता के साथ-साथ उदार साहसिकता का भी परिचय दिया। मयूर ध्वज ने अपने पुत्र का मांस खिला कर अभ्यागत की इच्छा पूरी की। इस तरह के प्रसंगों में वैचित्र्य के साथ-साथ अस्वाभाविकता भी है, परन्तु जिन्होंने मृत्यु के आरपार देखा है उनके लिए इनमें कुछ भी विचित्र या अस्वाभाविक नहीं है। आदर्शों की पराकाष्ठा तक पहुंचने के लिए जो कुछ भी किया जाता है, वह व्यावहारिक है। जब जीवन क्षण भंगुर है और एक न एक दिन मर ही जाना है, शरीर को मिटना ही है तो क्यों न आदर्शों के लिए मरा जाय? नियतिगत या स्वाभाविक मृत्यु की अपेक्षा किसी सिद्धान्त के लिए, आदर्श के लिए मरना अधिक स्तुत्य है।
मृत्यु का रहस्य समझने वालों के लिए उत्सर्ग उसी प्रकार है जिस प्रकार सामान्य व्यक्ति लाखों रुपयों का पुरस्कार प्राप्त करने की आशा में एक दो रुपये का लाटरी टिकट खरीद लेता है। लाटरी के टिकट खरीदने पर लखपति बनने की सम्भावना तो फिर भी नगण्य-सी रहती है, किन्तु आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने वाला व्यक्ति अपने प्राप्तव्य के सम्बन्ध में शत प्रतिशत निश्चिन्त रह सकता है। जिन लोगों ने आदर्शों के लिए उत्सर्ग किया उनकी दृष्टि में यद्यपि मरने के बाद किसी प्रकार की श्रेय कामना नहीं रही, फिर भी उनके लिए श्रेय सुरक्षित है। श्रेय नहीं भी मिले तो भी किसी उद्देश्य के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाली बात से मिला आत्म सन्तोष कहीं नहीं जाता।
आदर्शों की यह पराकाष्ठा अपनी संस्कृति की धरोहर है। यदि इस पराकाष्ठा पर नहीं पहुंचा जा सके तो भी कम से कम कथनी और करनी में साम्य तो रखा ही जा सकता है। हम भी इसी ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की सन्तानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से तो बचा ही जाना चाहिए। इस छलना से बचकर ही अपनी संस्कृति के प्रति गौरव भाव जागृत और जीवन्त रखा जा सकता है।
भारत भूमि की परम्परागत महानता मात्र इतने तक ही सीमित नहीं रही है कि यहां के निवासी समर्थ, सुसंस्कृत एवं समृद्ध भर थे। यदि बात इतनी छोटी होती तो इस प्रकार के उदाहरण अन्यत्र भी खोजे जा सकते थे। अपनी-अपनी परिधि में अपने-अपने ढंग से सभी उत्कर्ष अभ्युदय के प्रयत्न करते एवं योग्यता परिस्थिति के अनुरूप सफल भी होते रहते। कौन कितना सफल हुआ—अन्तर मात्र इतने का रहा। परिणामों में इस अनुपात से अन्तर तो रहेगा, पर तथ्यों एवं प्रयासों को असाधारण एवं अनुपम नहीं कहा जा सकता। भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ इसलिए कहा जाता है उसके अपने कुछ मौलिक निर्धारण एवं प्रयास थे। इनमें सर्वोपरि यह था कि जो पाया जाय उसे बिना अपने पराये का भेदभाव किये बांटा-बिखेरा जाय। इस विभाजन-वितरण में विशेषतया अधिक जरूरतमंदों को प्राथमिकता देने की नीति का पूरा-पूरा समावेश किया गया। सूर्य की ऊर्जा, बादलों की सरसता एवं वायु की सजीवता बनकर इस धरती पर निवास करने वाले मनुष्यों को नहीं वरन् समूचे जीव जगत् को सुखी समुन्नत बनाने में अपनी क्षमता लगाती है, फलतः कृतज्ञता भरा सम्मान भी पाती है।
स्वर्ग लोक के निवासियों की सम्पदा उन्हीं के काम आती है। धरती वाले उस वैभव का लाभ कहां उठा पाते हैं? देवताओं में देने की प्रवृत्ति तो है, पर साथ ही है यह इस स्तर की कि जो अनुनयपूर्वक मांगे उसे को अनुग्रह रूप में दिया जाय। बिना मांगे स्वतः विपन्नता को तलाशना एवं बिना याचना के उस विषमता को निरस्त करने के लिए जा पहुंचना यह विशेषता धरती के देवमानवों में ही पाई जाती है। व्यवहार में इसे तब देखा जाता है जब कभी भूकम्प, दुर्भिक्ष, बाढ़ अग्नि काण्ड, महामारी, दुर्घटनायें सामने आती हैं। अनेकों भावनाशील उस समय अपनी सहायता लेकर संकट-ग्रस्तों की सहायता को दौड़ते हैं।
यही एक प्रमुख कारण है कि देवमानवों की मनःस्थिति एवं जीवन चर्या की सुरदुर्लभ कहा गया है। इस आनन्द से वंचित रहने के कारण देवता धरती पर उतरते और मानव जन्म लेकर अपने को कृतकृत्य करते हैं। भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ इसी दृष्टि से कहा जाता रहा है कि इस पर जन्मे और बढ़े व्यक्ति सदा से यह ध्यान रखते रहे कि उन्हें हर स्तर का वैभव प्रचुर परिणाम में कमाना तो है, अकेले खाना नहीं है। वरन् जो भी कुछ हाथ में है उसे अपने से अधिक अभाव ग्रस्तों को प्राथमिकता देते हुए व्यापक क्षेत्र में वितरित करना है।
अतीत के विभूतिवानों-देवमानवों की इस विशेषता का सर्व विदित प्रमाण यह भी है कि उनने अपने देश के कोने-कोने में सुसंस्कारिता का वैभव बढ़ाने में कोई कमी न रखी। इसके अतिरिक्त समस्त वसुधा को अपना कुटुम्ब मानकर कष्ट साध्य यात्रायें करते हुए वे वहां जा पहुंचे, जहां पिछड़े पन का अनुपात-अपेक्षाकृत अधिक था। इतिहास साक्षी है कि अभ्युदय का वातावरण बनाने के लिए विश्व के कौने-कौने में इस भूमि की प्राणवान् आत्मायें पहुंचती और वहां सर्वतोमुखी प्रगतिशीलता का वातावरण बनाती रही है। बादलों की गरिमा इसीलिए है कि वे जहां भी पहुंचते हैं, सरसता का उपहार देते हैं सूर्य की वन्दना इसीलिए है कि उसका सम्पर्क क्षेत्र गर्मी और रोशनी से रहित रह नहीं सकता। भारत के देवमानवों ने विश्व को जो अजस्र अनुदान दिये हैं, उनका कृतज्ञता पूर्वक अनन्तकाल तक स्मरण किया जाता रहेगा।
दुर्भाग्यवश मध्यकाल के अन्धकार युग ने इस ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ भारतभूमि की सारी विशेषताओं का अपहरण कर लिया। पतन और पराभव ही पल्ले रह गया। अब हम दानी नहीं, मात्र याचक बनकर रह गये हैं। शासन, अर्थ, शिक्षा, विज्ञान आदि भौतिक क्षेत्रों में ही नहीं वरन् संस्कृति की दृष्टि से भी भारत वर्ष अब आयातक भर है। निर्यातक बनाने की स्थिति तो अभी तक नहीं बन पाई। इस दृष्टि से ईसाई मिशन निर्यातक होने का गौरव प्राप्त करते हैं। इस देश के साधु-बाबा, धर्म प्रचारक और दूसरे लोग कभी विदेश जाते हैं तो लालच की आंखें और याचना की झोली भर लेकर बाहर पहुंचते हैं। बहाने बनाने के हजार रास्ते हैं। मांगने के लिए भी अनेकों सच्चे झूठे कारण एवं पाखण्ड खड़े किये जा सकते हैं। दृष्टि तो वही रही, जिसके कारण उनके प्रति जन साधारण की श्रद्धा घटती और प्रभावोत्पादक सामर्थ्य मिटती है।
सर्वविदित है कि भौतिक वादी दृष्टिकोण और सम्पन्नता के दुरुपयोग ने नैतिक मूल्यों का बुरी तरह ह्रास किया है। फलतः स्नेह सहयोग में भारी कमी आयी है। स्वार्थपरता और निष्ठुरता बढ़ने से सारा प्रचलन ही उलट गया है। विषाक्त वातावरण ने जन जीवन को अनिश्चित, अशान्त और आतंकित कर दिया है। इन दिनों समृद्धि तो निश्चित रूप से बढ़ी है पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि पूर्वजों की स्वल्प साधनों वाली स्थिति की तुलना में वह अत्यन्त तुच्छ और कष्टकारक बनकर रह गयी है। इस व्यापक विपन्नता को दूर करने के लिए भारत अभी भी इस स्थिति में है कि पूर्वजों के प्रतिपादनों और निर्धारणों से विश्व मानव को अवगत करते हुए वह यह सुझाये कि विनाश के कगार पर खड़ी सभ्यता को पीछे लौटाने एवं शान्तिपूर्वक जीने का क्या तरीका हो सकता है?
निस्सन्देह भारत बहुत कुछ खो चुका। उसके पास जो भी कुछ बचा है अत्यन्त अस्त-व्यस्त और नष्ट-भ्रष्ट है। फिर भी उसके कुछ टुकड़े ऐसे हैं, जिन्हें अभी भी डूबते को तिनके के सहारे की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है उदाहरणार्थ संयुक्त परिवार पद्धति, पतिव्रत धर्म, जीवित और मृतक पूर्वजों के लिए, चरण स्पर्श, श्राद्ध और तर्पण जैसे माध्यमों से कृतज्ञता ज्ञापन, परलोक पर विश्वास से नीति-नियन्त्रण, परमार्थ के लिए अंशदान, प्राणियों के प्रति करुणा, स्वल्प में सन्तोष जैसे अनेकों प्रचलन ऐसे हैं कि उन्हें विश्व व्यवस्था में सुनियोजित रूप से प्रचलित करने की बात नये सिरे से, नये प्रयत्नों से उठाई जा सके तो भारत वैसा ही श्रेयाधिकारी हो सकता है जैसा कि समर्थ प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र अपनी शस्त्र सम्पदा व साधनों के माध्यम से वर्चस्व प्राप्त कर रहे हैं। आवश्यकता मात्र समर्थता एवं प्रभुत्व की परिभाषाएं बदलने की है। यह पुरुषार्थ यदि किया जाना है, तो वर्तमान प्रतिकूल परिस्थितियों में ही। यह असंभव नहीं, पूर्णरूपेण ससम्भव है।
वैभव न सही, दिशा दे सकने वाला आलोक अभी भी पूर्वजों की तिजोरियों में भरा पड़ा है और उसका प्रमाण परिचय अभी भी अपने टूटे झोंपड़ों में, अपने अस्तित्व को ज्यों का त्यों जीवित रखे है। यह बपौती भी इतनी मूल्यवान है कि इसे संसार की मण्डी में प्रस्तुत किया जा सके तो विचार शीलता इसका महत्व समझे बिना न रहेगी। इतना ही नहीं, उसे अपनाये जाने की भी पूरी-पूरी संभावना है, क्यों कि उस महान् अनुसरण के विकल्प में एक ही मार्ग बच रहता है—‘‘मनुष्य समुदाय द्वारा सामूहिक आत्महत्या का वरण किया जाना।’’
आदर्शवादिता की बातें करना और व्यवहार में उन आदर्शों से ठीक विपरीत आचरण करना जितना निन्द्य और गर्हित है सम्भवतः उतना बुरा अनैतिक कर्मों में प्रवृत्त होना भी नहीं है। क्योंकि इस प्रकार का आचरण अनीति पूर्ण तो होता ही है, उनसे सिद्धान्तों की बातें कह कर उसे ढकने दबाने की एक और अनैतिकता स्वभाव में समाविष्ट हो जाती है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, ‘तुम आदर्शों की बात करो और उन्हें अपने व्यवहार में न उतारो तो तुमसे चोर, डाकू और लुटेरे अच्छे, कम से कम कथनी और करनी का अन्तर तो नहीं होता।’
दुर्भाग्य से इन दिनों ये प्रवंचना पूर्ण स्थिति बहुत सघनता के साथ पाई जाती है। उदाहरण के लिए दहेज को ही लिया जाए। प्रत्येक व्यक्ति दहेज प्रथा की बुराइयां गिनाते नहीं थकता और पानी पी-पीकर इस कुरीति को कोसता है। इस विषय पर किसी से भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा जाए वह इसका अन्त अनिवार्य रूपेण चाहता प्रतीत होता है। लेकिन अधिकांश व्यक्ति जब अवसर आता है तब मजबूरी के नाम पराये, घर के, अन्य किन्हीं सम्बन्धितों का दबाव बताकर अपने लिए बचाव का रास्ता खोज लेते हैं और दहेज के लिए मुंह फाड़ने लगते हैं। इस दोहरी रीति-नीति को जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी स्पष्टतया देखा जा सकता है। ईमानदारी, परिश्रम, लगन, दायित्वनिष्ठा, कर्तव्य परायणता, उदारता आदि गुणों या आदर्शों की हर कोई सराहना करता है तथा उनका पालन आवश्यक बताता है किन्तु जब बात उनके पालन पर आती है तो लोग बगलें झांकने लगते हैं।
आदर्शों के प्रति यह दोहरी और दोगली दृष्टि न हमारी संस्कृति का अंग रही है और न इस संस्कृति के प्रणेताओं में कहीं इस तरह का छद्म देखने में आया है। बल्कि इस तरह के हजारों उदाहरण हमारे सांस्कृतिक इतिहास में भरे पड़े हैं। जिनमें लोगों ने आदर्शवादिता को पराकाष्ठा के स्तर पर पालन किया। आदर्शों के लिए हमारे मनीषियों ने एक अनूठा शब्द खोजा है—जीवन मूल्य। आदर्शों को जीवन मूल्य कहा गया है—अर्थात् जीवन का मूल्य देकर भी जिन पर दृढ़ रहा जाना चाहिए। मनुष्य को सबसे बढ़कर जीवन ही प्रिय है। संसार की समस्त सम्पदाओं की तुलना में वह जीवन को ही प्रधानता देता है। मनीषियों ने जीवन के ऊपर भी आदर्शों को प्रधानता दी है। यह विस्मय विमुग्ध कर देने वाली बात है कि जिस जीवन की तुलना में सब कुछ तुच्छ है वह जीवन आदर्शों के लिए बलि चढ़ाना श्लाघनीय समझा गया है।
आदर्शों की यह पराकाष्ठा ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है। भारतीय संस्कृति के इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिन लोगों ने इन आदर्शों के लिए अपने जीवन को भी दांव-पर चढ़ा दिया उन्हें मनीषियों ने अवतार कह कर सम्बोधित किया एवं सराहा और पूजा है। पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए भगवान राम द्वारा राजमहल में उपलब्ध होने वाली सुविधाओं का त्याग कर जंगल में वनवासी बनकर रहने लगने का उदाहरण विख्यात है। लक्ष्मण ने अपने भाई के प्रति कर्तव्य-पालन के लिए तमाम सुख सुविधाओं को छोड़ दिया। भ्रातृ-प्रेम का इतना अनूठा उदाहरण संसार के किन्हीं अन्य देशों में मिलना दुर्लभ है। भरत द्वारा राज्य को धरोहर मानकर सम्हालने तथा स्वयं तापस वेश धारण कर जीवन व्यतीत करने का उदाहरण भी अपने ही जातीय इतिहास में मिलता है।
सत्य के लिए अपना सारा जीवन, राजपाट आदि सब सुख सुविधाएं छोड़कर श्मशान में बिक जाने का हरिश्चन्द्र जैसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। महारथी कर्ण और राजा बलि द्वारा दान धर्म की पराकाष्ठा को स्पर्श कर लेने का गौरव पूर्ण अध्याय भी अपने ही इतिहास में जुड़ा हुआ है। कर्ण जानते थे कि कवच-कुण्डल देने से वे मर सकते हैं, उनके लिए जीवन संकट उपस्थित हो सकता है, परन्तु इन्द्र जब उनके सामने याचक बनकर उपस्थित होते हैं, और इन्द्र ही क्यों कोई भी क्यों न हो? उनके लिए न करते नहीं बनता। कर्ण के पिता सूर्य जब इस षड्यन्त्र का पर्दाफाश करते हुए अपने पुत्र को सचेत करते और व्यावहारिक बनने का उपदेश देते हैं तो कर्ण यही कहते हैं कि मैं व्यावहारिकता का ही निर्वाह कर रहा हूं। थोड़ी चीज देकर अधिक प्राप्त करना लाभदायक सौदा ही कहा जायेगा। यह नश्वर शरीर तो एक न एक दिन नष्ट होना ही है। आज होता है या कल होता है इससे क्या अन्तर पड़ता है। मैं इसके बदले अमर कीर्ति प्राप्त कर रहा हूं तो इसमें घाटे की क्या बात है?
नियम और अनुशासन की मर्यादा तोड़ने पर राजा हंसध्वज ने अपने पुत्र को भी दण्डित करने से नहीं बख्शा। जब देश रक्षा के लिए हर युवक को युद्ध में जाने का निर्देश दिया और सभी युवा व्यक्ति रणा-गण में पहुंच गये तो उन्हें पता चला कि राजकुमार सुधन्वा इस अनुशासन मर्यादा का उल्लंघन कर अपनी नवविवाहित पत्नी के साथ प्रणय-लीला में उलझे हुए हैं। राजपुत्र होने के साथ-साथ सुधन्वा नव-विवाहित भी थे। हंसध्वज चाहते तो पुत्र को क्षमा कर सकते थे, परन्तु कर्तव्य सो कर्तव्य। नियम सो नियम। राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को जो दण्ड दिया जाना घोषित किया गया था, वही दण्ड उन्होंने अपने पुत्र को भी दिया। अनुशासन तोड़ने वालों के लिए गरम तेल में डाल देने का दण्ड निर्धारित था, सो सुधन्वा को भी यही दण्ड दिया गया।
शरणागत की रक्षा करना भारतीय धर्म और संस्कृति का गौरव रहा है और इस गौरव को इतिहास पुरुषों ने बड़े से बड़ा त्याग कर भी स्थापित किया है। राजा शिवि ने अपनी शरण में आये पक्षी की रक्षा के लिए उसका शिकार कर रहे बाज को अपनी जांघ का मांस खिला कर अद्भुत शरणागत वत्सलता के साथ-साथ उदार साहसिकता का भी परिचय दिया। मयूर ध्वज ने अपने पुत्र का मांस खिला कर अभ्यागत की इच्छा पूरी की। इस तरह के प्रसंगों में वैचित्र्य के साथ-साथ अस्वाभाविकता भी है, परन्तु जिन्होंने मृत्यु के आरपार देखा है उनके लिए इनमें कुछ भी विचित्र या अस्वाभाविक नहीं है। आदर्शों की पराकाष्ठा तक पहुंचने के लिए जो कुछ भी किया जाता है, वह व्यावहारिक है। जब जीवन क्षण भंगुर है और एक न एक दिन मर ही जाना है, शरीर को मिटना ही है तो क्यों न आदर्शों के लिए मरा जाय? नियतिगत या स्वाभाविक मृत्यु की अपेक्षा किसी सिद्धान्त के लिए, आदर्श के लिए मरना अधिक स्तुत्य है।
मृत्यु का रहस्य समझने वालों के लिए उत्सर्ग उसी प्रकार है जिस प्रकार सामान्य व्यक्ति लाखों रुपयों का पुरस्कार प्राप्त करने की आशा में एक दो रुपये का लाटरी टिकट खरीद लेता है। लाटरी के टिकट खरीदने पर लखपति बनने की सम्भावना तो फिर भी नगण्य-सी रहती है, किन्तु आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने वाला व्यक्ति अपने प्राप्तव्य के सम्बन्ध में शत प्रतिशत निश्चिन्त रह सकता है। जिन लोगों ने आदर्शों के लिए उत्सर्ग किया उनकी दृष्टि में यद्यपि मरने के बाद किसी प्रकार की श्रेय कामना नहीं रही, फिर भी उनके लिए श्रेय सुरक्षित है। श्रेय नहीं भी मिले तो भी किसी उद्देश्य के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाली बात से मिला आत्म सन्तोष कहीं नहीं जाता।
आदर्शों की यह पराकाष्ठा अपनी संस्कृति की धरोहर है। यदि इस पराकाष्ठा पर नहीं पहुंचा जा सके तो भी कम से कम कथनी और करनी में साम्य तो रखा ही जा सकता है। हम भी इसी ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की सन्तानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से तो बचा ही जाना चाहिए। इस छलना से बचकर ही अपनी संस्कृति के प्रति गौरव भाव जागृत और जीवन्त रखा जा सकता है।