
वेदान्त को अपने जीवन माध्यम से समझाने वाले—स्वामी रामतीर्थ
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घटना सन् 1901 की है। मथुरा में एक धर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन के आयोजक आचार्य शिवगण ने सभी धर्मों के प्रतिनिधि विद्वानों को आमन्त्रित किया पर सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया स्वामी रामतीर्थ को जिनका न कोई मठ था और न कोई आश्रम। तीसरे दिन की बात है। ईसाई धर्म के प्रतिनिधि फादर स्काट ने अपने धर्म का विवेचन करते हुए हिन्दू धर्म पर कुछ भौण्डे आक्षेप किए। श्रोता गणों में क्षोभ उत्पन्न हो गया, लोग शोर मचाने लगे, पर स्वामी जी ने सबको शांतिपूर्वक बैठे रहने का आग्रह किया।
फादर स्काट जब अपना भाषण समाप्त कर चुके तो स्वामी रामतीर्थ उठे और उन्होंने फादर स्काट के आक्षेपों का इतना नम्र—समाधान किया कि पादरी स्काट को बड़ी लज्जा अनुभव हुई और उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की तथा उपस्थित जनसमुदाय से क्षमा मांगी। यह प्रभाव स्वामी जी की वाणी से अधिक उनके व्यक्तित्व का था। अन्यथा सैकड़ों लोग हैं जो अपने वाक्चातुर्य से लोगों को हतप्रभ करते हैं पर उनकी वाणी का जरा भी असर नहीं पड़ता, स्वामीजी की स्वयं यह मान्यता रही है जितना तुम बोलते हो उससे ज्यादा तुम्हारा व्यक्तित्व सुना जाता है। और स्वामी जी ने वेदान्त को जो तब तक चर्चा और परिसम्वाद का विषय ही समझा जाता था अपने जीवन और आचरण में उतार कर निज के व्यक्तित्व को इतना तेजस्वी तथा प्रखर बन लिया था कि उसके आगे हर कोई नतमस्तक हो उठता था।
स्वामी रामतीर्थ का जन्म उत्तरी सीमा प्रान्त में स्थित गुजरांवाला जिले के मुरली वाला गांव में 22 अक्टूबर 1873 ई. को हुआ। उनके पिता का नाम हीरानन्द था और बालक का नाम रखा गया तीर्थ राम। तीर्थराम का जन्म होने के कुछ माह बाद ही उनकी मां का देहान्त हो गया। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही साधारण थी। अतः उनको उच्च शिक्षा नहीं दिला सके। जब तक ये गांव में रहे तब तक वहां के एक मौलवी से उर्दू पढ़ते रहे।
परिवार की आर्थिक स्थिति भले ही दयनीय हो पर हीरानन्द जी की आकांक्षा थी कि अपने पुत्र को पढ़ा लिखाकर योग्य बनायें इसीलिए उन्होंने नौ वर्ष की आयु में तीर्थराम को अपने एक मित्र धन्ना भगत की देख-रेख में शहर में रख दिया और हाईस्कूल में भर्ती करवा दिया। भगत धन्ना कसरती पहलवान थे और अविवाहित थे। साथ ही आध्यात्म में भी उनकी रुचि थी। तीर्थराम उनसे धर्म और अध्यात्म आदि विषयों पर चर्चा करते थे। धन्ना भगत के सान्निध्य का तीर्थराम पर बहुत प्रभाव पड़ा।
पन्द्रह वर्ष की आयु में तीर्थराम ने एण्ट्रेंस की परीक्षा पास की और पंजाब भर में प्रथम आये। इस सफलता ने प्रतिभा को प्रमाणित किया और परीक्षा बोर्ड ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्ति दी। लेकिन हीरानन्द जी तीर्थराम को और अधिक पढ़ाना नहीं चाहते थे। तीर्थराम ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध आगे पढ़ाई जारी रखने का निश्चय किया और कॉलेज में भर्ती हो गए। कॉलेज की पढ़ाई के लिए स्कूली खर्चा और भोजन वस्त्र के व्यय का प्रबन्ध तो आवश्यक था वह कहां से पूरा हो। तीर्थ राम ने इसका सहज रास्ता निकाल लिया। उन्होंने छात्रवृत्ति से तो स्कूल की फीस और पुस्तक आदि का खर्च चलाने का निश्चय किया तथा भोजन वस्त्र के लिए ट्यूशन द्वारा खर्च चलाने का रास्ता निकाल लिया। अपनी मर्जी के खिलाफ कॉलेज में भर्ती होने के कारण हीरानन्दजी ने तो उन्हें कोई भी किसी भी तरह की मदद न करने की ठान ली थी। पर तीर्थराम जी की आवश्यकतायें थी ही कितनी जिन्हें पूरा करने के लिए ज्यादा परिश्रम करना पड़े। और वे अपना काम बड़ी मितव्ययिता तथा सादगी से चलाते रहे। उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को इस स्तर का रखा जो आसानी से पूरी हो सकती थी। कदाचित कभी कोई कमी पड़ती भी तो वे उसे बड़ी सूझ बूझ के साथ निभा लेते थे। इस तरह की कई घटनाओं का उल्लेख उनके जीवनी लेखकों ने किया है जिनसे विदित होता है कि घोर अभाव के दिनों में भी वे अपने आपको किस प्रकार परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लेते थे। उनकी आमदनी औसतन तीन पैसे रोज थी और उसी में वे सन्तोष पूर्वक गुजारा कर लेते थे। लाहौर जैसे शहर में तीन पैसे रोज पर गुजारा करना बड़ा ही कष्ट साध्य था। वे सुबह के वक्त एक दुकान पर दो पैसे की रोटी खरीद लेते। दाल मुफ्त मिलती थी। उसी से काम चल जाता था। कुछ दिन तो इसी तरह बीत गये पर बाद में दुकानदार ने अपना नियम बदल दिया और तीर्थराम से कह दिया कि दाल मुफ्त नहीं मिल सकती। इस पर विवश होकर तीर्थराम ने शाम का खाना बन्द कर दिया और सुबह एक वक्त ही भोजन करने लगे। उनके पास कड़ाके की सर्दी में भी पहनने के लिए कोट नहीं था न ही पतलून और न नेकटाई ही थी। पहनने के लिए केवल खद्दर की एक कमीज और एक पायजामा भर था।
पैरों में साधारण से देशी जूते थे। एक बार वे किसी दुकान से कुछ सामान खरीद रहे थे। सामान खरीद कर दुकान से उतर ही रहे थे कि पांवों से एक जूता खिसक गया और नाली में गिर पड़ा। नाली गहरी थी और उसमें काफी पानी था सो जूता उसमें डूबकर बह गया। निर्द्वन्द्व भाव से तीर्थराम एक जूता हाथ में लिये घर आये और उन्होंने बेमेल का दूसरा जूता दूसरे पांव में डालकर काफी दिनों तक काम चलाया। इस हालत में देखकर तीर्थराम के कई सहपाठी उनकी हंसी उड़ाते थे पर तीर्थराम को इसकी कोई परवाह नहीं थी। बाद में जब उनके पास पैसे आ गये तो उन्होंने नये जूते खरीदे।
इस प्रकार तपोमय जीवन व्यतीत करते हुए ही तीर्थराम बड़ी लगन के साथ पढ़ते रहे। सभी वर्ग की परीक्षाओं में व सदा प्रथम ही आते रहे पर अपनी योग्यता का लाभ अपने लिए उठाने की उनमें जरा भी भावना नहीं थी। जब वे एम.ए. की परीक्षा का फार्म भर रहे थे तो कॉलेज के अंग्रेज प्रिन्सिपल ने उनकी सच्ची लगन और योग्यता, प्रतिभा से प्रभावित होकर एक दिन तीर्थराम से कहा—‘क्या मैं आपका नाम आई.सी.एस. (इण्डियन सिविल सर्विस) की परीक्षा के लिए भेज दूं।’
तीर्थराम कुछ समय तक विचार मग्न रहे। उनकी आंखों में आंसू भर आये और डबडबाती आंखों से ही बोले—मैंने इतनी मेहनत से ज्ञान का जो खजाना पाया है उसे धनवान बनने के लिए खर्च नहीं करना चाहता। उच्च पदों पर आसीन हर कर मैं अपनी इस प्रतिभा का क्या उपयोग करूंगा? मैंने तो यह ज्ञान इसलिए कमाया है कि इस दौलत को बांट कर अपने आपको तथा अन्य औरों को सुखी बनाऊं’’।
‘तो एम.ए. पास करने के बाद क्या करोगे—तीर्थराम से पूछा प्रिन्सिपल ने। वे अपने इस होनहार शिष्य के इन विचारों को सुनकर न केवल आश्चर्य चकित रह गये थे वरन् बेहद प्रभावित भी हुए थे।
प्रिन्सिपल का यह प्रश्न सुनकर तीर्थराम ने कहा—यदि कोई विचार है तो यही कि अपना सारा जीवन और हर एक सांस प्रभु की सेवा में लगा दूं तथा मानव मात्र की सेवा करता रहूं।’
स्वामी रामतीर्थ के अन्तःकरण में सच्चा सेवा भाव था और जन सेवा की उत्कट लगन थी। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने तप साधना तथा कठोर व्रतों को निभाना आरम्भ कर दिया था। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कॉलेज में अध्यापन कार्य अपनाया। साथ ही उन्होंने सार्वजनिक जीवन में भाग लेना भी आरम्भ कर दिया। सन् 1897 में लाहौर में कांग्रेस अधिवेशन हुआ। तीर्थराम जी भी उसमें शामिल हुए और उन्होंने बड़े-बड़े नेताओं के भाषण सुने पर उन्होंने अनुभव किया कि भाषणों से देश का कोई उद्धार नहीं हो सकता। इन्हीं दिनों भारत के सामाजिक और धार्मिक क्षितिज पर स्वामी विवेकानन्द का अवतरण हुआ। तीर्थरामजी स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व तथा कृतित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनके सम्पर्क में आकर उन्होंने भी अध्यात्म के प्रयोगों को ही अपना लक्ष्य बना लिया।
एक दिन वे अपने साथ बिना कोई सामान लिये घर से निकले और उत्तराखण्ड के जंगलों में चल पड़े। काफी दिनों तक उन्होंने उत्तराखण्ड के वन प्रान्तों का भ्रमण किया। वहां की जलवायु का उन पर विपरीत प्रभाव हुआ। इस भ्रमण के दौरान ही उनका नारायण स्वामी से साक्षात्कार हुआ। नारायण स्वामी ने अपने युग के इस विभूतिवान व्यक्तित्व को पहचाना और शिष्य भाव से स्वामी तीर्थराम की सेवा सुश्रूषा करने लगे। इन्हीं नारायण स्वामी ने स्वामी रामतीर्थ के देहान्त के बाद उनके विचारों के व्यापक प्रचार प्रसार का कार्य सम्हाला तथा उनके प्रयासों से ही देश भर में स्वामी राम तीर्थ के भाषण और उपदेश विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो सके थे।
1901 में मथुरा में धर्म सम्मेलन हुआ। स्वामी राम इस धर्म सम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये। उन्होंने जिस कुशलता से सम्मेलन का संचालन किया है प्रस्तुत लेख के प्रारम्भ की पंक्तियों में बताया जा चुका है। धर्म सम्मेलन सम्पन्न हो चुकने के बाद उन्होंने मथुरा में कुछ समय तक एकान्तवास किया और अप्रैल 1902 में टेहरी चले गये। टेहरी नरेश को जब उनके आगमन का समाचार मिला तो उन्होंने स्वयं स्वामी रामतीर्थ से भेंट की और उनके लिए गंगा किनारे एक कुटी बनवा दी।
उन्हीं दिनों समाचार पत्रों में जापान की राजधानी टोकियो में एक विश्व–धर्म सम्मेलन होने की सूचना छपी। सूचना में आयोजित सम्मेलन को उसी स्तर का बताया गया था जैसा कि 1893 में अमेरिका में हुआ था और स्वामी विवेकानन्द ने उसमें हिन्दू धर्म की विजय दुन्दुभि बजायी थी। टेहरी नरेश ने इस सम्मेलन में स्वामी राम को भेजने का निश्चय किया और उनसे इस तरह का आग्रह भी किया। स्वामी राम तुरन्त इस आग्रह को मान गये और आवश्यक तैयारियों के बाद जापान को प्रस्थान किया। वे जापान के लिए जहाज से रवाना हुए रास्ते में जहाज जहां कहीं भी रुका लोगों ने स्वामी जी का हार्दिक स्वागत किया।
जापान में स्वामीजी लगभग दो सप्ताह ठहरे। उनके भाषणों को वहां हर किसी ने पसन्द किया। एक बार किसी जापानी ने स्वामी जी से पूछा कि आपने स्त्री बच्चों को क्यों छोड़ा तो उन्होंने उत्तर दिया कि अपने छोटे से परिवार को एक बहुत बड़ा और विशाल परिवार बनाने के लिए। इसी तरह उन्होंने अपने कृत्यों द्वारा भी जापानियों को बहुत कुछ सिखाया। जिस सर्वधर्म सम्मेलन की बात सुनकर स्वामीजी जापान गये थे वह गलत निकली। इसकी पुष्टि हो जाने के बाद भी स्वामी जी स्वदेश वापस आने को उत्सुक नहीं हुए और अपना प्रचार अभियान चलाते रहे।
जापान में प्रचार कार्य सम्पन्न कर वे अमेरिका रवाना हुए और वहां लगभग दो वर्ष तक रहे। अमेरिका में उनके सैकड़ों व्याख्यान हुए। कई व्यक्ति उनसे प्रेरणा प्राप्त कर उनके मार्ग दर्शन में आत्मविकास की साधना में संलग्न हुए। उनके अमरीकी शिष्यों ने ही उनके व्याख्यानों के नोट्स लिये। स्वामी नारायण भी उनके साथ ही रहते थे और वे भी प्रस्तुत कार्य में आवश्यक सहयोग दिया करते थे।
अमेरिका से वापस भारत लौटते समय स्वामी जी कुछ समय यूरोप के अन्य देशों तथा मिश्र में रुके। मिश्र में इस्लाम धर्म के अनुयायियों ने भी उनके व्याख्यानों को बड़े ध्यान पूर्वक सुना और अनुभव किया कि इस्लाम धर्म के मूल सिद्धान्तों की इतनी सुन्दर व्याख्या कोई व्यक्ति आजीवन अध्ययन करता रहकर भी शायद ही कर सके।
भारत आने के बाद उन्होंने कुछ समय तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और लोगों को व्यवहारिक वेदान्त की शिक्षा दी। बाद में उत्तराखण्ड चले गये और वहीं उन्होंने अपना स्थायी निवास बना लिया। सन् 1906 की दीपावली थी। उन दिनों उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें मौत का आह्वान किया गया था। उससे कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने अपने शिष्य नारायण स्वामी से कहा था कि—‘राम की तबियत अब संसार से ऊब गयी है। अतः वह शीघ्र ही इस संसार को त्यागने वाला है और दीपावली को ही उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
फादर स्काट जब अपना भाषण समाप्त कर चुके तो स्वामी रामतीर्थ उठे और उन्होंने फादर स्काट के आक्षेपों का इतना नम्र—समाधान किया कि पादरी स्काट को बड़ी लज्जा अनुभव हुई और उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की तथा उपस्थित जनसमुदाय से क्षमा मांगी। यह प्रभाव स्वामी जी की वाणी से अधिक उनके व्यक्तित्व का था। अन्यथा सैकड़ों लोग हैं जो अपने वाक्चातुर्य से लोगों को हतप्रभ करते हैं पर उनकी वाणी का जरा भी असर नहीं पड़ता, स्वामीजी की स्वयं यह मान्यता रही है जितना तुम बोलते हो उससे ज्यादा तुम्हारा व्यक्तित्व सुना जाता है। और स्वामी जी ने वेदान्त को जो तब तक चर्चा और परिसम्वाद का विषय ही समझा जाता था अपने जीवन और आचरण में उतार कर निज के व्यक्तित्व को इतना तेजस्वी तथा प्रखर बन लिया था कि उसके आगे हर कोई नतमस्तक हो उठता था।
स्वामी रामतीर्थ का जन्म उत्तरी सीमा प्रान्त में स्थित गुजरांवाला जिले के मुरली वाला गांव में 22 अक्टूबर 1873 ई. को हुआ। उनके पिता का नाम हीरानन्द था और बालक का नाम रखा गया तीर्थ राम। तीर्थराम का जन्म होने के कुछ माह बाद ही उनकी मां का देहान्त हो गया। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही साधारण थी। अतः उनको उच्च शिक्षा नहीं दिला सके। जब तक ये गांव में रहे तब तक वहां के एक मौलवी से उर्दू पढ़ते रहे।
परिवार की आर्थिक स्थिति भले ही दयनीय हो पर हीरानन्द जी की आकांक्षा थी कि अपने पुत्र को पढ़ा लिखाकर योग्य बनायें इसीलिए उन्होंने नौ वर्ष की आयु में तीर्थराम को अपने एक मित्र धन्ना भगत की देख-रेख में शहर में रख दिया और हाईस्कूल में भर्ती करवा दिया। भगत धन्ना कसरती पहलवान थे और अविवाहित थे। साथ ही आध्यात्म में भी उनकी रुचि थी। तीर्थराम उनसे धर्म और अध्यात्म आदि विषयों पर चर्चा करते थे। धन्ना भगत के सान्निध्य का तीर्थराम पर बहुत प्रभाव पड़ा।
पन्द्रह वर्ष की आयु में तीर्थराम ने एण्ट्रेंस की परीक्षा पास की और पंजाब भर में प्रथम आये। इस सफलता ने प्रतिभा को प्रमाणित किया और परीक्षा बोर्ड ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्ति दी। लेकिन हीरानन्द जी तीर्थराम को और अधिक पढ़ाना नहीं चाहते थे। तीर्थराम ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध आगे पढ़ाई जारी रखने का निश्चय किया और कॉलेज में भर्ती हो गए। कॉलेज की पढ़ाई के लिए स्कूली खर्चा और भोजन वस्त्र के व्यय का प्रबन्ध तो आवश्यक था वह कहां से पूरा हो। तीर्थ राम ने इसका सहज रास्ता निकाल लिया। उन्होंने छात्रवृत्ति से तो स्कूल की फीस और पुस्तक आदि का खर्च चलाने का निश्चय किया तथा भोजन वस्त्र के लिए ट्यूशन द्वारा खर्च चलाने का रास्ता निकाल लिया। अपनी मर्जी के खिलाफ कॉलेज में भर्ती होने के कारण हीरानन्दजी ने तो उन्हें कोई भी किसी भी तरह की मदद न करने की ठान ली थी। पर तीर्थराम जी की आवश्यकतायें थी ही कितनी जिन्हें पूरा करने के लिए ज्यादा परिश्रम करना पड़े। और वे अपना काम बड़ी मितव्ययिता तथा सादगी से चलाते रहे। उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को इस स्तर का रखा जो आसानी से पूरी हो सकती थी। कदाचित कभी कोई कमी पड़ती भी तो वे उसे बड़ी सूझ बूझ के साथ निभा लेते थे। इस तरह की कई घटनाओं का उल्लेख उनके जीवनी लेखकों ने किया है जिनसे विदित होता है कि घोर अभाव के दिनों में भी वे अपने आपको किस प्रकार परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लेते थे। उनकी आमदनी औसतन तीन पैसे रोज थी और उसी में वे सन्तोष पूर्वक गुजारा कर लेते थे। लाहौर जैसे शहर में तीन पैसे रोज पर गुजारा करना बड़ा ही कष्ट साध्य था। वे सुबह के वक्त एक दुकान पर दो पैसे की रोटी खरीद लेते। दाल मुफ्त मिलती थी। उसी से काम चल जाता था। कुछ दिन तो इसी तरह बीत गये पर बाद में दुकानदार ने अपना नियम बदल दिया और तीर्थराम से कह दिया कि दाल मुफ्त नहीं मिल सकती। इस पर विवश होकर तीर्थराम ने शाम का खाना बन्द कर दिया और सुबह एक वक्त ही भोजन करने लगे। उनके पास कड़ाके की सर्दी में भी पहनने के लिए कोट नहीं था न ही पतलून और न नेकटाई ही थी। पहनने के लिए केवल खद्दर की एक कमीज और एक पायजामा भर था।
पैरों में साधारण से देशी जूते थे। एक बार वे किसी दुकान से कुछ सामान खरीद रहे थे। सामान खरीद कर दुकान से उतर ही रहे थे कि पांवों से एक जूता खिसक गया और नाली में गिर पड़ा। नाली गहरी थी और उसमें काफी पानी था सो जूता उसमें डूबकर बह गया। निर्द्वन्द्व भाव से तीर्थराम एक जूता हाथ में लिये घर आये और उन्होंने बेमेल का दूसरा जूता दूसरे पांव में डालकर काफी दिनों तक काम चलाया। इस हालत में देखकर तीर्थराम के कई सहपाठी उनकी हंसी उड़ाते थे पर तीर्थराम को इसकी कोई परवाह नहीं थी। बाद में जब उनके पास पैसे आ गये तो उन्होंने नये जूते खरीदे।
इस प्रकार तपोमय जीवन व्यतीत करते हुए ही तीर्थराम बड़ी लगन के साथ पढ़ते रहे। सभी वर्ग की परीक्षाओं में व सदा प्रथम ही आते रहे पर अपनी योग्यता का लाभ अपने लिए उठाने की उनमें जरा भी भावना नहीं थी। जब वे एम.ए. की परीक्षा का फार्म भर रहे थे तो कॉलेज के अंग्रेज प्रिन्सिपल ने उनकी सच्ची लगन और योग्यता, प्रतिभा से प्रभावित होकर एक दिन तीर्थराम से कहा—‘क्या मैं आपका नाम आई.सी.एस. (इण्डियन सिविल सर्विस) की परीक्षा के लिए भेज दूं।’
तीर्थराम कुछ समय तक विचार मग्न रहे। उनकी आंखों में आंसू भर आये और डबडबाती आंखों से ही बोले—मैंने इतनी मेहनत से ज्ञान का जो खजाना पाया है उसे धनवान बनने के लिए खर्च नहीं करना चाहता। उच्च पदों पर आसीन हर कर मैं अपनी इस प्रतिभा का क्या उपयोग करूंगा? मैंने तो यह ज्ञान इसलिए कमाया है कि इस दौलत को बांट कर अपने आपको तथा अन्य औरों को सुखी बनाऊं’’।
‘तो एम.ए. पास करने के बाद क्या करोगे—तीर्थराम से पूछा प्रिन्सिपल ने। वे अपने इस होनहार शिष्य के इन विचारों को सुनकर न केवल आश्चर्य चकित रह गये थे वरन् बेहद प्रभावित भी हुए थे।
प्रिन्सिपल का यह प्रश्न सुनकर तीर्थराम ने कहा—यदि कोई विचार है तो यही कि अपना सारा जीवन और हर एक सांस प्रभु की सेवा में लगा दूं तथा मानव मात्र की सेवा करता रहूं।’
स्वामी रामतीर्थ के अन्तःकरण में सच्चा सेवा भाव था और जन सेवा की उत्कट लगन थी। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने तप साधना तथा कठोर व्रतों को निभाना आरम्भ कर दिया था। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कॉलेज में अध्यापन कार्य अपनाया। साथ ही उन्होंने सार्वजनिक जीवन में भाग लेना भी आरम्भ कर दिया। सन् 1897 में लाहौर में कांग्रेस अधिवेशन हुआ। तीर्थराम जी भी उसमें शामिल हुए और उन्होंने बड़े-बड़े नेताओं के भाषण सुने पर उन्होंने अनुभव किया कि भाषणों से देश का कोई उद्धार नहीं हो सकता। इन्हीं दिनों भारत के सामाजिक और धार्मिक क्षितिज पर स्वामी विवेकानन्द का अवतरण हुआ। तीर्थरामजी स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व तथा कृतित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनके सम्पर्क में आकर उन्होंने भी अध्यात्म के प्रयोगों को ही अपना लक्ष्य बना लिया।
एक दिन वे अपने साथ बिना कोई सामान लिये घर से निकले और उत्तराखण्ड के जंगलों में चल पड़े। काफी दिनों तक उन्होंने उत्तराखण्ड के वन प्रान्तों का भ्रमण किया। वहां की जलवायु का उन पर विपरीत प्रभाव हुआ। इस भ्रमण के दौरान ही उनका नारायण स्वामी से साक्षात्कार हुआ। नारायण स्वामी ने अपने युग के इस विभूतिवान व्यक्तित्व को पहचाना और शिष्य भाव से स्वामी तीर्थराम की सेवा सुश्रूषा करने लगे। इन्हीं नारायण स्वामी ने स्वामी रामतीर्थ के देहान्त के बाद उनके विचारों के व्यापक प्रचार प्रसार का कार्य सम्हाला तथा उनके प्रयासों से ही देश भर में स्वामी राम तीर्थ के भाषण और उपदेश विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो सके थे।
1901 में मथुरा में धर्म सम्मेलन हुआ। स्वामी राम इस धर्म सम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये। उन्होंने जिस कुशलता से सम्मेलन का संचालन किया है प्रस्तुत लेख के प्रारम्भ की पंक्तियों में बताया जा चुका है। धर्म सम्मेलन सम्पन्न हो चुकने के बाद उन्होंने मथुरा में कुछ समय तक एकान्तवास किया और अप्रैल 1902 में टेहरी चले गये। टेहरी नरेश को जब उनके आगमन का समाचार मिला तो उन्होंने स्वयं स्वामी रामतीर्थ से भेंट की और उनके लिए गंगा किनारे एक कुटी बनवा दी।
उन्हीं दिनों समाचार पत्रों में जापान की राजधानी टोकियो में एक विश्व–धर्म सम्मेलन होने की सूचना छपी। सूचना में आयोजित सम्मेलन को उसी स्तर का बताया गया था जैसा कि 1893 में अमेरिका में हुआ था और स्वामी विवेकानन्द ने उसमें हिन्दू धर्म की विजय दुन्दुभि बजायी थी। टेहरी नरेश ने इस सम्मेलन में स्वामी राम को भेजने का निश्चय किया और उनसे इस तरह का आग्रह भी किया। स्वामी राम तुरन्त इस आग्रह को मान गये और आवश्यक तैयारियों के बाद जापान को प्रस्थान किया। वे जापान के लिए जहाज से रवाना हुए रास्ते में जहाज जहां कहीं भी रुका लोगों ने स्वामी जी का हार्दिक स्वागत किया।
जापान में स्वामीजी लगभग दो सप्ताह ठहरे। उनके भाषणों को वहां हर किसी ने पसन्द किया। एक बार किसी जापानी ने स्वामी जी से पूछा कि आपने स्त्री बच्चों को क्यों छोड़ा तो उन्होंने उत्तर दिया कि अपने छोटे से परिवार को एक बहुत बड़ा और विशाल परिवार बनाने के लिए। इसी तरह उन्होंने अपने कृत्यों द्वारा भी जापानियों को बहुत कुछ सिखाया। जिस सर्वधर्म सम्मेलन की बात सुनकर स्वामीजी जापान गये थे वह गलत निकली। इसकी पुष्टि हो जाने के बाद भी स्वामी जी स्वदेश वापस आने को उत्सुक नहीं हुए और अपना प्रचार अभियान चलाते रहे।
जापान में प्रचार कार्य सम्पन्न कर वे अमेरिका रवाना हुए और वहां लगभग दो वर्ष तक रहे। अमेरिका में उनके सैकड़ों व्याख्यान हुए। कई व्यक्ति उनसे प्रेरणा प्राप्त कर उनके मार्ग दर्शन में आत्मविकास की साधना में संलग्न हुए। उनके अमरीकी शिष्यों ने ही उनके व्याख्यानों के नोट्स लिये। स्वामी नारायण भी उनके साथ ही रहते थे और वे भी प्रस्तुत कार्य में आवश्यक सहयोग दिया करते थे।
अमेरिका से वापस भारत लौटते समय स्वामी जी कुछ समय यूरोप के अन्य देशों तथा मिश्र में रुके। मिश्र में इस्लाम धर्म के अनुयायियों ने भी उनके व्याख्यानों को बड़े ध्यान पूर्वक सुना और अनुभव किया कि इस्लाम धर्म के मूल सिद्धान्तों की इतनी सुन्दर व्याख्या कोई व्यक्ति आजीवन अध्ययन करता रहकर भी शायद ही कर सके।
भारत आने के बाद उन्होंने कुछ समय तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और लोगों को व्यवहारिक वेदान्त की शिक्षा दी। बाद में उत्तराखण्ड चले गये और वहीं उन्होंने अपना स्थायी निवास बना लिया। सन् 1906 की दीपावली थी। उन दिनों उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें मौत का आह्वान किया गया था। उससे कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने अपने शिष्य नारायण स्वामी से कहा था कि—‘राम की तबियत अब संसार से ऊब गयी है। अतः वह शीघ्र ही इस संसार को त्यागने वाला है और दीपावली को ही उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।